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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले सप्ताह रूस की दो सबसे बड़ी तेल कंपनियों को निशाना बनाते हुए नए प्रतिबंधों की घोषणा की. उन्होंने बुडापेस्ट में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ प्रस्तावित बैठक भी अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी. यह इस बात का संकेत है कि रूस-अमेरिका संबंध बिगड़े हैं.
डोनाल्ड ट्रंप ने अपने बयान में कहा कि जब भी मैं व्लादिमीर से मिलता हूं तो हमारे बीच बहुत अच्छी बातचीत होती है लेकिन वह कहीं पहुंचती नहीं है. इस बयान से लगता है कि इस बार अमेरिका ने पुतिन की चुनौतियों और जमीनी हकीकत की अच्छी पड़ताल की. ट्रंप ने आखिरकार सीधे रूस को निशाने पर लेने का फैसला किया, जिससे वह अब तक बच रहे थे.
इसी अगस्त में ट्रंप ने अलास्का में रूसी राष्ट्रपति का जोरदार स्वागत किया था. तब उन्हें लग रहा था कि वह पुतिन को शांति के लिए मना लेंगे. इससे दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्तों में नए दौर की संभावना बनी थी. मैसेज यह दिया गया कि अमेरिका यूक्रेन को कुछ समय के लिए ही सही, दरकिनार कर सीधे रूस से बातचीत करने को तैयार है.
अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से भी मिले. उन्हें एक बार फिर कह दिया गया कि रूस युद्धविराम के बजाय ऐसा शांति समझौता चाहता है, जिसमें युद्ध के कारणों का निदान हो. हालांकि ये बातचीत भी आगे नहीं बढ़ सकी.
यूक्रेन और अमेरिका के यूरोपीय मित्र देशों के लिए यह चिंता की बात थी क्योंकि इसमें यूक्रेन की आवाज दब जाने का खतरा था. ट्रंप ने रूस को चेतावनी भी दी थी कि अगर बातचीत में सार्थक प्रगति नहीं हुई तो उसके बेहद गंभीर नतीजे हो सकते हैं. इसके बावजूद उस बैठक में ना तो कोई औपचारिक समझौता हुआ और ना युद्धविराम की घोषणा की जा सकी. पुतिन अपने रुख से जरा भी हिलने को तैयार नहीं हुए.
ट्रंप प्रशासन कुछ दिनों से सारे विकल्प आजमा रही है. एक तरफ यूक्रेन को लंबी दूरी की टॉमहॉक मिसाइलें देने की बात चल रही थी तो दूसरी तरफ ट्रंप यह भी कह रहे थे कि युद्ध समाप्त करने के लिए यूक्रेन रूस को कब्जा की हुई जमीन के सवाल पर कुछ रियायतें देने को राजी हो जाए. अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से भी मिले. उन्हें एक बार फिर कह दिया गया कि रूस युद्धविराम के बजाय ऐसा शांति समझौता चाहता है, जिसमें युद्ध के कारणों का निदान हो. हालांकि ये बातचीत भी आगे नहीं बढ़ सकी.
अमेरिका ने आखिरकार ‘इस निरर्थक युद्ध को बंद करने से पुतिन के इनकार’ के मद्देनजर रूस की दो सबसे बड़ी तेल कंपनियों- रोजनेफ्ट और लुकॉयल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी. इसी समय यूरोप ने भी रूस से लिक्विफाइड नेचुरल गैस के आयात पर रोक लगाने का ऐलान किया. हालांकि रूस का कहना है कि उसने पश्चिमी प्रतिबंधों के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध हासिल कर लिया है और वह पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी आर्थिक व ऊर्जा संबंधी क्षमताओं को विकसित करना जारी रखेगा.
यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की जरूर यह कहते हुए इसका स्वागत कर रहे हैं कि अधिक से अधिक दबाव से ही रूस को बातचीत की मेज पर लाया जा सकता है. उनके लिए चिंता की बात यह भी है कि सर्दियां आ रही हैं. यूक्रेन के एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर पर रूसी हमले बढ़ते जा रहे हैं. हालांकि इन प्रतिबंधों का कोई खास असर तभी नजर आएगा जब ये दीर्घकालिक योजना का हिस्सा हों. अभी यह साफ नहीं है कि अमेरिका का यह दबाव तात्कालिक है या ट्रंप प्रशासन अपने इस रुख पर टिका रहने वाला है.
जब रूस से तेल निर्यात में कमी के चलते ग्लोबल मार्केट में भाव चढ़ने लगेंगे तो नई दिल्ली को पश्चिम एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में भी तेल के वैकल्पिक स्रोत सुनिश्चित करने होंगे.
अमेरिकी रुख में यह बदलाव भारत के लिए भी दुविधा की स्थिति पैदा कर रहा है. एक तरफ रूस से कच्चा तेल खरीदने की नीति है तो दूसरी तरफ अमेरिका के परोक्ष प्रतिबंधों की जद में आने का खतरा, वह भी ऐसे समय जब उसके साथ व्यापार समझौते पर बातचीत चल रही है. यह देखना होगा कि अमेरिकी प्रतिबंधों पर अमल रूस से भारत को होने वाली तेल सप्लाई को किस हद तक प्रभावित करता है और क्या रूस कोई रास्ता निकाल पाता है. जब रूस से तेल निर्यात में कमी के चलते ग्लोबल मार्केट में भाव चढ़ने लगेंगे तो नई दिल्ली को पश्चिम एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में भी तेल के वैकल्पिक स्रोत सुनिश्चित करने होंगे.
यह लेख मूलतः एनबीटी में प्रकाशित हुआ था.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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