जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा अब जापान के प्रधानमंत्री आवास कांटेई में सुकून की सांस ले सकते हैं. उनकी पार्टी ने जापान के आम चुनावों में उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया और मज़बूत वापसी की. अपने पहले के प्रधानमंत्रियों की तुलना में फुमियो किशिदा कम लोकप्रिय हैं. उनकी रेटिंग्स कमज़ोर हैं. कोविड-19 महामारी से निपटने को लेकर, जनता के बीच सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को लेकर लंबे समय से असंतोष बना हुआ है. इन हालात को देखते हुए बहुत से लोग ये निष्कर्ष निकाल चुके थे कि आम चुनाव में लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को बड़ा झटका लगने वाला है. कुछ विश्लेषकों ने तो लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के हाथ से सत्ता निकल जाने तक की भविष्यवाणी कर डाली थी. लेकिन, जापान में सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ने आम चुनाव में अपने प्रदर्शन से ये साबित कर दिया कि आख़िर क्यों इस पार्टी को 70 साल तक जापान पर राज करने का मौक़ा मिला. जापान की संसद के निचले सदन हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स में लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्यों की संख्या में केवल 15 सीटों का नुक़सान हुआ और वो फिर से बहुमत हासिल करने वाली इकलौती पार्टी बन गई.
सुगा के बारे में जनता का आम ख़याल यही था कि वो कोविड-19 महामारी से निपट पाने में नाकाम रहे हैं. इसी वजह से सुगा को जनता की नाराज़गी का सामना करना पड़ा.
फुमियो किशिदा नरमपंथी नेता, समाज सेवा का लंबा अनुभव
फुमियो किशिदा का जापान के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का रास्ता, उनके पूर्ववर्ती योशिहिदे सुगा की हैरान कर देने वाली कम रेटिंग से खुला था. सुगा के बारे में जनता का आम ख़याल यही था कि वो कोविड-19 महामारी से निपट पाने में नाकाम रहे हैं. इसी वजह से सुगा को जनता की नाराज़गी का सामना करना पड़ा. ख़ुद लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर, ख़ास तौर से नए सदस्यों के बीच ये राय आम थी कि योशिहिदे सुगा की नाकामियों ने उनको राजनीतिक तौर पर एक बोझ बना दिया है. ये संसद सदस्य जल्द से जल्द नए नेता का चुनाव करना चाहते थे. फुमियो किशिदा एक नरमपंथी नेता हैं. समाज सेवा का उनका लंबा और अच्छा इतिहास रहा है. इन्हीं ख़ूबियों की वजह से किशिदा को प्रधानमंत्री चुना गया. हालांकि, किशिदा को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर जनता के बीच कोई ख़ास उत्साह नहीं देखा गया. किशिदा ने प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल, अपने पहले के प्रधानमंत्रियों की तुलना में लोकप्रियता की बेहद कम रेटिंग के साथ शुरू किया था. इसके अलावा, जब किशिदा प्रधानमंत्री बने, तो जापान के विपक्षी दल भी एकजुट होते दिख रहे थे. जबकि उनके बीच लंबे समय से बिखराव चला आ रहा था. जापान के 465 सदस्यों वाले हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स में 110 सीटों वाली कॉन्टीट्यूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी ने जापान की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ एक विवादास्पद गठबंधन कर लिया. इस गठबंधन का मक़सद, जनता के बीच LDP की बढ़ती अलोकप्रियता का फ़ायदा उठाना था. जैसे-जैसे जापान चुनाव की दिशा में आगे बढ़ा, ज़मीनी ख़बरें ये इशारा कर रही थीं कि लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी और कॉन्स्टीट्यूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच देश भर में कम से कम 70 सीटों पर कांटे की टक्कर होने वाली है. इन रिपोर्ट को देखकर, ख़ुद फुमियो किशिदा ने चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन को लेकर जताई जा रही उम्मीदों को कम करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि वो जापान की संसद डाइट में लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की अगुवाई वाले गठबंधन के दोबारा बहुमत हासिल करने की उम्मीद कर रहे हैं. ये तो उस हाल में भी मुमकिन था अगर, किशिदा की पार्टी कांटे की टक्कर वाली सभी 70 सीटें हार भी जातीं. ऐसी ख़बरों की बाढ़ आई हुई थी कि लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी, चुनाव में कम से कम 40 सीटें हार सकती है. अगर नतीजा ऐसा ही होता, तो किशिदा की नई सरकार के लिए ये एक बड़ा झटका होता.
जब 31 अक्टूबर को चुनाव के नतीजे आने लगे, तो ये साफ़ हो गया कि लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की बुरी हार के दावे कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर किए गए थे. इसमें कोई दो राय नहीं कि कई सीटों पर मुक़ाबला कांटे का था.
लेकिन, जब 31 अक्टूबर को चुनाव के नतीजे आने लगे, तो ये साफ़ हो गया कि लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की बुरी हार के दावे कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर किए गए थे. इसमें कोई दो राय नहीं कि कई सीटों पर मुक़ाबला कांटे का था. विपक्षी दलों के उम्मीदवारों ने कड़ी टक्कर दी थी. लेकिन, ज़्यादातर सीटों पर लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जीत गए. जब सारे वोट गिन लिए गए और चुनाव का शोर थमा, तो पिछले चुनाव की तुलना में, लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की केवल 15 सीटें कम हुई थीं और उसे इस बार 261 सीटे ही हासिल हो सकी थीं. लेकिन ये संख्या बहुमत के जादुई आंकड़े 233 से फिर भी ज़्यादा थी. लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की गठबंधन साझीदार कोमीटो ने भी अपना प्रदर्शन बेहतर किया और गठबंधन की कुल सीटों की संख्या 293 तक पहुंचा दी. इसके अलावा, एक और ख़ास बात ये रही कि लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी गठबंधन को चुनाव में जो नुक़सान हुआ, उसका फ़ायदा कॉन्सीट्यूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी की अगुवाई वाले विपक्षी गठबंधन को नहीं हुआ. CDP की सीटें उम्मीद से कहीं उलट आईं और पिछली बार मिली 109 सीटों की तुलना में पार्टी को इस बार केवल 96 सीटों पर ही जीत हासिल हुई. ये नतीजे CDP के लिए राजनीतिक रूप से बेहद नुक़सानदेह भी साबित हो सकते हैं. ओसाका स्थित दक्षिणपंथी इशिन नो काई (जापान इनोवेशन पार्टी), इन चुनावों में स्टार सियासी दल बनकर उभरी. पार्टी ने 40 सीटों पर जीत हासिल की. अब जापान के विपक्षी दलों के भविष्य को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं. नए प्रधानमंत्री को लेकर बहुत उत्साह न दिखाने और लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रति लंबे समय से असंतोष के बावजूद, विपक्षी दल कोई ख़ास चुनावी कामयाबी हासिल नहीं कर सके. CDP की नाकामी की एक वजह, विपक्षी दलों की अगुवाई वाली पिछली सरकारों को लेकर जनता का ख़राब तजुर्बा भी हो सकती है. इसके अलावा, CDP जनता के बीच लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को लेकर समर्थन में भी सेंध नहीं लगा सकी है. जापान के मतदाताओं को भरोसा है कि देश पर 70 साल राज कर चुकी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी में देश की खांचों में बंटी अफ़सरशाही से निपटने की सबसे अधिक काबिलियत है और वो तमाम हितों से जुड़े समूहों के साथ तालमेल से काम करती है, जिससे ‘काम हो जाता है’. ऐसे हालात में मतदाता आम तौर पर अपने उम्मीदवार में यही ख़ूबी देखते हैं कि वो उनके क्षेत्र के लिए सरकार से लाभ हासिल करने में कितना सफल होगा. वोटर विचारधारा के झुकाव को बहुत तवज्जो नहीं देते. ऐसा लगता है कि जापान में सियासत की धुरी दक्षिणपंथ की ओर झुक गई है और अभी यही झुकाव बने रहने की संभावना ज़्यादा है.
वोटर विचारधारा के झुकाव को बहुत तवज्जो नहीं देते. ऐसा लगता है कि जापान में सियासत की धुरी दक्षिणपंथ की ओर झुक गई है और अभी यही झुकाव बने रहने की संभावना ज़्यादा है.
जापान के चुनाव नतीजों का भारत-अमेरिका में स्वागत
लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को चुनाव में ज़्यादा नुक़सान होने की आशंकाओं को ग़लत साबित करके फुमियो किशिदा ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपना पहला इम्तिहान पास कर लिया है. ऐसे में भारत से लेकर अमेरिका तक की सरकारें राहत की सांस ले सकती हैं. कम से कम अभी के लिए तो जापान में कमज़ोर प्रधानमंत्रियों वाली अस्थिर सरकारों का दौर आने से टल गया है. चुनावी जीत से जन समर्थन हासिल करके अब फुमियो किशिदी अपनी विदेश नीति के अहम मसलों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं. इसकी शुरुआत जापान की अर्थव्यवस्था के लिए अहम आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुरक्षित बनाकर देश की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने से हो सकती है. जापान के तमाम राजनीतिक दलों के बीच इस एजेंडे पर आम सहमति भी है. अगर भारत ने अपने पत्ते ठीक से खेले, तो उसे जापान के रूप में अपनी विकास संबंधी योजनाओं के लिए अच्छा निवेशक मिल सकता है. ख़ुद जापान भी अपनी आर्थिक ख़ुशहाली के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भरता को कम करना चाहता है. इसके अलावा, फुमियो किशिदा के कार्यकाल में जापान की रक्षा नीतियों पर भी गंभीर चर्चा होने की उम्मीद है. किशिदा के आक्रामक समर्थकों के बीच जो एक प्रस्ताव काफ़ी लोकप्रिय हो गया है, वो ये मांग है कि जापान अपने रक्षा बजट को दोगुना करके GDP के 2 प्रतिशत तक ले आए. चूंकि जापान का मौजूदा रक्षा बजट उसकी GDP का महज़ 0.94 फ़ीसद है, और फुमियो किशिदा ‘नए पूंजीवाद’ की राह पर आगे चलने का वादा कर चुके हैं. ऐसे में अगर जापान अपना रक्षा ख़र्च दोगुना करता है, तो ये उनकी सरकार के लिए बहुत मुश्किल से हासिल होने वाला लक्ष्य साबित हो सकता है. हालांकि, जापान के रक्षा बजट में थोड़ी-थोड़ी बढ़ोत्तरी तो पहले ही की जा रही है और इससे जापान आने वाले समय में सुरक्षा की गारंटी दे सकने वाले देश में उभर सकता है. आख़िर में, फुमियो किशिदा की चुनावी जीत से उनकी सरकार को चीन के प्रति एक मज़बूत नीति विकसित करने का भी मौक़ा मिल सकेगा. चूंकि, पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे, किशिदा का समर्थन करते हैं. ऐसे में किशिदा क्वाड की कई प्रमुख पहल को लागू करने पर ज़ोर दे सकते हैं. इनमें मूलभूत ढांचे के विकास की परियोजनाओं की फंडिंग, भविष्य की अहम तकनीकों जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजें और 5G के तकनीकी मानकों का विकास और क्वाड के अन्य देशों के साथ सैन्य तालमेल को बढ़ावा देना शामिल है. इसके अलावा किशिदा के पास इस बात का मौक़ा भी होगा कि वो जापान की सैन्य छवि को भी नए सिरे से गढ़ सकते हैं. जापान, अपनी ऐतिहासिक नरम छवि से छुटकारा पाने पर विचार कर रहा है और वो मिसाइल हमलों से निपटने के लिए आक्रामक मिसाइल हमले करने की तकनीक हासिल करने पर भी विचार कर रहा है. ये जापान जैसे देश के लिए बिल्कुल नई बात होगी. क्योंकि पारंपरिक रूप से जापान सिर्फ़ रक्षात्मक क्षमताएं विकसित करने पर ज़ोर देता रहा है. लेकिन, ऐसे क़दम उठाने से जापान को पहली बार, चीन और उत्तर कोरिया में सैन्य लक्ष्यों पर निशाना साध सकने की ताक़त मिल सकेगी और इससे वो इस क्षेत्र में अमेरिका के नेतृत्व वाले सुरक्षा के ढांचे में अहम योगदान दे सकेगा.
फुमियो किशिदा की चुनावी जीत से उनकी सरकार को चीन के प्रति एक मज़बूत नीति विकसित करने का भी मौक़ा मिल सकेगा. चूंकि, पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे, किशिदा का समर्थन करते हैं. ऐसे में किशिदा क्वाड की कई प्रमुख पहल को लागू करने पर ज़ोर दे सकते हैं.
लेकिन, हमें ये ध्यान रखना होगा कि फुमियो किशिदा सरकार अभी पूरी तरह संकट से नहीं उबरी है. अभी प्रधानमंत्री का ध्यान पूरी तरह से संसद के उच्च सदन के लिए होने वाले चुनावों पर होगा, जो 2022 की गर्मियों में होने जा रहे हैं. अगर फुमियो किशिदा, आम चुनाव के प्रदर्शन को इन चुनावों में भी दोहरा पाते हैं, तो उनके पास ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में जापान पर राज करने के लिए तीन साल का पूरा समय होगा, जो राजनीतिक रूप से भी बहुत ताक़तवर होगा. अब जैसे जैसे फुमियो किशिदा की राजनीतिक स्थिति लगातार मज़बूत हो रही है, तो ज़ाहिर है उनकी ख़ुशी का कोई पारावार नहीं होगा.
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