अमेरिकी इतिहास का सबसे तल्खी भरा राष्ट्रपति चुनाव अपने अंतिम पड़ाव पर आ पहुंचा है. शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि एक पूर्व राष्ट्रपति का मुकाबला चुनावी प्रक्रिया के बीचो-बीच प्रतिद्वंद्वी पार्टी की बदली हुई प्रत्याशी के साथ हो रहा है. रिपब्लिकन पार्टी के दावेदार डोनाल्ड ट्रंप और मौजूदा उपराष्ट्रपति एवं डेमोक्रेट उम्मीदवार कमला हैरिस के बीच चुनावी समीकरण इतने उलझ गए हैं कि बड़े से बड़े राजनीतिक पंडित भी किसी भविष्यवाणी से परहेज कर रहे हैं. ताजा ओपिनियन पोल्स भी कांटे की टक्कर बता रहे हैं. दोनों पक्ष अपना पूरा दम लगा रहे हैं. पूरे विश्व की नजरें इस चुनाव पर लगी हुई हैं, क्योंकि इस समय दुनिया जिस प्रकार की अस्थिरता के दौर से गुजर रही है, उस लिहाज से इस चुनाव की अहमियत और बढ़ गई है. अमेरिका का यह चुनाव परिणाम वैश्विक ढांचे को व्यापक स्तर पर प्रभावित करने जा रहा है.
पूरे विश्व की नजरें इस चुनाव पर लगी हुई हैं, क्योंकि इस समय दुनिया जिस प्रकार की अस्थिरता के दौर से गुजर रही है, उस लिहाज से इस चुनाव की अहमियत और बढ़ गई है.
ध्रुवीकरण का नया दौर
इस बार के राष्ट्रपति चुनाव पिछले चुनावों से कई मामलों में अलग दिखाई दे रहे हैं. इसका एक प्रमुख कारण तो यही है कि दोनों में से कोई भी उम्मीदवार ऐसा कोई केंद्रीय-विचार सामने नहीं रख पाया, जिसकी धुरी पर चुनाव चलता. सामान्य तौर पर किसी भी चुनाव में कोई खास मुद्दा ही मतदाताओं को सबसे अधिक प्रभावित करता है, लेकिन इसके उलट अमेरिकी चुनाव में बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण देखा जा रहा है. वैसे तो अमेरिकी समाज पिछले कुछ समय से ध्रुवीकृत होता जा रहा है, लेकिन जितना सामाजिक, राजनीतिक एवं लैंगिक ध्रुवीकरण इस चुनाव में दिख रहा है, वह अप्रत्याशित है. इसका प्रभाव दोनों प्रत्याशियों की भाषा एवं भाव-भंगिमा पर भी पड़ रहा है, जिसमें नीतिगत मुद्दों से अधिक निजी हमलों का सहारा लिया जा रहा है. चूंकि चुनाव में कोई केंद्रीय मुद्दा नहीं है तो दोनों ही खेमे अपने-अपने मूल मुद्दों के सहारे नैया पार लगाने की कोशिश में हैं. इसके माध्यम से उनका यही प्रयास है कि अपने कोर वोटर्स को मतदान के लिए प्रोत्साहित एवं लामबंद किया जाए. जैसे डोनाल्ड ट्रंप का मुख्य मुद्दा आव्रजन से जुड़ा है. वह प्रवासियों को अमेरिकी सुरक्षा एवं स्थानीय लोगों के रोजगार के लिए खतरनाक बताकर उनसे निपटने की नीति बनाने की बात कर रहे हैं. उनका वादा है कि राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी इतिहास में सबसे बड़ा आव्रजन-विरोधी अभियान चलाया जाएगा. इसी तरह आर्थिक अनिश्चितताओं से जूझ रहे अमेरिका की इस कमजोरी को भी ट्रंप अपने चुनाव प्रचार अभियान की ताकत बनाने में लगे हैं. वह बाइडन-हैरिस प्रशासन की आर्थिक नाकामियों को उभारकर बेहतर आर्थिक परिदृश्य की तस्वीर दिखा रहे हैं. अमेरिकी मतदाताओं को उनके ये वादे कितने लुभावने लगते हैं, इसका पता भी जल्द ही लग जाएगा.
वैसे तो अमेरिकी समाज पिछले कुछ समय से ध्रुवीकृत होता जा रहा है, लेकिन जितना सामाजिक, राजनीतिक एवं लैंगिक ध्रुवीकरण इस चुनाव में दिख रहा है, वह अप्रत्याशित है.
दूसरी ओर हैरिस अपने अभियान में ट्रंप की ताकत को ही कमजोरी बताने की मुहिम में लगी हैं. असल में ट्रंप अपने व्यक्तित्व में जिस दृढ़ता और मजबूती का दावा करते हैं, हैरिस उनके उसी व्यक्तित्व को अनिश्चित एवं अस्थिर प्रकृति का बता रही हैं कि नीतिगत निरंतरता से लेकर स्थिरता के लिए ट्रंप का ऐसा चरित्र घातक सिद्ध होगा. अतीत में ट्रंप ने कुछ ऐसे अप्रत्याशित फैसले लिए हैं, उनका हवाला देकर और उनके भाषणों से भी हैरिस को इस मामले में विमर्श तैयार करने में कुछ मदद मिल रही है. इसके अलावा अश्वेत वर्ग से लेकर महिलाओं के तबके को साधने की भी हैरिस पुरजोर कोशिशें कर रही हैं. गर्भपात के मुद्दे को ही लें. महिलाएं इस मामले को लेकर बहुत संवेदनशील हैं, जबकि ट्रंप का रवैया इस मोर्चे पर लगातार बदलता रहा है. उनके शासन में गर्भपात कानून को लेकर संदेह बढ़ रहा है और डेमोक्रेट खेमा इसे अपने पक्ष में भुना रहा है. हाल में मिशेल ओबामा ने भी हैरिस के समर्थन में इस मुद्दे पर चर्चा की. प्रवासियों के मुद्दे पर भी डेमोक्रेट का रुख ट्रंप की तुलना में नरम है. यही कारण है कि दोनों पक्ष अपने कोर वोटर्स को साधने पर ही पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए हैं, क्योंकि वे भी ध्रुवीकरण के चलते मतदाताओं को दोफाड़ होता देख रहे हैं.
असहजता की स्थिति
यह चुनाव अमेरिका की लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है. ऐसा मानने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है, जो यह सोचते हैं कि प्रतिकूल चुनावी परिणाम आने पर ट्रंप शायद जनादेश को ही अस्वीकार कर दें. वह पहले भी ऐसा कर चुके हैं और अमेरिकी संसद-कैपिटल हिल पर उनके समर्थकों के उत्पात की स्मृतियां लोगों के जेहन में अभी तक बनी हुई हैं. यदि ऐसी कोई स्थिति बनती है तो अमेरिकी लोकतांत्रिक ढांचे पर सवालिया निशान लग जाएंगे. इससे पूरी दुनिया में यही संदेश जाएगा कि अमेरिका में लोकतांत्रिक ढांचे की बुनियाद दरक रही है. ट्रंप समर्थकों के ऐसे किसी संभावित कदम के दूरगामी दुष्प्रभाव देखे जाएंगे. पूरी दुनिया को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों की गुणवत्ता पर उपदेश देने वाले अमेरिका के लिए असहजता की स्थिति बनेगी.
यदि ऐसी कोई स्थिति बनती है तो अमेरिकी लोकतांत्रिक ढांचे पर सवालिया निशान लग जाएंगे. इससे पूरी दुनिया में यही संदेश जाएगा कि अमेरिका में लोकतांत्रिक ढांचे की बुनियाद दरक रही है.
ट्रंप के जीतने की स्थिति में वैश्विक समीकरणों पर व्यापक असर पड़ेगा. अगर वह आव्रजन पर कोई सख्त फैसला लेते हैं तो इसका असर तमाम देशों पर पड़ेगा, क्योंकि यदि कुछ प्रवासियों को उनके देश भेजा जाता है तो इससे तनाव बढ़ेगा. कुछ देशों के अमेरिका के साथ संबंधों पर भी असर पड़ सकता है. आंतरिक स्तर पर भी इससे टकराव बढ़ सकता है. इसके अलावा यूक्रेन से लेकर इजरायल के मुद्दे पर भी ट्रंप का रुख-रवैया चौंकाने वाला हो सकता है. विदेश नीति को सामान्य तौर पर ऐसा क्षेत्र माना जाता है, जहां नीतिगत निरंतरता का दृष्टिकोण अपनाया जाता है, लेकिन अपने पिछले कार्यकाल में ट्रंप विदेश नीति में आमूलचूल बदलाव कर इस परिपाटी को ध्वस्त कर चुके हैं. नए कार्यकाल में वह और कुछ सख्त कदम उठा सकते हैं, जिसके चलते पहले से ही अस्थिरता से जूझ रहे वैश्विक ढांचे पर व्यापक असर पड़ सकता है.
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