10 दिसंबर को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) को 75 साल पूरे हो गए. 1948 में जब संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने इसे अपनाया था, तो इसमें शामिल देशों ने बुनियादी इंसानी अधिकारों की रक्षा करने के वादे के तौर पर एक ऐतिहासिक समझौता किया था. UDHR में 30 धाराएं हैं. इसको 1946 में संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक और सुरक्षा परिषद (ECOSOC) द्वारा मानव अधिकारों की व्याख्या के लिए गठित किए गए आयोग ने तैयार किया था. इस घोषणा का मक़सद, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उन ज़ुल्म-ओ-सितम को दोहराने से रोकने में सक्षम बनाना था, जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान किए गए थे. इसके अलावा, मानव अधिकारों की इस घोषणा ने संयुक्त राष्ट्र के चार्टर को हर व्यक्ति के अधिकार की गारंटी देने में सहयोग किया, फिर वो चाहे किसी भी नस्ल, रंग, धर्म, लिंग या अन्य दर्जे का इंसान क्यों न हो.
इस समय दुनिया में जो संघर्ष चल रहे हैं, उन्होंने आम नागरिकों को मानव अधिकारों के उल्लंघन के कभी न ख़त्म होने वाले दुष्चक्र के ख़तरे में डाल दिया है, जिसे हम हिंसा और सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता के तौर पर देख रहे हैं.
इस समय दुनिया में जो संघर्ष चल रहे हैं, उन्होंने आम नागरिकों को मानव अधिकारों के उल्लंघन के कभी न ख़त्म होने वाले दुष्चक्र के ख़तरे में डाल दिया है, जिसे हम हिंसा और सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता के तौर पर देख रहे हैं. चित्र 1 दिखाता है कि लोग किस हद तक तमाम मानव अधिकारों का अनुभव करते हैं. इसे शून्य से एक के पैमाने पर दिखाया गया है, जिसमें 1 सबसे अधिक मानव अधिकार पाने का दर्जा है. वैसे तो मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, तमाम मानव अधिकारों को बढ़ावा देती है, जिसमें नागरिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकार शामिल हैं. लेकिन, इन अधिकारों के बढ़ते उल्लंघन ने अधिकारों की रक्षा के मौजूदा ढांचे की समीक्षा की ज़रूरत को रेखांकित किया है. मिसाल के तौर पर मध्य पूर्व और यूरोप में लगातार चल रहे युद्ध ने, जान-बूझकर की जाने वाली हत्याओं, यौन हिंसा, और बच्चों को ज़बरदस्ती विस्थापित करने की घटनाएं देखी हैं, जिनकी वजह से आम नागरिक दर-बदर हो रहे हैं और महिलाएं और बच्चे तो विशेष रूप से इसके दुष्प्रभाव झेल रहे हैं.
चित्र 1: मानव अधिकार का सूचकांक 2022
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सशस्त्र संघर्ष के बढ़ते दायरों के साथ साथ मानव अधिकारों का उल्लंघन भी बढ़ रहा है और आंकड़े ये दिखाते हैं कि लैटिन अमेरिका में मानव अधिकारों के संरक्षकों की हत्या सबसे अधिक हुई है. प्रतिबंध लगाने वाले क़ानून और सशस्त्र समूहों द्वारा जारी किए जाने वेल फ़रमानों ने मानवीय सहायता के काम और ये काम करने वालों के लिए अपनी ज़िम्मेदारी निभा पाना मुश्किल बना दिया है, ख़ास तौर से यमन, अफ़ग़ानिस्तान और सूडान में. इन संकटों का सबसे बुरा असर तो बच्चों को झेलना पड़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र महासचिवकी रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले एक साल में बच्चों के इंसानी हक़ के भयंकर उल्लंघन के 27 हज़ार 180 मामले दर्ज किए गए थे. बच्चों के हितों पर चोट के लिहाज़ से यमन को दुनिया का सबसे ख़तरनाक संघर्षरत देश कहा गया है, वहीं बच्चों के हिंसा के शिकार होने की आशंका के मामले में नाइजीरिया का स्थान अव्वल है.
सभी देशों को समझौते और प्रतिबद्धता जताने पर राज़ी करने के लिए कूटनीतिक और लोगों को समझा-बुझाकर राज़ी करने के नुस्खे अपनाना महत्वपूर्ण है. तभी जाकर संघर्ष वाले इलाक़ों में मानव अधिकारों की रक्षा की जा सकती है.
इन संघर्षों का स्वरूप बहुरूपीय है, इसलिए समाज पर भी इनका बहुआयामी प्रभाव देखने को मिलता है, जिसमें इंसान की सेहत भी शामिल है. मानव अधिकारों और स्वास्थ्य के बीच का ये रिश्ता इन दोनों कारणों के बीच आपसी संबंध और पूर्व शर्त के तौर पर स्पष्ट रूप से दिखता है. सेहत और संघर्ष की आपस में निर्भरता, विश्व स्वास्थ्य संगठन के संविधान में भी ज़ाहिर होती है, जो सेहत के एक मूलभूत अधिकार होने का एलान करता है और इसका दायरा स्वास्थ्य सेवा से आगे भी जाता है, ताकि स्वास्थ्य को पोषित करने वाले सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों से निपटकर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बेहतरीन मानकों को हासिल किया जा सके. हालांकि, आम नागरिक अक्सर स्वास्थ्य सेवा की सुविधाओं से महरूम कर दिए जाते हैं, क्योंकि हम देख रहे हैं कि हिंसा के दौरान दौरान स्वास्थ्य सेवाओं के केंद्रों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को निशाना बनाने का चलन बढ़ता ही जा रहा है. चित्र 2 में उन क्षेत्रों को उजागर किया गया है, जहां पर जनवरी 2018 से दिसंबर 2023 के दौरान स्वास्थ्य केंद्रों और कर्मचारियों पर हमले किए गए. इसीलिए, अब ये बेहद ज़रूरी हो गया है कि संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्यों (UN SDGs) में से 3 और 16 को हासिल करने के लिए स्वास्थ्य को एक मूलभूत अधिकार के तौर पर देखा जाए.
चित्र 2: स्वास्थ्य पर हमले का व्यापक दायरा
आगे की राह: मौजूदा व्यवस्थाओं की मरम्मत करके नई चुनौतियों के हिसाब से ढालने की ज़रूरत
संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों को लेकर कई प्रस्तावों को अंगीकार किया है, और लोगों के कल्याण और उनके सम्मान की रक्षा के प्रति अपने समर्पण की अभिव्यक्ति की है. कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर और अन्य क्रूर, अमानवीय एवं घटिया बर्ताव और सज़ा, मानव अधिकारों के संरक्षकों से जुड़ी घोषणा, बच्चों के अधिकारों की संधि और मूल निवासियों के अधिकारों की घोषणा, संयुक्त राष्ट्र के इन्हीं प्रयासों का नतीजा है. ये घोषणाएं ज़रूरी दिशा-निर्देश स्थापित करते हैं; हालांकि, इन घोषणाओं की कामयाबी मोटे तौर पर सभी देशों द्वारा एकजुट प्रयास करके वादों को हक़ीक़त बनाने और उनका सम्मान करने पर निर्भर करती है.
चित्र 3: अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकारों की मूल संधियां
संरक्षण की ज़िम्मेदारी (R2P) का सिद्धांत ये कहता है कि जब कोई देश अपने नागरिकों को नरसंहार, युद्ध अपराध, नस्लीय सफाए से बचाने और उनके मानव अधिकारों की रक्षा करने में नाकाम रहता है, तो इसमें वैश्विक समुदाय को आगे बढ़कर दख़ल देना होगा. संरक्षण के दायित्व (R2P) के दायरे में युद्धरत इलाक़ों में फंसे लोगों की सेहत की स्थिति सुधारने की ज़िम्मेदारी भी आती है. मिसाल के तौर पर 2011 में लीबिया में जब गृह युद्ध के दौरान आम नागरिकों की सेहत का संकट बढ़ता जा रहा था, तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने प्रस्ताव 1973 को लागू किया था, जिससे लीबिया के आम नागरिकों की रक्षा के लिए ज़रूरी सभी क़दम उठाए जा सकें. विश्व स्वास्थ्य संगठन और तमाम स्वयंसेवी संगठनों (NGO) ने युद्ध की वजह से पैदा हुए सेहत के संकट को कम करने में काफ़ी अहम भूमिका अदा की थी. इसमें बीमारी के फैलाव को रोकना भी शामिल था. देशों के अलग अलग राष्ट्रीय हितों की वजह से संरक्षण के अधिकार (R2P) को लागू करने के प्रति एकजुट नज़रिया अपनाना, एक जटिल मसला हो सकता है. सभी देशों को समझौते और प्रतिबद्धता जताने पर राज़ी करने के लिए कूटनीतिक और लोगों को समझा-बुझाकर राज़ी करने के नुस्खे अपनाना महत्वपूर्ण है. तभी जाकर संघर्ष वाले इलाक़ों में मानव अधिकारों की रक्षा की जा सकती है. मानव अधिकारों की रक्षा के लिए दखल देने वाले उपायों पर सबको राज़ी करने के लिए प्रभावी पक्षों और ख़ास तौर से हिंसा प्रभावित क्षेत्रों के ताक़तवर पड़ोसी देशों द्वारा कूटनीतिक संवाद स्थापित करना बेहद अहम हो जाता है.
इस वक़्त जिस महामारी संधि पर चर्चा चल रही है वो स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूती देने में अहम भूमिका निभा सकती है, जिससे नई और प्रभावी रणनीतियां अपनाने का रास्ता निकल सके.
लंबे समय तक जारी संघर्ष लड़ने वाले पक्षों को ही नहीं आम नागरिकों को भी नुक़सान पहुंचाते हैं, क्योंकि संघर्षों से सामाजिक स्थिरता भंग होती है. इसीलिए, स्वास्थ्य शांति और संघर्ष के बीच जो बारीक़ रिश्ता है, उससे निपटने के लिए मानवीय संकटों के दौरान स्वास्थ्य की कूटनीति का तरीक़ा अपनाया जा सकता है, ताकि लचीली स्वास्थ्य व्यवस्थाएं निर्मित की जा सकें. मसलन, अमेरिका ने शिक्षा, प्रशिक्षण, सलाह-मशविरों और अध्ययनों की गतिविदियों के ज़रिए स्वास्थ्य सेवा को सुधारने और इसमें सहायता के लिए अपने मेडिकल मिशन का दायरा बढ़ा दिया है. इसलिए, ऐसे कूटनीतिक प्रयासों का इस्तेमाल, स्वास्थ्य सेवा तक नियमित पहुंच को सुनिश्चित करता है. यही नहीं, इससे स्थानीय स्तर पर क्षमता के निर्माण में भी मदद मिलती है. इसकी मिसाल हमने मिस्र के BENNA प्रोजेक्ट के दौरान देखी थी, जिससे मानव अधिकारों के तमाम उपायों को लागू करने में मदद की जा सकी थी.
मानवीय कूटनीति के ज़रिए वैश्विक स्वास्थ्य, विकास और सहायता देने वाले तमाम संगठनों और संस्थानों के बीच तालमेल को बढ़ावा देना, एक सामूहिक एवं प्रभावी प्रतिक्रिया के लिए बेहद ज़रूरी है. स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों को इस परिस्थिति में काम कर रहे कार्यकारी समूहों का हिस्सा बनाने से इस मामले में समन्वय को बेहतर बनाया जा सकता है. ऐसे उपायों से मानवीय सहायता के लिए काम करने वालों को बीमारियों के प्रसार पर नज़र रखने, तैयारी करने और उनसे निपटने की अधिक जानकारी मिल सकेगी. ये तरीक़ा हमने अफ्रीकी देश माली में देखा था, जहां विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और इंटरनेशनल मेडिकल कोर (IMC) ने स्वास्थ्य मंत्रालय और लगभग 35 अंतरराष्ट्रीय अलाभकारी संगठनों के साथ मिलकर सेहत की रक्षा का एक समूह बनाया था. इसी तरह, मूल्यांकन के दौरान मानवीय सहायता के लिए काम करने वालों को शामिल करने से उपायों का बेहतर मूल्यांकन किया जा सकता है, क्योंकि वो सेहत की ख़ास ज़रूरतों और उनसे निपटने की रणनीति को लेकर अपने ज्ञान का इस्तेमाल करके, मदद के उपायों को प्रभावी ढंग से लागू कर सकते हैं. इसके अतिरिक्त मानवीय कूटनीति, परिचर्चा, निर्णय लेने और सहयोग के लिए स्थान बनाती है. इससे कष्ट को कम किया जा सकता है, रोज़ी रोटी सुनिश्चित की जा सकती है, और कमज़ोर तबक़ों के सेहत समेत अन्य बुनियादी अधिकारों की हिफ़ाज़त भी की जा सकती है.
निष्कर्ष
कुल मिलाकर, संघर्ष वाले इलाक़ों में स्वास्थ्य की प्रभावी ढंग से एक ज़रूरी मानवीय अधिकार के रूप में रक्षा करने के लिए एक व्यापक रणनीति की आवश्यकता है. इसमें संप्रभुता के जटिल मसलों, सुरक्षा के प्रोटोकॉल लागू करने और सभी संबंधित पक्षों के बीच सहयोग को मज़बूती देना शामिल है. पहुंच में आसानी, दृढ़ता से पुनर्निर्माण की गतिविधियों और नाज़ुक राजनीतिक कूटनीति को सुनिश्चित करने का मार्ग प्रशस्त करना भी आवश्यक है. जब संघर्ष समाप्त हो जाएं तो मेडिकल सुविधाओं को बहाल करने, स्वास्थ्य कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने और जनता की मानसिक स्थिति सामान्य बनाने में मदद करने के लिए भी व्यापक प्रयास करने की ज़रूरत पड़ती है. सेहत की फौरी आपातकालीन ज़रूरतों से आगे बढ़कर स्थायी समाधान निर्मित करने, स्वास्थ्य सेवा के मूलभूत ढांचों को लचीला और कुशल बनाने के लिए टिकाऊ निवेश को प्राथमिकता देना भी आवश्यक है. इसी तरह, मौजूदा नीतियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना भी ज़रूरी है ताकि अनुभव से मिले सबूतों के आधार पर उनको नए सिरे से इस तरह तैयार किया जा सके, जो विशेष सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों की अभिव्यक्ति करते हों. इस वक़्त जिस महामारी संधि पर चर्चा चल रही है वो स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूती देने में अहम भूमिका निभा सकती है, जिससे नई और प्रभावी रणनीतियां अपनाने का रास्ता निकल सके. ऐसे संवाद और मंच ही हैं, जो स्वास्थ्य को उसी तरह मूलभूत मानव अधिकार का दर्जा दे सकते हैं , जिस बात को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के महानिदेशक डॉक्टर टेड्रोस अधानोम घेब्रेयेसस ने दोहराया था.
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