Published on Sep 26, 2022 Updated 0 Hours ago

आज भी, दुनिया भर में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कम है. इसे बदलने की ज़रूरत है.

वक़्त की ज़रूरत है लैंगिक-समावेशी राजनीति को आगे बढ़ाना

जब दुनिया ‘अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस’ मना रही है, तब न सिर्फ़ लोकतंत्र की संस्थाओं और प्रक्रियाओं में, बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति के हर विमर्श में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व की ज़रूरत को दोहराया जाना चाहिए. सत्तावाद के उलट, लोकतंत्र को अनिवार्य रूप से, सशक्त बनाने वाली और बेहतरी लाने वाली एक राजनीतिक परियोजना के बतौर देखा जाता है, जो आम नागरिकों को सरकारी नीतियों और शासन की संस्थाओं में अपनी पहचान, रुचियों, पसंद-नापसंद, विचारों तथा मांगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए साधन और रास्ता प्रदान करता है. आधुनिक लोकतंत्र में जनता के विभिन्न तबक़ों के लिए, अपनी संख्या के अनुरूप राजनीतिक प्रतिनिधित्व की चाह एक प्रमुख आकांक्षा बनी हुई है. यह ध्यान में रखना अहम है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व का एक अत्यंत व्यवहारोपयोगी महत्व है, क्योंकि यह किसी व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सशक्तीकरण (जो सम्मानपूर्ण जीवन यापन के लिए अपरिहार्य हैं) की राह तैयार कर सकता है. इसलिए, समान प्रतिनिधित्व का वादा (जिसकी पेशकश के लिए लोकतांत्रिक प्रणाली कोशिश करती है) समाज के अभी तक हाशिये पर पड़े व उत्पीड़ित तबक़ों के उत्थान और सामाजिक-राजनीतिक सशक्तीकरण के लिए ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण है.

आधुनिक लोकतंत्र में जनता के विभिन्न तबक़ों के लिए, अपनी संख्या के अनुरूप राजनीतिक प्रतिनिधित्व की चाह एक प्रमुख आकांक्षा बनी हुई है. यह ध्यान में रखना अहम है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व का एक अत्यंत व्यवहारोपयोगी महत्व है, क्योंकि यह किसी व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सशक्तीकरण की राह तैयार कर सकता है.

लोकतंत्र और महिला सशक्तीकरण

दुनिया की कुल आबादी में महिलाओं का हिस्सा 49.5 फ़ीसद है, हालांकि, वे दुनिया में लोगों के सबसे हाशिये पर पड़े तबक़ों में शामिल हैं. गहरे तक पैठे भेदभावपूर्ण पितृसत्तात्मक मानदंडों की अतिप्राचीन लेकिन अब भी मज़बूत संरचनाएं, दुनिया भर में सामाजिक जीवन की लगभग सभी संरचनाओं को अपनी गिरफ़्त में लिये रहती हैं, भले ही यह अलग-अलग रूपों और अनुपातों में हो. एक ज़्यादा बराबरी वाला समाज बनाने की दिशा में लक्षित एक आधुनिक दृष्टिकोण और उदार मूल्यों के आगमन के साथ, सामाजिक-आर्थिक के अलावा राजनीतिक दायरों में भी महिला अधिकारों को ठोस रूप लेते देखा गया. ख़ासकर 20वीं सदी से, महिलाओं के सशक्तीकरण के मुद्दे को अलग-अलग समय में दुनिया के कई हिस्सों में विभिन्न सामाजिक आंदोलनों से समर्थन मिला. उल्लेखनीय रूप से, 1960 और 1970 के दशक में ‘नारी मुक्ति आंदोलन’ की दूसरी लहर ने गंभीर रफ़्तार पकड़ी और महिलाओं की चहुंमुखी मुक्ति की दिशा में व्यापक सुधार लेकर आयी. सरकार के संवैधानिक रूप से स्वीकृत लोकतांत्रिक स्वरूप के तेज़ी से उदय ने अपने सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये और महिला सशक्तीकरण की दिशा में टिकाऊ आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया. महिलाओं के पितृसत्तात्मक शोषण के शिकंजे के धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ने की गति और परिमाण अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग हैं, लेकिन महिलाओं की स्थिति में लगातार सुधार और उनकी कर्तृत्व-शक्ति में वृद्धि स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ी है.

वैश्विक संदर्भ का निर्धारण

विभिन्न लोकतांत्रिक कार्यालयों व अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा राजनीति और सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की अधिक भागीदारी की राह आसान बनाने के लिए बहुमुखी वैश्विक प्रयासों के बावजूद, नतीजे सुस्त और संरचनात्मक व मनोवैज्ञानिक चुनौतियों से भरे रहे हैं. हाल के दशकों में कुछ सुधार के बावजूद, राजनीति में महिलाओं की भागीदारी आनुपातिक रूप से कम रही है. ‘यूएन वीमेन’ द्वारा मुहैया आंकड़ों के मुताबिक़, सितंबर 2021 में, पूरी दुनिया में केवल 26 महिलाएं 24 देशों में निर्वाचित राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष के रूप में काम कर रही थीं.

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की ताज़ा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2022 में, ‘वैश्विक लैंगिक खाई 68.1 फ़ीसद पट चुकी है. वर्तमान दर से, पूर्ण समानता तक पहुंचने में 132 साल लगेंगे.’ मंत्री पद पर आसीन महिलाओं की वैश्विक औसत हिस्सेदारी ‘2006 और 2022 के बीच, 9.9 फ़ीसद से बढ़कर 16.1 फ़ीसद होने के साथ’ दोगुनी हो गयी और ‘संसद में महिलाओं की वैश्विक औसत हिस्सेदारी 14.9 फ़ीसद से बढ़कर 22.9 फ़ीसद हो गयी’, लेकिन पूरे विश्व में महिला आबादी के मुक़ाबले यह बहुत ज़्यादा अनुपातहीन है. डब्ल्यूईएफ रिपोर्ट यह भी उजागर करती है कि धीरे-धीरे हो रहे सुधारों के बावजूद, श्रम बाजार, देखभाल के काम, संपदा संचय व कौशल सीखने, और तनाव (स्ट्रेस) के स्तरों में लैंगिक खाई काफ़ी ज़्यादा बनी हुई है, जो उस दुर्बलता को उजागर करती है जिसने महिला आबादी के बड़े तबक़े को अब भी जकड़ रखा है. दिलचस्प ढंग से यह उजागर किया गया है कि विभिन्न उद्योगों में नेतृत्वकारी पदों पर महिलाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन महिलाओं को उन उद्योगों में ही नेतृत्वकारी पदों पर हायर किये जाने की अधिक संभावना है जहां उनका प्रतिनिधित्व ज़्यादा है. साथ ही, राजनीति में महिला नेताओं के अधिक महिलाओं को राजनीतिक और सरकारी पदों पर लाने की संभावना है. दक्षिण एशिया उन भौगोलिक क्षेत्रों में से एक है, जो गहरी जड़ें जमाये कठोर पितृसत्तात्मक संरचनाओं और रूढ़िवादी परंपराओं (जो इस क्षेत्र में पर्याप्त महिला सशक्तीकरण को रोकती हैं) को रेखांकित करते हुए, विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक मानदंडों पर लैंगिक समानता के निचले स्तरों को दिखाता है.

‘यूएन वीमेन’ द्वारा मुहैया आंकड़ों के मुताबिक़, सितंबर 2021 में, पूरी दुनिया में केवल 26 महिलाएं 24 देशों में निर्वाचित राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष के रूप में काम कर रही थीं.

भारतीय लोकतंत्र में लैंगिक समानता

दक्षिण एशिया में भारत सबसे बड़ा और सबसे जीवंत लोकतंत्र है, जिसने एक संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में अपने उत्तर-औपनिवेशिक स्वतंत्र अस्तित्व की शुरुआत के समय ही पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान राजनीतिक और नागरिक अधिकार प्रदान किये हैं. अनुच्छेद 325 और 326 में उल्लिखित मतदान करने और चुनाव लड़ने के राजनीतिक अधिकार के अलावा, संविधान का भाग III पुरुषों और महिलाओं के मौलिक अधिकारों की गारंटी करता है. राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में, पुरुषों और महिलाओं दोनों की ख़ातिर समान काम के लिए समान वेतन और साथ ही कामकाज की मानवीय स्थितियों और मातृत्व अवकाश का प्रावधान करके आर्थिक सशक्तीकरण सुनिश्चित किया गया है. इसमें कोई शक नहीं कि समय के साथ भारत में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. मतदाता के रूप में चुनाव में भागीदारी के लिहाज़ से, बीते सालों में महिलाओं के वोट डालने में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और 2019 में हुए पिछले राष्ट्रीय चुनावों में महिलाओं ने पुरुषों के लगभग बराबर संख्या में वोट डाला – जिसकी प्रशंसा ‘स्व-सशक्तीकरण के लिए महिलाओं की मौन क्रांति’ के रूप में हुई. महिलाओं की इस तरह की बढ़ी हुई भागीदारी का श्रेय साक्षरता के बढ़े स्तर और अधिक राजनीतिक जागरूकता (मोटे तौर पर डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़रिये सूचनाओं के प्रसार की वजह से) को दिया गया है. हालांकि, जहां तक विधायी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी की बात है, तो लोकसभा और राज्यसभा (भारत में संसद के निम्न और उच्च सदन) में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के आंकड़े बताते हैं कि समय के साथ महिला मतदाताओं की भागीदारी तो बहुत बढ़ी है, लेकिन संसद के दोनों सदनों, लोकसभा और राज्यसभा, में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात काफ़ी कम बना हुआ है. अभी तक लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की सबसे बड़ी संख्या 2019 के चुनावों में निर्वाचित हुई. मौजूदा सदन में, यह संख्या कुल सदस्यता के महज़ 14 फ़ीसद के आसपास है. उच्च सदन यानी राज्यसभा में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व समान रूप से कम रहा है, और बीते सालों में अपेक्षाकृत सुधार के बावजूद इसने सदन की कुल सदस्यता के 13 फ़ीसद को अभी तक पार नहीं किया है. राज्य विधानसभाओं में परिदृश्य और भी ख़राब रहा है, जहां महिला प्रतिनिधियों का औसत प्रतिशत 10 फ़ीसद के नीचे बना बना हुआ है. एक देश में जहां महिला आबादी उसकी आधी आबादी है, राष्ट्रीय और राज्य विधायिका में केवल 10 से 14 फ़ीसद महिला प्रतिनिधित्व भारत में विधायी प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में लैंगिक असमानता की गहरी संरचनात्मक स्थितियों को दिखाता है. ‘एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) और ‘नेशनल इलेक्शन वॉच’ (एनईडब्ल्यू) ने 2020 के अपने अध्ययन में पाया है कि ‘केंद्रीय और राज्य चुनावों में 50,000 प्रत्याशियों के दसवें हिस्से से भी कम महिलाएं हैं.’ भारत में महिला मंत्रियों की संख्या भी समय के साथ बढ़ी है, लेकिन पुरुष मंत्रियों की तुलना में उनका अनुपात काफ़ी कम रहता है.

इसमें कोई शक नहीं कि समय के साथ भारत में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. मतदाता के रूप में चुनाव में भागीदारी के लिहाज़ से, बीते सालों में महिलाओं के वोट डालने में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और 2019 में हुए पिछले राष्ट्रीय चुनावों में महिलाओं ने पुरुषों के लगभग बराबर संख्या में वोट डाला.

उम्मीद की किरण

तीसरे स्तर पर, या कहें कि पंचायतों और नगरपालिकाओं में, स्थानीय स्व-शासन के लिए, 1992 में पारित 73वें और 74वें संशोधन अधिनियमों ने इन निकायों की सीटों की कुल संख्या के एक-तिहाई पर महिलाओं को आरक्षण मुहैया कराया. अध्ययनों ने बताया है कि महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण की नीति ने स्थानीय स्तर पर शासन संस्थाओं में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को असाधारण ढंग से बढ़ाया है. महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों के आरक्षण के सकारात्मक नतीजों से सीख लेते हुए, ओड़िशा जैसे कुछ राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फ़ीसद आरक्षण का क़ानून बनाया है. ‘महिलाओं के दूसरों के ज़रिये (प्रॉक्सी) प्रतिनिधित्व’ को लेकर शुरुआती चिंताएं रही हैं, लेकिन समय के साथ महिला प्रतिनिधि अपने राजनीतिक अधिकारों को लेकर ज़्यादा सचेत हुई हैं और शासन के अनुभवों के साथ ख़ुद से परिचित हुई हैं, जिसने उन्हें भारत में ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक निर्णय करने वाली वास्तविक शक्ति बनाया है. महिला आरक्षण विधेयक 2008 (जो संसदीय और राज्य विधानसभाओं की सीटों पर एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान करता है) की मांग काफ़ी पुरानी है और इस मुद्दे पर राजनीतिक आम सहमति के अभाव में लंबे समय से लटकी पड़ी है. राष्ट्रीय और राज्य-स्तर की राजनीति में महिला नेताओं के एक ठीकठाक तबक़े के उदय की राह आसान बनाने के लिए संस्थानिक कोशिशों का अभाव और राजनीतिक दलों की अक्षमता भारत में लैंगिक-समावेशी राजनीति के लिए एक गंभीर चिंता बनी हुई है. स्थानीय-स्तर की राजनीति में सकारात्मक बदलाव के बावजूद, राजनीति के उच्च स्तरों पर महिलाओं के पर्याप्त प्रतिनिधित्व के बिना, नीति-निर्माण और शासन के मुहावरे में समग्र महिला सशक्तीकरण के मुद्दों के सुव्यवस्थित समावेश को हक़ीक़त बना पाना कठिन है. हालांकि, राज्य-स्तरीय और राष्ट्रीय प्रतिनिधिक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी संस्थानिक अगम्यता और संरचनात्मक अड़चनों की चुनौतियों के चलते अभी तक अपेक्षाकृत कम रही है, लेकिन महिलाओं की बढ़ी हुई राजनीतिक गोलबंदी ऐसी बाधाओं पर विजय पाने के लिए अनुकूल स्थितियां बना सकती है. भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक भागीदारी का एक ज़्यादा लैंगिक-समावेशी विमर्श, जो राजनीति और शासन की संस्थाओं में महिलाओं का ‘डिस्क्रिप्टिव’ के साथ-साथ ‘सब्सटेंटिव रिप्रजेंटेशन’ सुनिश्चित करेगा, वक़्त की ज़रूरत है.

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Author

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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