Author : Younes Ouaqasse

Published on Sep 13, 2023 Updated 0 Hours ago
केंद्रीय बैंक और महंगाई दर: इधर नज़र हटी,उधर दुर्घटना घटी!

पिछले कुछ अर्से से दुनिया भर में केंद्रीय बैंकों को महंगाई दर यानी मुद्रास्फीति पर नियंत्रण  रख पाने के चलते आलोचनाएं झेलनी पड़ रही हैं. उनकी मौजूदा दयनीय स्थिति काफ़ी हद तक उनके अपने कारनामों का नतीजा हैदरअसलमार्च 2020 में कोविड-19 के वैश्विक महामारी घोषित होने के बाद तमाम केंद्रीय बैंकों ने अतिरिक्त रूप से ढीली मौद्रिक नीति का रास्ता अपनायाफिरजब साल 2021 के मध्य में महंगाई दर ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कियातो उन्होंने इसकी अनदेखी कर दीअनेक केंद्रीय बैंकों ने इस मोर्चे पर कार्रवाई करने में काफ़ी लंबा इंतज़ार कियानतीजतनजब उन्होंने ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी करनी शुरू कीतब तक काफ़ी देर हो चुकी थी और मुद्रास्फीति से जुड़ी आशंकाएं मज़बूती से जड़ें जमा चुकी थीं.

दरअसल, मार्च 2020 में कोविड-19 के वैश्विक महामारी घोषित होने के बाद तमाम केंद्रीय बैंकों ने अतिरिक्त रूप से ढीली मौद्रिक नीति का रास्ता अपनाया. फिर, जब साल 2021 के मध्य में महंगाई दर ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू किया, तो उन्होंने इसकी अनदेखी कर दी.

 

1970 के दशक के दौरान पश्चिम के विकसित देशों में केंद्रीय बैंकों द्वारा महंगाई दर को लक्षित कर किए जाने वाले अनिवार्य उपायों को प्रमुखता मिलीउस कालखंड में ज़बरदस्त रूप से ऊंची और बेरोकटोक जारी मुद्रास्फीति ने उन क्षेत्रों की सरकारों को केंद्रीय बैंकों द्वारा मूल्य स्थिरता को प्राथमिकता देने की क़वायदों की अहमियत पहचानने के लिए प्रेरित किया. साथ ही इन उद्देश्य को प्रभावी ढंग से पूरा करने के लिए केंद्रीय बैंक जैसी संस्थानों द्वारा स्वतंत्र रूप से काम किए जाने की ज़रूरत भी महसूस की गईये भी स्वीकार किया गया कि केंद्रीय बैंकों को राजनीतिक रूप से निर्वाचित सरकारों के प्रभाव से एक निश्चित दूरी बनाकर रखनी होगी. उस कालखंड में इस दृष्टिकोण का पालन किया गया और आख़िरकार ये क़वायद कामयाब साबित हुई. 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से पहले के दो दशकों में पश्चिमी देशों में मुद्रास्फीति की दर औसतन लगभग प्रतिशत थीये 1970 के दशक की 7-8 प्रतिशत महंगाई दर के मुक़ाबले भारी कमी का सूचक थी

अतीत मेंअनेक उभरती अर्थव्यवस्थाओं में केंद्रीय बैंकों को अक्सर उनकी सरकारों के विस्तार के रूप में देखा जाता थाइन बैंकों का प्राथमिक ध्यानमुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की बजाए सरकारी नीतियों का समर्थन करने पर होता था. हालांकि समय के साथये क्षेत्राधिकारमूल्य स्थिरता की अहमियत और केंद्रीय बैंकों को राजनीतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र रखने की आवश्यकताओं को समझने लगे हैं. नतीजतनकई उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने अपने केंद्रीय बैंकों के लिए मुद्रास्फीति को लक्षित कर कार्य करने के तौरतरीक़ों को मौद्रिक नीति ढांचे के रूप में अपनाया है.

फिर2008 का वैश्विक वित्तीय संकट आयाजो सरकारों और केंद्रीय बैंकों के लिए एक टर्निंग प्वाइंट साबित हुआइस संकट के लिए कई कारक ज़िम्मेदार थेजिनमें अमेरिका के वित्तीय क्षेत्र में विनियामक गतिविधियों की विफलताएं शामिल हैंये संकटप्राथमिकताओं और चुनौतियों का एक नया समूह लेकर आयाइस कड़ी में कुछ अहम और नाज़ुक मसले सतह पर  गएइनमें वित्तीय स्थिरताप्रणालीगत जोख़िम और “विफल होने के लिहाज़ से बहुत बड़ी कंपनियों” को बचाने के लिए हस्तक्षेप की आवश्यकता शामिल हैं

“वित्तीय स्थिरता” एक ऐसा शब्द है, जिसका अक्सर प्रयोग किया जाता है. हालांकि इसकी कोई इकलौती और सार्वभौमिक रूप से सहमति भरी परिभाषा नहीं है.

वित्तीय स्थिरता” एक ऐसा शब्द हैजिसका अक्सर प्रयोग किया जाता हैहालांकि इसकी कोई इकलौती और सार्वभौमिक रूप से सहमति भरी परिभाषा नहीं है. बहरहाल, वित्तीय स्थिरता बनाए रखने और प्रणालीगत जोख़िम को कम करने के लिए ये ज़रूरी है कि सरकारेंकेंद्रीय बैंक और अन्य संस्थान समन्वित रूप से क़दम उठाएंइस तालमेल का एक अनपेक्षित परिणाम ये हुआ कि केंद्रीय बैंकसरकारों की शाखाओं की तरह व्यवहार करने लगेइससे सरकारों और केंद्रीय बैंकों की भूमिकाओं के बीच की रेखाएं धुंधली पड़ने लगीं.

वक़्त के साथसाथ केंद्रीय बैंकों की भूमिकाएं मद्धिम पड़ गई हैंअब उनसे आर्थिक और वित्तीय चुनौतियों की एक विस्तृत श्रृंखला का निपटारा करने की उम्मीद की जाती हैइनमें असमानता से निपटनागाहेबगाहे वित्तीय बाज़ारों में हस्तक्षेप करना (जैसा फेड रिज़र्व के पूर्व अध्यक्ष ग्रीनस्पैन ने बताया है), वाणिज्यिक परिचालनों से जुड़ना और सरकारों के लिए दूसरे छोटेमोटे काम करनाशामिल हैअनेक न्यायक्षेत्रों में केंद्रीय बैंकइन अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों को स्वीकार करने के लिहाज़ से ज़रूरत से ज़्यादा इच्छुक रहे हैं

कोविड19 और केंद्रीय बैंकों की भूमिका 

कोविड19 संकटसार्वजनिक स्वास्थ्य के मोर्चे पर पैदा आपात परिस्थितियों के चलते खड़ा हुआइसका वास्तविक अर्थव्यवस्था पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ाजबकि 2008 के वित्तीय संकट के पीछे वित्तीय क्षेत्र में सामने आई विफलता प्रमुख वजह थीनतीजतनदोनों संकटों के लिए अलगअलग नीतिगत प्रतिक्रियाओं की दरकार थी. भले ही 2008 में वित्तीय क्षेत्र के संकट से निपटने के लिए मौद्रिक प्रोत्साहन ज़्यादा प्रासंगिक थेलेकिन कोविड-19 संकट के दौरान ऐसी क़वायदों की अपनी सीमाएं थीं

बहरहालकोविड-19 संकट से निपटने के लिए केंद्रीय बैंकों ने मोटे तौर पर उसी दृष्टिकोण का पालन कियाजैसा उन्होंने 2008 के वित्तीय संकट के दौरान किया था. ये दृष्टिकोण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए ब्याज़ दरों का उपयोग करने पर केंद्रित था. ब्याज़ दरेंकेंद्रीय बैंकों के लिए एक मोटे औज़ार के तौर पर काम करती हैंऐसा लगता है कि कोविड-19 महामारी के बीच केंद्रीय बैंकों ने मौद्रिक नीति के ज़रिए जिन तमाम उद्देश्यों को पूरा करने का लक्ष्य रखाउन्हें समुचित रूप से उन देशों की संबंधित सरकारों को सौंपा जाना चाहिए थामौद्रिक नीतिकिसी भी सूरत में राजकोषीय नीति का स्थान नहीं ले सकतीमहामारी के माहौल में केंद्रीय बैंकों ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की अपनी प्राथमिक भूमिका का त्याग कर दियाये वो ज़िम्मेदारी है जिसे केंद्रीय बैंकों को सरकारों से दूरी बनाकर स्वतंत्र रूप से पूरा करना होता हैबहरहालएक तरह से इस पूरी क़वायद का मतलब हुआ 1970 के दशक में हासिल सबक़ों को भुला देना.

केंद्रीय बैंकों ने 2021 के मध्य से काफी समय महंगाई दर की समस्या से निपटने में बर्बाद किया.

केंद्रीय बैंकों ने 2021 के मध्य से काफी समय महंगाई दर की समस्या से निपटने में बर्बाद किया. शुरुआत मेंउनमें से अधिकांश का विचार था कि मुद्रास्फीति की प्रवृति अस्थायी थीजिसके लिए किसी नियामक हस्तक्षेप की दरकार नहीं थी. बाद में उन्होंने तर्क दिया कि मुद्रास्फीतिआपूर्ति पक्ष में रुकावटों के चलते थीलिहाज़ा मौद्रिक नीति इसके निपटारे के लिए सही औज़ार नहीं हैइस दौरान क्या केंद्रीय बैंक अपनी मान्यताओं और विचारों के अनुसार कार्य कर रहे थे या वो अपनी सरकारों द्वारा निर्देशित थेइसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.

सेंट्रल बैंकों के कामकाज और तौरतरीक़ों में सुधार 

लगातार तेज़ होती आलोचनाओं के चलतेऔर फरवरी 2022 में रूसयूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बादकेंद्रीय बैंक अचानक अपनी नींद से जागे. इसके बाद उन्होंने ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी करने का एक आक्रामक चक्र (cycleअपनायाहालांकि ये क़वायद अपनी विश्वसनीयता को भुनाने की हताश कोशिश थी. जनवरी 2022 की शुरुआत से लेकर अब तक अमेरिकी फेडरल रिज़र्वब्याज़ दरों में 5 प्रतिशत से ज़्यादा की बढ़ोतरी कर चुका हैइतने छोटे कालखंड में अमेरिका में ब्याज़ दरों में इतनी तेज़ बढ़ोतरी अभूतपूर्व है (शायद 1980 के दशक की शुरुआत इसका अपवाद है).

हिंदुस्तान में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने मई 2022 से रेपो रेट बढ़ाने की प्रक्रिया शुरू की. फरवरी 2023 तक दरों में 2.5 प्रतिशत की वृद्धि की जा चुकी थीऔर तब से ये उसी स्तर पर बरक़रार हैहालांकि इसमें कोई शक़ नहीं है कि भारत और पश्चिमी देशों की स्थिति में कुछ असमानताएं हैं.

पश्चिमी दुनिया में केंद्रीय बैंकों का लक्ष्य उन न्यायक्षेत्रों में महंगाई दर को प्रतिशत पर टिकाए रखना हैलेकिन उनके पास ऐसा करने के लिए कोई वैधानिक आदेश (mandateनहीं है. भारत में RBI के लिए क़ानून के तहत ये अनिवार्य बना दिया गया है कि वो उपभोक्ता क़ीमतों पर आधारित महंगाई दर को 4+/- 2 प्रतिशत की सीमा में सीमित रखे. दरअसल कोविड19 के प्रकोप से ठीक पहले कई विकसित देशों में महंगाई दर बहुत कम थीऔर वहां के केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति को प्रतिशत तक बढ़ाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे. इसके विपरीतभारत में महंगाई की ऊंची दरों की आशंकाओं ने सरकार और केंद्रीय बैंक को हमेशा चिंतित रखा हैऔर उनके शीर्ष अधिकारियों की रातों की नींद हराम की है

बहरहालकोविड19 के बाद राजकोषीय प्रोत्साहन मुहैया करने में ज़रूरत से ज़्यादा उत्साह ना दिखाने के लिए भारत सरकार की तारीफ़ की जानी चाहिए. यही वो प्रमुख कारण है जिसकी बदौलत भारत अनेक विकसित देशों की तुलना में महंगाई रूपी राक्षस को अपेक्षाकृत बेहतर तरीक़े से संभाल सका. हालांकिअभी हम इस संकट से बाहर निकलने के क़रीब नहीं पहुंचे हैंजुलाई 2023 में आए महंगाई से जुड़े आंकड़े इसका सबूत हैं.

ऐसे में सवाल ये पूछा जाना चाहिए कि इतने लंबे कालखंड के लिए मौद्रिक नीति को अतिरिक्त रूप से ढीला रखने का मक़सद क्या था और इस दिशा में सोचे गए लक्ष्यों की तुलना में वास्तविक परिणाम कहां ठहरते हैंइसके अलावामुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज़ दर बढ़ाने की आक्रामक नीति के नतीजों की भी आलोचनात्मक पड़ताल आवश्यक है

निश्चित रूप से 2020 और 2021 के दौरान व्यापक स्तर पर अपनाई गई आसान मुद्रा नीति ने लापरवाह और सट्टेबाज़ी भरे निवेश व्यवहार को बढ़ावा दिया.

निश्चित रूप से 2020 और 2021 के दौरान व्यापक स्तर पर अपनाई गई आसान मुद्रा नीति ने लापरवाह और सट्टेबाज़ी भरे निवेश व्यवहार को बढ़ावा दिया. जोख़िमों का वास्तविकता से कम मूल्य निर्धारण किए जाने के चलते परिसंपत्तियों की क़ीमतें उनके आंतरिक मूल्यांकन से काफ़ी अधिक (asset bubblesहो गईंऔर वित्तीय बाज़ारों में विकृति  गईS&P 500, डॉउ जोन्स इंडस्ट्रियल एवरेज (DJI), BSE सेंसेक्स और BSE 500 का P/E अनुपात इन दो वर्षों के दौरान 25.5, 23.3, 30.5 और 38.5 तक पहुंच गयाजबकि इनका 10 साल का औसत क्रमश: 15.8, 15.0, 17.4 और 15.6 थाबाज़ार में व्यक्तिगत निवेशकों की तादद में तेज़ी से बढ़ोतरी हुईमिसाल के तौर पर भारत में डीमैट खातों की कुल संख्या अब 12 करोड़ को भी पार कर गई हैग़ौरतलब है कि 31 मार्च, 2020 को यह संख्या 4.9 करोड़ थीइतना ही नहींवायदा (futuresऔर ऑपशंस खंड में ट्रेडिंग वॉल्यूम शीर्ष पर चला गया है.

ढीलीढाली मौद्रिक नीति ने वित्तीय बाज़ारों और अर्थव्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों के बीच अलगाव को और बढ़ा दियाइससे नकारात्मक वितरणात्मक प्रभाव उभर कर सामने  गए. आमतौर परदौलतमंद लोग अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा परिसंपत्तियों में निवेश करते हैं. परिसंपत्तियों के दाम में बढ़ोतरी से उन्हें फ़ायदा हुआबहरहालधन वितरण के निचले पायदान पर मौजूद ज़्यादातर लोगों के पास लगभग कोई परिसंपत्ति नहीं हैलिहाज़ा वे इतने भाग्यशाली नहीं रहे. ऐसे में, अर्थव्यवस्था में K-आकार का उभार एक स्पष्ट परिणाम था. 

ढीली मौद्रिक नीति ने बड़े कॉरपोरेट्स को उनकी ऊंची लागत वाले ऋणों से निजात पाने में काफ़ी मदद कीविलय और अधिग्रहण के साथसाथ बाय बैक्स समेत पूंजी पुनर्संरचना की तमाम क़वायदों के ज़रिए उन्होंने अपनी हिस्सेदारी मज़बूत कर लीइस तरह उन्होंने अपनी बैलेंस शीट सुधार लीऔर बाज़ार में अपना दबदबा और मूल्य निर्धारण शक्ति बढ़ाने लगे.

2020 और 2021 में कम ब्याज़ दरों ने सरकारों को कम दरों पर बाज़ार से उधार जुटाने में काफ़ी मदद की. हालांकि राजकोषीय प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए आवश्यक सरकारी ऋणों की बड़ी मात्रा ने निजी क्षेत्र को कर्ज़ जुटाने से रोक दिया. इसके अलावामहामारी के चलते बाज़ार में कम मांगऔर उत्पादन क्षमता के ढीलेढाले उपयोग ने निजी क्षेत्र में निवेश को हतोत्साहित कर दियायहां निवेश को धीरेधीरे बढ़ाने या रोज़गार निर्माण के कोई उल्लेखनीय प्रयास देखने को नहीं मिले.

ऐसे में सवाल उठता है कि छोटे उद्यमियों का क्या हुआहो सकता है कि सरकारी सब्सिडी और क्रेडिट गारंटी के रूप में लक्षित राजकोषीय प्रोत्साहन पाने वाले कुछ क्षेत्रों को फायदा हुआ होइस विषय पर अनुभवजन्य (empiricalअध्ययन करना दिलचस्प हो सकता है.

लंबे कालखंड वाले बैंक जमा से नकारात्मक वास्तविक रिटर्न ने पेंशनभोगियों (पेंशन के महंगाई दर सूचकांक से जुड़ाव के अभाव मेंऔर निश्चित आय नक़दी प्रवाह पर निर्भर अन्य लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डालाइसमें कोई शक़ नहीं कि मुद्रास्फीति की ऊंची दरों की सबसे ज़्यादा मार ग़रीबों पर पड़ी है

अतिरिक्त रूप से ढीलीढाली मौद्रिक नीति वाले युग के बाद केंद्रीय बैंकों की सोच ने अचानक यू टर्न ले लिया. अब केंद्रीय बैंक मौद्रिक नीति को आक्रामक तरीक़े से कड़ा करने लगेइसका अर्थव्यवस्था के तमाम किरदारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. इनमें अपने कर्ज़ों पर EMI चुकाने वाले परिवार और क्षमता वृद्धि की योजना बनाने वाली कंपनियां शामिल हैंकेंद्रीय बैंकों की ताज़ा क़वायदों का वित्तीय स्थिरता पर भी प्रभाव पड़ा. अमेरिका में SVB और कुछ अन्य छोटे बैंकों की नाकामी इसी का नतीजा थी. बॉन्ड परिसंपत्तियां रखने वाले तमाम संस्थान असमंजस में थेदरअसल संस्थानों पर इन परिसंपत्तियों को अपनी बैलेंस शीट में दर्शाकर उन्हें बाज़ार में चिन्हित करने की नियामक आवश्यकता होती हैब्याज़ दरों का इतना बड़ा जोख़िम उनके लिए झटका साबित हुआवाणिज्यिक संस्थाओं को छोड़िएसंदेह तो इस बात का है कि क्या केंद्रीय बैंकों ने भी ऐसी आकस्मिकता (contingencyको लेकर किसी तरह की योजना बनाई थी!

अतिरिक्त रूप से ढीली–ढाली मौद्रिक नीति वाले युग के बाद केंद्रीय बैंकों की सोच ने अचानक यू टर्न ले लिया. अब केंद्रीय बैंक मौद्रिक नीति को आक्रामक तरीक़े से कड़ा करने लगे. इसका अर्थव्यवस्था के तमाम किरदारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा.

इन सबका अंतिम नतीजा ये हुआ कि आज वैश्विक अर्थव्यवस्था उथलपुथल भरे दौर में है और उसके सामने अभूतपूर्व अनिश्चितता है. महंगाई की समस्या अड़ियल और आसानी से पीछा नहीं छोड़ने वाली साबित हुई हैकेंद्रीय बैंक उस समयसीमा के बारे में अनिश्चित हैंजिसके भीतर वो इसे वांछनीय स्तर पर ला पाएंगे. दुनिया के तमाम केंद्रीय बैंकभरोसे में कमी का सामना कर रहे हैंउनके पूर्वानुमान मॉडलों और क़ाबिलियतों पर उंगलियां उठाई गई हैं

ऐसे में जो सवाल खड़े होते हैंवो ये हैं– क्या केंद्रीय बैंकों के लिए 2020 और 2021 में इतने लंबे कालखंड के लिए मौद्रिक नीति को अतिरिक्त रूप से ढीला रखना उचित थाक्या केंद्रीय बैंकों को महंगाई दर को लक्षित करने से जुड़ी अपनी प्राथमिक भूमिका पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए और इस कड़ी में अपने अन्य कर्तव्यों से मुक्त नहीं हो जाना चाहिए (क्योंकि इनमें से कुछ वास्तव में इस भूमिका के साथ विरोधाभासी हो सकते हैं)क्या सरकारों और केंद्रीय बैंकों के रिश्तों पर नए सिरे से विचार किए जाने की दरकार है? जहां पहले सवाल का जवाब ना में दिखाई देता है, वहीं बाक़ी के दो सवालों के जवाब निश्चित रूप से हां में हैं.


अजय त्यागी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रतिष्ठित फेलो हैं.

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