-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
एट्रीब्यूशन: अमृता नारलीकर, “जब पासा पलटने वाला होता है: अस्थिरता के युग में ग्लोबल साउथ,” ORF इश्यू ब्रीफ न. 812, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.
Image Source: Getty
ट्रांसअटलांटिक साझेदारी में दिख रही दरारों और यूनाइटेड स्टेट्स (US)-चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता में तेजी और बढ़ते व्यापारिक तनाव के बीच में सब कुछ निराशाजनक और ख़त्म होने को लेकर अनेक आकलन आ रहे हैं. ये आकलन एक अलग परिप्रेक्ष्य पेश करते हैं. ये आकलन ख़तरों को उजागर करने के साथ-साथ वैश्विक दक्षिण के लिए उभरते नए अवसरों पर भी केंद्रित है. यदि हम दो अफ्रीकी कहावतों का मिश्रण कर ले तो ऐसा कहा जा सकता है कि अब वैश्विक दक्षिण वह घास नहीं रही जो हाथियों की लड़ाई में रौंद दी जाएगी, बल्कि अब शेरों ने लिखना सीख लिया है और वे अपना भाग्य खुद निर्धारित कर रहे हैं. शिकारी को महिमामंडित करने का युग अब खत्म हो रहा है.
यहां पहले ही यह स्वीकार कर लेना आवश्यक है कि कुछ टिप्पणीकारों के लिए ‘ग्लोबल साउथ’ यानी वैश्विक दक्षिण एक उपयोगी अवधारणा नहीं है. इस ब्रीफ में वैश्विक दक्षिण में मौजूद मतभेदों तथा पदानुक्रम और इस परिभाषा को लेकर होने वाले जीवंत दावे-प्रतिदावे की अहमियत को स्वीकारा गया है. लेकिन यह ब्रीफ इस परिभाषा को “रिटायर्ड” याने सेवानिवृत्त करने वाले दृष्टिकोण को साझा नहीं करती है. [1] इस ब्रीफ के उद्देश्यों के लिए ‘ग्लोबल साउथ’ परिभाषा के तहत एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और मध्यपूर्व के देशों को संदर्भित किया गया है. इन देशों के पास उपनिवेशवाद और अभाव का साझा इतिहास है. आज इनका साझा एजेंडा (और इससे आगे बढ़कर एक रिबूट अर्थात चीजों को नए से आरंभ करना) वैश्विक प्रशासनिक संस्थानों (जैसे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद) में सुधार और वैश्विक संसाधनों के अधिक न्यायसंगत वितरण या बंटवारे का ही है.
वैश्विक दक्षिण के विकसित होते बाज़ार, मध्यम-आय वाली अर्थव्यवस्थाओं और लीस्ट डेवल्पड कंट्रिज (LDCs) यानी अल्प विकसित देश अपने नागरिकों के विकास को लेकर चिंताओं को साझा करते हुए एकजुट हैं. निश्चित रूप से वैश्विक दक्षिण न तो एक मोनोलिथ है और न ही वह एक ऐसा अनोखा या एकल क्लब है जहां वैश्विक दक्षिण में मौजूद देश ही इसके सदस्य हैं. यही बात अन्य विश्व के अन्य वैश्विक सामूहिक समूहों, इसमें ‘पश्चिम’ और यूरोपियन युनियन (EU)’ (इस तथ्य के बावजूद की EU एक वैध इकाई है), पर लागू होती है.
शिक्षाविद और नीति संबंधी बहस में फ्रांस और जर्मनी को आसानी से स्वयं में स्वतंत्र खिलाड़ी के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है. इन बहसों में इन देशों को EU का सदस्य देश भी स्वीकार किया जाता है और इन्हें स्वयंघोषित उदार लोकतांत्रिक देशों के समूह के भीतर काम करने वाला भी मान लिया जाता है. इसके बावजूद पश्चिमी खिलाड़ी जिन परिभाषाओं एवं श्रेणियों के साथ एकनिष्ठ रहने का दावा करते हैं, उन्हें बदनाम करने या कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें कम ही दिखाई देती है. ऐसे में ‘वैश्विक दक्षिण’ को भी इसी पैमाने पर या इन्हीं अर्थों में ख़ारिज़ करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए. इसके बजाय विकासशील देश जब यह दावा करते हैं कि वे इस समूह से संबंधित है तो उनके इस दावे को गंभीरता से लिया जाना सही और उपयोगी ही होगा. वैश्विक दक्षिण उस महत्वपूर्ण पहचान और स्तर का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें विभिन्न देश काम करते हैं. इस विश्लेषण में इसी परिभाषा को याद रखकर उसका उपयोग किया गया है.[2]
निश्चित रूप से वैश्विक दक्षिण न तो एक मोनोलिथ है और न ही वह एक ऐसा अनोखा या एकल क्लब है जहां वैश्विक दक्षिण में मौजूद देश ही इसके सदस्य हैं. यही बात अन्य विश्व के अन्य वैश्विक सामूहिक समूहों, इसमें ‘पश्चिम’ और यूरोपियन युनियन (EU)’ (इस तथ्य के बावजूद की EU एक वैध इकाई है), पर लागू होती है.
यह ब्रीफ चार हिस्सों में आगे बढ़ती है. पहले कदम के रूप में यहां दुनिया के विकसित एवं विकासशील विश्व को प्रभावित करने वाली मौजूदा अस्तित्व संबंधी समस्याओं की शिनाख़्त की गई है. इससे आगे आर्थिक, भूराजनीतिक एवं भूआर्थिक संकटों को समझने या देखने के अंदाज में नॉर्थ-साउथ के बीच की खाई को रोचक अंदाज में उजागर किया गया है. संभावित समाधानों का खाका तैयार कर उसे लागू करने की धारणा को लेकर मतभेदों को समझना बेहद अहम है. दूसरे कदम के रूप में यहां “सिस्टम” यानी व्यवस्था में मौजूद ख़ामियों की चर्चा की गई है. व्यवस्था की परिभाषा में वैश्विक परस्पर निर्भरता को आकार देकर प्रशासित करने वाले ढांचे और प्रक्रियाओं दोनों का ही समावेश है. यह विश्लेषण लेखिका की अपनी समझ पर आधारित है कि कैसे लंबे समय से कुछ देशों को, और वे देश भी स्वयं को ऐसा ही मानते है, वैश्विक नियमों का शिकार या केवल वैश्विक नियमों के पालनकर्ता के रूप में देखा जाता है. अर्थात रूल-मेकर्स नहीं, बल्कि रूल-टेकर्स यानी नियमों का पालन करने वाले देशों के रूप में देखा जाता है. ये देश ही स्वयं की पहचान वैश्विक दक्षिण के रूप में करते हैं. इस ब्रीफ के तीसरे हिस्से में यह बताया गया है कि वैश्विक दक्षिण के कुछ महत्वपूर्ण हिस्से या देश कैसे अब बातचीत में लाभ की स्थिति में आ गए हैं. बार्गेनिंग या सौदेबाजी करने में इन देशों की स्थिति में आया सुधार न केवल इन देशों के हित के लिए बेहतर और महत्वपूर्ण है, बल्कि दुनिया पर भी इसका प्रोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ेगा. बड़े ही रोचक अंदाज में पासा पलट गया है. चौथे तथा अंतिम हिस्से में आत्मसंतुष्टि से बचने पर बल दिया गया है. यह भी साफ़ किया गया है कि कैसे आत्मसंतुष्टि की वजह से परिवर्तन या बदलाव का यह क्षण बर्बाद हो सकता है और परिणामस्वरूप विकासशील देशों की स्थिति और भी बुरी हो सकती है. अत: सही वक़्त पर और सावधानीपूर्वक की जाने वाली कार्यवाही आवश्यक है. यह बात वैश्विक दक्षिण के हिस्से के साथ-साथ वैश्विक उत्तर में मौजूद सहयोगी देशों पर समान रूप से लागू होती है. अंत में अकादमिया एवं प्रैक्टिस के लिए कुछ सिफ़ारिशें की गई हैं.
राजनीतिक और आर्थिक विचार-विमर्श में “संकटों” का अत्यधिक उपयोग किया जाता है. संभवत: हर पीढ़ी में यह आदत होती है कि वह अपने समक्ष मौजूद समस्याओं को बढ़ा-चढ़ा कर बताती है या फिर अकादमिक फंडिंग का ढांचा या सोशल मीडिया उन्हें ऐसा करने के लिए पोषक माहौल बनाकर देता है. लेकिन आज अगर 1990 और 2000 के आरंभिक दशकों में देखे जाने वाले आशावाद के साथ तुलना की जाए तो वर्तमान में दुनिया के समक्ष मौजूद समस्याओं की रेंज यानी श्रेणी और गहराई काफ़ी ज़्यादा है.[3] यह स्थिति फुकुयामा के “एंड ऑफ हिस्ट्री” [4] के क्षण के विपरीत है, जिसने अंतरराष्ट्रीय उदार व्यवस्था के विस्तार और गहराते बहुपक्षवाद (और बाद में एक-दूसरे को मजबूत करते दोनों) को देखा था. वर्तमान में कुछ देशों के भीतर और सीमाओं को पार करते हुए बेहद अलग घटनाक्रम चल रहा है.
फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर किए गए आक्रमण के साथ ही यूरोप ने सौहार्द और शांति क्षेत्र के रूप में अपने दशकों पुराने गौरव को गंवा दिया है. ट्रंप 2.0 प्रशासन के तहत यूरोप की चुनौतियां और गहरा गई हैं. US अधिकारियों ने भले ही नॉर्थ अटलांटिक संधि संगठन (NATO) को लेकर अपने देश की प्रतिबद्धता को दोहराया है, लेकिन उन्होंने कड़ाई के साथ यह भी साफ़ कर दिया कि यूरोप को अपनी खुद की सुरक्षा के लिए और ज़्यादा कोशिश करनी होगी. यह भी स्वीकार्य है कि यूरोप की “फ्री-राइडिंग” को लेकर अमेरिकी असंतोष नया नहीं है. लेकिन नया प्रशासन अब तक यह बात पुख़्ता तौर पर स्पष्ट कर चुका है कि “यूरोप को मोर्चे पर नेतृत्व संभालते” हुए अपने रक्षा ख़र्च में इज़ाफ़ा करते हुए अपने रक्षा औद्योगिक आधार को मजबूती प्रदान करनी होगी. इन सारी बातों के बीच ही US रक्षा सचिव यह संकेत दे चुके हैं कि नया प्रशासन सुरक्षा मामलों को लेकर होने वाली मेहनत को अब भौगोलिक रूप से विभाजित करना चाहता है. इसका मतलब यह है कि यूरोप को अपने इलाके पर ध्यान देना होगा और US “प्रशांत क्षेत्र में चीन के साथ युद्ध रोकने” को प्राथमिकता देगा. [5]
ऐसा नहीं है कि यूरोप को ही अकेले अपने क्षेत्र में चल रहे युद्ध से निपटना पड़ रहा है. दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में पुराने जमाने के परंपरागत सुरक्षा ख़तरे फिर से सिर उठाने लगे हैं. इतना ही नहीं ये पुराने सुरक्षा ख़तरे एक नई गति के साथ अलग-अलग तरीके से विश्व में फैल रहे हैं. उदाहरण के तौर पर कनेक्टिविटी में व्यावधान के माध्यम से इनमें विस्तार होता देखा जा सकता है. फिर चाहे वह रेड सी में मालवाहक जहाजों पर होने वाले हमले हो या फिर भारत प्रशांत या बाल्टिक में अंडर-सी केबल्स को निशाना बनाने का मामला ही क्यों न हो.
ऊर्जा के लिए रूस पर यूरोपियन निर्भरता का ही मामला लिया जा सकता है. इसे दुनिया के समक्ष मौजूद अनेक उदाहरणों में से एक उदाहरण कहा जा सकता है. वैश्विक शांति एवं संपन्नता हासिल करने के लिए विभिन्न देशों ने एक व्यवस्था को स्वीकार किया था. यह व्यवस्था थी परस्पर निर्भरता को स्वीकार करने की. लेकिन इस व्यवस्था में मौजूद एक ख़ामी का लाभ उठाए जाने से इस व्यवस्था के माध्यम से एकजुट होने वाले देशों के लिए अब यही व्यवस्था सिरदर्द साबित हो रही है. इसका कारण यह है कि परस्पर निर्भरता को हथियार बना लिया गया है. [6] परस्पर निर्भरता को संभावित और वास्तविक हथियार बनाने की वजह से वैश्विक प्रशासनिक संस्थानों के मूल पर ही आघात हो रहा है. इन संस्थानों को दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद पिछली सदी की समस्याओं को हल करने के लिए स्थापित किया गया था. वर्तमान में ये संस्थान दुनिया के समक्ष मौजूद ख़तरों को समझने या उनसे निपटने में खुद को अक्षम पा रहे हैं.
मौजूदा बहुपक्षीय संस्थानों के समक्ष पेश आने वाली समस्याओं को समझने का विश्व व्यापार संगठन (WTO) एक अच्छा उदाहरण है. पिछले कुछ अर्से से इस संगठन के तीन कार्य-बातचीत, विवाद निपटान तंत्र और व्यापार नीति समीक्षा तंत्र, लगभग अवरुद्ध पड़े हैं.[7] बीते हुए दौर के विपरीत यह साफ़ है कि अब US इस व्यवस्था में गारंटीकर्ता की भूमिका को स्वीकार नहीं करेगा. WTO को लेकर अमेरिकी असंतोष किसी एक राजनीतिक दल तक सीमित नहीं है. लेकिन मुक्त व्यापार और इससे जुड़े नियमों को लागू करने वाले संगठन को बिल्कुल भी महत्त्व नहीं देने की बात राष्ट्रपति ट्रंप ने बड़े ही रोचक अंदाज में साफ़ कर दी है. इस संगठन और मुक्त व्यापार को दरकिनार करने की दिशा में होने वाली “बात” मात्र से बाज़ार का भरोसा डगमगा जाता है. ऐसे में US की ओर से अपने मित्र एवं दुश्मन देशों पर समान रूप से टैरिफ लगाने/नहीं लगाने को लेकर चल रही गतिविधियों ने पहले से ही अस्थिर दुनिया को और भी अनिश्चितता की स्थिति में डाल दिया है.
ऐसा नहीं है कि यूरोप को ही अकेले अपने क्षेत्र में चल रहे युद्ध से निपटना पड़ रहा है. दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में पुराने जमाने के परंपरागत सुरक्षा ख़तरे फिर से सिर उठाने लगे हैं. इतना ही नहीं ये पुराने सुरक्षा ख़तरे एक नई गति के साथ अलग-अलग तरीके से विश्व में फैल रहे हैं.
इस सूची में अब लोकतंत्र के समक्ष मौजूद चुनौतियों को जोड़ दीजिए. ये चुनौतियां न केवल सत्तावादी या दबंग शासकों की वजह से, बल्कि पश्चिमी लोकतंत्र की हृदयस्थली से भी मिल रही है. ऐसे में यह साफ़ है कि विश्व इस वक़्त एक निरंतन परिवर्तन वाली स्थिति देख रहा है. और वह भी ऐसे वक़्त में जब हमारी पृथ्वी जल रही है.
हम चाहे जहां भी बैठे हो, समस्याएं वास्तविक हैं. लेकिन इन्हें देखने और उनसे निपटने का रवैया भौगोलिक और पहचान के तौर पर भिन्न-भिन्न है.
अस्तित्व संबंधी समस्याओं को लेकर दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आने वाली प्रतिक्रियाओं के मामले में भी आमतौर पर एक प्रकार का पोलराइजेशन यानी ध्रुवीकरण देखा जा रहा है. वैश्विक दक्षिण और वैश्विक उत्तर इन समस्याओं को लेकर, फिर चाहे वह रूस और यूक्रेन का मामला हो या जलवायु वित्त पोषण का मामला हो, एक सुर में बात करते दिखाई नहीं देते. व्यक्तिगत मामलों से ज़्यादा रोचक तो इन समस्या को लेकर अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण में दिखाई देने वाली मतभिन्नता है. इसी वर्ष आयोजित की गई दो परिषदों पर नज़र डालने से यह साफ़ हो जाता है कि यह मतभिन्नता कितनी गहरी है.
पहली परिषद का आयोजन फरवरी के दौरान म्यूनिख में किया गया था. द एनुअल म्युनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस (MSC) को आमतौर पर नरम मिजाज़ी के लिए पहचाना जाता है. यहां वैश्विक संभ्रांत समुदाय के कुछ चिर परिचित सदस्य आकर व्यवस्था में सुधार की बात करते हैं. इसके बाद ये संभ्रांत लोग घर लौट कर रोज़मर्रा के काम में पहले की तरह ही जुट जाते हैं. इन्हीं संभ्रांत लोगों को अगले वर्ष भी इसी तरह के मुद्दों पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया जाता है और यह चक्र बदस्तूर चलता रहता है. लेकिन इस वैलेंटाइन सप्ताहांत के दौरान क्लब ऑफ म्यूनिख में प्यार को छोड़कर सब कुछ मौजूद था. US के उपराष्ट्रपति जे. डी. वैंस [8] के संबोधन के कारण यूरोपियन राजनीतिक नेताओं में काफ़ी गुस्सा देखा गया.[9] सोशल मीडिया चैनलों पर भी काफ़ी रोष दिखाई देने लगा. एक अभूतपूर्व हम बनाम तुम का नैरेटिव उभर आया. उस संबोधन की वजह से हुए परिणाम की चर्चा आज होने वाली राजनीतिक कमेंट्री में भी दिखाई देती है. उस संबोधन को लेकर आज होने वाली चर्चा भी गुस्से और धोखाधड़ी की भावना से भरी हुई होती है.
दूसरी परिषद, रायसीना डायलॉग, एक माह बाद आयोजित की गई थी.[10] यह भी सालाना आयोजन है, जिसकी मेज़बानी दिल्ली में की जाती है. दिल्ली एक ऐसे देश की राजधानी है जो वैश्विक दक्षिण शिखर सम्मेलन की आवाज का भी मेज़बान है. वैश्विक दक्षिण की आवाज के शिखर सम्मेलन-रायसीना डायलॉग ने खुद को कभी भी गेमुटलिचकेइट भावना, वह आरामदायक भावना महसूस नहीं करने दी कि वह अलग-अलग देशों का ऐसा छोटा समूह है जहां सभी की सोच एक जैसी है. परिणामस्वरूप यह मंच कभी भी हम बनाम तुम के जाल में नहीं फंसा है. और न ही इस मंच में कभी भी आपस में असहमति होने पर खुद को धोखे की भावना का शिकार होने दिया. और यहां पर्याप्त असहसमतियां है, क्योंकि यह एक ऐसा मंच है जहां रद्द करने की संस्कृति नहीं है. म्युनिख की तरह हाथ-मरोड़ने और अंगुली-दिखाने के विपरीत दिल्ली में गंभीर और समाधान-केंद्रित बातचीत होती है. इतना ही नहीं महत्वपपूर्ण रूप से यहां बातचीत हमेशा ही राजनीतिक रूप से सहीं यानी उच्च आदर्शों वाली नहीं होती, लेकिन सीमाएं निश्चित रूप से तय होती हैं.
दोनों परिषदों का माहौल भी एक बड़े ट्रेंड की ओर इशारा करता है. एक ओर जहां ग्रेट पॉवर्स यानी महान शक्तिशाली देश आपस में कुढ़ते रहते हैं, वहीं दूसरी ओर वैश्विक दक्षिण के कुछ हिस्से के नेता अपने आप में आत्मविश्वास से भरे नज़र आते हैं. इन नेताओं के पास मुश्किल पड़ोसियों के साथ कड़ाई से बातचीत करने का अनुभव है. ऐसे में रूस का बहिष्कार करने से वैश्विक दक्षिण के नेताओं के इंकार को लेकर यूरोप में दिखाई देने वाली नाराज़गी से इन्हें ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता. यदि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर को उद्धत किया जाए तो यूरोप को इस मानसिकता से बाहर आने की ज़रूरत है कि उनकी समस्या ही सारी दुनिया की समस्या है, लेकिन बाकी किसी की भी समस्या से यूरोप का कोई लेना-देना नहीं या फिर अन्य समस्याओं को यूरोप की समस्या न समझा जाए. [11]
वैंस के संबोधन को लेकर मचे हंगामे के बावजूद ऐसे देशों ने उसे बिल्कुल तवज्जो नहीं दी, जिन्होंने लंबे समय से पश्चिमी देशों की ओर से दिए जाने वाले उपेदेशों को दशकों से झेला है. निश्चित रूप से ये देश भी ट्रांसअटलांटिक संबंधों में दिखाई दे रही अस्थिरता और US-चीन संबंधों में तनाव की वजह से प्रभावित होते हैं. इसी प्रकार दक्षिणपूर्वी एशिया की कुछ छोटी, खुली और व्यापार-आधारित अर्थव्यवस्थाएं भी अपने बड़े समकक्षों के मुकाबले टैरिफ यानी शुल्क को लेकर चिंतित हैं. लेकिन यूरोप तथा US में दिखाई देने वाले निराशावाद और असंतोष के मुकाबले में कथित रूप से "रेस्ट ऑफ द वर्ल्ड" के अधिकांश हिस्से में कमोबेश एक प्रकार की शांत वहनीयता और दबा-दबा या सुरक्षित आशावाद झलकता है. स्टिमुंग (“मूड”) को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि वैश्विक दक्षिण किस हद तक चेंज यानी सुधारों की उम्मीद करते हुए इनका स्वागत करता है. (और इसके विपरीत वर्तमान वैश्विक शक्ति और संसाधनों पर कब्ज़ा जमाए बैठे लोगों में सुधार या बदलाव को लेकर कितना भय और विरोध है).
मौजूदा सत्तावादियों जिसमें वैश्विक उत्तर की महान शक्तियों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की टेक्नोक्रेसीज के लिए अस्थिरता के वर्तमान दौर को पचाना निश्चित ही काफ़ी मुश्किल साबित हो रहा है. उनके दृष्टिकोण से पुरानी व्यवस्था में कुछ भी गलत नहीं था. उस पुरानी व्यवस्था में इन लोगों की आवाज़ सुनी जाती थी और उनके पास मताधिकार भी मौजूद था.
काफ़ी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि कैसे प्राचीन वैश्विक प्रशासन एक नई व्यवस्था की दिशा में आगे बढ़कर इसे प्रबंधित करता है. (और इसे प्रबंधित करना संभव होगा भी या नहीं) अगर बदलाव को G2s तथा G3s के हाथों में सौंपा गया तो अधिक विघटन, अव्यवस्था और अराजकता देखने को मिलेगी. लेकिन यदि वैश्विक दक्षिण के कुछ हिस्सों को एजेंडा-सेटर्स यानी नीति-निर्माता और संतुलनकर्ता की भूमिका सौंपी गई तो दुनिया एक अधिक सुरक्षित, न्यायसंगत और दयालु व्यवस्था की शुरुआत होते हुए देखेगी.
मौजूदा सत्तावादियों जिसमें वैश्विक उत्तर की महान शक्तियों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की टेक्नोक्रेसीज के लिए अस्थिरता के वर्तमान दौर को पचाना निश्चित ही काफ़ी मुश्किल साबित हो रहा है. उनके दृष्टिकोण से पुरानी व्यवस्था में कुछ भी गलत नहीं था. उस पुरानी व्यवस्था में इन लोगों की आवाज़ सुनी जाती थी और उनके पास मताधिकार भी मौजूद था. इन संस्थाओं के सहयोग की वजह से ही शांति और स्थिरता, कम से कम पश्चिम में तो, बनी ही रहती थी. यदि इस बात को स्वीकार किया जाए तो गलत नहीं होगा कि शीत युद्ध के पश्चात इस व्यवस्था के लाभ कुछ अन्य खिलाड़ियों तक भी विस्तारित हुए थे. यदि ग्लोबलाइजेशन और विशेषत: WTO की मेज़बानी में व्यापार में उदारवाद नहीं आता तो यह कहा जा सकता है कि चीन में भी उस तरह का विकास होना संभव नहीं था जो आज देखा जा रहा है. इसके अलावा भी आर्थिक सफ़लता की अनेक कहानियां है जिसमें भारत भी शामिल है. इसके बावजूद यह कहा जा सकता है की पुरानी व्यवस्था में काफ़ी महत्वपूर्ण कमियां थी. इन पर आने वाले परिच्छेदों में प्रकाश डाला गया है.
सबसे पहली बात तो यह है कि 1990 के दशक में देखे जाने वाले उदारवादी विजयवाद, उसके सबसे अधिक समावेशी संस्करण, के साथ भी यह उम्मीद लगाई गई थी कि विकासशील देश इस व्यवस्था से मिलने वाले किसी भी लाभ को पाने के लिए आभारी रहेंगे और इसी वजह से वे इस उदारवाद को पूर्णतः स्वीकार कर लेंगे. परंतु यह एक ऐसा सौदा था जिसकी विकासशील देशों ने कल्पना नहीं की थी. ये देश तो ऐसे अधिक समावेशी वैश्विक निर्णय निर्माण मंचों में शामिल होना चाहते थे, जहां तैयार किए जाने वाले नियमों की व्याख्या करने में वे अपना प्रभाव डाल सके. [12] इसी वजह से अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार करने में विफ़लता, जैसे कि UN सुरक्षा परिषद की P5 सदस्यता में विस्तार करने एवं वीटो की समीक्षा करने में नाकामी, से दशकों से इन संस्थानों में अपना स्थान पाने की राह देख रहे देशों में नाराज़गी पनपती चली गई. कुछ चुनिंदा उदाहरण के रूप में अंतरराष्ट्रीय संस्थानों (उदाहरण के रूप में WTO) ने अपनी निर्णय लेने की प्रक्रिया को अपडेट किया और कुछ विकासशील देशों को यहां प्रमुखता दी. लेकिन वैश्विक दक्षिण इससे अधिक चाहता था. वह केवल नाम का प्रतिनिधित्व नहीं चाहता था, बल्कि वह एजेंडा सेटिंग पावर यानी नीति तय करने की शक्ति चाहता था. [13] ऐसे में जैसे-जैसे तेजी के साथ इन देशों की आर्थिक और सैन्य शक्तियों में इज़ाफ़ा हुआ वैसे-वैसे वैश्विक प्रशासन बदलती जमीनी हकीकत से दूर होता चला गया. इसके परिणामस्वरूप अव्यवस्थित बहुपक्षवाद और उसके नाराज़ सदस्य बढ़ने लगे.
दूसरी बात यह याद रखना आवश्यक है कि वैश्विक दक्षिण केवल दुनिया के इलाकों में “आउट देयर” यानी कहीं बाहर मौजूद देशों का ऐसा समूह नहीं है जो यूरोप और उत्तर अमेरिका से काफ़ी दूर है. ग्लोबल नॉर्थ के भीतर ही एक वैश्विक दक्षिण है. यह वैश्विक दक्षिण अर्थात ऐसे व्यक्ति और समूह जो किसी न किसी कारण (अपने समाज में अपर्याप्त पुर्नवितरण प्रणाली समेत) की वजह से खुद को बुरी हालत में पाते हैं. इसके अलावा इस वैश्विक दक्षिण में ऐसे लोग या समूह शामिल हैं जो यह मान चुके हैं कि नैरेटिव के युद्ध में वे काफ़ी बुरी स्थिति में हैं. ब्रेक्जिट मतदान, राष्ट्रपति ट्रंप का चुनाव और दोबारा विजयी होना हो या फिर जर्मनी में AfD का उभार हो, इन सारी बातों के लिए विफ़ल लिबरल नैरेटिव यानी उदार नैरेटिव और बिखर रहे सामाजिक समझौतों का थोड़ा योगदान ज़रूर है. शक्ति के पुराने केंद्रों के भीतर ही विभिन्न घटकों में असंतोष और विद्रोह की भावना लंबे समय से पनप रही थी.
तीसरा यह कि वैश्विक दक्षिण की अवधारणा में वे समूह आते हैं जिनके पास आवाज नहीं थी और जो वैश्विक और स्थानीय समझौतों में ठगे गए थे, तो इससे आगे एक ऐसा समूह और है जिसकी उपेक्षा करना संभव ही नहीं है. ये समूह पूर्णत: हाशिए पर हैं और जो बेजुबान हैं - हमारे जीव जंतु [14], जिनके साथ हम यह पृथ्वी साझा करते हैं. इस बात पर विचार कीजिए कि वैश्विक स्तर पर वन्यजीव की आबादी में अकेले पिछले 50 वर्षों में 70 फीसदी की कमी आयी है. इसके अलावा जैवविविधता में देखी जाने वाली नाटकीय गिरावट के लिए केवल और केवल मानव गतिविधियां ही ज़िम्मेदार है. [15] इसके अलावा परंपरा और विकास के नाम पर अकल्पनीय कष्ट झेलने वाले व्यक्तिगत जानवरों का भी विचार करें. फिर चाहे वे एशिया के लाइव मार्केट, अफ्रीका में ट्रॉफी हंटिंग़ या US और यूरोप के फैक्ट्री फार्म्स हो या फिर भयावह समुद्री और भूमि क्रॉसिंग्स में होने वाला सजीव पशुओं का निर्यात ही क्यों न हो. वैश्वीकरण के पुराने मॉडल और इसके प्रशासन ने इन मासूम जीवों के साथ बहुत ज़्यादा नाइंसाफी की है.
अब जबकि यह देख लिया गया है कि इस वक़्त जैसी दुनिया है उससे कोई भी खुश नहीं है तो यह एक बेहतर दुनिया निर्माण करने का अनूठा अवसर है. इस बेहतर दुनिया का निर्माण वैश्विक दक्षिण के स्टेट, नॉन-स्टेट, मानव तथा जीव जंतुओं को ध्यान में रखकर किया जाए.
वैश्विक मंथन के बीच ऐसी आवाजों की कमी नहीं है जो वर्तमान उथल-पुथल के कारण विकासशील देशों पर होने वाले गंभीर और प्रलयंकारी प्रभावों की ओर इशारा करते हैं. उदाहरण के लिए ट्रंप की ओर से लगाए गए टैरिफ का विकासशील देशों पर पड़ने वाला प्रभाव देखा जा सकता है.[16] लेकिन वैश्विक दक्षिण के नाम पर इस कारण कयामत बरपने की हो रही कोशिशें जरा अतिश्योक्तिपूर्ण ही कहीं जाएंगी.
यह सच है कि वैश्विक दक्षिण ने ऐतिहासिक रूप से “अथॉरेटेटिव” यानी आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को पसंद किया है. वैश्विक दक्षिण इस व्यवस्था के तहत उपलब्ध होने वाले अंतरराष्ट्रीय नियमों के कारण मिलने वाली निश्चितता को प्रीमियम देता है यानी अधिक तवज्जो देकर आसानी से स्वीकार कर लेता है. [17] लेकिन आज के वैश्विक दक्षिण पर 1980 के दशक के मॉडल्स लागू करना गलत होगा क्योंकि वैश्विक दक्षिण में आने वाले अनेक देशों ने विकास की सीढ़ियों पर तेजी से चढ़ने के साथ-साथ अपनी औपनिवेशिक विरासत को भी पीछे छोड़ दिया है. 2003 में हुई WTO की कैनकन मंत्रिस्तरीय परिषद में लगा “नो डील इज बैटर दैन दिस डील” यानी इस सौदे से बेहतर कोई सौदा नहीं है का नारा उभरते बड़े ट्रेंड का उदाहरण ही कहा जाएगा. [18] विकासशील देश अब वैश्विक संस्थानों की वैधता को केवल इसलिए स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि ये संस्थान “रुल्स-बेस्ट सिस्टम” यानी नियम आधारित व्यवस्था के साथ पैकेज में आते हैं. इसी प्रकार वैश्विक दक्षिण के देश अब इन संस्थानों पर होने वाले किसी भी हमले (यह हमला रूस या चीन अथवा यूनाइटेड स्टेट्स द्वारा किया गया हमला ही क्यों न हो) के दौरान उनका बचाव करने के लिए तैयार नहीं हैं. दरअसल वैश्विक दक्षिण के देश अब आर्थिक, राजनीतिक और बौद्धिक स्तर पर इतने मजबूत हैं कि वे यह सवाल पूछ सकते है: किसके नियम, और किस उद्देश्य के लिए? अपनी दसवीं वर्षगांठ मना रहे रायसीना डायलॉग ने इस आत्मविश्वासपूर्ण सवाल का उदाहरण पेश किया है. वैश्विक समस्याओं के लिए वैश्विक समाधान को लेकर की जाने वाली भाषणबाजी अब यूरोप में एक थका हुआ मंत्र बन गया है. इसके विपरीत हमने भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर को यह कहते हुए सुना कि बहुपक्षवाद को मजबूत होना ही चाहिए. लेकिन उन्होंने चेताया कि मजबूत होने के लिए बहुपक्षवाद को न्यायसंगत भी होना होगा.
वैश्विक दक्षिण के कुछ बाज़ारों में दिखाई देने वाली इकोनॉमिक ट्रजेक्टरी अर्थात आर्थिक स्थिति कुछ समय से सत्ता के संतुलन में आ रहे परिवर्तन का संकेत दे रही है. हाल में हुए बाहरी घटनाक्रमों (इसमें ट्रंप की ओर से अनुदान में कटौती और शुल्क में की गई वृद्धि शामिल हैं. [19] के कारण कुछ गंभीर ख़तरे पैदा हुए हैं. लेकिन इनकी वजह से वैश्विक दक्षिण के कुछ देशों को अपनी बेहतर स्थिति को लेकर सौदेबाजी करने के नए अवसर भी उपलब्ध हुए हैं.
वर्तमान में चल रहे भूआर्थिक संतुलन साधने की कोशिशों के चलते ही वैश्विक दक्षिण के लिए लाभ की स्थिति को लेकर बातचीत करने का पहला अवसर उपलब्ध हुआ है. US, EU, तथा चीन अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं को नए सिरे से संगठित करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में वैश्विक दक्षिण के कुछ देशों के बेस्ट अल्टरनेटिव टू निगोशिएटेड एग्रीमेंट (BATNA) में सीधे-सीधे सुधार होता है. इसी वजह से इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मौजूदा स्थितियों में अब भारत के साथ एक व्यापार समझौता करने को लेकर EU की प्रतिबद्धता में उल्लेखनीय वृद्धि हो गई है. इसके विपरीत भारत के हाथ मजबूत हुए हैं, क्योंकि EU तत्काल किसी भरोसेमंद साझेदार और बाज़ार की तलाश कर रहा है. वैश्विक दक्षिण के अन्य लोकतांत्रिक देशों, विशेषत: जहां बेहतर ढंग से स्थापित संस्थानात्मक और बुनियादी व्यवस्थाएं मौजूद हैं, के पास भी इस अवसर का लाभ उठाने का मौका है. उन्हें ये अवसर फ्रेंड-शोरिंग और री-शोरिंग के रूप में उपलब्ध होंगे. अपने मौजूदा आक्रोश के बावजूद छोटी एवं खुली अर्थव्यवस्थाएं-जैसे कि ASEAN सदस्य- भी इनमें से कुछ लाभ उठा सकते हैं. उन्हें भी विभिन्न पक्षों (जिसमें चीन, US तथा EU एवं वैश्विक दक्षिण के व्यापार साझेदार शामिल हैं) के साथ-साथ संसाधन-संपन्न अर्थव्यवस्थाओं जैसे लातिन अमेरिका, अफ्रीका और मध्य पूर्व द्वारा रिझाने की कोशिश होते हुए दिखाई देगी.
दूसरे वैश्विक दक्षिण को मिलने वाली लाभ की स्थिति संभवत: आर्थिक और भूआर्थिक दायरे से कहीं ज़्यादा आगे तक जाएगी. ट्रांसअटलांटिक दरार और US तथा चीन के बीच चल रही समस्याओं के कारण मौजूदा व्यवस्था को न केवल पर्यायी बाज़ार और संसाधनों की आपूर्ति करने वाले ही नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें दिल और दिमाग को भी जीतने की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए यदि वे कनेक्टिविटी को मजबूती प्रदान करने को लेकर गंभीर है तो इसके लिए सक्षम/व्यवहार्य और पर्यायी कॉरिडोर्स की अदला-बदली के लिए इंटरऑपरेबिलिटी यानी पारस्पारिकता पूर्व शर्त होगी. इसके लिए मानक और मापदंडों के मुद्दों को लेकर कोई हल निकालते हुए साझा हित वाला माहौल तैयार करना होगा. संकेत : कई संस्कृतियों या समूहों का सहअस्तित्व वाला शासन.
दूसरे वैश्विक दक्षिण को मिलने वाली लाभ की स्थिति संभवत: आर्थिक और भूआर्थिक दायरे से कहीं ज़्यादा आगे तक जाएगी. ट्रांसअटलांटिक दरार और US तथा चीन के बीच चल रही समस्याओं के कारण मौजूदा व्यवस्था को न केवल पर्यायी बाज़ार और संसाधनों की आपूर्ति करने वाले ही नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें दिल और दिमाग को भी जीतने की ज़रूरत है.
वैश्विक दक्षिण की वैचारिक ताकत उसके लिए समझौतागत लाभ उठाने का तीसरा कठिन संदर्भ उत्पन्न करती है. वैश्विक दक्षिण में केवल “स्विंग स्टेट्स” का ही समावेश नहीं है जिनका उपयोग वैश्विक और क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में या किसी पक्ष के ख़िलाफ़ झुकाने में इस्तेमाल किया जाए. इस समूह के भीतर ही सभ्यताओं से जुड़ी शक्तियां और विभिन्न तरह की समस्याओं (उदाहरण, व्यवस्था के ज़्यादा न्यायोचित दृष्टिकोण) को लेकर बेहद-ज़रूरी पर्यायी विचार पेश करने वाली लिविंग रिपॉसिटोरी भी उपलब्ध है. क्षेत्रीय और वैश्विक व्यवस्था को लेकर चीनी दृष्टिकोण के बारे में पढ़ना कुछ नया नहीं है. [20] एक और सभ्यतागत शक्ति, भारत, भी एक अनूठी विश्वदृष्टि प्रस्तुत करता है. [21] मसलन भारत में ऐसी शक्तिशाली परंपराएं हैं जो ये तर्क देती हैं कि “मानवाधिकार केवल मानवों के लिए नहीं” [22] बल्कि यह सभी जीवों तक विस्तारित हैं. भारत में गहरी पैठ जमा चुके मूल्य आज भी फल-फूल रहे हैं. इन मूल्यों को स्कूल में बच्चों को पढ़ाए जाने वाले छंद या कविताओं में और दादा-दादी की ओर से सुनाई जाने वाली कहानियों में पाया जा सकता है. ये मूल्य भारत की बढ़ते राजनीतिक नैरेटिव और प्रैक्टिसेस् में दिखाई देते हैं.
भारत ने G20 की अध्यक्षता करते हुए अपने इन वैचारिक मूल्यों के बीज बोए थे. ये बीज G20 की थीम “वसुधैव कुटुम्बकम” (“एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य”) के माध्यम से बोए गए थे. यह केवल बयानबाजी करने के लिए लगाया गया नारा नहीं है, बल्कि इसमें इंटर-स्पीसिस् जस्टिस यानी अंतर-प्रजाति न्याय करने वाला दूरगामी विचार झलकता है. [23] बिग कैट अलायंस एवं सोलर अलायंस स्थापित करने में भारत की ओर से प्रदान किए गए नेतृत्व को इन विचारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आचरण में लाने के लिए उठाए गए ठोस कदम के रूप में देखा जा सकता है. जलवायु परिवर्तन, वहनीयता, प्राणी कल्याण और ग्रहों के अधिकार संबंधी समस्याओं को गंभीरता से निपटाने वालों (शायद राष्ट्रपति ट्रंप के “ड्रिल, बेबी ड्रिल” आवाहन के बीच दोगुणा हो गया है) को भारत की नॉन-एंथ्रोपोसेंट्रिक ट्रेडिशंस यानी गैर मानव-केंद्रित परंपराओं को अपनाना चाहिए.
अब तक दिए गए तर्कों की समीक्षा यह है कि पश्चिम के लिए जो संकट है वह न केवल वैश्विक दक्षिण के कुछ हिस्सों के लिए एक अवसर हैं, बल्कि इस संकट के वैश्वीकरण और वैश्विक शासन के लिए रोमांचक निहितार्थ हैं. अनेक विकासशील देशों के पास पहले की अपेक्षा वर्तमान में सौदेबाजी करने की मजबूती स्थिति दिखाई देती है. लेकिन बातचीत में लाभ की स्थिति में होने से यह गारंटी नहीं मिल जाती कि बातचीत में सफ़लता ही मिलेगी. और अब आत्मसंतुष्ट रहने के लिए वक़्त नहीं है.
इसमें ख़तरे भी बहुत हैं. उभरती शक्तियों के समक्ष अवसर उपलब्ध होने के बावजूद बहु्ध्रुवीयता के कारण अनिश्चितता और अस्थिरता को लेकर जटिलता बढ़ जाती है. इंटरनेशनल वॉटर्स अर्थात अंतरराष्ट्रीय स्थितियों से निपटने में सरकारे भले ही बेहद सावधानीपूर्वक प्रयास कर रही हो, लेकिन नागरिकों को इस फ़ैसले को स्वीकार करने के लिए अच्छी तरह से कार्यरत, पारदर्शी तथा रेजिलियंट डोमेस्टिक इंस्टीट्यूशंस यानी लचीले घरेलू संस्थानों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी. [24] यह भी सच है कि बढ़ी हुई महान शक्ति प्रतिस्पर्धा के बीच वैश्विक दक्षिण के BATNA में सुधार हुआ है. चीन भी बढ़ते ट्रांसअटलांटिक विभाजन को अपने पक्ष में करने की कोशिशें करेगा और विभिन्न साझेदारों को ललचाने वाले प्रस्ताव देकर इस स्थिति का दोहन करेगा.
चीन के साथ अपनी पुरानी नज़दीकियों को हासिल करने की यूरोपियन सक्रियता की वजह से वैश्विक शक्ति संतुलन में परिवर्तन हो सकता है. [25] इस बार यह परिवर्तन न केवल वैश्विक दक्षिण से दूर होगा, बल्कि यह एक अथॉरिटेरियन एक्सिस यानी सत्तावादी धुरी के पक्ष में होता दिखाई देगा. अमेरिकी बाज़ार से बाहर होने वाली चीनी सामग्री को वैश्विक दक्षिण और यूरोप में धकेला जा सकता है, जिसके चलते विनिर्माण पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है. ट्रंप की ट्रेड पॉलिसी (उदाहरण, दक्षिणपूर्वी एशिया से विनिर्माण को स्थानांतरित करने) में मौजूद ख़ामियों का चीन लाभ उठाने की कोशिश करेगा और यह बात छोटे खिलाड़ियों के लिए दोधारी तलवार साबित होगी. इस बात का भी ख़तरा है कि बहुपक्षीय संस्थानों से US की एक्जिट (कुछ मामलों में हकीकत में और कुछ मामलों में कानूनी तौर पर) का लाभ उठाकर चीन उसकी खाली जगह को भरने की कोशिश करेगा. US की जगह खुद को स्थापित करने के लिए चीन यह तर्क देगा कि ऐसा करना वर्तमान वैश्विक व्यवस्था के ही हित में है. इतना ही नहीं वह ऐसी बयानबाजी का सहारा भी लेगा जो वैश्विक दक्षिण के विकासोन्मूख एजेंडा के बेहद करीब दिखाई देने वाली हो. लेकिन ऐसे देश जो वैश्विक प्रशासन में मौलिक पुनर्गठन (उदाहरण, UN सुरक्षा परिषद) के पक्ष में रहे हैं और वे जो लोकतांत्रिक मूल्यों के समर्थक, प्लुरलिज्म यानी अनेकता, मानवाधिकार और वन्यप्राणी अधिकार- वैश्विक दक्षिण तथा वैश्विक उत्तर के स्टेट और नॉन स्टेस एक्टर्स - का समर्थन करते हैं खुद को ठगा हुआ महसूस करेंगे. इन ख़तरों को न्यूनतम करने में अनुसंधानकर्ता तथा नीति निर्माता एक सहायक की भूमिका अदा कर सकते हैं.
जहां तक यह बात है कि पश्चिमी देशों का संकट किस हद तक ग्लोबल साउथ के पक्ष में रुख़ प्रस्तुत करता है और यह इसके फलस्वरूप पश्चिमी सहयोगियों और मित्रों को कैसे लाभ प्रदान कर सकता है, इसका उत्तर यही है कि इस तरह वैकल्पिक दृष्टिकोणों पर ध्यान केंद्रित करने के बहुत फ़ायदे है विशेषकर समान विचारधारा वाले दक्षिणी लोकतंत्रों के लिए. थिंक टैंक और विश्वविद्यालय उन इंटरनेशनल रिलेशन्स और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों पर काम कर सकते हैं जिसकी उपज पश्चिमी राजनीतिक विचार से नहीं है. उदाहरण के लिए, यदि हम भारतीय राजनीति और राजनीतिक विचार से प्रेरित अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत पर काम करते हैं तो हम बहुत अलग तरह के आधारभूत विचारों पर काम कर पाएंगे. ऐसे सिद्धांत शुरू में कम एंथ्रोपॉसेंट्रिक होंगे और मानवाधिकारों का विचार न केवल "एशियाई" मूल के कारण पृथक होगा बल्कि लिबरलिस्म के पश्चिमी सोच की तुलना में व्यक्ति (मानव और मानव से बढ़कर) के अधिकारों का अधिक सुरक्षात्मक भी होगा.
प्रैक्टिशनर्स को समानांतर कदम उठाकर आगे बढ़ने के लिए अपनी टेक्नोक्रेटिक सीमित सोच और अनुशासनात्मक कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने की आवश्यकता होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि नीति अनुशासनात्मक, वैश्विक दृष्टिकोणों की विविधता से लेस हो. उदाहरण के लिए, यदि यूरोपीय संघ या भारत में नीति निर्माताओं को वैश्विक सप्लाई चेन को फिर से नए तरीके से शुरू करने के बारे में अगर केवल अर्थशास्त्री और ट्रेड लॉयर ही सलाह देते, तो परिणामी नीतियां आपूर्ति और विकास की सुरक्षा को प्राथमिकता देती (उसी तरह जिस तरह से ऐसे मामलों पर WTO [26] में चर्चा की जाती है). इसके ठीक विपरीत, यदि राजनीतिक वैज्ञानिकों और इतिहासकारों की सलाह से अगर इस सलाह का विविधीकरण होता तो राष्ट्रीय सुरक्षा, विकास और नैतिकता के विचार भी सामने आते. व्यापारिक ट्राजेक्टरी मौलिक तौर पर बदल जाएंगे और वैश्वीकरण का आकार और दायरा भी बदलेगा. इन विविध दृष्टिकोणों के साथ व्यवस्थित रूप से जुड़ना वैश्विक कार्य करने वाली संस्थानों के लिए न केवल महत्वपूर्ण होगा बल्कि यह एक नई साझेदारी, गठबंधन और दोस्तियां बनाने के लिए भी महत्वपूर्ण होगा.
बाज़ी आखिरकार पलट रही है: हम इसके क्या मायने निकालते हैं यह हम पर निर्भर है.
इस पेपर का एक प्रारंभिक संस्करण 31 मार्च से 1 अप्रैल 2025 के बीच Accademia Nazionale dei Lincei और इंस्टीट्यूट फॉर न्यू इकोनॉमिक थिंकिंग द्वारा आयोजित किए गए कांफ्रेंस "फ्रेमिंग वर्ल्ड इंटरडिपेंडेंस" में प्रस्तुत किया गया था. इसी पेपर का एक बृहत संस्करण 25 अप्रैल 2025 को RIS, नई दिल्ली में आयोजित DAKSHIN नामक विशेष व्याख्यान श्रृंखला के उद्घाटन व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत किया गया था. लेखक दोनों आयोजनों में प्राप्त बहुमूल्य फीडबैक के लिए आयोजकों और प्रतिभागियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है. इस पेपर को मार्टिन डांटन के रचनात्मक सुझावों के साथ-साथ एक गुमनाम समीक्षक की सहायक टिप्पणियों से भी लाभ हुआ है. सामान्य चेतावनियां लागू.
Endnotes:
[1] Stewart Patrick and Alexandra Huggins, “The Term ‘Global South’ Is Surging. It Should Be Retired,” Carnegie Endowment, August 15, 2023, https://carnegieendowment.org/posts/2023/08/the-term-global-south-is-surging-it-should-be-retired?lang=en; Alan Beattie, “The ‘Global South’ Is a Pernicious Term and Needs to be Retired,” Financial Times, September 14, 2023, https://www.ft.com/content/7f2e0026-56be-4f3d-857c-2ae3a297daab.
[2] For More: Nora Kürzdörfer and Amrita Narlikar, “Was Ist Schon Ein Name?,” Internationale Politik, August 28, 2023, https://internationalepolitik.de/de/was-ist-schon-ein-name; Republished in English, “A Rose by Any Other Name: In Defence of the Global South,” Global Policy, August, 29, 2023, https://www.globalpolicyjournal.com/blog/29/08/2023/rose-any-other-name-defence-global-south.
[3] Amrita Narlikar, “On Breakthroughs, Deadlocks, and Rose-Gardens Lost in Between: The Failed Promise of North South Cooperation,” in Rethinking the 1990s: Liberal World Order-Building in the Aftermath of the Cold War, ed. G. John Ikenberry and Peter Trubowitz (Oxford University Press, accepted for publication, forthcoming 2026).
[4] Francis Fukuyama, “The End of History?,” The National Interest 16 (1989): 3-18.
[5] Pete Hegseth, “Opening Remarks by Secretary of Defence Pete Hegseth at Ukraine Defence Contact Group,” (speech, Brussels, February 12, 2025), US Department of Defense, https://www.defense.gov/News/Speeches/Speech/Article/4064113/opening-remarks-by-secretary-of-defense-pete-hegseth-at-ukraine-defense-contact/.
[6] For a differentiation between earlier forms of asymmetric interdependence versus weaponized interdependence, see Daniel Drezner, Henry Farrell and Abraham Newman eds., The Uses and Abuses of Weaponized Interdependence (Brookings Institution, 2021).
[7] Amrita Narlikar, Poverty Narratives and Power Paradoxes: International Trade Negotiations and Beyond (Cambridge University Press, 2020).
[8] The White House, “Vice President JD Vance Delivers Remarks at the Munich Security Conference,” YouTube video, 19:30 min, February 14, 2025, https://www.youtube.com/watch?v=pCOsgfINdKg.
[9] For an analysis of why the Vance speech prompted such a strong reaction- Amrita Narlikar, “Outrage at Munich,” Raisina Debates, February 18, 2025, https://www.orfonline.org/expert-speak/outrage-at-munich. .
[10] Read more about the history and culture of Raisina Dialogue in S. Jaishankar and Samir Saran, Raisina Chronicles: India’s Global Public Square (Rupa Publications, 2025).
[11] The Economic Times, “EAM S Jaishankar on Why Europe’s Perspective of World’s Problems is Flawed,” YouTube video, 7:12 min, June 3, 2022, https://www.youtube.com/watch?v=GmsQaWZPvtQ.
[12] Amrita Narlikar, ed., Deadlocks in Multilateral Negotiations: Causes and Solutions, (Cambridge University Press, 2010).
[13] On the discontent of the larger developing countries, see Amrita Narlikar, “Negotiating the Rise of New Powers,” International Affairs 89, no. 3 (2013): 561-576, https://academic.oup.com/ia/article-abstract/89/3/561/2326649; Specifically on why reform in the WTO did not prove adequate, see Amrita Narlikar, “How Not to Negotiate: The Case of Trade Multilateralism,” International Affairs 98, no. 5 (2022): 1553-1573, https://academic.oup.com/ia/article/98/5/1553/6686642.
[14] The term “more-than-human” is more constructive than the negative “non-human” or the “othering” inherent in “other-than-human” when discussing transspecies rights and justice. See for instance, Matthew Leep, “Introduction to the Special Issue: Multispecies Security and Personhood,” Review of International Studies 49, no. 2 (2023): 181-200.
[15] World Wildlife Fund and Zoological Society of London, Living Planet Report 2024, World Wildlife Fund, Gland, Switzerland, 2024, https://livingplanet.panda.org/en-IN/; “Biodiversity - Our Strongest Natural Defense against Climate Change,” United Nations Climate Action, https://www.un.org/en/climatechange/science/climate-issues/biodiversity.
[16] Cullen S. Hendrix, “Trump’s April 2 Tariff Spree Could Cripple Developing Economies,” Peterson Institute for International Economics-Realtime Economics Blog, April 4, 2025, https://www.piie.com/blogs/realtime-economics/2025/trumps-april-2-tariff-spree-could-cripple-developing-economies; Olivia le Poidevin, “‘Impact of Tariffs on Developing Countries Could Be catastrophic,’ says UN Trade Agency,” Reuters, April 11, 2025, https://www.reuters.com/world/tariffs-have-catastrophic-impact-developing-countries-worse-than-foreign-aid-2025-04-11/.
[17] Stephen D. Krasner, Structural Conflict: The Third World against Global Liberalism (Berkeley: California University Press, 1985).
[18] Amrita Narlikar and Rorden Wilkinson, “Collapse at the WTO: A Cancun Post-Mortem,” Third World Quarterly 25, no. 3 (2004): 447-460.
[19] For more on some of the possible and positive, unintended results of Trump’s trade policy, see Amrita Narlikar, “Three Beautiful Consequences of Trump’s Tariff Game,” Indian Express, April 23, 2025, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/three-beautiful-consequences-of-trumps-tariff-game-9959958/.
[20] E.g., Ban Wang, Chinese Visions of World Order: Tianxia, Culture and World Politics (Duke University Press, 2017)
[21] S. Jaishankar, The India Way: Strategies for an Uncertain World (Harper Collins, 2022); Aruna Narlikar, Amitabh Mattoo, and Amrita Narlikar, Strategic Choices, Ethical Dilemmas: Stories from the Mahabharat (Penguin Random House, 2023); Amrita Narlikar and Aruna Narlikar, Bargaining with a Rising India: Lessons from the Mahabharata (Oxford University Press, 2014); Harsh Pant and Samir Patil, eds., The Making of a Global Bharat (New Delhi, Observer Research Foundation, 2024), https://www.orfonline.org/public/uploads/posts/pdf/20240220113216.pdf.
[22] Raimundo Panikkar, “Is the Notion of Human Rights a Western Concept,” Diogenes 30, no.120 (1982): 75-102.
[23] Amrita Narlikar, “India and the World: Civilizational Narratives in Foreign Policy” in Foreign Policy: Theories, Actors, Cases, ed. Steve Smith et al. (Oxford University Press, 4th edition, 2024).
[24] It is worth reiterating that the Global South is not a monolith. Only some parts of the Global South will be capable of harnessing the opportunities presented by this brave new world. States with fragile economies and dysfunctional institutions of governance will lack the necessary agility to adapt (e.g. to new supply chains), and will risk further internal chaos amidst potential capture by terrorist organizations, authoritarian surveillance, control of scarce resources by unaccountable private actors, and more. Such disruption may also turn out to be difficult to contain, and may deliberately or accidentally inject new sources of extreme instability in their neighbourhoods and globally.
[25] Jorge Liboreiro, “‘The West As We Knew It No Longer Exists,’ Von Der Leyen Says Amid Trump Tensions,” Euro News, April 16, 2025, https://www.euronews.com/my-europe/2025/04/16/the-west-as-we-knew-it-no-longer-exists-von-der-leyen-says-amid-trump-tensions .
[26] N Kürzdörfer, “The End of the Golden Weather? Addressing the Geoeconomic Shift in Global Trade Governance” (PhD. diss., Hertie School, 2024), https://opus4.kobv.de/opus4-hsog/frontdoor/deliver/index/docId/5658/file/Dissertation_Kuerzdoerfer.pdf.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Dr. Amrita Narlikar’s research expertise lies in the areas of international negotiation, World Trade Organization, multilateralism, and India’s foreign policy & strategic thought. Amrita is Distinguished ...
Read More +