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ब्रिटेन के साथ ऐतिहासिक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही दिनों बाद अमेरिका द्वारा भारत पर टैरिफ लगाने की घोषणा, बहुध्रुवीय दुनिया में वैश्विक व्यापार की नाजुकता को उजागर करती है.
Image Source: Getty
उथल-पुथल भरे पूरे एक हफ़्ते के दौरान, भारत ने एक तरफ़ जहां 24 जुलाई 2025 को ब्रिटेन के साथ अपना सबसे व्यापक और प्रगतिशील व्यापार समझौता करने का जश्न मनाया तो, ट्रुथ सोशल पर अमेरिका के राष्ट्रपति के एलान को ख़ामोशी से नियति के तौर पर स्वीकार किया.
इस पोस्ट में डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के तमाम उत्पादों पर 25 प्रतिशत का टैरिफ लगाने का ऐलान किया और ये भी जोड़ा कि भविष्य में उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है. इसकी बड़ी वजह अमेरिका और भारत की व्यापार वार्ता करने वाली टीमों का एक अगस्त 2025 की समय सीमा से पहले व्यापार समझौता कर पाने में नाकामी रही. अमेरिका को इस बात से भी खीझ है कि भारत, रूस से लगातार तेल और रक्षा उपकरणों का आयात करने पर क़ायम है. जैसा कि अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि होवाल्ड लुटनिक ने कहा भी कि अमेरिका को भारत से एक और शिकायत ये है कि वो (ब्राज़ील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका के समूह) ब्रिक्स (BRICS) में बढ़-चढ़कर भाग ले रहा है और अगले साल उसकी अध्यक्षता भी करने वाला है.
31 जुलाई को जारी कार्यकारी आदेश में ट्रंप ने कई देशों के साथ हुए व्यापार समझौते के आधार पर टैरिफ की फ़ेहरिस्त में संशोधन किया है. यही नहीं, ट्रंप ने टैरिफ की दरों में उन देशों को भी रियायतें दी है, जिनके साथ अभी अमेरिका की बातचीत चल ही रही है. टैरिफ की ये दरें, ऐलान के सात दिनों के बाद लागू होने वाली हैं. भारत के ऊपर 25 प्रतिशत की दर से टैरिफ लगाने के अलावा, ब्रिक्स के जिस दूसरे देश को ट्रंप ने ज़बरदस्त झटका दिया है, वो दक्षिण अफ्रीका है, जिस पर 30 प्रतिशत टैरिफ लगाया गया है. वहीं, ब्राज़ील पर बुनियादी टैरिफ के अलावा दस फ़ीसद टैरिफ लगाया गया है. अभी ये स्पष्ट नहीं है कि क्या इसमें ब्राज़ील पर लगाया गया 40 प्रतिशत का आपातकालीन टैरिफ भी शामिल है, जिसे ट्रंप ने बोल्सोनारो के ऊपर ग़लत मुक़दमा चलाने के इल्ज़ाम के साथ थोपा था. मौजूदा आदेश में रूस और चीन के बारे में कुछ नहीं कहा गया है.
भारत के ऊपर 25 प्रतिशत की दर से टैरिफ लगाने के अलावा, ब्रिक्स के जिस दूसरे देश को ट्रंप ने ज़बरदस्त झटका दिया है, वो दक्षिण अफ्रीका है, जिस पर 30 प्रतिशत टैरिफ लगाया गया है.
ट्रंप के इस ऐलान पर भारत ने सधी हुई प्रतिक्रिया दी और कहा कि वो ऐसी डील के लिए बातचीत करने को प्रतिबद्ध है, जो ‘दोनों देशों के लिए फ़ायदेमंद’ हो. इससे शायद ये संकेत मिलता है कि ट्रंप के बयान से भारत सरकार को बहुत अधिक हैरानी नहीं हुई है. भारत के बयान में सबसे उल्लेखनीय बात तो वो सेक्टर हैं, जिनका ज़िक्र किया गया है. यानी कृषि, उद्यमिता (शायद तकनीकी फार्मास्यूटिकल सेक्टर) और सूक्ष्म, लघु और मध्यम (MSMEs) दर्जे के उद्योग. अमेरिका का 25 प्रतिशत टैरिफ सभी देशों पर लगाए गए 10 प्रतिशत के बुनियादी टैरिफ के अलावा है. इसके अलावा भारत के स्टील, टेक्सटाइल, ऑटो और ऑटो कंपोनेंट पर पहले ही भारी टैरिफ लगाया गया है. ये सभी सेक्टर भारत की अर्थव्यवस्था के लिए संवेदनशील हैं.
भारत के रूस से तेल ख़रीदने पर उंगली उठाने का मक़सद शायद ये है कि भारत देर-सबेर रूस से तेल ख़रीदना कम करेगा और अमेरिका से ज़्यादा तेल ख़रीदेगा. हालांकि, जैसा कि भारत के पेट्रोलियम और गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी लगातार कहते रहे हैं कि भारत की ऊर्जा की मांग बहुत अधिक है. ऐसे में रूस से कच्चा तेल ख़रीदने का विकल्प बंद करने से कच्चे तेल की क़ीमतें 130 से 140 डॉलर प्रति बैरल की भारी क़ीमत तक जा सकती हैं. वैसे तो अमेरिका से भारत का तेल आयात 2025 के पहले चार महीनों में 270 प्रतिशत बढ़ चुका है. लेकिन, उत्पाद और ढुलाई की भारी लागत की वजह से अमेरिका से तेल ख़रीदना भारत को महंगा पड़ता है. ऐसे में भारत के लिए अमेरिका से तेल ख़रीदने का सौदा न तो औद्योगिक, और न ही भौगोलिक रूप से मुफ़ीद है.
इन सारी बातों में ये बिल्कुल साफ़ है कि प्रेसिडेंट ट्रंप अमेरिका की व्यापार और विदेश नीति की अपेक्षाओं को लेकर एकदम स्पष्ट रुख़ रखते हैं. इसमें सावधानी या कूटनीति के लिए कोई गुंजाइश नहीं है.
इन सारी बातों में ये बिल्कुल साफ़ है कि प्रेसिडेंट ट्रंप अमेरिका की व्यापार और विदेश नीति की अपेक्षाओं को लेकर एकदम स्पष्ट रुख़ रखते हैं. इसमें सावधानी या कूटनीति के लिए कोई गुंजाइश नहीं है. इस हाथ ले और उस हाथ दे की नीति अमेरिका को क़तई परेशान नहीं करती. क्योंकि, उसके पास विश्व अर्थव्यवस्था पर दबाव बनाने की कई चाबियां हैं. मिसाल के तौर पर जापान, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ अमेरिका के व्यापार सौदों में एक बुनियादी समानता नज़र आती है और वो ये है कि इन सभी के साथ अमेरिका के ऐतिहासिक सुरक्षा संबंध रहे हैं.
अमेरिका जिस रवैये के साथ व्यापार कर रहा है, ये एक पुरानी शक्ति का बहुध्रुवीय दुनिया में अपनी दादागिरी दिखाने का ही उदाहरण है. अमेरिका ने दुनिया के कई बड़ी व्यापारिक अर्थव्यवस्थाओं को फिर से व्यापार सौदे करने को मजबूर किया है. ये हक़ीक़त उल्लेखनीय भी है और चिंताजनक भी.
अमेरिका का व्यापारिक प्रशासन, अपने देश के ग्राहकों के लिए क़ीमतों पर नियंत्रण रखकर, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अपनी निर्भरता को बहुत कम करके आंक रहा है. ग्राहकों पर निर्भर अमेरिका की अर्थव्यवस्था को लगने वाले झटकों को लेकर भी अमेरिकी सरकार का अंदाज़ा ग़लत है और इतने टैरिफ लगाना, किसी भी उदारवादी अर्थव्यवस्था की सोच से नहीं मेल खाता, जिसका घरेलू उत्पादन बड़ी आसानी से आयातित उत्पादों की जगह ले सके.
वैसे तो पिछले कुछ महीनों के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था की खपत बढ़ी है और अर्थव्यवस्था में तीन प्रतिशत की बढ़त दर्ज हुई है. लेकिन, इस विकास दर की असल वजह शायद टैरिफ की दरें लागू होने से पहले आयातकों द्वारा माल का भंडारण करना है, जिससे वो झटकों का आसानी से सामना कर सकें. ये छोटा सा बुलबुला है,जो टैरिफ लागू होते ही क़ीमतें बढ़ने की वजह से फूट जाने वाला है. अगर अमेरिका का फेडरल रिज़र्व ब्याज दरें 4.3 प्रतिशत की मौजूदा दर से और कम नहीं करता, तो टैरिफ लागू होने के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था के सुस्त हो जाने का अंदेशा है.
अमेरिका के सामने सिर्फ़ मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की सुस्ती की चुनौती नहीं है. इसकी एक और बड़ी वजह अमेरिकी कामगारों में कौशल की कमी है, जिसकी बड़ी वजह शायद अमेरिका की फंडिंग की क़िल्लत से जूझ रही शिक्षा व्यवस्था है, जो बुनियादी पढ़ाई से लेकर ग्रेजुएशन तक कुशल कामगार नहीं पैदा कर पा रही है. फिर देश में फिर से कौशल विकास के कार्यक्रम भी नहीं हैं. अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में जान तब तक नहीं लौटेगी, जब तक कारखानों में काम करने वाले ज़रूरी हुनर से लैस नहीं होते. इसके लिए, उत्पादन की बुनियादी लागत में भी कटौती करनी होगी और साथ साथ मुनाफ़े का वो मार्जिन भी बरक़रार रखना होगा, जिसकी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लत पड़ चुकी है. आयातित खाद्य उत्पादों की अनुपलब्धता की सूरत में आधुनिक खान-पान को केवल मामूली फ़ेरबदल से नहीं साधा जा सकता है.
वार्ताओं का जो भी हश्र हो, हमें ये विचार छोड़ना होगा कि मौजूदा अमेरिकी प्रशासन के साथ कोई तार्किक दूरगामी सौदा किया जा सकता है. न ही हम ये मानकर बैठ सकते हैं कि नया अमेरिकी प्रशासन उन सौदों को रद्द करेगा. अमेरिका ने अब तक जितने सौदे किए हैं, वो इस बात पर निर्भर है कि अंग्रेज़ी भाषा की किस तरह व्याख्या की जा सकती है. मिसाल के तौर पर जैसा कि एक व्यापार वार्ताकार ने कहा कि यूरोपीय संघ (EU) को लगा कि 15 प्रतिशत का जवाबी टैरिफ ‘अधिकतम’ होगा. लेकिन, अमेरिका ने कहा है कि उसको इस बात का पूरा अधिकार है कि वो भविष्य में इन दरों को बदल सके. इसीलिए ये कोई ‘मुक्त व्यापार समझौते’ (FTA) नहीं, बल्कि अंतरिम सौदे हैं.
ऐसे में ज़ोर इस बात पर नहीं होना चाहिए कि अमेरिका, वियतनाम या पाकिस्तान के साथ डील कर रहा है. बल्कि ज़ोर इस बात पर होना चाहिए कि हमें क्या हासिल होगा.
भारत के सामने ख़तरा ये है कि वो इस शोर और घरेलू राजनीति का शिकार न हो जाए कि किससे सौदा हुआ और किससे नहीं. इस वक़्त हर देश अमेरिका से फ़ौरी तौर पर रियायत हासिल कर रहा है, जो आगे किसी भी मसले पर ख़त्म हो सकती है. ऐसे में ज़ोर इस बात पर नहीं होना चाहिए कि अमेरिका, वियतनाम या पाकिस्तान के साथ डील कर रहा है. बल्कि ज़ोर इस बात पर होना चाहिए कि हमें क्या हासिल होगा. भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौता अपनी टैरिफ घटाने की महत्वाकांक्षी योजना और बौद्धिक संपदा के मामले में बढ़त की वजह से दम भरने का एक अच्छा कारण हो सकता है. वैसे तो घरेलू राजनीतिक दिक़्क़तें तो बनी रहेगी. लेकिन, ब्रिटेन के साथ हुआ समझौता ये दिखाता है कि भारत, कारोबार को लेकर गंभीर है. इस मिसाल का असर सिर्फ़ भारत और अमेरिका की बातचीत पर नहीं, बल्कि अमेरिका से बात कर रहे दूसरे देशों पर भी पड़ेगा.
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Jhanvi Tripathi is an Associate Fellow with the Observer Research Foundation’s (ORF) Geoeconomics Programme. She served as the coordinator for the Think20 India secretariat during ...
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