प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया ब्रुनेई और सिंगापुर दौरे से एक बार फिर यह साबित होता है कि भारत के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया कितनी अहमियत रखता है. ब्रुनेई की जमीन पर किसी भारतीय प्रधानमंत्री का यह पहला कदम था, जबकि सिंगापुर में बतौर प्रधानमंत्री पांचवीं बार नरेंद्र मोदी पहुंचे थे. इससे पहले वियतनाम और मलेशिया के शासनाध्यक्ष भी हाल-फिलहाल नई दिल्ली का दौरा कर चुके हैं. जाहिर है, पिछले कुछ हफ्तों की यह गहमागहमी संकेत है कि दक्षिण-पूर्व एशिया को लेकर हमारा कूटनीतिक रुझान बदला है. हम ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ पर शिद्दत से आगे बढ़ रहे हैं और पहले जहां इस क्षेत्र को भारत आर्थिक नजरिये से ही देखा करता था, वहीं अब सामरिक संबंधों के लिहाज से भी इसकी अहमियत समझी जाने लगी है.
हमारी यह कोशिश हिंद प्रशांत के लिए भी काफी उल्लेखनीय मानी जाएगी, क्योंकि दक्षिण-पूर्व एशिया इसके मध्य में ही स्थित है और यहां सबसे जटिल समस्या दक्षिण-पूर्व एशिया से ही पैदा हो रही है, फिर चाहे वह चीन का बढ़ता प्रभाव हो, या समुद्री सुरक्षा संबंधी विवाद, या फिर दक्षिण चीन सागर की परेशानी. आसियान को लेकर भी इन दिनों अलग तरह का तनाव बना हुआ है, क्योंकि पहले यह एक प्रभावी संगठन माना जाता था, लेकिन अब काफी हद तक बंटा हुआ दिखता है. चीन के दखल ने इसे इस कदर विभाजित कर दिया है कि इसके सदस्य देश अलग-अलग नीतियों को आगे बढ़ाते दिखते हैं. वे क्षेत्रीय मसलों पर भी आम राय नहीं बना पा रहे. दक्षिण चीन सागर को लेकर तो यह संगठन कोई नियम-कानून तक तय नहीं कर पाया है. ऐसे में, यहां के देशों की मंशा भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की है, क्योंकि हम किसी गुट के सदस्य नहीं हैं और हमारी बढ़ती आर्थिक ताकत उनके लिए कई नए अवसर पैदा कर सकती है.
चीन के दखल ने इसे इस कदर विभाजित कर दिया है कि इसके सदस्य देश अलग-अलग नीतियों को आगे बढ़ाते दिखते हैं. वे क्षेत्रीय मसलों पर भी आम राय नहीं बना पा रहे. दक्षिण चीन सागर को लेकर तो यह संगठन कोई नियम-कानून तक तय नहीं कर पाया है. ऐसे में, यहां के देशों की मंशा भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की है
स्पष्ट है, प्रधानमंत्री मोदी की हालिया यात्रा इसी पृष्ठभूमि में हुई है. भारत आसियान के प्रति आग्रही तो है, लेकिन इस कोशिश में भी है कि इसके सदस्य देशों के साथ प्रगाढ़ द्विपक्षीय संबंध बनाए जाएं. यह रिश्ता सिर्फ अर्थ की बुनियाद पर न हो, बल्कि सामरिक तौर पर भी मजबूत हो. इसमें निस्संदेह सिंगापुर का स्थान सबसे ऊपर है, क्योंकि वह बहुत पहले से भारत का सहयोगी रहा है. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दौर से लेकर अब तक सिंगापुर और भारत के आपसी रिश्ते लगातार आगे बढ़े हैं. वहां जाने वाले भारतवंशियों ने भी इस संबंध को काफी निखारा है.
दक्षिण-पूर्व एशिया का सेतु
यही कारण है कि सिंगापुर हमेशा यह वकालत करता रहा है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत बड़ी भूमिका निभाए. अमेरिका और चीन के तनाव से जो समस्याएं इस क्षेत्र में पैदा हो रही हैं, उनसे पार पाने में भी भारत की मदद की बात वह बार-बार दोहराता रहा है. इसका मतलब यही है कि दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर भारत की बढ़ती राह सिंगापुर होकर ही गुजरती है, जिस कारण इस देश को भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया का सेतु कहना भी गलत नहीं होगा. प्रधानमंत्री मोदी की हालिया यात्रा इस पुल को और मजबूत बनाती दिखी है. दोनों देश एक-दूसरे के यहां कई तरह के निवेश कर रहे हैं. अब कौशल विकास, यानी स्किल डेवलपमेंट पर जोर देने पर सहमति बनी है. उल्लेखनीय यह भी है कि सिंगापुर की आर्थिक तरक्की में भारत मूल के लोगों की बड़ी भूमिका है. वहां कई पेशेवर भारतीय हैं, जो अहम पदों पर मौजूद हैं. लिहाजा, दोनों देश आर्थिक तौर पर भी एक-दूसरे से अधिक जुड़ने को तत्पर हैं. वहां के डिजिटल लेन-देन में पहले से ही यूपीआई का इस्तेमाल हो रहा है, अब डिजिटल कनेक्टिविटी पर अधिक ध्यान देने की वकालत की गई है. यह इस बात का संकेत है कि भारत और सिंगापुर के द्विपक्षीय संबंध अब ऐतिहासिक से सामरिक बनते जा रहे हैं.
दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर भारत की बढ़ती राह सिंगापुर होकर ही गुजरती है, जिस कारण इस देश को भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया का सेतु कहना भी गलत नहीं होगा. प्रधानमंत्री मोदी की हालिया यात्रा इस पुल को और मजबूत बनाती दिखी है.
दोनों देशों ने सेमीकंडक्टर क्लस्टर डेवलपमेंट और सेमीकंडक्टर डिजाइनिंग व मैन्युफैक्चरिंग पर भी बल देने का फैसला किया है. यह हमारे लिए काफी अनुकूल है, क्योंकि इसकी वैश्विक आपूर्ति शृंखला में हम बड़ी भूमिका निभाने को इच्छुक हैं. उम्मीद है, जल्द ही इस दिशा में काम हो सकेगा और दोनों देश एक-दूसरे की क्षमताओं का भरपूर लाभ उठा सकेंगे. प्रधानमंत्री की यात्रा से पहले विदेश, वित्त, उद्योग जैसे अहम मंत्रालयों के केंद्रीय मंत्री भी सिंगापुर का दौरा कर चुके थे, जिस कारण प्रधानमंत्री कई उपलब्धियों के साथ सिंगापुर से विदा हुए हैं. चूंकि संबंधों को लेकर सिंगापुर भी समान तत्परता दिखा रहा है, इसलिए माना जा रहा है कि दोनों देशों की बढ़ती आर्थिक ताकत कई नए अवसरों के दरवाजे खोल सकती है. विशेषकर, रक्षा, समुद्री सुरक्षा, आर्थिक आदि से जुड़ी कई बुनियादी समस्याओं का दोनों देश मिलकर समाधान निकाल सकेंगे. स्वास्थ्य और दवा, शिक्षा आदि से जुड़े विषयों पर भी समझौता करना इस बात की पुष्टि है कि वे द्विपक्षीय रिश्तों को बहुआयामी बनाने को लेकर काफी उत्सुक हैं.
बहरहाल, सिंगापुर से पहले प्रधानमंत्री मोदी ब्रुनेई में थे. इस देश को भारत अब तक आसियान के चश्मे से ही देखता रहा है, अब द्विपक्षीय लेंस से भी इसे देखा जा रहा है. हम अब यह मानने लगे हैं कि ब्रुनेई सिर्फ आसियान का हिस्सा नहीं है, बल्कि अपने पांव पर खड़ा ऐसा देश है, जिसके साथ आपसी संबंध बेहतर बनाए जाने की जरूरत है. वहां प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन, तकनीक, व्यापार, रक्षा जैसे अहम मसलों पर बात की. यह महत्वपूर्ण है कि कूटनीतिक संबंध के 40 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री ने वहां जाना उचित समझा. इसका दोनों देशों के रिश्तों पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ने की उम्मीद है.
ऐतिहासिक से सामरिक सहयोग की ओर अग्रसर
प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा में उचित रेखांकित किया गया कि ब्रुनेई सिर्फ एक समूह का हिस्सा नहीं, बल्कि अपने आप में अहम है. जिस तरह से आसियान के देशों में चीन अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, यह काफी जरूरी हो जाता है कि भारत भी इसके सदस्य देशों के साथ आपसी रिश्ते मजबूत बनाए. कूटनीति के लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है, जिस पर हमें गंभीरता से आगे बढ़ना चाहिए. अच्छी बात है कि सिंगापुर में प्रधानमंत्री ने जहां ‘कॉ्प्रिरहेंसिव स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ (व्यापक रणनीतिक साझेदारी) की घोषणा की, तो ब्रुनेई में ‘इन्हैन्स्ड पार्टनरशिप’, यानी विकसित साझेदारी की. इससे दोनों तरफ से संबंधों को नई ऊंचाई मिल सकेगी.
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