Occasional PapersPublished on Mar 29, 2023
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सर्वव्यापी-सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा का लक्ष्य: G20 की प्राथमिकताएं

  • Debosmita Sarkar
  • Soumya Bhowmick

    ‘सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करना’ (2018) विषय पर G20 की एक रिपोर्ट श्रम बाज़ारों को पूरी तरह से बदलने के साथ ही सामाजिक सुरक्षा लाभों की पोर्टेबिलिटी अर्थात आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के माध्यम से श्रम गतिशीलता को सुविधाजनक बनाने में सामाजिक सुरक्षा की भूमिका पर प्रकाश डालती है.

विश्व में कम से कम चार अरब लोगों को अभी तक किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल सकी है. ऐसे में ये लोग आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय आघात के प्रति संवेदनशील हैं. यह आलेख ग्रुप ऑफ ट्वेंटी (G20) अर्थव्यवस्थाओं के समूह में सामाजिक सुरक्षा की स्थिति की पड़ताल करता है, जहां दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी बसती है. इस पड़ताल से यह बात पता चलती है कि इन देशों में सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण में अंतर है: यह अंतर सार्वभौमिक कवरेज और वास्तविक कवरेज के साथ-साथ वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण के देशों के बीच भी साफ़ दिखाई देता है. इन विषमताओं को दूर करने के लिए वैकल्पिक तंत्रों के माध्यम से सामाजिक सुरक्षा की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करना अहम हो जाता है. G20 के वर्तमान अध्यक्ष के रूप में, भारत अपने यहां चलाई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से मिलने वाले सबक का उपयोग करते हुए सामाजिक सुरक्षा के लिए स्थायी वित्तपोषण बनाने में जी 20समूह का मार्गदर्शन कर सकता है.


एट्रीब्यूशन: देबोस्मिता सरकार एवं सौम्या भौमिक, ‘‘सर्वव्यापी-सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा का लक्ष्य: G20 की प्राथमिकताएं,’’ ओआरएफ़ ओकेशनल पेपर नं. 386, जनवरी 2023, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.


1.प्रस्तावना

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने ‘सामाजिक सुरक्षा’ को मोटे तौर पर कुछ इस तरह परिभाषित किया है कि ‘‘समाज की ओर से व्यक्तियों और परिवारों को मुहैया करवाई जाने वाली सुरक्षा जो यह सुनिश्चित करती है कि इन लोगों की स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच सुगम हो और इन्हें आय सुरक्षा की गारंटी मिल सकें. विशेषत: यह उन लोगों के लिए होती है जो वृद्धावस्था, बेरोजगारी, बीमारी, अशक्तता, काम के दौरान लगने वाली चोट, मातृत्व या रोटी कमाने वाले की हानि का सामना कर रहे होते हैं.’’[1] इसी वज़ह से ‘सामाजिक सुरक्षा’ शब्द में बीमा और पेंशन से लेकर विकलांगता और बेरोजगारी लाभ तक अनेक प्रकार के लाभ शामिल होते हैं. इन उपकरणों का उद्देश्य सभी के लिए बुनियादी स्तर की आय और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच प्रदान करना और संकट की स्थितियों में इन लोगों के लिए सुरक्षा के जाल को विकसित करना होता है. 2016 में, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने संयुक्त रूप से यूनिवर्सल सोशल प्रोटेक्शन (USP) 2030 कॉल टू एक्शन को अपनाने का निर्णय लिया. इसके तहत विभिन्न देशों, अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों और संस्थानों को ‘‘सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा’’ पर वैश्विक प्रतिबद्धता को पूरा करने के प्रयासों को पूरा करने के लिए उन प्रतिबद्धताओं को निभाना है, जिन्हें सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (SDG) अर्थात सतत विकास लक्ष्य 2030 एजेंडा में शामिल किया गया था.[2]

सामाजिक सुरक्षा को ऐतिहासिक रूप से सरकार की ज़िम्मेदारी माना गया है. विभिन्न देशों ने भी अपनी प्रणालियों में विविधता लाते हुए सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण के विभिन्न रूपों को समायोजित करने की दिशा में ठोस प्रयास किए हैं.

सामाजिक सुरक्षा को ऐतिहासिक रूप से सरकार की ज़िम्मेदारी माना गया है. विभिन्न देशों ने भी अपनी प्रणालियों में विविधता लाते हुए सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण के विभिन्न रूपों को समायोजित करने की दिशा में ठोस प्रयास किए हैं. इस प्रक्रिया में विभिन्न देश अपने पास उपलब्ध पूंजीगत संपत्ति के विभिन्न रूपों- मानव, भौतिक, सामाजिक और प्राकृतिक [a] - का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं. सतत विकास लक्ष्यों की उपलब्धि में सामाजिक सुरक्षा की अहम भूमिका को ‘‘सस्टेनॉमिक्स अर्थात स्थिर अर्थशास्त्र’’ ढांचा पहचानता है.[3] यह मेटा-फ्रेमवर्क (ढांचों का ढांचा) विकास के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं को संतुलित करते हुए एक ट्रान्सडिसिप्लिनरी अर्थात अंत:विषय एकीकृत दृष्टिकोण अपनाते हुए विकास के स्थिरता पहलू को सक्षम बनाता है (फिगर 1 देखें). सामाजिक सुरक्षा विशेषताएं, सस्टेनॉमिक्स के तीनों स्तंभों में शामिल हैं. एक ओर जहां सामाजिक सुरक्षा आर्थिक प्रगति के लिए समावेशी विकास को गति प्रदान करती है, वहीं दूसरी ओर यह सशक्तिकरण और शांति और मज़बूत संस्थानों के सामाजिक सिद्धांतों पर निर्भर करते हुए मानव पूंजी को विकसित करती है. ऐसे में यह साफ़ है कि पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की कमज़ोर सामाजिक आर्थिक वर्गों को आजीविका के अवसर प्रदान करने में भूमिका निर्विवाद रूप से सामाजिक सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण घटक है; इस पर इस आलेख में आगे के हिस्से में चर्चा की जाएगी.

चित्र 1: ‘सस्टेनॉमिक्सके अहम तत्व

[caption id="attachment_115659" align="aligncenter" width="660"] स्त्रोत: सस्टेनॉमिक्स फ्रेमवर्क, मोहन मुनासिंघे[4][/caption]

 वैश्विक स्तर पर सामाजिक सुरक्षा ढांचे को संचालित करने के लिए विभिन्न प्रकार के इन्सट्रूमेन्ट्स अर्थात संसाधनों का उपयोग किया जाता है. इन संसाधनों को समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताओं और वल्नरबिलिटी अर्थात अतिसंवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए उनकी प्रासंगिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए. आर्थिक और सामाजिक वल्नरबिलिटी अर्थात अतिसंवेदनशीलता लिंग, सामाजिक समूहों, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, आयु, श्रम बल में लोगों के भागीदारी की सीमा और रोजगार की प्रकृति जैसे विभिन्न प्रभावित करने वाली चीजों की वज़ह से भिन्न-भिन्न हो सकती है. ऐसे में विभिन्न दृष्टिकोणों को मानते हुए, प्रत्येक सामाजिक सुरक्षा का उद्देश्य मुख्य रूप से ‘नो पॉवर्टी’ अर्थात ‘गरीबी उन्मूलन’ के पहले सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) को ही आगे बढ़ाना होता है. (देखें परिशिष्ट 1) एसडीजी 1 का लक्ष्य 1.3, सभी नागरिकों को कवरेज के साथ राष्ट्रीय स्तर पर उपयुक्त सामाजिक सुरक्षा मुहैया करवाने के प्रावधान पर आधारित है. सामाजिक सुरक्षा को ध्यान में रखकर किए जाने वाले पर्याप्त प्रावधानों को अन्य संबंधित एसडीजी की प्रगति के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हुए देखा गया है.

हालांकि, वर्तमान में, विश्व की महज 47 प्रतिशत आबादी को ही किसी न किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों का कवच मिला हुआ है.[5] शेष 53 प्रतिशत नागरिकों को व्यक्तिगत, स्थानीय या वैश्विक स्तर पर संकट के मामले में किसी भी तरह का सुरक्षा कवच उपलब्ध नहीं होता. मसलन, कोविड-19 महामारी संकट ने सामाजिक सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान की आवश्यकता की महत्ता को उजागर कर दिया था. कोविड-19 महामारी और उसकी वज़ह से आर्थिक स्थित पर पड़े प्रभाव के कारण आबादी के एक बड़े वर्ग के पास आय के नियमित स्रोतों से वंचित रहने के साथ ही उनके समक्ष कोई विकल्प नहीं बचा था. इन लोगों को सामाजिक सुरक्षा के कोई भी उपाय हासिल नहीं थे, जो इन्हें इस आर्थिक संकट के दौर में सहारा देने का काम कर सकते थे.

वर्तमान अध्ययन, सामाजिक सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए, G20 अर्थव्यवस्थाओं में उनके प्रभावी कवरेज पर ध्यान केंद्रित करता है. आखिरकार, G20 देशों में वैश्विक आबादी का 63 प्रतिशत हिस्सा रहता है, अत: G20 ही सामूहिक रूप से अधिकांश आबादी को सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा मुहैया करवा सकता है.

महामारी का सभी देशों में ऐसे लोगों पर सबसे ज़्यादा और सबसे बुरा असर पड़ा, जिनकी आय का स्तर कम था और जिनके पास सबसे कम सामाजिक सुरक्षा उपाय उपलब्ध थे. वैश्विक आबादी के निचले 40 प्रतिशत लोगों को अपनी औसत आय का 6.7 प्रतिशत खोना पड़ा, जबकि शीर्ष 40 प्रतिशत में इस स्थिति का सामना करने वाले लोगों की संख्या केवल 2.8 प्रतिशत थी.[6] महामारी के दौरान आय में देखी गई इस कमी ने अतिरिक्त सामाजिक सुरक्षा की अनुपस्थिति में लोगों की ख़स्ता होने वाली हालत को एक बार फिर दुनिया के सामने उजागर कर दिया. दरअसल, कोविड-19 की महामारी ने विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और उन्नत राष्ट्रों के बीच सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था के बीच की दूरी को और भी बढ़ा दिया है.[7]

यह बात ग्रुप ऑफ ट्वेंटी (G20) पर भी लागू होती है, जिसमें दुनिया भर की कुछ सबसे बड़ी उन्नत और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं.[8] G20 अर्थव्यवस्थाओं में महामारी के दौरान उत्पाद और कारक बाज़ारों की मांग-आपूर्ति की गतिशीलता को बनाए रखने के लिए सामाजिक सुरक्षा कवरेज में उल्लेखनीय सुधार आवश्यक था. लेकिन इसकी वज़ह से सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण में जो अंतर था, वह और भी बढ़ गया. G20 की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए, सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा के मामले में पहले से मौजूद चुनौतियां- अर्थात, आर्थिक अनौपचारिकता, संकीर्ण कर आधार, अवैध वित्तीय प्रवाह, लाभ स्थानांतरण और फिस्कल स्पेस कन्सीडरेशन्स अर्थात राजकोषीय स्थान संबंधी विचार- महामारी के दौरान और भी विकट होते चले गए.

वर्तमान अध्ययन, सामाजिक सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए, G20 अर्थव्यवस्थाओं में उनके प्रभावी कवरेज पर ध्यान केंद्रित करता है. आखिरकार, G20 देशों में वैश्विक आबादी का 63 प्रतिशत हिस्सा रहता है, अत: G20 ही सामूहिक रूप से अधिकांश आबादी को सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा मुहैया करवा सकता है. निम्नलिखित अनुभाग G20 की उन्नत और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण में मौजूदा भिन्नता और अंतर की जांच करते हुए दुनिया भर में सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए एक दृष्टिकोण का सुझाव देते हैं. अगले वर्ष G20 की अध्यक्षता करते हुए भारत, सामाजिक सुरक्षा के मुद्दों, विशेष रूप से गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में, G20 डेवलपमेंट वर्किंग ग्रुप (डीडब्ल्यूजी) के एजेंडे को निर्देशित करने में अहम भूमिका अदा कर सकता है. यूएसपी2030 की प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए G20, विशेषत: दुनिया की उभरती, विकासशील और अविकसित अर्थव्यवस्थाओं के लिए वित्तीय स्थिरता और सामाजिक सुरक्षा ढांचे की प्रगतिशील सार्वभौमिकता को पूरा करने वाले अभिनव मॉडल विकसित करने के लिए मिलकर काम कर सकता है.

2.G20 अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक सुरक्षा

G20 देश सामूहिक रूप से वैश्विक आबादी के लगभग 63 प्रतिशत नागरिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का काम कर सकते हैं.[9]दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में, G20 देशों ने सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच में सुधार लाने और इसके परिणामस्वरूप गरीबी उन्मूलन और असमानता को कम करने की दिशा में अहम काम करते हुए शानदार प्रगति की है. सामाजिक सुरक्षा के दायरे में इज़ाफ़ा होने की वज़ह से  ऊर्जा पहुंच में सुधार, प्रौद्योगिकी को अपनाने के दर में वृद्धि, पूंजी के विभिन्न रूपों की उत्पादकता में वृद्धि और समग्र सामाजिक प्रगति हासिल करने में भी विभिन्न देशों को सफ़लता मिली है. हालांकि, इनमें से कोई भी देश वर्तमान में चल रहे ‘डिकेड ऑफ एक्शन’ अर्थात ‘कार्रवाई के दशक’ के भीतर, एसडीजी हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए दिखाई नहीं दे रहे है.[10] अधिकांश एसडीजी लक्ष्य आंतरिक रूप से गरीबी उन्मूलन और आर्थिक विकास से जुड़े हुए होते हैं. अत: एजेंडा 2030 की दिशा में प्रगति हासिल करने के लिए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान और इसके दायरे में सुधार करना बेहद आवश्यक हो गया है. रोम में G20 नेताओं के घोषणापत्र में मानव-केंद्रित दृष्टिकोण के साथ पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा के महत्व पर बल दिया गया है. ऐसा करना महामारी की वज़ह से हुए आर्थिक नुक़सान को वापस हासिल करने के लिए भी ज़रूरी है. अत: सामाजिक सुरक्षा मुहैया करवाते वक़्त कामकाजी लोगों और श्रम बाज़ार की ज़रूरतों पर ध्यान दिया जाना भी आवश्यक हो जाता है ताकि आर्थिक वापसी को सुनिश्चित किया जा सकें.[11]

यह भी सच है कि विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक सुरक्षा का कवरेज अलग-अलग होता है. उच्च मध्यम आय वाले देश में जहां 90 प्रतिशत कवरेज दिखाई देता हैं, वहीं निम्न मध्यम आय वाले देश में यह 30 प्रतिशत से भी कम हो जाता है. बात जब कम आय वाले देशों की होती है तो यह पाया जाता है कि यह अनुपात गिरकर 15 प्रतिशत हो जाता है.[12]  G20 में शामिल उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, 75 प्रतिशत से अधिक आबादी को कम से कम एक सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलता ही हैं, जबकि उभरती हुई G20 अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक सुरक्षा की एक योजना का लाभ लेने वाले नागरिकों का औसत 60 प्रतिशत ही देखा जाता है. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं जैसे भारत और इंडोनेशिया में वहां की आबादी के निचले 40 प्रतिशत लोगों तक पहुंचने वाली सामाजिक सुरक्षा योजनाएं काफ़ी कम है. (फिगर 2 देखें) यह आय के स्तर और सामाजिक सुरक्षा कवरेज के बीच एक सकारात्मक सहसंबंध को उजागर करता है. अर्थात उच्च आय स्तर वाले देशों में उच्च सामाजिक सुरक्षा कवरेज देखा जाता है और वहां इसे पूरा करने के लिए वित्तीय स्थिरता को लेकर अपेक्षाकृत रूप से संज्ञान में नहीं लिए जाने की संभावना ज्यादा होती है.

इसलिए, सामाजिक सुरक्षा कवरेज का एक महत्वपूर्ण निर्धारक आर्थिक विकास ही होता है. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए जो यह सुनिश्चित करे कि इन योजनाओं को लागू करने का आय वृद्धि पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा. इसी प्रकार सही तरह से बनाई गई सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का भविष्य में होने वाली आय पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. ऐसा होने पर यह सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों के भीतर किसी भी वित्तीय तनाव को कम करने में अहम भूमिका अदा कर सकती है. यही तर्क सामाजिक सुरक्षा ढांचे के हिस्से के रूप में क्रमश: समर्थन कार्यक्रमों के प्रावधान का आधार बनता है.[13]

चित्र2: G20 अर्थव्यवस्थाओं में प्रभावी सामाजिक सुरक्षा कवरेज (जनसंख्या का%)

[caption id="attachment_115660" align="aligncenter" width="660"] स्त्रोत: विश्व सामाजिक सुरक्षा डेटा डैशबोर्ड[14] पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग करते हुए लेखक का अपना.
नोट: प्रभावी सामाजिक सुरक्षा कवरेज को कम से कम एक अंशदायी या गैर-अंशदायी नकद लाभ प्राप्त करने वाली या कम से कम एक सामाजिक सुरक्षा योजना में सक्रिय रूप से योगदान करने वाली कुल जनसंख्या के अनुपात के रूप में परिभाषित किया गया है.[/caption]

‘सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करना’ (2018) विषय पर G20 की एक रिपोर्ट श्रम बाज़ारों को पूरी तरह से बदलने के साथ ही सामाजिक सुरक्षा लाभों की पोर्टेबिलिटी अर्थात आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के माध्यम से श्रम गतिशीलता को सुविधाजनक बनाने में सामाजिक सुरक्षा की भूमिका पर प्रकाश डालती है.[15] यह रिपोर्ट उन चुनौतियों की भी शिनाख्त करती है, जिनका दुनिया भर के देश सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में सामना करते हैं, विशेषत: उन लोगों के लिए जो गैर-मानक श्रेणी में आने वाले रोज़गार का हिस्सा होते है. कोविड-19 महामारी द्वारा सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों की आवश्यकता और इससे जुड़ी चुनौतियों में इज़ाफ़ा (और एक प्रकार से इन्हें उजागर ही किया गया है) ही हुआ है.

III. सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण में अंतर

दुनियाभर में आबादी के एक बड़े वर्ग में सामाजिक सुरक्षा उपायों का प्रावधान अभी भी मौजूद नहीं है. G20 देशों में इन सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के वित्तपोषण में काफी भिन्नताएं हैं. यूरोपीय संघ को छोड़ दें, तो अधिकांश विकसित काउंटियों-देशों में सामाजिक सुरक्षा के वित्तपोषण में सरकार की कम भागीदारी है. वहां ये योजनाएं मुख्य रूप से अंशदायी योजनाएं हैं [b] और इनकी ज़िम्मेदारी ख़ुद नियोक्ता और कर्मचारियों द्वारा वहन की जा रही है.[16] इसके ठीक विपरीत विकासशील देशों में राज्य प्रायोजित योजनाओं का बड़ा हिस्सा है. ब्राजील की अपने श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रावधान में महत्वपूर्ण सहभागिता है.[17] हालांकि, वर्ष 2016[18] में मितव्ययिता संबंधी उपायों को शुरू किए जाने के बाद से इसमें कुछ कमी आई है. उधर, दक्षिण अफ्रीका में मिश्रित दृष्टिकोण अपनाया जाता है. वहां कौशल विकास कर (एसडीएल)[19]  जैसी कुछ योजनाओं को कर्मचारियों द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है, जबकि कुछ अन्य सरकार द्वारा प्रायोजित हैं,[20] जो आबादी के कमज़ोर वर्गों पर लक्षित हैं. भारत में भी सामाजिक सुरक्षा के दोनों रूपों का मिश्रण है: मातृत्व लाभ जैसे कुछ लाभ सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित हैं, जबकि भविष्य निधि जैसे अन्य लाभों में नियोक्ता और कर्मचारियों दोनों का योगदान शामिल होता है. तालिका 1 में चुनिंदा G20 अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न सामाजिक सुरक्षा उपकरणों के लिए विशिष्ट लक्ष्य समूहों के वास्ते वित्त पोषण की प्रकृति को दर्शाया गया है.

तालिका1: सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों का स्वरूप (भारत, यूएस, यूके, जर्मनी)

[caption id="attachment_115661" align="aligncenter" width="660"] स्रोत: लेखकों के अपने. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन[21] के डाटा का इस्तेमाल किया गया है.[/caption]

हालांकि, सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में 'वैश्विक उत्तर' में राज्य की कम भागीदारी के बावजूद, G20 की उन्नत अर्थव्यवस्थाएं अपने सार्वजनिक खर्च का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक व्यय पर ख़र्च करती हैं. (फिगर 3 देखें). यह इस बात को दर्शाता है कि इन विकसित अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक सहायता का वित्तपोषण व्यापक कवरेज के साथ एक मजबूत सामाजिक सुरक्षा प्रणाली के अनुकूल है. दूसरी ओर, G20 के उभरती अर्थव्यवस्था के सदस्य देश सामाजिक सुरक्षा के सार्वजनिक प्रावधान में अपने सकल घरेलू उत्पाद का काफ़ी कम हिस्सा ख़र्च करते हैं. इसके अलावा, इन देशों में सामाजिक सहायता व्यय को अक्सर अपर्याप्त वित्तपोषण के बीच अवशिष्ट ख़र्च के रूप में मान लिया जाता है. इसके चलते संकट के समय इन देशों में आबादी के सबसे कमज़ोर वर्गों को उनके अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है. उदाहरण के लिए, अधिकांश दक्षिण एशियाई देशों में स्वास्थ्य पर कम सार्वजनिक ख़र्च के कारण जेब पर अत्यधिक बोझ आ जाता है. इसके कारण गरीब और कमज़ोर परिवार अक्सर भारी कर्ज़ में डूब जाते हैं.[22]

USP 2030 एजेंडा का लक्ष्य कम से कम एक प्रकार के अंशदायी या गैर-अंशदायी सामाजिक सुरक्षा साधन द्वारा पूरी आबादी के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना है. इसलिए, पिछली चर्चा कुल सामाजिक व्यय तक ही सीमित रही है. हालांकि, एक अलग विश्लेषण से अधिक दिलचस्प संबंध दर्शाए जाने चाहिए, जो इस सिलसिले में आगे काम करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. इनमें सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा एजेंडे के व्यापक दायरे में लक्षित समूह विनिर्देश और बजटीय पुनर्वितरण के संदर्भ शामिल हैं.

चित्र3: G20 अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक सुरक्षा व्यय (जीडीपी का %)

[caption id="attachment_115662" align="aligncenter" width="660"] स्रोत: लेखकों का अपना. विश्व सामाजिक सुरक्षा डाटा डैशबोर्ड[23] से डाटा का इस्तेमाल किया गया है. 
नोट: सार्वजनिक सामाजिक सुरक्षा व्यय में वैयक्तिक लोगों और परिवारों को प्रदान की जाने वाली सेवाओं एवं स्थानांतरण पर व्यय और सरकार द्वारा सामूहिक आधार पर प्रदान की जाने वाली सेवाओं पर व्यय शामिल है.[/caption]

इस नज़रिये से यहां इस बात पर जोर देना महत्वपूर्ण है कि एक ओर जहां सामाजिक सुरक्षा के राज्य प्रावधान को बढ़ाने की ज़रूरत है, वहीं इससे जुड़े कुछ वित्तीय पहलू भी अहम हैं. उदाहरण के लिए ब्राजील में देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 12-13 प्रतिशत हिस्सा केवल पेंशन देने में चला जाता है. उधर, भारत जैसी बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए कर-राजस्व-जीडीपी अनुपात काफ़ी कम 16 प्रतिशत है, जो अपनी आबादी के लिए कवरेज का विस्तार करने के लिए सामाजिक सुरक्षा उपकरणों के विविधीकरण को आवश्यक कर देता है. इसलिए, सामाजिक सुरक्षा के सार्वजनिक प्रावधान (सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के रूप में सामाजिक व्यय में वृद्धि) की पड़ताल कर-राजस्व-जीडीपी अनुपात जैसे राजकोषीय स्थिरता संकेतकों को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए.

सिर्फ़ G20 ही नहीं, बल्कि अन्य देशों के लिए भी यही बात सच है. सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों के लिए किए गए बजटीय आवंटन के अनुपात में काफ़ी स्पष्ट अंतर हैं. उच्च आय वाले देशों में यह अनुपात औसतन सार्वजनिक व्यय का 16.4 प्रतिशत है, जबकि उच्च-मध्यम आय वाले देशों में यह 8 प्रतिशत है. निम्न-मध्यम आय वाले देशों में यह काफ़ी कम 2.5 प्रतिशत और निम्न-आय वाले देशों में तो महज 1.1 प्रतिशत है. इसके अलावा, विभिन्न आय समूहों से संबंधित देशों के बीच सामाजिक सुरक्षा लाभों की प्रकृति और प्रभाव भी महत्वपूर्ण भिन्नताओं द्वारा चिह्नित होते हैं.

चित्र4 विभिन्न देशों में प्रति व्यक्ति आय के स्तर के लिहाज से सबसे गरीब आबादी के बीच विभिन्न प्रकार की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के कवरेज के स्वरूप और सीमा को दर्शाता है. उच्च आय वाले देशों में इस संदर्भ में सभी तरह के सामाजिक सुरक्षा लाभों सहित समग्र कवरेज काफ़ी अधिक हैं. इनमें अधिकांश रूप से सशर्त और बिना शर्त प्रत्यक्ष-लाभार्थी हस्तांतरण शामिल हैं. उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए भी यही बात सामने आती है. दूसरी ओर, निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों में सामाजिक सहायता में ज़्यादातर सार्वजनिक स्वरूप के कार्यक्रम शामिल हैं, जो इन देशों की लगभग 21 से 27 प्रतिशत जनसंख्या को कवर करते हैं. यह इन देशों में सामाजिक सहायता लाभों के स्थायी वित्तपोषण की प्रासंगिकता को इंगित करता है, ताकि सामाजिक सुरक्षा के वास्ते अधिक कवरेज और विविधीकरण को सुनिश्चित किया जा सके.

चित्र4: सबसे गरीब क्षेत्रों के सामाजिक सहायता का स्वरूप (% में) 

[caption id="attachment_115663" align="aligncenter" width="660"] स्त्रोत: विश्व बैंक[24][/caption]

कोविड-19 महामारी ने दुनिया के कई हिस्सों में गरीबों के जीवन और आजीविका को बाधित किया है. इसके समाधान के लिए कई देशों ने बीमा से लेकर आय प्रतिस्थापन उपायों तक के रूप में सामाजिक सुरक्षा के अस्थायी उपायों की शुरूआत की. हालांकि, इस दौरान अधिकांश देशों को अपने कर संग्रह और अन्य राजस्व में व्यवधान की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा. इसका मतलब यह हुआ कि विकासशील या अविकसित राष्ट्रों, जिनका कर आधार सीमित है और आबादी के एक बड़े हिस्से को सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता है वहां ख़र्च बढ़ाना, धन अनुबंध करना होगा और इससे उनके राजकोषीय घाटे में वृद्धि होगी. विकासशील देशों के लिए प्रत्यक्ष कराधान का आधार काफ़ी छोटा है- जो देश के कुल कर आधार को कम करता है.[25]यह इस बात को भी इंगित करता है कि एक ओर जहां इन देशों में बड़ी संख्या में लोगों को आजीविका सुरक्षा के लिए सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता है, वहीं वास्तव में बहुत कम लोग अपनी स्वयं की आय से इन अंशदायी योजनाओं के वित्तपोषण में भाग ले सकते हैं. इसलिए, इन देशों में सार्वजनिक सामाजिक सुरक्षा व्यय अक्सर राजकोषीय घाटे के लक्ष्यीकरण से सीमित होता है, जो मध्यम अवधि में उनकी व्यापक आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा 2019 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि विभिन्न देशों में बुनियादी सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान में वित्तपोषण अंतर को ख़त्म करने के लिए वर्ष 2030[26] तक 735.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर या निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1.25 प्रतिशत के अतिरिक्त संचयी निवेश की आवश्यकता होगी. इसमें से निम्न आय वाले देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद के 3.78 प्रतिशत के वृद्धिशील वित्तपोषण की आवश्यकता होगी. इसकी तुलना में निम्न-मध्यम आय और उच्च-मध्य आय वाले देशों के लिए उनके सकल घरेलू उत्पाद के क्रमश: 1.34 प्रतिशत और 1.16 प्रतिशत की आवश्यकता होगी. रिपोर्ट में सामाजिक सुरक्षा के लिए वित्त पोषण में वृद्धि को सुनिश्चित करने के वास्ते उपयुक्त तरीकों के रूप में कर राजस्व संग्रह में सुधार, अवैध धन हस्तांतरण को कम करने, सार्वजनिक धन को पुन: आवंटित करने और कर्ज़ प्रबंधन करने आदि का सुझाव दिया गया है. सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों में विचलन का समग्र रूप से वैश्विक जनसंख्या[27] के सामाजिक-आर्थिक विकास पर प्रभाव पड़ता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए दुनिया की सबसे उन्नत और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के एक रणनीतिक बहुपक्षीय मंच के रूप में G20 को इन देशों और अन्य विकासशील एवं अविकसित देशों में सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण की समग्र स्थिरता में सुधार सुनिश्चित करने के लिए कुछ समग्र परिवर्तन करने होंगे.

IV.सामाजिक सुरक्षा की दिशा में एक सतत् वित्तपोषण का ‘दृष्टिकोण’

सभी के लिए मज़बूत सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों की वित्तीय स्थिरता को सुनिश्चित किया जाए अर्थात यह उसकी पूर्वपेक्षा समझी जानी चाहिए. विभिन्न देशों में जब ऐसी प्रणाली स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है जो सबसे कमज़ोर लोगों के आर्थिक लचीलेपन में सुधार करते हुए शेष आबादी के लिए प्रगतिशील सार्वभौमिकता द्वारा निर्देशित समान सुरक्षा की गारंटी दे सकते हैं, तो उन्हें इन प्रणालियों के वित्तपोषण संबंधी विचारों को स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना ही चाहिए. सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों की आर्थिक स्थिरता में वित्तीय स्थिरता ही सबसे महत्वपूर्ण परिचालन बाधाओं में से एक है, जो ऐसी योजनाओं अथवा प्रणालियों को ख़तरे में डालती है. अतः सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को इस तरह बनाया जाएं कि इनका उद्देश्य सरकारी और निजी वित्त पोषित योजनाओं के बीच संतुलन साधने का हो सके. यह योजनाएं लक्षित समूहों की प्राथमिकता के साथ उनकी ज़रूरतों का ध्यान रखने वाली हो और अंतिम व्यक्ति तक इसकी पहुंच सुनिश्चित और प्रभावी तरीके से हो पाए. और सब अहम बात यह कि जिन लाभार्थियों तक यह पहुंचे उन्हें भी इस बात की अहमियत का अहसास होना चाहिए. आईएलओ कन्वेंशन नंबर 102 ने दुनिया भर के देशों के लिए सामाजिक सुरक्षा के सतत वित्तपोषण को सुनिश्चित करने के लिए विशिष्ट सिफारिशें की हैं, जिसमें निम्नलिखित सिफारिशें शामिल हैं:[28]

  • सामाजिक सुरक्षा के वित्तपोषण की ज़िम्मेदारी सरकार की सामान्य ज़िम्मेदारी के तहत होनी चाहिए. और इसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक प्रावधान ही माना जाना चाहिए;
  • सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण बकाया व्यय नहीं हो सकता है और इसे चक्रीय उतार-चढ़ाव और बाज़ार की विफ़लताओं के ख़िलाफ़ सबसे कमज़ोर लोगों की रक्षा के लिए एक प्रति-चक्रीय साधन समझा जाना आवश्यक है. इसका उपयोग लोगों को आपात स्थिति में सहयोग उपलब्ध करवाना और सभी के लिए समग्र आर्थिक और सामाजिक लचीलापन सुनिश्चित करना है;
  • सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण को सामान्य आर्थिक प्रवृत्तियों के प्रति भी उत्तरदायी होना चाहिए, जो निर्वाह आवश्यकताओं से जुड़ी भिन्नता को ध्यान में रखें और उन्हें पूरा करने के लिए ज़रूरी पर्याप्तता के लिए समायोजित हों.

इन व्यापक सिफारिशों के बावजूद, सामाजिक सुरक्षा वित्तपोषण में भिन्नताएं अब भी बरकरार है. निम्न-आय वाले देशों में, आबादी का एक छोटा वर्ग ही सामाजिक सुरक्षा के दायरे में आता है. इस दायरे में भी मुख्यत: औपचारिक क्षेत्र के लोग ही शामिल होते हैं. ऐसे में यह मामला आय और राजनीतिक अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखकर लक्षित वर्ग की निकटता से जुड़ा होता है.[29] दूसरी ओर, मध्यम और उच्च आय वाले देशों में सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था अधिकांश आबादी को अपने दायरे में रखने वाली होती है. वहां की सरकारें अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा इस पर ख़र्च करती हैं. सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों और संसाधनों के ढांचे के भीतर वित्तीय विचारों को समायोजित करने के लिए संरचनात्मक समायोजन, G20 देशों को लंबी अवधि में अपनी सामाजिक सुरक्षा की स्थिरता सुनिश्चित करने में सक्षम बना सकता है. सामाजिक सुरक्षा की पहुंच बढ़ाने में प्रणालीगत सुधार एक अहम भूमिका अदा करते हुए वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण में सामाजिक सुरक्षा में असमानताओं को कम करने में सहायक हो सकते है. इसी प्रकार ये सभी के लिए गरीबी उन्मूलन और आर्थिक विकास में भी योगदान दे सकते हैं.

G20 देशों में सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों का व्यवस्थीकरण

सामाजिक सुरक्षा को लेकर किए जाने वाले प्रावधानों में वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण में काफी अंतर हैं. G20 सदस्य देशों में भी ऐसी ही स्थिति है. इन देशों में भी सामाजिक सुरक्षा, कमज़ोर आबादी के प्रकार और आकार के साथ उनकी ज़रूरतों के हिसाब से बदलती रहती है और इसमें काफ़ी अंतर देखा जाता है. इस तरह की भिन्नता केवल अलग-अलग देशों के विचारों और हितों में नहीं दिखाई देने चाहिए, क्योंकि वे वैश्विक आबादी पर भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं.[30] इसमें बड़ी वित्तीय ख़ामियां भी होती है, जिन्हें दूर करने की क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है.

विभिन्न देश इन सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लाभ हस्तांतरण या लाभार्थी अथवा अपने यहां के सिस्टम अथवा वित्तपोषण के माध्यम से उचित मानते हुए लागू करते है. इन योजनाओं में सार्वभौमिक लाभ शामिल होते हैं - और ये लाभ बगैर किसी अतिरिक्त योग्यता अथवा पात्रता के सभी पर लागू होते हैं.

यदि विभिन्न देश अपने यहां लागू होने वाली सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के प्रावधानों को लेकर एक व्यापक रूपरेखा तैयार करने पर सहमत हो जाते हैं तो इससे संबंधित चुनौतियों को कुछ हद तक संबोधित किया जा सकता है. सामाजिक सुरक्षा मुहैया करवाने वाले संसाधनों अथवा माध्यमों की एक विस्तृत श्रृंखला उपलब्ध है. विभिन्न देश इन सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लाभ हस्तांतरण या लाभार्थी अथवा अपने यहां के सिस्टम अथवा वित्तपोषण के माध्यम से उचित मानते हुए लागू करते है. इन योजनाओं में सार्वभौमिक लाभ शामिल होते हैं - और ये लाभ बगैर किसी अतिरिक्त योग्यता अथवा पात्रता के सभी पर लागू होते हैं - और कुछ लाभ ऐसे भी होते हैं जो सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम के लिए पात्र विशिष्ट जनसांख्यिकीय समूहों को ध्यान में रखकर तैयार किए जाते है. विशिष्ट जनसांख्यिकीय समूहों की योजनाओं को प्रत्यक्ष लाभार्थी हस्तांतरण (डीबीटी), रोज़गार गारंटी और सार्वजनिक कार्यों, स्नातक शिक्षा और आय-सृजन कार्यक्रमों का उद्देश्य नज़रों के सामने रखकर तैयार किया जाता है. इसके अलावा विशेष रूप से ईको-टूरिज़्म एंड पेमेंट फॉर इकोसिस्टम सर्विसेस (पीईएस) पर ध्यान केंद्रित करने वाली और/या प्राकृतिक पूंजीगत संपत्ति या समुदाय-आधारित कार्यक्रमों के रूप में कई प्रकार के लाभों की पेशकश करने वाली योजनाएं भी होती है. ये योजनाएं या तो अंशदायी, या फिर गैर-अंशदायी, या स्वेच्छा से वित्तपोषित भी हो सकती हैं.

विभिन्न देशों की व्यक्तिगत सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों के घटकों में बड़ी भिन्नताओं के बावजूद, G20 में व्यापक सामाजिक सुरक्षा ढांचे को सुव्यवस्थित करना एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है. व्यवस्थीकरण की इस प्रक्रिया में सामाजिक सुरक्षा के मानकीकृत स्तरों को स्थापित करते हुए विभिन्न पहलूओं को प्राथमिकता देते हुए साक्ष्य-आधारित नीतियां और दिशानिर्देश तैयार करना शामिल हो सकता है. सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का विवरण और उसका दायरा स्थानीय संदर्भों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तय किया जाता है,[31] इस तरह की प्रक्रिया होने से सामाजिक सुरक्षा संसाधनों को तैयार करने अथवा उसका ख़ाका बनाना आसान हो सकता है.

व्यवस्थीकरण की दिशा में पहला कदम एक ऐसी प्रणाली को विकसित करना होगा, जिसमें विभिन्न देशों की सामाजिक सुरक्षा प्रणाली के विशिष्ट पहलुओं की निगरानी करने का काम कर सकें. इसकी शुरुआत देश विशेष में मौजूद कमज़ोर आबादी के प्रकार और आकार को मापने से करते हुए यह देखा जा सकता है कि यह आबादी किस हद तक सामाजिक सुरक्षा उपायों का लाभ ले रही है. इस प्रणाली का उपयोग करते हुए इसे नियमित अंतराल पर ट्रैक और मॉनिटर किया जाना चाहिए. ऐसा होने पर यह न केवल एसडीजी लक्ष्य 1.3 के साथ होने वाली प्रगति को ट्रैक अर्थात चिन्हित करने में सहायता करेगा बल्कि सामजिक सुरक्षा योजनाओं का अर्थव्यवस्था और लाभार्थियों के जीवन पर होने वाले असर को जोड़कर देखने में भी इसका उपयोग किया जा सकेगा. अत: इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि इस तरह की प्रणाली को संचालित कैसे किया जाएगा और यह प्रणाली किन प्रमुख लक्ष्यों की निगरानी करेगी. इसके अलावा, इन प्रणालियों की सफ़लता को मापने के लिए प्रक्रियाओं और संकेतकों को भी तैयार और विकसित करना पड़ेगा. वर्तमान में, एसडीजी में शामिल संकेतक, सामाजिक सुरक्षा कवरेज के व्यापक लक्ष्य के बारे में बात करते हैं, लेकिन तुलनात्मक प्रणाली होने से अधिक विशिष्ट परिचालन पहलुओं के मूल्यांकन को सक्षम किया जा सकता है.

विभिन्न हितधारकों के बीच सहयोगी पद्धति को डिज़ाइन करने अर्थात तैयार करने के लिए भी इस ढांचे का उपयोग किया जा सकता है. इसमें एक देश के भीतर विभिन्न हितधारक - यानी, नियोक्ता समूह, श्रमिक समूह, राज्य - शामिल होंगे, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करेंगे. इसके साथ ही इस ढांचे में विभिन्न देशों की सरकारों के बीच भी सहयोग हो सकता है. इसके अलावा इसमें अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भागीदारी से अतिरिक्त लाभ भी मिल सकता है, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वित्त, प्रौद्योगिकी और जानकारी साझा करने की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो सके. यह विशेष रूप से काम की बदलती प्रकृति को देखते हुए महत्वपूर्ण साबित होगा.

इस ढांचे की डिज़ाइन के भीतर पहले से मौजूद कमज़ोरियों को शामिल करके ढांचे को व्यापक बनाया जाना चाहिए. इन कमज़ोरियों में न केवल आर्थिक भेद्यताएं, बल्कि पर्यावरण कमज़ोरियां भी शामिल की जानी चाहिए. बढ़ते जलवायु परिवर्तन और विकासशील देशों पर जलवायु परिवर्तन के होने वाले असंगत परिणामों को देखकर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए इन देशों के वित्त और संसाधनों पर अधिक दबाव पड़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.[32] इन देशों पर जलवायु परिवर्तन का पड़ने वाला प्रभाव अनेक तरीकों से दिखाई दे सकता है. इसमें मुख्यत: जलवायु पैटर्न में बदलाव और आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि के कारण आजीविका को होने वाला नुक़सान शामिल हो सकते हैं. अगर इन्हें शुरू से ही ध्यान में रखकर नए सिरे से तैयार होने वाले ढांचे में शामिल किया जाता है, तो यह दीर्घावधि में इस ढांचे को और अधिक सस्टेनेबल अर्थात टिकाऊ बना देगा.

G20 सदस्य देश पहले से ही अनौपचारिक श्रमिकों को उनकी लक्षित आबादी की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विभिन्न तरह की सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं. मसलन, भारत ने अपने सामाजिक सुरक्षा एजेंडे को आगे बढ़ाने की दृष्टि से महिलाओं और अन्य अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखकर उनके लिए स्वरोजगार और सामाजिक उद्यमिता को बढ़ावा देने का लक्षित वित्तीय समावेशन कार्यक्रम शुरू कर रखा हैं.

G20 डीडबल्यूजी को इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए कि इस ढांचे को कैसे दीर्घकालीन वित्त पोषण उपलब्ध करवाया जा सकता है. यह वित्तपोषण अनुदान या किसी तरह की सहायता पर आश्रित नहीं हो सकता, क्योंकि यह एकबारगी का ख़र्च साबित होने की संभावना अधिक है. ऐसे में यह वित्तपोषण उन स्रोतों पर निर्भर होना चाहिए जो सदस्य देश स्वयं अर्जित एवं उपलब्ध करवाने में सक्षम हैं. इस मसले को संबोधित करने के लिए यह ढांचा, सदस्य देशों के बीच सहयोग को संस्थागत बना सकता है. 

असंगठित श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा का वित्तपोषण

सामाजिक सुरक्षा के कई सामान्य रूप, जैसे पेंशन और बीमा, रोज़गार से जुड़े होते हैं. हालांकि, औपचारिक रोज़गार के दायरे से बाहर रहने वाले ऐसे लोग, जिन्हें आईएलओ 'गैर-मानक' और 'कमज़ोर' रोज़गार के रूप काम करने वालों के रूप में संदर्भित करता है, इसके दायरे से बाहर रहते हैं.[33] विश्व का लगभग 60 प्रतिशत कार्यबल औपचारिक क्षेत्र[34] के बाहर ही काम करता है, जिसके पास सीमित अथवा कोई भी सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं होती है. यह उनके आर्थिक लचीलेपन और सामाजिक गतिशीलता पर गहरा असर डालता है.[35] विशेष रूप से विकासशील देशों में अनौपचारिक क्षेत्र का आकार बड़ा होता है. अत: वहां बड़ी संख्या में लोग औपचारिक सुरक्षा जाल से बाहर हो रहकर संकटों का सामना करने पर मजबूर हो जाते हैं.

ऐसे में सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के दायरे को बढ़ाकर अनौपचारिक क्षेत्र में आने वाले लोगों को इसमे शामिल करने की चुनौती और भी अनूठी हो जाती है.[36] इन श्रमिकों के लिए अनिवार्य अंशदायी सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था बनाकर उसमें इन लोगों को निरंतर शामिल करते रहना मुश्किल हो जाता है. रोज़गार के नए रूपों के विकास के साथ, जैसे कि गिग वर्क अर्थात छोटा-मोटा औचक काम और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की वज़ह से तैयार होने वाली अर्थव्यवस्था के इस दौर में अक्सर यह परिभाषित करना मुश्किल हो जाता है कि इसमें कर्मचारी आखिर कौन है? ऐसे में इन कर्मचारियों को लक्षित करने वाली विशिष्ट प्रणालियों को तैयार करने की बात तो दूर की ही रह जाती है.[37]

असंगठित श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा के विकास और वित्तपोषण पर विशेष ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में पहले से मौजूद वित्तपोषण की ख़ामी को पाटने की तैयारी करते वक़्त इन क्षेत्रों को ध्यान में रखकर यहां के कर्मचारियों को लक्षित करने वाली योजनाओं के लिए दो-आयामी दृष्टिकोण ज़रूरी हैं: अल्पावधि में वित्त सहायता के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन जुटाने और मौजूदा पूंजी और क्षमताओं का दोहन करने के लिए स्वयं अवसर तलाशने की आवश्यकता है. ऐसा होने पर ही इन सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लंबे समय तक वित्तपोषण उपलब्ध हो सकेगा. तत्काल चिंताओं को दूर करने के लिए, G20 डीडब्ल्यूजी को अनौपचारिक क्षेत्र को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने के लिए इन योजनाओं की लागत-लाभ विश्लेषण के साथ ही गहन मूल्यांकन की रूपरेखा विकसित करनी चाहिए. इन चुनौतियों में संबद्ध प्रशासनिक लागत जैसे कि रजिस्ट्रियों को बनाए रखना और अनुपालन को लागू करने जैसी बातों को भी शामिल किया जाना चाहिए. फलस्वरूप सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को कुछ इस तरह तैयार किया जाना चाहिए कि इसकी अनुपालन और प्रशासनिक लागत न्यूनतम रहें.

G20 सदस्य देश पहले से ही अनौपचारिक श्रमिकों को उनकी लक्षित आबादी की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विभिन्न तरह की सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं. मसलन, भारत ने अपने सामाजिक सुरक्षा एजेंडे को आगे बढ़ाने की दृष्टि से महिलाओं और अन्य अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखकर उनके लिए स्वरोजगार और सामाजिक उद्यमिता को बढ़ावा देने का लक्षित वित्तीय समावेशन कार्यक्रम शुरू कर रखा हैं.[38] इन प्रयासों को अक्सर ग्रैजूएशन सपोर्ट [डी] और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) जैसे निजी खिलाड़ियों की ओर से सहायता उपलब्ध करवाई जाती है. ऐसे में यह योजना बड़े अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक क्षेत्र के दायरे में लाने में अहम भूमिका अदा करती है.[39] सर्वोत्तम प्रथाओं की पहचान करने के लिए विशिष्ट मामलों का अध्ययन किया जा सकता है. हालांकि लक्षित समूहों और साथ ही स्थानीय संदर्भ में आने वाले बदलावों की वज़ह से इन सर्वोत्तम प्रथाओं को अन्य अधिकार क्षेत्रों में दोहराना संभव नहीं है. लेकिन यह सर्वोत्तम प्रथाएं ऐसे देशों के लिए एक व्यापक मार्गदर्शक के रूप में काम कर सकती हैं, जहां इस क्षेत्र में किसी भी तरह की प्रगति करने के लिए वहां की सरकारें परेशानी का सामना कर रही हैं. ऐसी योजनाओं को अपनाने की धीमी रफ्तार और इसकी कार्यान्वयन लागत के साथ ही सामाजिक बीमा और सामाजिक सहायता उपायों[40] दोनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है. ऐसा होने पर ही सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के कुशल तंत्र कुछ हद तक वित्तपोषण की कमी को दूर करने में सहायक साबित हो सकते हैं.

इस मामले में इन योजनाओं के समक्ष पेश आने वाली एक और चुनौती यह भी है कि इसमें काफ़ी भारी संख्या में लोगों को शामिल करना पड़ेगा. चूंकि विकासशील देशों में बड़ी मात्रा में लोग अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं,[41] अत: उनको भी इन योजनाओं के दायरे में लाने का मतलब यह होगा कि ऐसे देशों की वित्तीय स्थिति पर अतिरिक्त दबाव बढ़ जाएगा.

यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि अंशदायी योजनाओं की चुनौतियां इस संभावना को बढ़ा देती हैं कि वे प्रकृति में गैर-अंशदायी हैं. इस चुनौती से निपटने के लिए वित्तपोषण को लेकर एक व्यवस्थित दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है.[42] इन श्रमिकों के रोज़गार की अनूठी प्रकृति को ध्यान में रखना आवश्यक है. ऐसे में इन श्रमिकों की सहायता के लिए सामाजिक सुरक्षा की पारंपरिक डीबीटी योजनाओं के कवरेज का विस्तार करने से ही समस्या का हल नहीं हो, बल्कि ऐसा किए जाने पर यह सभी सरकार-प्रायोजित सामाजिक सुरक्षा की वित्तीय स्थिरता को प्रभावित करने वाला कदम साबित हो.

इन परियोजनाओं के प्रारंभिक विस्तार के लिए, कुछ देशों को विकास संगठनों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से बाह्य वित्त पोषण पर निर्भर रहना पड़ सकता है. लेकिन यह भी सुनिश्चित करना होगा कि लंबी अवधि में यह प्रक्रिया आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कैसे बनाई जा सकें. सामाजिक सुरक्षा उपाय लागू होने के बाद वे स्वयं गरीबी उन्मूलन और सबसे अहम बात यह है कि सामान्य तौर पर देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देंगे, जिसकी वज़ह से देश की वित्तीय ताकत में भी सुधार होगा. ऐसे में जब इसके दायरे का विस्तार किया जाएगा तो यह दिखाई देगा कि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर आश्रित लोगों की संख्या में भी निश्चित रूप से गिरावट आएगी. हालांकि इसमें भी संकट के दौरान अपवादात्मक स्थिति हो सकती है. यह एक लंबी प्रक्रिया है, जिसमें शामिल होने के संसाधन शायद अनेक देशों के पास तत्काल उपलब्ध न हो. ऐसी स्थिति में बाह्य वित्तपोषण की भूमिका और भी पुख़्ता और अहम हो जाती है.

मज़बूत सामाजिक सुरक्षा वितरण प्रणाली का विकास महत्वपूर्ण

सीधे लोगों तक पहुंचने वाली किसी भी अन्य नीति की तरह ही सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें अंतिम व्यक्ति तक योजना को कैसे पहुंचाना सुनिश्चित किया जाए अर्थात अंतिम दूरी तक वितरण कैसे संभव हो सकेगा? अगर अंतिम व्यक्ति तक योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच सका तो सामाजिक सुरक्षा की व्यापक नीतियां और प्रणालियां होने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. सक्षम वितरण प्रणालियां एक कुशल तरीके से अंतिम-मील वितरण सुनिश्चित करते हुए योजना की समग्र लेनदेन लागत को कम करती हैं. इस वज़ह से वित्तीय स्थिरता की संभावनाएं काफ़ी बढ़ जाती है. सामाजिक सुरक्षा वितरण प्रणाली की दक्षता या शक्ति को लक्षित लाभार्थियों द्वारा लाभों की वास्तविक प्राप्ति के माध्यम से ट्रैक किया जा सकता है.

कोविड-19 महामारी ने उपरोक्त बातों की अनिवार्यता को उजागर किया था. क्योंकि इस दौरान अंतिम-मील वितरण की प्रणाली बुरी तरह चुनौतियों से घिर गई थी. कुछ देशों के पास पुख़्ता व्यवस्था और प्रणालियां थीं, जिसकी सहायता से वे अपनी चुनौतियों से निपटने में सक्षम हो गए थे.[43] कई मामलों में, ऐसा करने में इन देशों ने तकनीक की सहायता ली थी. इस वज़ह से उनकी योजनाओं पर गतिशीलता पर प्रतिबंधों का ज़्यादा असर नहीं पड़ा था. दूसरी ओर कुछ देशों में इस समस्या अर्थात कोविड-19 महामारी से उपजी स्थिति से निपटने की अस्थायी व्यवस्था की गई, जो बग़ैर किसी योजना के लागू की गई थी. ऐसे में इन देशों को लाभार्थियों की शिनाख्त़ करने और उन तक पहुंचने में काफ़ी परेशानी हुई. और यही कारण था कि इन योजनाओं का लाभ अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच सका. सरकार ने संकट को ध्यान में रखकर कुछ नए उपाय तो किए, लेकिन यह शायद नए उपायों को लागू करने का सही वक़्त नहीं था.

ऐसे में सामाजिक सुरक्षा के उपायों को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए पुख़्ता प्रणालियों को स्थापित करना बेहद ज़रूरी है. यह बात सच है कि तकनीक की सहायता लेकर सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाया जा सकता है. लेकिन हमें इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि जिन लोगों तक यह लाभ पहुंचाया जाना है, वे तक़नीकी रूप से कितने सक्षम है अथवा इस बारे में उनका ज्ञान नगण्य तो नहीं है. इस बात को ध्यान में रखकर ही योजनाओं को बनाया जाना चाहिए. आमतौर पर इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन योजनाओं की प्रणाली उन लोगों को ध्यान में रखकर विकसित की जाए, जिन्हें लक्षित करने के लिए इन योजनाओं को बनाया जा रहा है. यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इन योजनाओं के लाभार्थियों के पास इनका लाभ उठाने के साधन और संसाधन उपलब्ध हों.

G20 देशों को सबसे पहले जिस चीज पर ध्यान देना चाहिए वह यह है कि अंतिम व्यक्ति तक इन योजनाओं का लाभ पहुंचाने के सामने पेश आने वाली चुनौतियां कौन सी हैं. जिन लोगों को लक्षित करके ये योजनाएं बनाई गई हैं, वहां ये चुनौतियां स्थान और लक्ष्य जनसंख्या समूह के आधार पर अनूठी होने की संभावनाएं हैं. ये चुनौतियां बेहद सशक्त भी हो सकती हैं. मसलन, लाभार्थियों की पहचान, सामाजिक सुरक्षा पर अमल और पहुंच सुनिश्चित करने के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं से भी जुड़ी हो सकती हैं. अक्सर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं की वज़ह से ही ऐसी योजनाओं का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने की संभावनाएं सीमित हो जाती हैं.

उदाहरण के लिए, किसी विशेष उद्योग में कौन कार्यरत है इसकी पहचान करने को लेकर भी चुनौतियां हो सकती हैं. इस वक़्त विस्तारित हो रहे गिग वर्क अर्थात छोटे मोटे औचक कार्य और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म में ये चुनौतियां और भी बढ़ जाती हैं. छोटे उद्योगों में सामाजिक सुरक्षा प्रथाओं को लागू करने को लेकर अपनी तरह की चुनौतियां सामने आ सकती हैं. इसका कारण यह है कि एक बार इन उद्योगों में ये योजनाएं लागू होने के बाद वहां बड़ी संख्या में काम करने वाले लोगों की निगरानी करना इसे लागू करने वाली संस्थाओं के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है. यदि सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी आधारित समाधानों का उपयोग किया जाता है, तो प्रौद्योगिकी तक पहुंच और डिजिटल साक्षरता से जुड़े दो पहलुओं पर भी नज़र डालनी होगी. प्रौद्योगिकी आधारित समाधानों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सामाजिक सुरक्षा का लाभ इसके लक्षित लाभार्थियों तक बेझिझक पहुंचे. मसलन, मातृत्व लाभ देने वाली योजनाओं को इस तरह तैयार किया जाना चाहिए कि वे ऐसी स्थिति में भी लाभार्थियों तक पहुंचे, जहां आमतौर पर सांस्कृतिक प्रथाओं की वज़ह से वित्तीय संसाधनों पर महिलाओं का अधिकार अथवा हक वर्जित है.

G20 देशों को सबसे पहले जिस चीज पर ध्यान देना चाहिए वह यह है कि अंतिम व्यक्ति तक इन योजनाओं का लाभ पहुंचाने के सामने पेश आने वाली चुनौतियां कौन सी हैं. जिन लोगों को लक्षित करके ये योजनाएं बनाई गई हैं, वहां ये चुनौतियां स्थान और लक्ष्य जनसंख्या समूह के आधार पर अनूठी होने की संभावनाएं हैं.

सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभ का सदुपयोग सुनिश्चित करने से इन योजनाओं के भविष्य के लाभार्थियों में भी एक नए उत्साह का संचार किया जा सकेगा. इसी वज़ह से इन प्रणालियों को भी सुचारू करने में सहायता मिलेगी. ऐसे में इन योजनाओं से होने वाले लाभों को लेकर किए जाने वाले अध्ययन और जनजागृति से जुड़ी गतिविधियां योजना चलाने वाले लोगों का ध्यान आकर्षित करने में सहायक साबित होंगी. इस शोध और वकालत को सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता के साथ-साथ इन योजनाओं के समक्ष पेश आने वाली चुनौतियों पर भी ध्यान देना होगा. इन परियोजनाओं के वित्तपोषण को उचित ठहराने में मदद करने के लिए सामाजिक सुरक्षा के व्यापक आर्थिक निहितार्थों को समझने की भी ज़रूरत है.

बदलती विश्व व्यवस्था में सामाजिक सहायता को सबसे सफ़लतापूर्वक लागू करने के लिए डिजिटल तकनीक का उपयोग ज़रूरी है. अत: विकासशील देशों में इन योजनाओं को लागू करने वाले संस्थानों के लिए इस तकनीक की पहुंच में सुधार पर ध्यान केंद्रित करना बुद्धिमानी का काम होगा. डिजिटल बुनियादी ढांचे तक पहुंच में सुधार के साथ-साथ डिजिटल साक्षरता में सुधार के लिए पर्याप्त कदम उठाने होंगे. ऐसा होने पर ही विभिन्न सरकारें सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच प्रदान करने के सभी चरणों में कुशल तकनीक-आधारित प्रणाली तैनात करने में सफ़ल और सक्षम साबित होंगी. इस प्रक्रिया के ऐसे निहितार्थ भी होंगे, जो सामाजिक सुरक्षा के उचित प्रावधान से कहीं आगे जाते हैं.

अन्य प्रक्रियाओं की तरह ही हितधारकों के बीच सहयोग से अंतिम-मील वितरण भी लाभान्वित होगी. G20 समूह में अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों के बीच सहयोग यह सुनिश्चित करने में सहायक हो सकता है कि अन्य देशों की सर्वोत्तम प्रथाओं को विभिन्न देश अपने हिसाब से अनुकूलित करते हुए सामाजिक सुरक्षा प्रक्रिया के त्वरित उन्नयन को सुनिश्चित करने में सफ़ल हो जाएं. इस मामले में निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता का भी उपयोग किया जा सकता है. सार्वजनिक-निजी भागीदारी में शामिल होने से प्रौद्योगिकी और अन्य संबंधित प्रक्रियाओं को बेहतर ढंग से अपनाने और उपयोग करने में मदद मिल सकती है. और यह भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि सामाजिक आवश्यकताओं के प्रति निजी क्षेत्र की सोच जागरूक बनी रहे.

पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं की भूमिका

एक औपचारिक सरकारी सामाजिक सुरक्षा ढांचा विकसित करने के साथ ही एक ऐसा सामाजिक सुरक्षा ढांचा भी विकसित किया जा सकता है जो ज़्यादा संगठित और समुदाय-नेतृत्व वाला हो और यह ढांचा ही सरकारी प्रणाली पर पड़ने वाले बोझ को कम करते हुए वित्तपोषण की आवश्यकता को कम करेगा. इसके अलावा यह ढांचा भी वही लाभ मुहैया करवा सकता है जो एक औपचारिक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली प्रदान करती है अर्थात यह ढांचा संकटों के ख़िलाफ़ सुरक्षा जाल के रूप में काम करने की व्यवस्था तैयार करने का काम करेगा. सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान में पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं की क्षमता को देखते हुए लोगों को इन प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होने वाले लाभों पर नियंत्रण रखने की अनुमति देने की आवश्यकता है.

पहले कदम के रूप में G20 वर्किंग ग्रुप अर्थात कार्यकारी समूह, संबंधित देशों में पर्यावरणीय कार्यक्रमों को सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों से जोड़ सकता है.[44] सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को यदि पर्यावरणीय पहलुओं को ध्यान में रखकर उसके साथ जोड़ा भी जाता है तो भी इस पर बेहद कम ध्यान दिया जाता है. सामाजिक प्रभावों के कुछ पहलुओं पर विचार करते हुए, पर्यावरणीय कार्यक्रम इस पर ज़्यादा तवज्जो नहीं देते. इन्हें जोड़ने का मतलब सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को इस तरह से तैयार करना पड़ेगा कि समुदायों के आसपास के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का और अधिक दोहन न किया जाए. समुदायों में अक्सर यह शोषण किसी अन्य संसाधनों या वित्तीय सुरक्षा उपायों के अभाव में होता है.

इसके अलावा G20 को इस बात की रिवर्स लिंक बनानी चाहिए कि पर्यावरणीय क्षति, सामाजिक सुरक्षा के बोझ को कैसे प्रभावित करते हुए इसे बढ़ाती है. यह मुद्दा G20 के तहत दक्षिण-दक्षिण सहयोग के दायरे में विचार-विमर्श का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है. इसमें गरीब देशों में प्राकृतिक पूंजी के स्थायी उपयोग पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है. यह बात पहले ही साफ़ कर दी गई है कि सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था पर्यावरणीय अतिसंवेदनशीलता को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए. इन दोनों विचारों को एक दूसरे से जोड़कर देखने से दोनों योजनाओं पर प्रबल प्रभाव पड़ सकता है और दोनों की स्थिति में सुधार देखा जा सकता है.

पिछले अनुसंधानों ने यह दिखा दिया है कि कैसे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं ‘‘गरीबों की जीडीपी’’ का निर्माण करती हैं.[45] यह बात सही है कि पर्यावरण के शोषण को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए, लेकिन लोगों को अपने प्राकृतिक संसाधनों का स्थायी उपयोग करने में सक्षम बनाया जाना चाहिए. प्राकृतिक संसाधनों का स्थायी और आकर्षक रूप से उपयोग को लेकर दिया जाने वाला प्रशिक्षण लोगों के लिए आय का एक स्त्रोत तैयार करते हुए उन्हें ख़ुद के लिए सामाजिक सुरक्षा देने में सफ़ल हो सकता है. उदाहरण के लिए, बांग्लादेश में सुंदरबन द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं क्षेत्र में लोगों की भलाई में अहम योगदान देती हैं,[46] अगर इन्हें अच्छी तरह से प्रबंधित किया जाता है तो सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता में कमी देखी जा सकती है.

इसके अलावा, सुंदरबन में प्रचलित ईकोटूरिज़्म की व्यवस्था से उपलब्ध अवसरों ने वहां की आर्थिक रूप से कमज़ोर आबादी के लिए आजीविका के भरोसेमंद रास्ते खोले हैं. इन्हें सरकारी सामाजिक सुरक्षा के एक विकल्प के रूप में देखा जा सकता है. इन अवसरों की वज़ह से सरकारी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के कारण सरकारी खजाने पर पड़ने वाला बोझ भी कम होता है. प्रचुर संसाधनों वाले कई विकासशील देशों के पास सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की इस पद्धति का उपयोग करने का मौका है. हालांकि, संरक्षण, विकास और पर्यटन के मामले में वैश्विक और स्थानीय हित अक्सर एक-दूसरे के सामने संघर्ष की मुद्रा में खड़े दिखाई देते हैं. भारत और अफ्रीका में चार संरक्षित क्षेत्रों पर उधम्मर (2006) के अध्ययन में पाया गया कि ऐसे विवादों को हल करने के लिए शासन संरचनाएं, संसाधनों का स्थानीय स्वामित्व और संस्थान सबसे सफ़ल साबित हुए हैं.[47]

इस तरह की सामाजिक सुरक्षा को सफ़ल बनाने के लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि इन प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व और उनसे होने वाला लाभ लोगों या समुदाय के पास ही रहें. इनकी देखरेख करने वाले समुदाय के भीतर भी, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि समुदाय में शामिल सबसे गरीब और कमज़ोर तबके के पास भी इन संसाधनों का नियंत्रण रहे[48] ताकि यह गारंटी हो सके कि ऐसे वर्गों को भी इन संसाधनों का लाभ मिल रहा है. इन प्राकृतिक संसाधनों का सरकार अथवा निजी क्षेत्र को भी शोषणकारी तरीके से उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. इस तरह की सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था लागू करना जो प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर निर्भर हो, दरअसल सामाजिक सुरक्षा के अधिक पारंपरिक रूपों की वापसी ही मानी जाएगी,[49] क्योंकि ऐतिहासिक रूप से कुछ समुदाय ऐसी सामाजिक सुरक्षा पर ही निर्भर रहे हैं.

V.भारत के मनरेगा का उदाहरण

आजादी के बाद से ही भारत की विकास यात्रा के लिए यहां की गरीबी उसके लिए सबसे बड़ी चिंता बनी हुई है.  सदियों पुराने औपनिवेशिक शासन की विरासत, देश के विशाल भौगोलिक आकार और इसकी आबादी की विविधता के कारण पैदा होने वाली जटिलता यहां के गरीबी उन्मूलन में एक अहम और बड़ी बाधाएं खड़ी करती रही है.

यद्यपि गरीबी से निपटना क्रमिक राजनीतिक व्यवस्थाओं के सामने एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ी रही है, लेकिन विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं ने विशेष रूप से पिछले एक दशक में गरीबी दर को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. भारत में गरीबी का अध्ययन तो काफ़ी लोगों ने किया है, लेकिन हालिया अप्रैल 2022 में विश्व बैंक द्वारा किए गए नवीनतम विश्लेषण में अनुमान लगाया गया है कि 2019 में गरीबी की गणना दर 10.2 प्रतिशत पर आ गई है. 2011 में यह दर 22.5 प्रतिशत थी.[50] आईएमएफ के अप्रैल 2022 में जारी किए गए एक अध्ययन में 2019 में चरम गरीबी के स्तर को एक प्रतिशत से कम आंका गया है. महामारी की शुरूआत के वर्ष 2020 में भी चरम गरीबी का यही स्तर था.[51]

देश में गरीबी उन्मूलन के लिए, भारत सरकार ने सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने, गरीबी में वापसी जाने से लोगों को बचाने और रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए अनेक कार्यक्रम शुरू किए हैं. नीति आयोग के अनुसार[52] महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम 2005 (मनरेगा), राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) और प्रधान मंत्री जन धन योजना (पीएमजेडीवाई) को ग्रामीण गरीबी को कम करने और प्रगति के क्षेत्र में मौलिक कार्यक्रमों के रूप में देखा जाना चाहिए. इन योजनाओं पर काम करते हुए ही भारत एसडीजी 1 के ‘‘हर जगह अपने सभी रूपों में गरीबी को समाप्त करने’’ के दिए गए उद्देश्य की दिशा में आगे बढ़ रहा है. (परिशिष्ट 2 देखें).

2005 में बनाया गया महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम-[53] एक ऐसा कानून है, जो देश में प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में 100 दिनों का रोज़गार उपलब्ध करवाने की गारंटी देता है. इसे दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक कल्याण कार्यक्रम माना जाता है. इस कानून को 1960 के दशक से 2000 के दशक की शुरूआत तक विभिन्न सरकारों की ओर से बनाए गए अनेक रोज़गार आश्वासन योजनाओं की परिणति के रूप में देखा जा सकता है. इसके मुख्य उद्देश्यों में से एक गरीबों के आजीविका संसाधन आधार को मज़बूत करना है. इसके अलावा इसमें रोज़गार उपलब्ध करवाने में सरकारी एजेंसी की विफ़लता पर मुआवजे का प्रावधान भी किया गया है. यह कानून एक परिवार के कम से कम एक वयस्क व्यक्ति को अकुशल श्रम के रूप में रोज़गार प्रदान करता है. इसमें से एक तिहाई रोज़गार महिलाओं के लिए  भी आरक्षित रखा गया है. इस कानून के तहत सामाजिक लेखापरीक्षा कार्य और रोज़गार के डेटा और रिकॉर्ड के प्रबंधन का प्रावधान किया गया है जो सार्वजनिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करता है.[54]

2000 में मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) और 2015 में एसडीजी दोनों में भारत जैसे उभरते और विकासशील देशों के लिए गरीबी उन्मूलन को पहले उद्देश्य के रूप में अत्यधिक महत्व दिया गया है. इसका कारण यह है कि ऐसा होने पर ही यह उचित और समान विकास सुनिश्चित करने की दिशा में पहला कदम साबित होगा. गरीबी उन्मूलन के लिए भारत में चलाए जाने वाले सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों में निम्न कार्यक्रम शामिल हैं: राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना जो बुजुर्गों, विधुरों और विकलांग व्यक्तियों को पेंशन प्रदान करती है; प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई) और प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना (पीएमएसबीवाई) जो नागरिकों को जीवन बीमा और व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा की सुविधा प्रदान करती है; असंगठित क्षेत्र को पेंशन गारंटी के लिए अटल पेंशन योजना (एपवाई) और इच्छुक उद्यमियों को ऋण प्रदान करने वाली प्रधान मंत्री मुद्रा योजना (पीएमएमवाई).[55] इन नीतियों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गरीबी उन्मूलन की दिशा में बढ़ने में अपनी तरह से योगदान दिया है.

महामारी ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश में हुए विकास की गति को आंशिक रूप से प्रभावित किया है. महामारी के दौरान यह देखा गया कि शहरी क्षेत्र में अनौपचारिक रोज़गार से जुड़े अनेक लोगों ने गांव का रुख किया, क्योंकि शहरों में रोज़गार के अवसर बुरी तरह प्रभावित हुए थे. ये लोग लॉकडाउन के कारण ऐसा करने पर मजबूर हुए थे. इस वज़ह से ग्रामीण श्रम बाज़ारों में कार्यबल की आपूर्ति बढ़ गई. लेकिन इस बढ़ी हुई श्रमबल की आपूर्ति को मनरेगा और एनआरएलएम जैसी रोज़गार योजनाओं ने अपने आगोश में लेते हुए रोज़गार उपलब्ध करवाया और इस तरह भारत के सामने खड़े हुए गरीबी के संकट में काफ़ी सुधार हो सका. टेबल 1 में मार्च-अप्रैल 2020 में पहले लॉकडाउन के दौरान शुरूआती मंदी के बाद मनरेगा के तहत रोज़गार में भारी वृद्धि को दशार्या गया है.

टेबल 1: भारत में कोविड-19 के पहले चरण में मनरेगा के तहत दिया गया रोज़गार (मिलियन में)

Months 2019 2020 Increase
April 273.94 141.31 (-) 48%
May 369.52 568.69 54%
June 321.43 640.71 99%
July 194.17 391.63 102%
August 153.05 238.98 56%

स्रोत: भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के डेटा पर आधारित लेखक का अपना.[56]

भारत को G20 के संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी है. 2023 में G20 की अध्यक्षता स्वीकारने वाले भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के लिए चलाई जाने वाली सामाजिक सुरक्षा योजना को सफ़लतापूर्वक लागू करने का व्यापक अनुभव है. यह अनुभव इस समूह में शामिल अन्य देशों के लिए उपयोगी साबित होगा. भारत ने विभिन्न सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों को लागू किया है. इन प्रणालियों के वित्तपोषण का तरीका भी भिन्न है, जिन्हें विभिन्न देशों द्वारा अपनाया जा सकता है. ये देश इन्हें लागू करते वक़्त अपने यहां की स्थानीय स्थितियों के हिसाब से इसमें संशोधन भी कर सकते हैं. सामाजिक सुरक्षा को लेकर संशोधित श्रम संहिता अभी इतनी ज़्यादा प्रचलन में नहीं आयी है कि इसके प्रभाव को मापा जा सके. लेकिन भारत ने ऐसी अनेक सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लागू किया है जो अपने आप में अद्वितीय है और लंबे समय से चल रही हैं.

एमजीएनआरईजीए अर्थात मनरेगा एक अनूठी और बेहद सफ़ल कार्यक्रम हैं, जिसमें न केवल आय के स्त्रोत के रूप में सहायता नहीं पहुंचाई जाती है, बल्कि यह रोज़गार के माध्यम से दी जाती है. मनरेगा की यही खूबी न केवल टार्गेटिंग अर्थात लाभार्थियों का चयन करने की समस्याओं को हल करती है (सेल्फ टार्गेटिंग की एक प्रणाली स्थापित करके) बल्कि इसके माध्यम से उस स्थान पर सार्वजनिक और आधारभूत संरचना का निर्माण भी हो जाता है, जहां इसे लागू किया जाता है. कोविड-19 महामारी ने इस कार्यक्रम के महत्व और क्षमता को भी उजागर किया था. उस महामारी के दौरान इसी योजना के तहत अनेक लोगों के लिए इस योजना के तहत मिला काम ही आय का एकमात्र स्थिर और वैकिल्पक स्त्रोत था. ऐसा इसलिए क्योंकि उस वक़्त अनौपचारिक रोज़गार की बेहद कमी देखी जा रही थी. भारत में अनौपचारिक रोज़गार का सृजन बाज़ार की ताकतों द्वारा ही संचालित होता है. इसी प्रकार भारत ने सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के स्वैच्छिक वित्तपोषण को बढ़ाने की दिशा में भी अहम सफ़लता हासिल की है. बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर बोर्ड्स ने इस दिशा में उल्लेखनीय काम किया. इस बोर्ड ने श्रमिकों के लिए एक ऐसी सामाजिक सुरक्षा योजना विकसित की, जिसमें श्रमिकों की ओर से दिए जाने वाले योगदान के बराबर सरकार ने भी अपनी जेब से पैसा डाला था. इस योजना का उद्देश्य श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में अपनी जेब का पैसा डालने के लिए प्रोत्साहित करने का था.[57] G20 की अध्यक्षता करते हुए भारत के पास सामाजिक सुरक्षा के स्थायी वित्तपोषण के मामले पर अन्य देशों को गंभीरता से विचार करने के लिए नेतृत्व प्रदान करते हुए इन कार्यक्रमों और अन्य अनूठी पहलों को प्रदर्शित करने का यह बेहतरीन मौका है.

VI.निष्कर्ष

इस आलेख में सभी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की अनिवार्यता और इसके वित्तपोषण में मौजूद ख़ामियां, चाहे ये ख़ामियां G20 के भीतर ही क्यों न हो, पर प्रकाश डाला गया है. ये ख़ामियां दोहरी हैं: पहली ख़ामी सार्वभौमिक कवरेज और वास्तविक कवरेज को लेकर है तथा दूसरी वैश्विक उत्तर-दक्षिण में भिन्नताओं को लेकर है. सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों के सतत वित्तपोषण पर G20 डीडब्ल्यूजी के एजेंडा को निर्देशित करने के लिए इसमें शामिल सदस्य देशों तथा शेष विश्व ने जिन प्राथमिकताओं और कामकाजी स्तंभों को एजेंडा में शामिल किया है, वे उन्नत और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देश की सीख और अनुभव के बीच कार्यात्मक सहयोग के विचारों पर आधारित हैं.

सबसे पहली बात तो यह है कि सभी के लिए सार्वभौमिक कवरेज के साथ राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा ढांचे को मज़बूत करने के लिए सरकारों को इन योजनाओं का वित्तपोषण करने के लिए अपनी वित्तीय स्थिति में निधि की व्यवस्था करनी होगी. इसी प्रकार सरकारों को ही इस ढांचे के व्यवहार्य और टिकाऊ वित्तपोषण के विकल्प को विकिसत करने की दिशा में भी काम करना होगा. इन योजनाओं में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों को भी समायोजित करना अहम है, क्योंकि यह वर्ग अक्सर ऐसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के दायरे से बाहर ही रह जाता है. पर्याप्त सुरक्षा उपायों के अभाव में भविष्य में आने वाली किसी भी आर्थिक, सामाजिक, या पर्यावरणीय संकट लोगों को गरीबी के चंगुल में वापस ढकेल सकता है. अगर ऐसा हुआ तो इस स्थिति से बचने के लिए विभिन्न देशों में पूर्व में किए गए प्रयासों के कारण हुई प्रगति पर पानी फिर जाएगा.

दूसरी बात यह है कि सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता भले ही स्थानीय संदर्भों पर निर्भर करती हो, लेकिन इससे जुड़े मुद्दों या चुनौतियों को हल करने के लिए एक वैश्विक प्रणाली अगर तैयार हो जाए तो इस प्रक्रिया को मज़बूत किया जा सकता है.  इतना ही नहीं इसके कारण क्षेत्रीय आर्थिक असमानताओं को भी दूर करने में मदद मिलेगी और इससे डेवलपमेंट कन्वर्जन्स अर्थात विकास अभिसरण की गुंजाइश पैदा हो सकती है. इन्हीं कारणों की वज़ह से सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करना आवश्यक हैं. विभिन्न देशों को अपने यूएसपी 2030 एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए इस मुद्दे को संबोधित करना ज़रूरी हो गया है.

तीसरी बात इसमें शामिल राजनीति के अलावा, दुनिया भर में गरीबी कम करने या एसडीजी 1 की ओर बढ़ने के लिए सामाजिक सुरक्षा ने विभिन्न प्रकार के परस्पर विकासात्मक उद्देश्यों पर प्रत्यक्ष प्रभाव सिद्ध किया है :[58] एसडीजी 2 (जीरो हंगर), एसडीजी 3 (अच्छा स्वास्थ्य और भलाई), एसडीजी 4 (गुणवत्तापूर्ण शिक्षा), एसडीजी 5 (लिंग समानता), एसडीजी 6 (स्वच्छ जल और स्वच्छता), एसडीजी 7 (सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा), एसडीजी 8 (सभ्य कार्य और आर्थिक विकास), एसडीजी 10 (असमानताओं में कमी), एसडीजी 11 (सस्टेनेबल सिटीज एंड कम्युनिटीज), एसडीजी 13 (जलवायु कार्रवाई), एसडीजी 15 (जमीन पर जीवन), और एसडीजी 16 (शांति, न्याय और मज़बूत संस्थान).

राजनीतिक दृष्टि से लाभकारी अर्थव्यवस्था के विचारों को ध्यान में रखकर आरंभ की गई अनेक सामाजिक सुरक्षा योजनाएं, अक्सर वितरण की दृष्टि से प्रतिगामी साबित हुई हैं. अत: सामाजिक व्यय की संरचना को वित्तीय स्थिरता के चश्मे से उनकी उपयोगिता का आकलन करने की दृष्टि से देखा जाना बेहद अहम साबित होगा.

अंतिम बात यह कि सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों की संरचना की बारीकी से जांच ही उनकी वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने में अहम साबित होगी. संपूर्ण प्रणाली को एक प्रगतिशील संरचना के साथ बनाया जाना चाहिए, जो सामाजिक न्याय और आर्थिक दक्षता के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित आय पुनिर्वतरण को सक्षम बनाने वाली साबित हो सके.

मसलन, कुछ देश में अक्सर सब्सिडी ऐसे लोगों को ही मिल जाती है जो पैसों की दिक्कत का सामना नहीं करते हैं अर्थात अमीर होते हैं, जबकि सब्सिडी का असली लक्ष्य उसे गरीबों तक पहुंचाना होता है. राजनीतिक दृष्टि से लाभकारी अर्थव्यवस्था के विचारों को ध्यान में रखकर आरंभ की गई अनेक सामाजिक सुरक्षा योजनाएं, अक्सर वितरण की दृष्टि से प्रतिगामी साबित हुई हैं. अत: सामाजिक व्यय की संरचना को वित्तीय स्थिरता के चश्मे से उनकी उपयोगिता का आकलन करने की दृष्टि से देखा जाना बेहद अहम साबित होगा.

भारत जैसी उभरती हुई, लेकिन ऐतिहासिक रूप से गरीब रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए अपने विशाल मानव पूंजी आधार का उपयोग करना ज़रूरी है, क्योंकि यह वर्ग गरीबी उन्मूलन के उपायों पर महत्वपूर्ण रूप से निर्भर रहता है. एसडीजी1 के उद्देश्यों की उपलब्धि सस्टेनोमिक्स-समाज[59], अर्थव्यवस्था और पर्यावरण की परस्पर विरोधी त्रिमूर्ति के बीच एक स्विफ्ट सिंक्रोनाइजेशन अर्थात तेज संकालन या तुल्यकालन के लिए महत्वपूर्ण है. ऐसे में अन्य सहायक योजनाओं के साथ-साथ मनरेगा, जो भारत की विकास यात्रा की रीढ़ हैं, जैसी योजनाएं दीर्घकालिक क्षमताओं के निर्माण के लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों के सतत वित्तपोषण के लिए आगे की राह दिखाने में G20 की अध्यक्षता कर रहे भारत के लिए सहायक साबित हो सकती है.


(लेखक शोध में सहायता के लिए एनएलएसआईयू, बेंगलुरु में ओआरएफ़ इंटर्न प्रार्थना वैद्य और अरविंद जे. नामपुथिरी की सहायता को स्वीकार करते हैं.)

परिशिष्ट

परिशिष्ट 1: एसडीजी 1 (गरीबी नहीं) लक्ष्य

Targets Objectives
1.1 By 2030, eradicate extreme poverty for all people everywhere, currently measured as people living on less than US$ 1.25 a day.
1.2 By 2030, reduce at least by half the proportion of men, women and children of all ages living in poverty in all its dimensions according to national definitions.
1.3 Implement nationally appropriate social protection systems and measures for all, including floors, and by 2030 achieve substantial coverage of the poor and the vulnerable.
1.4 By 2030, ensure that all men and women, in particular the poor and the vulnerable, have equal rights to economic resources, as well as access to basic services, ownership and control over land and other forms of property, inheritance, natural resources, appropriate new technology and financial services, including microfinance.
1.5 By 2030, build the resilience of the poor and those in vulnerable situations and reduce their exposure and vulnerability to climate-related extreme events and other economic, social and environmental shocks and disasters.
1.a Ensure significant mobilization of resources from a variety of sources, including through enhanced development cooperation, in order to provide adequate and predictable means for developing countries, in particular least developed countries, to implement programmes and policies to end poverty in all its dimensions.
1.b Create sound policy frameworks at the national, regional and international levels, based on pro-poor and gender-sensitive development strategies, to support accelerated investment in poverty eradication actions.

स्त्रोत: आर्थिक और सामाजिक मामलों का विभाग, संयुक्त राष्ट्र[60]

परिशिष्ट 2: भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए एसडीजी 1 स्कोर में बदलाव (100 में से)

स्त्रोत: नीति आयोग से मिली जानकारी के आधार पर लेखक का अपना.[61]

Endnotes


[1] ILO, Facts on Social Security.

[2]Together to Achieve Universal Social Protection by 2030 (USP2030) – A Call to Action.” Global Partnership for Universal Social Protection, February 5, 2019.

[3] Mohan Munasinghe, “Sustainomics Framework.” In Sustainability in the Twenty-First Century: Applying Sustainomics to Implement the Sustainable Development Goals, 2nd ed., 26–72. Cambridge: Cambridge University Press, 2019.

[4] Mohan Munasinghe, “Sustainomics Framework.”

[5] Yogima Seth Sharma, “Over half of the world’s population, four billion, doesn’t have any social security, says ILO”, Economic Times, September 2, 2021.

[6] Yogima Seth Sharma, “Over Half the World’s Population, Four Billion, Doesn’t Have Any Social Security, Says ILO.”

[7]Financing Social Protection through the COVID-19 Pandemic and Beyond”, ILO Report, November 25, 2021.

[8] “Financing Social Protection through the COVID-19 Pandemic and Beyond.”

[9] Simon Evans, “Nine charts to show why the G20 matters for energy and climate”, Carbon Brief, August 30, 2016.

[10] Dennis Görlich, Homi Kharas, Wilfried Rickels and Sebastian Strauss, “The Sustainable Development Agenda: Leveraging the G20 to enhance Accountability and Financing”, The G20- Insights Blog, December 10, 2020.

[11] ILO News, “ILO welcomes G20 endorsement of human-centred approach to covid-19 recovery”, International Labour Organization, October 31, 2021.

[12] “Financing Social Protection through the COVID-19 Pandemic and Beyond.”

[13] Nicholas Freeland. “Graduation and Social Protection.” Development Pathways (blog), September 19, 2013.

[14]ILO | Social Protection Platform,” n.d..

[15] Promoting adequate social protection and social security coverage for all workers, including those in non-standard forms of employment.

[16] Law Insider. “Contributory Social Security Scheme Definition,” n.d.

[17]Social security and pensions”, Deloitte Perspectives, Deloitte, April 2022.

[18] Workers’ rights and social protection in Brazil, Legal and Policy gaps, OECD Watch and ConectasMarch 2022.

[19]Social security is the bedrock of South Africa’s human rights protection. But there are gaps”, The Conversation, March 18, 2022.

[20]Employee benefits in South Africa- what’s required? What’s not?”, NKR Outsourced HR, August 5, 2019.

[21] “ILO | Social Protection Platform”

[22] Carolina Bloch. “Social Spending in South Asia—an Overview of Government Expenditure on Health, Education and Social Assistance.” International Policy Centre for Inclusive Growth, September 14, 2020.

[23] “ILO | Social Protection Platform,”

[24]ASPIRE: THE ATLAS OF SOCIAL PROTECTION – INDICATORS OF RESILIENCE AND EQUITY,” October 24, 2022.

[25] Howell H. Zee and Vito Tanzi. “Tax Policy for Emerging Markets: Developing Countries.” IMF Working Papers, Vol. 2000 (035), March 1, 2000.

[26] F. Durán Valverde, J. Pacheco-Jiménez, T. Muzaffar and H. Elizondo-Barboza, “Measuring financing gaps in social protection for achieving SDG target 1.3: Global estimates and strategies for developing countries.” Extension of Social Security Working Paper, ESS 073, International Labour Organization, November 25, 2019,

[27]More than four billion people still lack any social protection, ILO report finds”, International Labour Organization, September 1, 2021.

[28]Sustainable Financing – Social Protection and Human Rights,” n.d.

[29]World Social Protection Report 2020-22: Social Protection at the Crossroads – in Pursuit of a Better Future.” International Labour Office, 2021.

[30]More than four billion people still lack any social protection, ILO report finds”, International Labour Organization, September 1, 2021.

[31] Financing social protection through the covid-19 pandemic and beyond, International Labour Organization, Organisation for Economic Cooperation and Development and The World Bank, November 25, 2021.

[32] Social Protection and Climate Change.

[33] Promoting adequate social protection and social securitycoverage for all workers, including those in non-standard forms of employment.

[34]More than 60 percent of the world’s employed population are in the informal economy”, Press Release, International Labour OrganizationApril 30, 2018.

[35] Debosmita Sarkar, “SDGs and Structural Vulnerabilities: The Case of BIMSTEC Countries”, ORF Occasional Paper No. 348, February 2022, Observer Research Foundation

[36]Financing social protection through the covid-19 pandemic and beyond

[37] Defining and Measuring Gig Work.

[38] Debosmita Sarkar and Sunaina Kumar. “Women-Centric Approaches under MUDRA Yojana: Setting G20 Priorities for the Indian Presidency.” Occasional Paper No.375, October 15 2022, Observer Research Foundation.

[39] Nicholas Freeland, “Graduation and Social Protection.”

[40] Valentina Barca and Laura Alfres, “Including informal workers within social protection systems: A summary of options”, Social Protection Approaches to COVID 19: Expert Advice, November 2021.

[41] Women and men in the informal economy: A statistical picture.

[42] Chizo Lucy Goudjo, “Financial Sustainability for social protection”, socialprotection.org, June 18, 2020.

[43] Olivia White, Anu Madgavkar, Tawanda Sibanda, Zac Townsend, and María Jesús Ramírez, “Covid 19- Making the case for robust financial infrastructure”, McKinsey Global Institute, McKinsey & Company, January 26, 2021.

[44]Leaving No One Behind: A Social Protection Primer for Practitioners | United Nations Development Programme.” UNDP, October 6, 2016.

[45] Nilanjan Ghosh, “Promoting a ‘GDP of the Poor’: The Imperative of Integrating Ecosystems Valuation in Development Policy,” ORF Occasional Paper No. 239, March 2020, Observer Research Foundation.

[46] Rashed Al Mahmud Titumir and Md. Shah Paran. “Ecosystem Services and Well-Being in the Sundarbans of Bangladesh: A Multiple Evidence Base Trajectory.” In Assessing, Mapping and Modelling of Mangrove Ecosystem Services in the Asia-Pacific Region, edited by Rajarshi Dasgupta, Shizuka Hashimoto, and Osamu Saito, 263–81. Science for Sustainable Societies. Singapore: Springer Nature, 2022.

[47] Emil Uddhammar. “Development, Conservation and Tourism: Conflict or Symbiosis?” Review of International Political Economy 13, no. 4 (October 1, 2006): 656–78.

[48] Sunit Adhikari, Tanira Kingi, and Siva Ganesh. “Incentives for Community Participation in the Governance and Management of Common Property Resources: The Case of Community Forest Management in Nepal.” Forest Policy and Economics 44 (July 1, 2014): 1–9.

[49] Jean-Philippe Platteau. “The Gradual Erosion of the Social Security Function of Customary Land Tenure Arrangements in Lineage-Based Societies.” Working Paper. WIDER Discussion Paper, 2002.

[50] Sutirtha Sinha Roy and Roy van der Weide, “Poverty in India Has Declined over the Last Decade But Not As Much As Previously Thought,” World Bank Group, April, 2022.

[51] Surjit Bhalla, Karan Bhasin and Arvind Virmani, “Pandemic, Poverty, and Inequality: Evidence from India,” International Monetary Fund, April 5, 2022.

[52]SDG India Index Baseline Report, 2018,” NITI Aayog, December 14, 2018.

[53]Objective of NREGA,” State Rural Employment Society, Government of Meghalaya, India, last modified April 6, 2022

[54] V. Suresh Babu, G. Rajani Kanth, C. Dheeraja and S.V. Rangacharyulu, “Frequently Asked Questions on MGNREGA Operations Guidelines- 2013,” Ministry of Rural Development, Department of Rural Development.

[55]New Initiatives Schemes,” Department of Financial Services, Ministry of Finance, Government of India, last modified July 4, 2022

[56]Implementation of MGNREGS during COVID-19 Pandemic,” Ministry of Rural Development, Government of India, last modified September 15, 2020.

[57]How BOCW Boards were used to help unorganized workers in Pandemic and what issues remain”, Outlook Web Desk, Outlook India, May 1, 2022.

[58]SDG India Index Baseline Report, 2018,” NITI Aayog, December 14, 2018.

[59] Munasinghe, “Sustainomics Framework”.

[60]Goal 1 | Department of Economic and Social Affairs”.

[61]Reports on SDG,” NITI Aayog.

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Authors

Debosmita Sarkar

Debosmita Sarkar

Debosmita Sarkar is an Associate Fellow with the SDGs and Inclusive Growth programme at the Centre for New Economic Diplomacy at Observer Research Foundation, India. Her ...

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Soumya Bhowmick

Soumya Bhowmick

Soumya Bhowmick is an Associate Fellow at the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. His research focuses on sustainable development and ...

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