2025 में विदेश नीति के चलन बड़ी ताक़तों के रिश्तों में आ रहे बदलाव से संचालित होंगे. अमेरिका में आने वाली नई सरकार यूरोप में अपने पुराने सहयोगियों के साथ रिश्ते तोड़ सकती है और चीन के साथ प्रतिद्वंदिता को तेज़ कर सकती है. अनिश्चितताओं से भरी इस दुनिया में भारत, संतुलन बनाने में एक अग्रणी भूमिका निभाता है. चीन के साथ अपने परेशानी भरे रिश्तों में स्थिरता बहाल करने की भारत की कोशिशों पर विश्व समुदाय की भी नज़र है, और ये सोच रहा है कि क्या भारत और अमेरिका के रिश्तों में वैसी ही ऊर्जा फिर से देखने को मिलेगी, जैसी डॉनल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान देखने को मिली थी. इन सब बातों के बावजूद, 2025 में भारत और रूस के द्विपक्षीय संबंध सबसे अहम साबित होने वाले हैं.
भारत और रूस के संबंधों की ताक़त
भारत और रूस के रिश्तों की ताक़त, दोनों ही देशों के लिए बहुत अहम है. इसके दायरे में आपसी लाभ के सभी मुख्य मुद्दे आते हैं: फिर चाहे वो ऊर्जा का व्यापार हो, तकनीक का मिल-जुलकर विकास करना हो या फिर सामरिक हित हों. जहां तक बात बेहद उन्नत तकनीक की आपूर्ति की है, तो इस मामले में रूस, अभी भी भारत के साथ सबसे ज़्यादा उदारता बरतने वाला देश बना हुआ है. वैसे पश्चिमी देश भी- ख़ास तौर से फ्रांस और अमेरिका, भारत के साथ दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक के व्यापार के नियमों में रियायतें दे रहे हैं. लेकिन, जहां तक सवाल भारत को समुद्र के भीतर और लंबी दूरी की क्षमता वाली तकनीक उपलब्ध कराने का है, तो इस मामले में पश्चिमी देशों को अभी भी बहुत लंबा सफ़र तय करना है. भारत की इन ज़रूरतों को रूस पूरा करता है.
जहां तक बात बेहद उन्नत तकनीक की आपूर्ति की है, तो इस मामले में रूस, अभी भी भारत के साथ सबसे ज़्यादा उदारता बरतने वाला देश बना हुआ है. वैसे पश्चिमी देश भी- ख़ास तौर से फ्रांस और अमेरिका, भारत के साथ दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक के व्यापार के नियमों में रियायतें दे रहे हैं.
भारत और रूस के रिश्तों पर गर्मा-गर्म बहस करने वाले कुछ लोग इस संबंध के जिस पहलू की अनदेखी कर देते हैं, वो इस रिश्ते की पश्चिमी देशों के लिए उपयोगिता का है. भारत और रूस द्वारा मिलकर विकसित की गई ब्रह्मोस मिसाइल, फिलीपींस को दी गई है, ताकि वो चीन की आक्रामकता का जवाब दे सके. दूसरे शब्दों में कहें, तो नियम आधारित विश्व व्यवस्था के संरक्षण के लिए रूस की तकनीक का इस्तेमाल भारत के ज़रिए ही किया जा सकता है. और, ये भारत ही है जिसकी वजह से रूस, ऐसे हथियारों की बिक्री पर चीन को वीटो लगाने की इजाज़त नहीं देता.
भारत और रूस के अनूठे संबंध का ये महज़ एक उदाहरण है. दोनों देशों की नज़दीकी का 2025 में और गहरा असर देखने को मिलेगा. क्योंकि ये वो साल होगा, जिसे वैश्विक जनहित के लिए जाना जाएगा.
भारत और रूस के रिश्ते, रूस को पूरी तरह से चीन के पाले में जाने से रोकने का काम करते हैं. अगर रूस पूरी तरह से चीन के पाले में चला गया और चीन के हित साधने का ज़रिया बन गया, तो ऐसी स्थिति विश्व व्यवस्था और ख़ास तौर से पश्चिमी देशों के लिए बहुत नुक़सानदेह होगी.
ये वो पांच कारण हैं, जिनकी वजह से भारत और रूस के रिश्ते विश्व व्यवस्था के संरक्षण के लिए बेहद अहम हैं.
पहला, भारत बाक़ी दुनिया और रूस के बीच एक पुल का काम करता है. क्योंकि, रूस की राजनीतिक व्यवस्था पश्चिम के इकोसिस्टम से अलग थलग है, और दोनों के बीच दूरी और भी बढ़ती जा रही है. बहुपक्षीयवाद और एक वैश्विक व्यवस्था को लेकर भारत की प्रतिबद्धता, उसके क़रीबी साझीदार रूस को भी उस व्यवस्था से जुड़ने में मदद देती है, जिसमें ख़ुद रूस ख़लल डालना चाहता है. भारत ऐसा इसलिए कर पाता है, क्योंकि भारत के बारे में ये नहीं माना जाता कि वो किसी ख़ास राजनीतिक या भू-राजनीतिक धारा को स्थापित करने की जद्दोजहद कर रहा है. भारत ऐसा देश है, जो तमाम व्यवस्थाओं से जुड़ा है और वो एक दूसरे से अलग व्यवस्थाओं को एक दूसरे से जुड़ने और एकीकृत होने की क्षमता प्रदान करता है.
दूसरा, भारत और रूस के रिश्ते, रूस को पूरी तरह से चीन के पाले में जाने से रोकने का काम करते हैं. अगर रूस पूरी तरह से चीन के पाले में चला गया और चीन के हित साधने का ज़रिया बन गया, तो ऐसी स्थिति विश्व व्यवस्था और ख़ास तौर से पश्चिमी देशों के लिए बहुत नुक़सानदेह होगी. भारत की मदद से रूस को, चीन के दबाव में पूरी तरह झुकने और तमाम दूसरे समीकरण साधने में सहायता मिलती है. ये बात ब्रिक्स (BRICS) के मंच और दूसरी जगहों पर बिल्कुल साफ़ हो गई है कि अपने विशाल पड़ोसी देश चीन का मातहत साझीदार बनने से बचना रूस के लिए एक प्राथमिकता है. रूस बराबरी की साझेदारी चाहता है. ऐसी साझेदारी भारत उपलब्ध कराता है, चीन नहीं. यूरोप को समझना चाहिए कि महाद्वीप में तभी शांति बहाल हो सकती है जब यूरोपीय संघ रूस को बराबरी का दर्जा देगा. रूस को अपना मातहत बनाने की सोच सफल नहीं होने वाली.
तीसरा, भारत और रूस के बीच तेल और गैस का व्यापार, उन प्रतिबंधों के मुताबिक़ ढाला गया है, जिनके तहत रूस के मुनाफ़े को सीमित रखने की कोशिश की जा रही है. इससे भी बाक़ी दुनिया को फ़ायदा मिलता है. इससे ऊर्जा के बाज़ार में मूल्यवान स्थिरता और निश्चितता क़ायम होती है, जो कि पश्चिमी देशों और ख़ास तौर से यूरोप के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. ये कहना बड़ी बात नहीं होगी कि भारत और रूस के रिश्तों का ऊर्जा के कारोबार वाला पहलू, यूरोप को और अधिक राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में फंसने से रोकता है.
चौथा, भारत और रूस के संबंध आर्कटिक के अहम क्षेत्र में नई संभावनाओं के द्वार खोलते हैं. आर्कटिक में अपनी सामरिक मौजूदगी बढ़ाए बिना भी भारत ने न केवल रूस के साथ साझेदारी करके बल्कि अपने यूरोपीय और नॉर्डिक दोस्तों के साथ मिलकर भी, इस इलाक़े में रूस और चीन की धुरी बनने से रोका है. वरना ये धुरी ही आर्कटिक क्षेत्र का भविष्य तय करती. अगर ऐसा होता तो आर्कटिक की पारिस्थितिकी और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं की सुरक्षा तबाह हो जानी थी. इसके बजाय भारत की बढ़ती भूमिका ने बेहतर विकल्पों के दरवाज़े खोले हैं. भारत और रूस के साझा स्वामित्व वाला चेन्नई से व्लादिवोस्टोक तक का कारोबारी गलियारा, शायद आर्कटिक क्षेत्र के अधिक असरदार और समावेशी कनेक्टिविटी और इसके प्रशासनिक ढांचे के निर्माण की दिशा में पहला क़दम हो सकता है.
आर्कटिक में अपनी सामरिक मौजूदगी बढ़ाए बिना भी भारत ने न केवल रूस के साथ साझेदारी करके बल्कि अपने यूरोपीय और नॉर्डिक दोस्तों के साथ मिलकर भी, इस इलाक़े में रूस और चीन की धुरी बनने से रोका है. वरना ये धुरी ही आर्कटिक क्षेत्र का भविष्य तय करती.
आख़िर में, ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन जैसे बढ़ती ताक़त और प्रभाव वाले संगठनों में भारत की मौजूदगी ये सुनिश्चित करती है कि इनका इस्तेमाल पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ न किया जा सके. जैसा कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि भारत ग़ैर पश्चिमी है, पश्चिम विरोधी नहीं है. ये संयत और तार्किक नज़रिया ही ऐसे समूहों में भारत के क़दमों और उसके रुख़ को तय करता है. ब्रिक्स में संयुक्त अरब अमीरात (UAE), मिस्र और वियतनाम जैसे पश्चिम के दोस्तों और भारत समर्थित उम्मीदवारों देशों के सदस्य या फिर साझीदार के तौर पर शामिल होने से इन समूहों के रुख़ में और नरमी आई है. इन देशों की मौजूदगी और भारत का नेतृत्व ये सुनिश्चित करता है कि ब्रिक्स (BRICS), पश्चिमी देशों की अगुवाई वाले बहुपक्षीय समूहों को चुनौती देने के बजाय उनके पूरक की तरह काम करता है.
आज़ादी के बाद से ही ये भारतीय कूटनीति की ख़ूबी रही है कि वो भू-राजनीति से बुरी तरह विभाजित देशों के साथ बख़ूबी साझीदारी कर लेता है. हालांकि, दुनिया को अब जाकर ये समझ में आया है कि तनाव की शिकार विश्व व्यवस्था को और बिखरने से रोकने के लिए भारत की ये क्षमता कितनी आवश्यक है. भारत और रूस के रिश्ते न केवल इन दोनों देशों के लिए फ़ायदेमंद हैं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए लाभकारी हैं. भारत और पश्चिमी देशों के नीतिगत समुदाय, इस रिश्ते की केंद्रीय अहमियत को बख़ूबी समझते हैं. पश्चिम के रूस विरोधी मीडिया और थिंक टैंक के इकोसिस्टम के मन में भरी आशंकाएं इस हक़ीक़त को बदल नहीं सकते.
ये लेख मूल रूस से दि इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था.
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