ये लेख हमारी सीरीज़, इंडिया @75: एसेसिंग की इंस्टीट्यूशंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी का एक हिस्सा है.
हाल के वर्षों में भारत में सिविल सेवा को भारी आलोचना का शिकार होना पड़ा है. राजनीतिक नेतृत्व से लेकर मीडिया, शिक्षाविदों, निजी क्षेत्र और पूर्व नौकरशाहों ने इसके वर्तमान कामकाज पर भारी असंतोष जाहिर किया है. यहां तक कि इसके सबसे तीखे आलोचकों ने तो इस संस्था को ख़त्म करने की वक़ालत तक कर दी है. जबकि कुछ इसमें आमूल-चूल बदलाव के हिमायती हैं, जबकि कुछ लोग इसे आधुनिक भारत की बदलती व्यवस्था के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की वक़ालत करते हैं. अब जबकि भारत अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है तो सिविल सेवा और भारत की भविष्य की प्रगति में इसकी भूमिका के निष्पक्ष मूल्यांकन की कोशिश करना सार्थक हो सकता है.
इतिहास पर एक नज़र
भारत में सिविल सेवा की जड़ें भारत सरकार अधिनियम 1858 से जुड़ती है, जिसके तहत भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) की स्थापना हुई. इस अधिनियम में यह निर्धारित किया गया था कि सभी सेवा नियुक्तियां एक प्रतियोगी परीक्षा के ज़रिए होंगी. 1,200 की अधिकतम संख्या के तहत, आईसीएस अधिकारियों को 300 मिलियन की आबादी की निगरानी के लिए भारत के 250 ज़िलों में तैनात किया गया था और वर्षों से,भारत में बतौर शाही मौज़ूदगी आईसीएस सेवा को सबसे रौबदार माना जाता रहा.
भारत में सिविल सेवा की जड़ें भारत सरकार अधिनियम 1858 से जुड़ती है, जिसके तहत भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) की स्थापना हुई. इस अधिनियम में यह निर्धारित किया गया था कि सभी सेवा नियुक्तियां एक प्रतियोगी परीक्षा के ज़रिए होंगी.
सबसे पहले सभी आईसीएस अधिकारी ब्रिटिश हुआ करते थे और लंदन में आयोजित होने वाली परीक्षा के माध्यम से इनकी भर्ती की जाती थी. बाद में कई परिस्थितियों ने अंग्रेजों को भारतीयों को इस सेवा के लिए भर्ती करने और भारत में इसकी परीक्षा आयोजित करने के लिए मज़बूर कर दिया. प्रथम विश्व युद्ध तक आईसीएस ही एकछत्र सत्ताधारी हुआ करते थे. ज़िला कलेक्टर, आईसीएस का आधुनिक स्वरूप, के ऊपर तब राजस्व संग्रह, कानून और व्यवस्था के प्राथमिक कार्यों का जिम्मा होता था. बाद में उनपर और ज़िम्मेदारियां दी गईं. तीन दशकों के बाद हालांकि, इस सेवा की समीक्षा के तहत इससे जुड़ी कई ग़लतियों का पता चला. लोक सेवा आयोग 1886 ने पाया कि इस सेवा में अधिकारी अक्सर योग्यता के बजाय वरिष्ठता के आधार पर आगे बढ़ते हैं. हॉबहाउस कमीशन 1909 ने पाया कि ऐसे ज़्यादातर अधिकारी अपर्याप्त दौरा करते थे और उन्हें स्थानीय भाषा और रीति-रिवाज़ों की पूरी समझ भी नहीं थी.
इसके तुरंत बाद दो बड़ी घटनाओं ने आईसीएस सेवा को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया. पहली वज़ह थी प्रथम विश्व युद्ध, जिसने इस सेवा में ब्रिटिश भर्ती को रोका और इस सेवा के लिए ज़्यादा भारतीयों के चयन को मज़बूर किया (ली कमीशन 1924). दूसरी वजह थी साल 1919 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार. इस सुधार ने प्रांतीय सरकारों और स्थानीय परिषदों में एक हद तक लोकप्रिय नियंत्रण की अहमियत को बढ़ावा दिया. समय के साथ संवैधानिक सुधार व्यापक होते गए,जिसकी परिणति भारत सरकार अधिनियम 1935 में हुई, जिसने आख़िरकार प्रांतीय सरकारों को पूर्ण अधिकार हस्तांतरित कर दिया. समय के साथ कुलीन और संभ्रांत समझे जाने वाले आईसीएस सेवा को थोड़ा सामान्य बनाया गया और इससे जुड़ी कई ख़ामियों को सामने लाया गया. नेहरू ने आईसीएस क्षमता के मिथक को तोड़ा और आईसीएस अधिकारी, जो बने बनाए ढ़र्रे पर काम करने के आदी हो चुके थे, वो खुद को नए बदलावों के अनुकूल नहीं ढ़ाल सके.
समय के साथ कुलीन और संभ्रांत समझे जाने वाले आईसीएस सेवा को थोड़ा सामान्य बनाया गया और इससे जुड़ी कई ख़ामियों को सामने लाया गया. नेहरू ने आईसीएस क्षमता के मिथक को तोड़ा और आईसीएस अधिकारी, जो बने बनाए ढ़र्रे पर काम करने के आदी हो चुके थे, वो खुद को नए बदलावों के अनुकूल नहीं ढ़ाल सके.
राजनेताओं का सामना करने में असुविधा, वेतन में भारी गिरावट और पश्चिम में निजी क्षेत्र की आकर्षक नौकरियों के उदय ने ब्रिटिश उम्मीदवारों को इस सेवा से धीरे-धीरे दूर कर दिया. द्वितीय विश्व युद्ध ने इस संकट को और बढ़ा दिया क्योंकि आईसीएस अधिकारियों को तब नागरिक सुरक्षा, हवाई हमले से जुड़ी सावधानियों, खाद्य नियंत्रण और युद्ध भर्ती जैसी अतिरिक्त ज़िम्मेदारियां थोप दी गईं. इससे भी कहीं अधिक, तब राष्ट्रवादी आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था और अधिकारियों को लोगों के बढ़ते असंतोष से जूझना पड़ा. इसका असर यह हुआ कि 1947 तक इस दमदार नौकरी में ब्रिटिश नागरिकों की भर्ती लगभग पूरी तरह से रुक गई और इसने ब्रिटिश राज के पतन की गति को तेज़ कर दिया.
स्वतंत्रता के बाद के भारत में सिविल सेवाएं: ताक़त और चुनौतियां
भारत की स्वतंत्रता के बाद आईसीएस की जगह भारतीय प्रशासनिक सेवा ने ले ली. हालांकि, यह बदलाव बिना चर्चा के अमल में नहीं आया लेकिन सरदार पटेल ने इसे जारी रखने के लिए कई ज़ोरदार तर्क दिए. साल 1949 में संविधान सभा को अपने संबोधन में उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि एक बेहतर अखिल भारतीय सेवा के बिना कोई अखंड भारत नहीं हो सकेगा.
साल 1947 में दो शताब्दियों के साम्राज्यवादी शासन ने भारतीयों को घोर ग़रीबी में ला खड़ा किया और भारत में सामाजिक और आर्थिक संकेतक बेहद ख़राब हो गए. तब औसत जीवन प्रत्याशा 40 वर्ष से कम थी और औसत प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 265 रुपए थी. इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा एक बड़ी चुनौती थी और तब लगभग सभी उपभोक्ता वस्तुओं का आयात करना पड़ता था. यहां तक कि साक्षरता दर भी 18.3 प्रतिशत ही थी. रेल नेटवर्क प्रतिदिन केवल चार मिलियन यात्रियों को अपने साथ ले जाया करता था. देश में तब 20,000 किमी लंबी राष्ट्रीय राजमार्ग ही थी और पंजीकृत वाहनों की संख्या 30 लाख थी. आज भारत में जीवन प्रत्याशा लगभग 70 वर्ष है; औसत प्रति व्यक्ति आय 150,326 रुपए है और अधिकांश उपभोक्ता वस्तुएं स्थानीय रूप से बनाई जाती हैं. देश में ग़रीबी का स्तर भी काफी कम हुआ है. यहां तक कि भारत अब खाद्यान्न निर्यात करता है. दूध, अंडा और मछली उत्पादन में भारत काफी आगे बढ़ चुका है. भारत में साक्षरता दर 77.7 प्रतिशत है. तेईस मिलियन लोग अब प्रतिदिन ट्रेनों से यात्रा करते हैं. राष्ट्रीय राजमार्ग 126,000 किमी और पंजीकृत वाहनों की संख्या 300 मिलियन हो गई है. इसमें कोई दो राय नहीं कि आज़ादी के बाद से भारत ने लंबी दूरी तय की है. मौज़ूदा समय में भारत का हर हिस्सा बेहतर तरीक़े से जुड़ा है, यहां के नागरिक अब बेहतर खाना खाते हैं और ज़्यादा शिक्षित भी हैं. कुल मिलाकर भारत अब एक सक्षम राष्ट्र है, जो आर्थिक और सैन्य शक्ति को तेज़ी से आगे बढ़ा रहा है. भारत ने अब तक जो कुछ भी हासिल किया है उसमें जीवन के विविध क्षेत्रों में अलग-अलग राष्ट्रीय हितधारकों की भूमिका रही है. सिविल सेवा उन हितधारकों में से एक है और जो इस विकास यात्रा के अहम् सूत्रधार हैं.
भारत ने अब तक जो कुछ भी हासिल किया है उसमें जीवन के विविध क्षेत्रों में अलग-अलग राष्ट्रीय हितधारकों की भूमिका रही है. सिविल सेवा उन हितधारकों में से एक है और जो इस विकास यात्रा के अहम् सूत्रधार हैं.
भारतीय लोकतंत्र को संरक्षित और मज़बूत करने में सिविल सेवा की भूमिका कम नहीं रही है. इसका उदाहरण साल 2017 के एक अध्ययन से मिलता है, जिसमें निष्कर्ष निकाला गया था कि राष्ट्रीय एकता और संवैधानिक शासन को बनाए रखने में सिविल सेवा बेहतर तरीक़े से प्रभावी रही है. भारत में चुनाव आयोग द्वारा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना इसे और स्पष्ट करता है. समय के साथ देश के कई महत्वपूर्ण संस्थानों, जैसे कि भारतीय रिज़र्व बैंक, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के संचालन के लिए सिविल सेवा की ओर रुख़ किया है.
यहां तक कि नीति निर्माण को लेकर भी सिविल सेवा की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है. विश्व बैंक ने अपने अध्ययन में पाया कि जहां कहीं भी सिविल सेवा को राजनीतिक नेतृत्व द्वारा सशक्त किया गया था, वहां बदलाव के लगभग हर मामले का नेतृत्व एक सिविल सेवक ने किया था. ख़ास बात यह थी कि यह, कुल मिलाकर, तटस्थता की सर्वोत्तम परंपराओं और बिना किसी भय या पक्षपात के किया गया काम है. इसके अलावा, ज़िला कलेक्टर की संस्था भी इस देश के सबसे भरोसेमंद संस्थानों में से एक साबित हुई है.
हालांकि, ऐसे योगदान इस तथ्य को नहीं छिपाते हैं कि सिविल सेवा एक उभरते भारत की आकांक्षाओं के भार को वहन करने में फिलहाल कमज़ोर नज़र आती है. व्यापक रूप से इस बात की आलोचना की जाती है कि सिविल सेवा अभिजात्य, स्वार्थी, धीमी और पीड़ादायक है. यह प्रोत्साहन और दंड की एक त्रुटिपूर्ण व्यवस्था के तहत काम करता है और अधिकारी बेहतर प्रदर्शन करने के दबाव के बिना अपने काम को अंजाम देते हैं. हालांकि निजी क्षेत्र सामान्य तौर पर सिविल सेवा को अपने ख़ास विशिष्टता के बीच अनुपयुक्त पाता है, जिसे नई भारतीय प्रबंधन सेवा द्वारा बदला जा सकता है. हालांकि इसे लेकर इसकी नैतिकता के मानकों और पेशेवर एकता को लेकर कई संदेह पैदा होते हैं.
इनमें से कई आलोचनाएं सही भी लगती हैं और इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में सिविल सेवा आमूल-चूल बदलाव के लिए तैयार है. प्रशासनिक सुधार आयोगों, राजनीतिक विश्लेषकों, सिविल सेवकों और कई अन्य लोगों ने ऐसे सुझाव दिए हैं जो सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध हैं. ये सुझाव मूल रूप से प्रवेश परीक्षा, भर्ती, लैटरल एंट्री, पदोन्नति और पैनल, मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव और अक्षमता को इस सेवा में जड़ जमाने से रोकने से संबंधित हैं.
आगे की राह
हाल ही में किए गए सुधारों में, संयुक्त सचिव के स्तर पर लैटरल एंट्री के प्रयास को एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में आंका जा सकता है. इस बदलाव को व्यापक रूप से सरकार के अत्याधुनिक कदम के रूप में देखा जाता है, जो नीति-निर्माण के साथ-साथ नीति कार्यान्वयन दोनों में योगदान देता है. पार्श्व प्रविष्टि(लैटरल एंट्री) का मक़सद तमाम स्रोत से सबसे बेहतर लोगों को इस सेवा में शामिल करना है. यह ‘नौकरशाही यथास्थितिवादी मोनोकल्चर’ के विघटन और एक अलग प्रबंधन शैली की जुगलबंदी को भी लक्षित करता है, जो आउट-ऑफ-द-बॉक्स दृष्टिकोण में माहिर होते हैं. इतना ही नहीं सिविल सेवा के बहु-क्षेत्रीय ज्ञान के साथ किसी विशेषज्ञ की डोमेन विशेषज्ञता एक बेहतर आउटपुट की गारंटी भी देता है. हालांकि, उपलब्ध रिपोर्टों से ऐसा लगता है कि लैटरल एंट्री पर बहुत सीमित प्रयास हुए हैं जो सिविल सेवा में आमूल-चूल बदलाव लाने को लेकर पर्याप्त नहीं हैं. सिविल सेवा द्वारा राष्ट्रीय शासन में निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए यह उम्मीद करना ग़लत नहीं है कि सिविल सेवा के उच्चतम स्तर पर इसके प्रदर्शन से संबंधित एक आंतरिक अभ्यास किया जाना चाहिए. सेवा के ऐसे कई क्षेत्र हैं जिन्हें ठीक किया जा सकता है. मिसाल के तौर पर, व्यावसायिकता, तटस्थता और सत्यनिष्ठा के मानकों की समय-समय पर समीक्षा की जा सकती है. यहां तक कि सिविल सेवा अपने वार्षिक प्रकाशन को लेकर सामने आ सकती है, जो देश में गर्वनेंस का मूल्यांकन प्रदान कर सकती है. पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में ये पहल आधुनिक सार्वजनिक सेवा में एक अनिवार्य हिस्सा बन चुकी है.
हालांकि, परिवर्तनकारी शासन पुनर्गठन के किसी भी प्रयास को पॉलिटिकल एक्जीक्यूटिव द्वारा ही शुरू किया जाएगा लेकिन इसके लिए सबसे पहले राज्य स्तर पर राजनीतिक अनुशासन की ज़रूरत होगी. लेकिन दुर्भाग्य से यह भविष्य में होता नहीं दिख रहा है. नौकरशाही की उदासीनता की प्रमुख वज़हों में से एक, निर्णय लेने की अनिच्छा और पेशेवर क़ाबिलियत की कमी के साथ-साथ, निर्णय लेने की प्रक्रिया में सिविल सेवकों का बार-बार स्थानांतरण, उटपटांग पोस्टिंग और राजनीतिक दबाव बड़ी भूमिका अदा करता है. समय के साथ-साथ यह और ख़राब ही होता जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप सीखने और विशेषज्ञता की कमी होती जा रही है और गर्वनेंस के स्तर में गिरावट आती जा रही है. इस तरह के राजनीतिक माहौल ने सिविल सेवा के कामकाज पर गहरा असर छोड़ा है.
सरदार पटेल ने अखिल भारतीय सेवाओं को जारी रखने का तर्क देते हुए यह चेताया था कि सिविल सेवा उतनी ही अच्छी हो सकती है जितनी कि राजनीतिक कार्यपालिका. मौज़ूदा वक़्त में सियासत का जो स्वभाव है और इसका संचालन जैसा हो रहा है, विशेषकर राज्यों में, जब तक राजनीति राष्ट्रीय हित में शासन में सुधार करने की इच्छा से प्रेरित नहीं होती है तब तक सभी सिविल सेवा सुधारों की कोशिश लगभग असरहीन साबित होगी.
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