जियोस्पेशियल मैपिंग और तकनीक को लेकर नीति निर्माण की लंबी और जद्दोजहद भरी क़वायद के बाद आख़िरकार भारत ने इस दिशा में ताज़ा दिशानिर्देश तय कर दिए. फ़रवरी 2021 में नक़्शों के साथ-साथ जियोस्पेशियल डेटा और जियोस्पेशियल डेटा सेवाओं की ख़रीद और निर्माण से जुड़े नियम-क़ायदे जारी हुए. फिर जुलाई 2021 में नेशनल जियोस्पेशियल नीति (NGP) का मसौदा भी सार्वजनिक कर दिया गया. ये दोनों ही दस्तावेज़ एक ऐसे परिदृश्य में वजूद में आए हैं जिसके तहत पहले से ही डेटा पर निगरानी रखने का लक्ष्य निर्धारित है. पूर्व से ही इस मक़सद से नेशनल डेटा गवर्नेंस फ़्रेमवर्क पॉलिसी (NDGFP) बनी हुई है. डेटा संरक्षण बिल (2021) पारित हो जाने पर उसके तहत भी इसी प्रक्रिया को अंजाम दिया जाएगा. जियोस्पेशियल तकनीक और डेटा को संचालित करने वाले इन नए दस्तावेज़ों से मौजूदा दिशानिर्देशों में बढ़ोतरी हुई है. इनके तहत स्थानिक, सैटेलाइट, रिमोट सेंसिंग और तमाम दूसरे तयशुदा डेटा के लिए प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया है.
जियोस्पेशियल तकनीक और डेटा को संचालित करने वाले इन नए दस्तावेज़ों से मौजूदा दिशानिर्देशों में बढ़ोतरी हुई है. इनके तहत स्थानिक, सैटेलाइट, रिमोट सेंसिंग और तमाम दूसरे तयशुदा डेटा के लिए प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया है.
भारत में निजी और सार्वजनिक- दोनों ही क्षेत्रों में जियोस्पेशियल बाज़ार में ज़बरदस्त उछाल देखा गया है. भारत की जियोस्पेशियल अर्थव्यवस्था 2021 में क़रीब 38,972 करोड़ रु. की थी. 2025 तक इसका आकार बढ़कर 52,770 करोड़ रु (7.87 प्रतिशत CAGR के साथ) हो जाने की उम्मीद है. इस नीति को डेटा के उदारीकरण के संदर्भ में और मज़बूत किए जाने पर विकास की ये उड़ान 63,100 करोड़ रु. (12.8 फ़ीसदी CAGR पर) तक पहुंच सकती है. इसकी उपयोगिता का एक बड़ा हिस्सा कृषि, दूरसंचार, आपदा और जलवायु प्रबंधन, पर्यावरणीय अध्ययन, आर्किटेक्चर आदि क्षेत्रों में अमल में लाया जाता है. जियोस्पेशियल के झंडे तले डेटा और तकनीक का उपयोग करने वाले सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक रक्षा क्षेत्र (पांच शीर्षस्थ औद्योगिक प्रयोगकर्ताओं में) है. हालिया जियोस्पेशियल दिशानिर्देशों और NGP में, प्राधिकारों और नेशनल मैप पॉलिसी (2005) के तहत प्रकाशित अधिसूचनाओं के रूप में घोषित पुरानी जवाबदेहियों को दूर कर दिया गया है. अतीत की इन क़वायदों में इकाइयों (सरकारी और निजी दोनों) को जियोस्पेशियल दायरे में ज़रूरी डेटा तक पहुंच हासिल करने की मंज़ूरी लेने के लिए अनेक प्राधिकारों का रुख़ करना पड़ता था. इनमें सर्वे ऑफ इंडिया, वित्त मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय शामिल हैं. अब डेटा को एक ही पोर्टल पर प्रस्तुत करना होता है. यहीं से सभी भारतीय इकाइयां उन तक पहुंच बनाती हैं और इनका भंडारण करती हैं. हालांकि डेटा को भारत के भीतर और यहीं के सर्वरों में जमा करना होता है. बहरहाल विदेशी इकाइयों को इनका लाइसेंस देने की सुविधा मुहैया कराई जाती है.
जियोस्पेशियल दिशानिर्देशों के तहत विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा तय किए गए नकारात्मक स्वरूपों की सूची तैयार की जाएगी. इस प्रक्रिया में ये सुनिश्चित किया जाएगा कि इस सूची का आकार न्यूनतम हो और इससे कारोबारी सहूलियत पर किसी तरह की आंच ना आए.
नियामक दस्तावेज़ों में प्रिंट और डिजिटल रूप में प्रदर्शन के लिए राजनीतिक नक़्शों तक पहुंच बनाने के तौर-तरीक़े दिए गए हैं. इनके तहत संवेदनशील प्रकार की नकारात्मक सूची की इजाज़त नहीं है. दूसरे शब्दों में “कोई भी व्यक्ति या वैधानिक इकाई नक़्शे पर प्रतिबंधित स्वरूप वाले किसी इलाक़े के साथ ना तो जुड़ाव बना सकता है और ना ही उस रूप में उनकी पहचान कर सकता है”. जियोस्पेशियल दिशानिर्देशों के तहत विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा तय किए गए नकारात्मक स्वरूपों की सूची तैयार की जाएगी. इस प्रक्रिया में ये सुनिश्चित किया जाएगा कि इस सूची का आकार न्यूनतम हो और इससे कारोबारी सहूलियत पर किसी तरह की आंच ना आए. नकारात्मक स्वरूप वाली मौजूदा प्रायोगिक सूची में ज़्यादातर नाभिकीय क्षेत्र, उड्डयन, मिसाइल लॉन्च क्षेत्रों, नियंत्रण रेखाओं आदि से जुड़े विषय शामिल हैं. नियमन का अंत इस चेतावनी के साथ किया गया है कि इनके उल्लंघन से जुड़ी हरकतों से मुनासिब क़ानूनों के ज़रिए निपटा जाएगा. इनमें भारतीय दंड संहिता, सूचना-प्रौद्योगिकी अधिनियम, कंपनीज़ एक्ट 2013, सिविल एविएशन रिक्वायरमेंट्स और आपराधिक क़ानून संशोधन (संशोधित) अधिनियम 1990 शामिल हैं.
क्या जियोस्पेशियल डेटा का उदारीकरण अक्लमंदी वाला क़दम है?
जियोस्पेशियल डेटा में उदारीकरण से जुड़े क़दम की निजी क्षेत्र में सराहना हुई है. दरअसल इससे नवाचार और विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलता है. हालांकि, रक्षा क्षेत्र इस क़वायद को लेकर ज़्यादा आशावादी नहीं है. फ़िलहाल गूगल और एप्पल जैसी अंतरराष्ट्रीय इकाइयों के साथ जियोस्पेशियल डेटा (जिन्हें भारतीय सैटेलाइट और रिमोट सेंसिंग प्रणालियों से जुटाया जाता है) साझा नहीं किए जाते हैं. “सूक्ष्म सटीक जानकारी” के रूप में अन्य डिलीवरी सेवाओं के साथ भी इन्हें साझा नहीं किया जाता है. निजी इकाइयों को बिना इजाज़त ऐसे डेटा की पड़ताल करने की भी मंज़ूरी नहीं दी गई है, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके. हालांकि अब रक्षा मंत्रालय (MoD) ने अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के लिए 25 किमी तक की जियोस्पेशियल मैपिंग करने की इजाज़त का प्रस्ताव किया है. इसी तरह समुद्र तट से 12 नॉटिकल माइल्स तक पानी के अंदर मुक्त रूप से जियोस्पेशियल मैपिंग की छूट देने की पेशकश की गई है. बहरहाल रक्षा मंत्रालय के प्रस्ताव के बावजूद देश की सशस्त्र सेनाएं, जैसे भारतीय थल सेना ऐसे किसी क़दम के ख़िलाफ़ हैं. सरकार ने तो मंज़ूरी प्रक्रिया को दूर कर इन निजी किरदारों को मुक्त पहुंच देने का भी प्रस्ताव किया है. हालांकि, तमाम सुरक्षा एजेंसियों की नुमाइंदगी वाली नीति आयोग की एक समिति ने ऐसा कोई भी क़दम नहीं उठाने की सलाह दी है. गूगल, ऐपल, स्पेसएक्स, लॉकहीड मार्टिन जैसी मैपिंग और सैटेलाइट संगठनों के मुख्यालय अमेरिका में हैं. ये फ़ाइव-आइज़ अलायंस (नाइन आइज़ और 14 आइज़ अलायंस के साथ-साथ) के तहत आते हैं. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए मैपिंग डेटा के उदारीकरण को लेकर भारतीय सेना की हिचकिचाहट जायज़ है. महासागरीय निगरानी, ECHELON और जियोस्पेशियल मैपिंग के प्रयोग हमेशा से राष्ट्रीय ख़ुफ़िया तंत्र का हिस्सा रहे हैं. भारत एंड-टू-एंड एनक्रिप्टेड प्लेटफ़ॉर्मों में पिछले दरवाज़े से पहुंच बनाने की क़वायद को सहारा देने के लक्ष्य से 2020 में फ़ाइव आइज़ अलायंस से जुड़ा था. हालांकि इस गठजोड़ का मुख्य मक़सद किसी भी सदस्य देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से अहम मानी जानी वाली सूचना को साझा करना है.
जियोस्पेशियल डेटा में उदारीकरण से जुड़े क़दम की निजी क्षेत्र में सराहना हुई है. दरअसल इससे नवाचार और विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलता है. हालांकि, रक्षा क्षेत्र इस क़वायद को लेकर ज़्यादा आशावादी नहीं है.
दरअसल, मैपिंग एजेंसियों, जियोस्पेशियल तकनीक और उपकरणों के निर्माण के सिलसिले में भारतीय और वैश्विक स्तर के खिलाड़ियों की क्षमता में बड़ा भारी अंतर है. अंतरराष्ट्रीय मुख्यालयों वाली मैपिंग एजेंसियों के लिए जियोस्पेशियल डेटा की पहुंच से जुड़ी प्रक्रिया का उदारीकरण करने से भारत में कई समस्याएं पैदा होने लगेंगी. इससे ना सिर्फ़ व्यक्तिगत निजता बल्कि घरेलू और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी तमाम मुसीबतें और ख़तरे पैदा होने लगेंगे. विदेशी ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा अतीत के आंकड़ों का दुरुपयोग किए जाने की आशंका रहेगी. इसके अलावा हथियारों या कार्गो यातायात की सैटेलाइट से टोह लगाए जाने का भी डर रहेगा. सामुद्रिक मैपिंग या यहां तक कि सरहदी इलाक़ों में आवाजाही पर निगरानी रखे जाने की भी आशंकाएं बनी रहेंगी.
अभी भारत में जियोस्पेशियल तकनीक का चुनिंदा क्षेत्रों में ही इस्तेमाल हो रहा है. मैप किए गए डेटा को फ़िलहाल सुरक्षा संगठनों में संरक्षित किया जाता है. साथ ही डेटा को भारतीय सर्वरों में ही रखा जाता है. डेटा संरक्षण विधेयक जैसे अन्य नियमनों के संदर्भ में डेटा के उदारीकरण को लेकर दी जाने वाली दलीलों में उतना दम नहीं रह जाएगा. दरअसल संप्रभुता और सुरक्षा के लिए डेटा स्थानीयकरण के पुराने तर्कों की जगह डेटा संरक्षण बिल में नई दलीलें पेश की गई हैं. हालांकि मौजूदा जियोस्पेशियल दिशानिर्देशों में इनकी झलक नहीं मिलती. लिहाज़ा जियोस्पेशियल डेटा में और ज़्यादा हिफ़ाज़ती प्रावधानों की दरकार हो सकती है, क्योंकि इसके ज़रिए तटीय और ज़मीनी सरहदों, सैटेलाइट प्रयोगों, रेलवे यातायात आदि की मैपिंग की जा सकती है. रियल-टाइम मैपिंग के इसी मक़सद की वजह से अभी भारत में GPS (गूगल मैप्स) के ज़रिए स्ट्रीट व्यू की इजाज़त नहीं दी गई है. कुछ अर्सा पहले ही भारत ने भारतीय सैटेलाइटों के गुच्छों (गगन) को GPS की मदद से रियल-टाइम रेलवे आवाजाही की निगरानी की इजाज़त दी है. हालांकि ये मंज़ूरी भी सिर्फ़ सवारी रेलगाड़ियों तक ही सीमित हैं. इसके अलावा रेलवे सूचना प्रणाली केंद्र (CRIS) को इसपर निगरानी रखने की ज़िम्मेदारी दी गई है. दरअसल साझा किए जा सकने वाले डेटा की अलग-अलग पहचान को लेकर NGP में तस्वीर साफ़ नहीं है. लिहाज़ा फ़िलहाल इसे मामले-दर-मामले के हिसाब से तय किया जा रहा है. अभी इनपर स्टार्ट-अप्स, PPPs जैसी दूसरी समानांतर इकाइयों के ज़रिए विचार हो रहा है. इस नीति के तहत जियोस्पेशियल डेटा संवर्धन और विकास समिति (GDPDC) स्थापित की जाएगी. इसमें रक्षा क्षेत्र से भी एक नुमाइंदा होगा. इस समिति के सदस्य भी डेटा की अहमियत की पड़ताल करेंगे. मसलों की प्राथमिकता को लेकर असमंजस के मौजूदा हालात चिंता का सबब हैं. इससे निपटने के लिए जियोस्पेशियल डेटा शेयरिंग और जियोस्पेशियल डेटा प्रयोग में रक्षा से जुड़ी क़वायद की दरकार है.
अंतरिक्ष उद्योग में निजी क्षेत्र को जोड़े जाने की प्रक्रिया का भी NGP के तहत नियमन किया जाना चाहिए. इससे नई अंतरिक्ष नीति का सामरिक प्रयोग से तालमेल सुनिश्चित हो सकेगा.
डिफ़ेंस GIS को प्रामाणिकता से स्थापित किया गया है ताकि उसे असैनिक डेटा से अलग रखा जा सके. इस सिलसिले में ये बात रेखांकित की गई है कि रक्षा क्षेत्र की ज़रूरतों के दायरे में सुरक्षा से जुड़ी तमाम चिंताएं और मसले (हमले का ख़तरा झेल रहे क्षेत्र भी) शामिल हो सकते हैं. नागरिक एजेंसियों की तुलना में रक्षा के लिए जियोस्पेशियल डेटा की ज़रूरतों और उसके नियमन के तहत चौबीसों घंटे निगरानी, क्षेत्र विश्लेषण और ऊंची रिज़ॉल्यूशन, अत्याधुनिक सेंसर्स और थ्रीडी विज़ुअलाइज़ेशन का इस्तेमाल होना चाहिए. भारत में, ख़ासतौर से रक्षा के क्षेत्र में भारतीय थल सेना का CIDSS (कमांड इंफ़ॉर्मेशन डिसिज़न सपोर्ट सिस्टम) और भारतीय वायुसेना का इंटीग्रेटेड एयर कमांड एंड कंट्रोल सिस्टम (IACCS) दो जियोस्पेशियल प्रणालियां हैं. फ़िलहाल ये दोनों ही क्रियान्यवन के अलग-अलग चरणों में हैं. भारत द्वारा अपनी नई अंतरिक्ष नीति के तहत भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र को एंट्रिक्स से आगे ले जाकर स्पेसएक्स के बराबर मुकाम हासिल करने में मददगार होने का लक्ष्य रखा गया है. इससे लॉन्चिंग और विनिर्माण के मसलों में भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र के निजीकरण में मदद मिलेगी. हालांकि इस पर अभी अमल होना बाक़ी है. अंतरिक्ष उद्योग में निजी क्षेत्र को जोड़े जाने की प्रक्रिया का भी NGP के तहत नियमन किया जाना चाहिए. इससे नई अंतरिक्ष नीति का सामरिक प्रयोग से तालमेल सुनिश्चित हो सकेगा. जियोस्पेशियल सेक्टर की नियमन व्यवस्था में रक्षा क्षेत्र को अलग रूप में देखे जाने की दरकार है. रक्षा डेटा और नागरिक डेटा पर एक जैसे नियमन से भले ही निजी क्षेत्र के विकास के लिए अनुकूल वातावरण मिल जाए, लेकिन ये रक्षा के लिहाज़ से नुक़सानदेह होगा. इसकी बजाए इस दस्तावेज़ में जियोस्पेशियल आपूर्ति श्रृंखला के हर हिस्से के लिए घरेलू संगठन खड़े किए जाने की क़वायद को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि ये तमाम संगठन आम डेटा नीतियों से बंधे ना रहें. दरअसल ये नीतियां असैनिक डेटा या अंतरराष्ट्रीय नियमों के संचालन के लिए होती हैं. इनके दायरे में डेटा स्टोरेज और शेयरिंग जैसी क़वायदें आती हैं. इन व्यवस्थाओं के पास भारतीय रक्षा तंत्र के बाहर ख़ुफ़िया गठजोड़ों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सूचनाएं नहीं हो सकतीं.
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