पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक भू-राजनीतिक और भू-अर्थशास्त्रीय व्यवस्था में ऐसे बड़े फेरबदल हुए हैं जिसने तुर्किये (तुर्की ने आधिकारिक तौर पर अपना नाम बदलकर जून 2022 में तुर्किये कर लिया) को मौज़ूदा राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन के शासनकाल में एक क्षेत्रीय और महत्वाकांक्षी अंतर्राष्ट्रीय ताक़त के रूप में ख़ुद की पहचान दर्ज़ कराने के लिए अपने रणनीतिक दृष्टिकोण और लक्ष्यों को फिर से परिभाषित करने पर मज़बूर किया है. आज, जैसा कि अंकारा ऐतिहासिक रूप से मुद्रास्फीति के सबसे उच्च दर का सामना कर रहा है, जो 80 प्रतिशत को छूने जा रहा है और जो एक गंभीर आर्थिक संकट भी है, और जिसकी वजह से तुर्किये को विश्व शक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षाओं को कुछ समय तक ठंडे बस्ते में डालना पड़ा है और संकट की इस घड़ी में ज़्यादा व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना पड़ा है, जबकि अभी भी एर्दोगन ने ऐसी राजनीति का अपना ब्रांड बना रखा है जिसने तुर्किये को दोस्तों के मुक़ाबले दुश्मन अधिक दिए हैं.
पश्चिम एशिया में तुर्किये की क्षेत्रीय दृष्टिकोण में भी बदलाव आया, जहां उसने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की शक्ति व्यवस्था को चुनौती देने के लिए ख़ुद को एक शक्तिशाली और योग्य प्रतिस्पर्द्धी के तौर पर देखा, और सीधे रियाद के ख़िलाफ़ सुन्नी इस्लामिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने के लिए व्यवहार्य विकल्प के रूप में ख़ुद को पेश करना चाहा था.
हालांकि, इस दौरान, भारत-तुर्किेये संबंधों पर भी बर्फ की घनी चादर जमी रही है. खाड़ी देशों के एक राजनयिक ने इस लेखक को कभी कहा था कि “दिल्ली से तुर्की एयरलाइंस की एक उड़ान है और यह लगभग 6 बजे रवाना होती है. इसकी तुलना संयुक्त अरब अमीरात के अमीरात एयरलाइंस से करें, तो इसकी प्रति सप्ताह भारत से लगभग 200 उड़ानें हैं, और आप इसी से समझ सकते हैं कि यह कैसे दोनों राष्ट्रों के बीच भू-राजनीतिक गतिशीलता को बढ़ाती है.”
तुर्किये की क्षेत्रीय दृष्टिकोण में भी बदलाव
साल 2016 में राष्ट्रपति एर्दोगन के ख़िलाफ़ तख़्तापलट की कोशिश के बाद अंकारा ने सख़्त घरेलू दृष्टिकोण अपना लिया था, जिससे राष्ट्रपति एर्दोगन को अभूतपूर्व शक्तियां हासिल हो गई, जिससे उन्होंने विपक्ष और लोगों के असंतोष पर नकेल कसा. इस अवधि के दौरान पश्चिम एशिया में तुर्किये की क्षेत्रीय दृष्टिकोण में भी बदलाव आया, जहां उसने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की शक्ति व्यवस्था को चुनौती देने के लिए ख़ुद को एक शक्तिशाली और योग्य प्रतिस्पर्द्धी के तौर पर देखा, और सीधे रियाद के ख़िलाफ़ सुन्नी इस्लामिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने के लिए व्यवहार्य विकल्प के रूप में ख़ुद को पेश करना चाहा था. इस्तांबुल के मशहूर छठी शताब्दी के हागिया सोफिया को साल 2020 में एक मस्जिद के रूप में घोषित करने जैसे कदमों को एर्दोगन के ‘नव-तुर्क’ निर्माण के रूप में देखा जाता है.
हालांकि, यह सख़्त भू-राजनीति ही है जो हाल के दिनों में राष्ट्रपति एर्दोगन की पहचान रहा है. खाड़ी और उत्तरी अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में तुर्किये की कार्रवाई ने इसे अक्सर अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों के ख़िलाफ़ सीधे टकराव की स्थिति में ला खड़ा किया है. सबसे अहम उदाहरणों में से एक लीबिया का था, जहां संयुक्त अरब अमीरात ने लीबिया की राष्ट्रीय सेना (एलएनए) लीबिया-अमेरिकी नेता ख़लीफ़ा हफ़्तार का समर्थन किया था, जबकि अंकारा ने संयुक्त राष्ट्र समर्थित राजनीतिक प्रक्रिया के पीछे अपना राजनीतिक और सैन्य दांव खेला था. आख़िर में यह विभाजन लीबिया और उसके नागरिकों को लेकर कम, लेकिन अबू धाबी और उसके तत्कालीन क्राउन प्रिंस और अब राष्ट्रपति मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान के इस्लामी दुनिया में तेजी से बढ़ते प्रभाव को चुनौती देने के लिए अंकारा की बढ़ती इच्छा से ज़्यादा संबंधित था.
साल 2022 एक बदली हुई समय सीमा का प्रतिनिधित्व करता है; यह पिछले कुछ वर्षों के विपरीत है कि जब तुर्किये ने इस्लामिक दुनिया के अंदर रियाद और अबू धाबी के वैचारिक वर्चस्व को कमतर करने के प्रयास में कतर, पाकिस्तान, ईरान और मलेशिया के साथ इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) तक को चुनौती देने की कोशिश की थी.
साल 2022 एक बदली हुई समय सीमा का प्रतिनिधित्व करता है; यह पिछले कुछ वर्षों के विपरीत है कि जब तुर्किये ने इस्लामिक दुनिया के अंदर रियाद और अबू धाबी के वैचारिक वर्चस्व को कमतर करने के प्रयास में कतर, पाकिस्तान, ईरान और मलेशिया के साथ इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) तक को चुनौती देने की कोशिश की थी. लेकिन यह साझेदारी एक शिखर सम्मेलन से आगे बढ़ने में नाकाम रही, क्योंकि पाकिस्तान को सउदी अरब द्वारा इससे हटाने के लिए खींचा गया था. इस्लामाबाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ, मलेशिया और तुर्किये के साथ ही इसके निर्माताओं में से एक था और कश्मीर पर अंकारा और इस्लामाबाद की एक सी प्रतिक्रिया ओआईसी में विवाद का एक महत्वपूर्ण बिंदु बन गई, जिसने ना केवल सीधे तौर पर इस मुद्दे में शामिल होने से इनकार कर दिया, बल्कि भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री, दिवंगत सुषमा स्वराज को अबू धाबी में भाषण देने के लिए सम्मानित अतिथि के रूप में आमंत्रित भी किया. हालांकि, कश्मीर पर ओआईसी के प्रस्ताव वर्षों से भारतीय कूटनीति के लिए एक अड़चन पैदा करते रहे हैं लेकिन भारत और खाड़ी देशों के बीच बढ़ती साझेदारी ने ओआईसी की ऐसी टिप्पणियों को काफी हद तक प्रतीकात्मक और नौकरशाही की ज़रूरतों के रूप में कमतर कर दिया है.
अलग भू-राजनीतिक ट्रैक पर तुर्किये
आज तुर्किये पूरी तरह से अलग भू-राजनीतिक ट्रैक पर है. हालांकि, इसकी आर्थिक समस्याओं ने अंकारा को संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए मज़बूर किया है, जिससे तुर्की की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए यूएर्ई और सऊदी अरब के निवेश को आकर्षित करने की उम्मीद की जा रही थी. फरवरी में एर्दोगन ने लीबिया पर मतभेद होने के बाद संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब द्वारा आयोजित कतर के ख़िलाफ़ आर्थिक नाकेबंदी के बाद संबंधों को पटरी पर लाने के लिए यूएई का दौरा किया था. जून में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने संबंधों को सामान्य करने के लिए तुर्किये की यात्रा की थी. इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए तुर्किये की अदालतों ने साल 2018 में इस्तांबुल में सऊदी वाणिज्य दूतावास में पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या से संबंधित मामले को रियाद में स्थानांतरित करने पर सहमति भी दे दी थी, जिससे दोनों देशों के बीच एक महत्वपूर्ण बाधा दूर हो गई. दिलचस्प बात यह है कि जिस तुर्किए को शुरुआत में सुन्नी इस्लाम के निर्माण को लेकर सऊदी के वर्चस्व के लिए चुनौती के रूप में देखा जा रहा था, और जिस रियाद ने भी ईरान को संतुलित करने में मदद करने के लिए प्रमुख सुन्नी इस्लामी देश के रूप में तुर्किये की संभावित स्थिति को देख रहा था, और जो ईरान ऐसे ओआईसी तंत्र का हिस्सा था जिसे अंकारा ने ख़ुद बनाने में मदद की थी. एर्दोगन इस महीने के अंत में ईरान की यात्रा पर जाने वाले हैं.
राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ तस्वीरें और हेलसिंकी और स्टॉकहोम के कुर्द समूहों और उनके हितों के समर्थन के संबंध में कुछ हद तक गारंटी देकर एर्दोगन ने एक बार फिर से पश्चिमी ताक़तों के साथ अपनी नज़दीकी बढ़ाने का रास्ता खोल लिया है.
पश्चिमी देशों के साथ तुर्किये के संबंधों में सुधार होने लगा है हालांकि, इसकी रफ़्तार काफी धीमी है. यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के हमले ने अंकारा को काला सागर के सक्रिय मोर्चे पर ला खड़ा कर दिया है. पिछले कुछ समय से वाशिंगटन डीसी और उसके नेटो सहयोगियों के साथ बेहतर संबंधों की दिशा में काम करते हुए तुर्किये ने रूस यूक्रेन जंग के संदर्भ में फिनलैंड और स्वीडन के नेटो में शामिल होने का रास्ता साफ कर तुलनात्मक रूप से छोटी रियायतों पर पश्चिम के साथ काम करने की अपनी स्थिति का लाभ उठाया है. राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ तस्वीरें और हेलसिंकी और स्टॉकहोम के कुर्द समूहों और उनके हितों के समर्थन के संबंध में कुछ हद तक गारंटी देकर एर्दोगन ने एक बार फिर से पश्चिमी ताक़तों के साथ अपनी नज़दीकी बढ़ाने का रास्ता खोल लिया है. वाशिंगटन डी.सी. में अपनी स्थिति को फिर से मज़बूत करना वो भी ऐसे समय में जब अमेरिकी हितों के लिए मौज़ूदा वक़्त में सबसे शक्तिशाली खाड़ी देश ना तो अबू धाबी है और ना ही रियाद, बल्कि दोहा है, जो तुर्किये का सहयोगी है और जो ईरान और अमेरिका के बीच ‘अप्रत्यक्ष वार्ता’ की मेजबानी कर रहा है, यह एर्दोगन को ऐसा मौक़ा दे रहा है जिससे तुर्किये अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा और पश्चिमी देशों तक पहुंच फिर से प्राप्त कर सकता है.
ख़राब हो चुके संबंधों को फिर से बहाल करना?
मौज़ूदा परिस्थितियों में ये सभी पेचीदगियां एक अहम सवाल खड़े करती हैं; क्या यह नई दिल्ली और अंकारा के लिए द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने का बेहतर समय है? हालांकि, कश्मीर को लेकर तुर्किये का स्टैंड और राष्ट्रपति एर्दोगेन द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में इस मामले को उठाना दोनों देशों के संबंध के लिए सबसे बड़ी अड़चन बनी हुई है. हालांकि, यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अंकारा के कश्मीर पर मुखर और सख़्त रुख़ के चलते दोनों राज्यों के तात्कालिक हितों के बीच कुछ भू-सामरिक मुद्दे ओवरलैप हो जाते हैं. इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनेई ने अक्सर कश्मीर के मुद्दे को सोशल मीडिया और अपने भाषणों में समान रूप से उठाया है. बहरहाल, तेहरान के साथ नई दिल्ली के संबंध मज़बूत बने हुए हैं. विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर अगस्त 2021 में ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी के शपथ ग्रहण में व्यक्तिगत रूप से शामिल हुए थे और दोनों देश अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी जैसी क्षेत्रीय चिंताओं पर एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं जिसमें दक्षिण और मध्य एशिया के बीच संपर्क जैसे आर्थिक प्रारूप भी शामिल हैं.
भारत, संयुक्त अरब अमीरात, इज़राइल और अमेरिका के बीच आईटूयूटू जैसी साझेदारी को क्षेत्रीय आर्थिक संवाद को बढ़ाने के उद्देश्य से एक स्प्रिंगबोर्ड के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए, जिससे अंकारा के साथ खाड़ी देशों के ज़रिए व्यापार और दूसरे आर्थिक मौक़ों को लेकर संवाद करने पर नए-नए विचार और अवसर सामने आ सकते हैं
संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध, कुछ हाल की असफलताओं के बावज़ूद, तुर्की और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत बनाने में मदद कर सकते हैं. भारत, संयुक्त अरब अमीरात, इज़राइल और अमेरिका के बीच आईटूयूटू जैसी साझेदारी को क्षेत्रीय आर्थिक संवाद को बढ़ाने के उद्देश्य से एक स्प्रिंगबोर्ड के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए, जिससे अंकारा के साथ खाड़ी देशों के ज़रिए व्यापार और दूसरे आर्थिक मौक़ों को लेकर संवाद करने पर नए-नए विचार और अवसर सामने आ सकते हैं, जो दोनों देशों के बीच चुनौतियों का समाधान करने के लिए और बेहतर नतीजे देने वाले संवाद को आगे बढ़ाने के लिए छोटा कदम साबित हो सकता है.
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