अमेरिका में राष्ट्रपति पद के शपथ ग्रहण से पहले डोनाल्ड ट्रंप जिस तरह के बयान दे रहे हैं, उनसे पूरी दुनिया में हलचल मची है. पहले उन्होंने कनाडा को 51वां अमेरिकी राज्य बनाने की इच्छा जताई. फिर, ग्रीनलैंड व पनामा नहर को हासिल करने की चाहत दिखाई और अब मेक्सिको की खाड़ी का नाम बदलकर अमेरिका की खाड़ी करने की बात कही है. उन्होंने अपना नौ सूत्री एजेंडा भी पेश किया है, जिसमें अपनी तमाम योजनाओं का जिक्र किया है. हालांकि, जब उनसे पूछा गया कि ग्रीनलैंड और पनामा नहर को लेकर वह सैन्य कार्रवाई भी करेंगे, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया, मगर कनाडा और मेक्सिको पर उन्होंने आर्थिक दबाव बनाने की बात जरूर कही, जिससे वैश्विक कूटनीति को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं पनपने लगी हैं.
इन सबका शुरुआती संकेत यही है कि ट्रंप अशांति पैदा करने वाली अपनी पुरानी कार्यशैली पर ही विश्वास कर रहे हैं. दुनिया भर में अमेरिका को लेकर जो सहमति रही है, वह उसे भी बदलना चाह रहे हैं. दरअसल, दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी सत्ता रिपब्लिकन के हाथों में रही हो या डेमोक्रेट के हाथों में, वे यह स्पष्ट रहे हैं कि अपनी विदेश नीति में अमेरिका कभी विस्तारवादी ताकत के रूप में दिखाई न पड़े. मगर डोनाल्ड ट्रंप के हालिया बयान अमेरिका की इस छवि के प्रतिकूल दिख रहे हैं. अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों के उलट वह खुली धमकी देने में विश्वास करते दिख रहे हैं.\
ट्रंप संभवतः सभी को अमेरिकी हितों की अहमियत का एहसास कराना चाहते हैं. वह बताना चाहते हैं कि यदि इस पर आंच आई, तो अमेरिका हर मुमकिन कदम उठाने से नहीं हिचकेगा, फिर सामने चाहे कनाडा जैसा मित्र देश हो या मुकाबला चीन, रूस जैसे प्रतिद्वंद्वी देशों से हो.
ट्रंप संभवतः सभी को अमेरिकी हितों की अहमियत का एहसास कराना चाहते हैं. वह बताना चाहते हैं कि यदि इस पर आंच आई, तो अमेरिका हर मुमकिन कदम उठाने से नहीं हिचकेगा, फिर सामने चाहे कनाडा जैसा मित्र देश हो या मुकाबला चीन, रूस जैसे प्रतिद्वंद्वी देशों से हो. संभवतः इसी कारण उन्होंने हमास को भी चेताया है कि उनके शपथ ग्रहण से पहले यदि उसने इजरायली बंधकों को रिहा नहीं किया, तो उसे अंजाम भुगतना पड़ सकता है. वह कहीं-न-कहीं यह जताते दिख रहे हैं कि अमेरिका की विदेश नीति अब पुराने ढर्रे पर नहीं चलेगी और हाल के दशकों में अमेरिका ने जो प्रयोग नहीं किए हैं, उसे करने से भी वह नहीं हिचकेंगे.
वैसे, ज्यादा संभावना यही है कि ट्रंप दबाव बनाने की रणनीति के तहत ऐसा कर रहे हैं. जैसे, कनाडा को लेकर उन्हें यह आशंका है कि वह वाशिंगटन से अपने समीकरण बिगाड़ रहा है. लिहाजा, उन्होंने पहले उसके उत्पादों पर टैरिफ बढ़ाने की बात कही, जिसके बाद निवर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो उनसे मिलने अमेरिका भी गए थे, जहां ट्रंप ने उनका मजाक बनाया था. वह संभवतः कनाडा से मोलभाव करना चाह रहे हैं कि वह या तो अपने उत्पादों पर ज्यादा टैरिफ चुकाए या फिर अमेरिकी राज्य बनकर इस रकम से छुटकारा पाए और इसका इस्तेमाल अपने हित में करे.
इसी तरह, ग्रीनलैंड बेशक डेनमार्क का हिस्सा है, लेकिन वहां अमेरिका के कई खुफिया अड्डे हैं, एक अंतरिक्ष इकाई है और बैटरी व हाईटेक उत्पादों के निर्माण में जरूरी खनिज के भंडार हैं. ट्रंप अपने बयानों से अमेरिका के लिए ग्रीनलैंड की अहमियत बता रहे हैं और यह जता रहे हैं कि रूस और चीन से पहले वहां अमेरिका की पकड़ सुनिश्चित होनी चाहिए. जाहिर है, जैसे-जैसे यह मसला आगे बढ़ेगा, ग्रीनलैंड-डेनमार्क पर ट्रंप को यह संतुष्ट करने का दबाव बढ़ेगा कि वहां हर हाल में अमेरिकी हित सुरक्षित रखे जाएं.
रही बात पनामा नहर की, तो ट्रंप को आशंका है कि पनामा का झुकाव चीन की ओर बढ़ रहा है. उनका मानना है कि अमेरिकी जहाजों से यहां तुलनात्मक रूप से ज्यादा फीस ली जा रही है. उसके दो बंदरगाहों का प्रबंधन भी हांगकांग की दो कंपनियों के पास है. चूंकि इस नहर पर पहले अमेरिका का ही नियंत्रण था, जिसे सन् 1977 में पनामा के हवाले कर दिया गया, इसलिए डोनाल्ड ट्रंप का मानना है कि यहां हर हाल में अमेरिका का दावा सबसे ऊपर होना चाहिए. यानी, यहां की भू- राजनीति के मद्देनजर दूसरे देशों की तुलना में अमेरिका को प्राथमिकता देने के वह हिमायती हैं.
चूंकि इस नहर पर पहले अमेरिका का ही नियंत्रण था, जिसे सन् 1977 में पनामा के हवाले कर दिया गया, इसलिए डोनाल्ड ट्रंप का मानना है कि यहां हर हाल में अमेरिका का दावा सबसे ऊपर होना चाहिए.
इस पूरे परिदृश्य से भी यह पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर दुनिया अब एक ऐसे रास्ते की ओर बढ़ चली है, जहां पर बड़ी ताकतें ही आपस में उलझने वाली हैं. अमेरिका को यह एहसास है कि किसी समय बेशक उसकी तूती बोलती थी, लेकिन अब एकमात्र महाशक्ति की उसकी हैसियत नहीं रही. चीन जैसे देश का बढ़ता रुतबा उसे अपनी सामरिक और विदेश नीति बदलने को मजबूर कर रहा है. वास्तव में, डोनाल्ड ट्रंप अपने बयानों से बदलते अमेरिका का ही संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें जहां कनाडा और मेक्सिको के साथ उसका आर्थिक मुद्दा जुड़ा है, तो पनामा और ग्रीनलैंड के साथ चीन की प्रतिस्पर्द्धा का मसला. चूंकि ट्रंप का एजेंडा शुरू से 'अमेरिका फर्स्ट', यानी सबसे पहले अमेरिका का रहा है, इसलिए वह बेबाकी से अमेरिकी हितों को तवज्जो देने के दावे कर रहे हैं.
इन सबसे अन्य देश जरूर अचंभित हैं, क्योंकि एक महाशक्ति होने के नाते अमेरिका की कभी भी ऐसी विदेश नीति नहीं रही है. इससे आशंका यह जताई जाने लगी है कि ट्रंप के इस दूसरे कार्यकाल में क्या चीन की तरह अमेरिका भी विस्तारवादी नीतियों का पोषण करेगा? मगर इस पूरे घटनाक्रम का एक संदेश यह भी है कि ट्रंप घरेलू राजनीति की वजह से ऐसा कर रहे हैं और अपने लोगों को बताना चाह रहे हैं कि अमेरिका की महानता फिर से स्थापित करने के लिए यदि अन्य देशों पर दबाव बनाने की जरूरत पड़ी, तो राष्ट्रपति के तौर पर वह कतई पीछे नहीं हटेंगे.
अगर ट्रंप अपने दावों को हकीकत में बदलते हैं, तो वह भी चीन के नक्शेकदम पर आगे बढ़ते दिखेंगे, जिसका फायदा बीजिंग उठा सकता है.
हालांकि, इस प्रयास में वह अमेरिका की वैश्विक छवि से भी खेल रहे हैं. अगर डोनाल्ड ट्रंप 19वीं सदी के विस्तारवादी और औपनिवेशिक एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं, तो दूसरे देशों के साथ सहयोगी रवैया रखते हुए विश्व को आगे बढ़ाने या सॉफ्ट पावर की अमेरिकी छवि खंडित हो सकती है. सभी देशों को नाराज करना अमेरिका के खिलाफ जाएगा. अभी तक चीन को ही विस्तारवादी ताकत के तौर पर देखा जाता रहा है. अगर ट्रंप अपने दावों को हकीकत में बदलते हैं, तो वह भी चीन के नक्शेकदम पर आगे बढ़ते दिखेंगे, जिसका फायदा बीजिंग उठा सकता है. हालांकि, फिलहाल लग तो यही रहा है कि यह सब दबाव बनाने और मोलभाव की ही राजनीति है.
यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित हो चुका है.
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