शक्तिशाली मुल्कों के बीच वर्चस्व की जंग ने परंपरागत या राष्ट्र आधारित सुरक्षा मानकों पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करने के लिए मज़बूर किया है. इसे लेकर चुनौतियों के बारे में अभी भी चिंताएं “क्या हो अगर” के इर्द-गिर्द घूम रही है. जैसे, अगर चीन को एक्स करना होता तो क्या होता? या देश Y के लिए यूएस-चीन प्रतियोगिता का क्या अर्थ है? ये पूछे जाने के लिए साफ तौर पर बेहद महत्वपूर्ण सवाल है लेकिन जब गैर-परंपरागत सुरक्षा को लेकर हम चर्चा करते हैं, या फिर वो चीजें जो सुरक्षा के राष्ट्र आधारित अवधारणा से आगे जाती हैं, ऐसे में इससे संबंधित मुल्क ऐसी चुनौतियों का सामना “क्या हो अगर” के इर्द-गिर्द नहीं करते बल्कि “कब” के सवाल पर करते हैं.
बांग्लादेश एक ऐसा देश है जहां कुदरती आपदा का प्रकोप सबसे ज़्यादा है, इसमें वो चक्रवात भी शामिल है जिन्हें लेकर अंतर्राष्ट्रीय सैन्य कार्रवाई ज़रूरी हो जाती है.
भारत-प्रशांत क्षेत्र में, चक्रवात और अन्य प्राकृतिक आपदाएं कुदरती वास्तविकता का हिस्सा हैं, जो इस बात का इशारा है कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में और अधिक निरंतर और गंभीर नतीजे देने वाला होगा. जैसे ही मानसून का मौसम बंगाल की खाड़ी से टकराता है, जिससे विस्थापन और भारी तादाद में मौत होती हैं, यह इस बात पर चिंतन करने के लिए बेहद उपयुक्त समय हो जाता है जब पर्यावरण परिवर्तन के चलते गैर-पारंपरिक सुरक्षा चुनौतियों को संबोधित किया जा सके – साथ ही यह भी कि कौन से मुद्दों पर काम किया जाना बाकी है.
राहत प्रदान करने वाला देश
बांग्लादेश एक ऐसा देश है जहां कुदरती आपदा का प्रकोप सबसे ज़्यादा है, इसमें वो चक्रवात भी शामिल है जिन्हें लेकर अंतर्राष्ट्रीय सैन्य कार्रवाई ज़रूरी हो जाती है. इसके बावजूद बांग्लादेश ने कोस्टल क्राइसिस मैनेजमेंट सेंटर्स और सैकड़ों साइक्लोन सेंटर्स का निर्माण कर इस चुनौती से निपटने में सकारात्मक कदम उठाया है. इस क्षमता को स्थापित करने में संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के साथ बांग्लादेश की साझेदारी एक महत्वपूर्ण वजह है. अपने स्वयं के प्रतिरोधी ताकतों में सुधार के अतिरिक्त बांग्लादेश ने अपनी आपदा प्रतिक्रिया क्षमता में काफी बढ़ोतरी की है और छोटे दक्षिण एशियाई देशों के लिए राहत प्रदान करने वाला देश बन गया है. उदाहरण के तौर पर साल 2016 में बांग्लादेश की नौसेना ने श्रीलंका में व्यापक स्तर पर आई बाढ़ और भूस्खलन के दौरान राहत पहुंचाने का काम किया था. बांग्लादेश ने मालदीव को भी साल 2014 में जल संकट के दौरान मदद पहुंचाई थी.
हालांकि कभी-कभी कुदरती आपदाएं इतनी गंभीर होती हैं कि इस दौरान राहत और बचाव कार्य जारी रखने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सैन्य मदद ली जाती है. आमतौर पर किसी मुल्क के नेता किसी विदेशी सशस्त्र बल को काम करने की अनुमति देने के लिए साफ तौर पर तैयार की गई प्रक्रियाओं और शर्तों को मानते हैं. जब मेज़बान राष्ट्र से औपचारिक अनुरोध प्राप्त किया जाता है तब विदेशी सशस्त्र बलों के जल्दी से उस मुल्क के अंदर आने की उम्मीद की जाती है और तब फिर ये सैन्य बल पीड़ित देश के लोगों को राहत पहुंचाने के बाद वहां से जल्दी से जल्दी चले जाते हैं. भारत और अमेरिका दोनों ने बंगाल की खाड़ी में 1991 के सुपर साइक्लोन और 2004 की सुनामी के बाद सफल आपदा राहत अभियान चलाए हैं. फिर भी कुछ मेज़बान देशों ने राहत के लिए मदद के प्रस्तावों से ख़ुद असहजता प्रकट की है. बंगाल की खाड़ी में दो मामलों से पता चलता है कि जब आपदा राहत की पेशकश की जाती है तो उसे जरूरी नहीं है कि स्वीकार ही किया जाता है.
2008 में म्यांमार में आए चक्रवात नरगिस के बाद राहत प्रयास को लेकर है. तब सैन्य जुंटा ने अमेरिका द्वारा नौसैनिक राहत के प्रावधान की अनुमति नहीं दी थी.
2007 में बांग्लादेश में आए चक्रवात सिद्र आने के बाद भारत की आपदा राहत टीम को चटगांव के बंदरगाह और ढाका के हवाई अड्डे पर ऐसा प्रतीत होता था कि रोक दिया गया था. तत्कालीन विदेश मंत्री, प्रणब मुखर्जी ने तब पत्रकारों से कहा था कि उनके देश ने प्रभावित क्षेत्रों में बचाव अभियान चलाने के लिए हेलीकॉप्टर तैनात करने की पेशकश की लेकिन बांग्लादेश ने ऐसा करने से मना कर दिया. जबकि बांग्लादेश नौसैनिक क्षेत्र और फिक्स्ड विंग एयरक्राफ्ट के जरिए राहत के लिए मदद स्वीकार करने के लिए तैयार था लेकिन दूरदराज़ के इलाकों में रोटरी-विंग एयरक्राफ्ट के जरिए भारत से राहत मदद बांग्लादेश को स्वीकार नहीं था.
एक अन्य उदाहरण 2008 में म्यांमार में आए चक्रवात नरगिस के बाद राहत प्रयास को लेकर है. तब सैन्य जुंटा ने अमेरिका द्वारा नौसैनिक राहत के प्रावधान की अनुमति नहीं दी थी, भले ही यूएसएस एसेक्स अभियान स्ट्राइक ग्रुप म्यांमार के पास 22 दिनों तक पानी में खड़ा रहा. फिर भी, इसी अवधि के दौरान, म्यांमार के नेतृत्व ने भारत और थाईलैंड पर भरोसा किया कि वे प्रभावित नागरिकों की मदद के लिए अपनी चिकित्सा टीमों को भेजें. हालांकि अमेरिकी वायु सेना राहत की अनुमति दी गई थी लेकिन अमेरिकी नौसैनिक राहत को अनुमति नहीं दी गई थी, जो यह प्रदर्शित करता है कि कैसे राहत की पेशकश की जाती है जो एक मेज़बान राष्ट्र द्वारा बेहद अहम विचार होता है.
ऐसे उदाहरण कुदरती आपदाओं के बाद मेज़बान राष्ट्र की संवेदनशीलता को समझने की अनिवार्यता को बताते हैं. फिर भी, प्राकृतिक आपदाएं पर्यावरण के लिए केवल एक गैर-पारंपरिक सुरक्षा ख़तरे का भाव जगाती हैं. जलवायु परिवर्तन में कार्बन उत्सर्जन की भूमिका के अलावा संबंधित मुल्कों को बंगाल की खाड़ी में अन्य मानवजनित संकटों को रोकने के लिए अधिक ध्यान देना चाहिए, जिनके अल्पकालीन और दीर्घकालिक दोनों प्रभाव हैं.
हिंद महासागर के पश्चिमी किनारे पर, मॉरीशस ने जुलाई 2020 में एक जहाज के घिर जाने और तेल गिरने के बाद “पर्यावरणीय आपातकाल की स्थिति” घोषित कर दी थी. कुछ ही समय बाद, बंगाल की खाड़ी में इसी तरह की आपदा आई, जब सितंबर 2020 में, श्रीलंका के पूर्वी तट पर एक तेल टैंकर में आग लग गई थी और 25 मील के क्षेत्र में डीजल ईंधन का रिसाव हुआ था. इससे भी बदतर, मई 2021 में, एक कंटेनर जहाज में आग लग गई और बाद में डूब गया और इस जहाज ने अपना सारा सामान समुद्र में खाली कर दिया. वर्तमान में, मलबे के 400 टुकड़े श्रीलंका के पश्चिमी तट से दूर समुद्र तल पर मिलने का अनुमान है. इसके अलावा 2021 में एक चीनी रॉकेट का मलबा मालदीव के पास हिंद महासागर में गिरा था.
बांग्लादेश एक ऐसा देश है जहां कुदरती आपदा का प्रकोप सबसे ज़्यादा है, इसमें वो चक्रवात भी शामिल है जिन्हें लेकर अंतर्राष्ट्रीय सैन्य कार्रवाई ज़रूरी हो जाती है.
ऐसी मानव-प्रेरित घटनाओं से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को इस जगह पर पूरी तरह से समझना मुश्किल हो जाता है. हालांकि पर्यावरणीय प्रभावों से परे, श्रीलंका और मालदीव आर्थिक रूप से पर्यटन पर निर्भर हैं, जो दोनों मुल्कों के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का एक अहम स्रोत है. स्थानीय आबादी की आजीविका के लिए मछली का स्टॉक समान रूप से महत्वपूर्ण है.
खाड़ी में गैर-पारंपरिक सुरक्षा चुनौतियां
बंगाल की खाड़ी में गैर-पारंपरिक सुरक्षा चुनौतियों की व्यापकता और महत्व को पहले से ही अच्छी तरह से समझा जा चुका है और इसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता के निर्माण में भी काफी बढ़ोतरी की गई है. फिर भी, आपदा राहत प्रदान करने के मामले में, अमेरिका और भारत जैसी प्रमुख शक्तियों को प्राकृतिक आपदाओं के बाद मेज़बान देशों की संभावित संवेदनशीलता के बारे में जागरूक रहने की ज़रूरत है. इसके अलावा, तत्काल मानवीय कारक जैसे शिपिंग दुर्घटनाएं पर्यावरण सुरक्षा के लिए गंभीर तो हैं लेकिन ये ख़तरे पर्यावरण के ख़तरे को नज़रअंदाज़ करते हैं. मानवीय आकलन की गलतियों की संभावना को कम करने में सक्रिय होने के साथ-साथ आपदा के प्रति प्रतिरोध बढ़ाने की ज़रूरत है, जो आने वाले दिनों में बंगाल की खाड़ी में मौजूद गैर-परंपरागत सुरक्षा जोख़िमों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने में मददगार हो सकती है.
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