Author : Siddharth Yadav

Published on Nov 16, 2023 Updated 28 Days ago

आज जब दुनिया, पोषण के पर्यावरण के अनुकूल और नैतिक रूप से ठोस विकल्पों को तलाश रही है, तो सिंथेटिक मांस चर्चा के केंद्र में है. लेकिन, दूसरे सभी आविष्कारों की तरह सिंथेटिक मांस भी तमाम संभावनाओं और चुनौतियों वाला है.

भविष्य का भोजन: सिंथेटिक मांस से पर्यावरण बचाने के वादे और नैतिक चुनौतियां

सिंथेटिक मांस को ऐसे समझें

सिंथेटिक या कल्चर से बने मांस की तकनीकें और तरीक़े विज्ञान के सेल्यूलर कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं. इसे बनाने की प्रक्रिया के दौरान ‘मांसपेशियों की परिपक्व स्टेम सेल्स को कोलाजेन मैट्रिक्स में कल्चर किया जाता है, या विकसित किया जाता है. ये कोलाजेन या तो मर चुके या फिर ज़िंदा जानवरों से हासिल किया जाता है. फिर इन कोशिकाओं को बढ़ने और फैलने के लिए ज़रूरी पोषण और ऊर्जा के स्रोत मुहैया कराए जाते हैं, जिनसे ये कोशिकाएं किसी जानवर की मांसपेशी की तरह विकसित लैब में विकसित की जाती हैं.’ लैब में बना ये मांस, उन शाकाहारी विकल्पों से अलग है, जिन्हें इम्पॉसिबल फूड्स जैसी कंपनियों ने तैयार किया है. ये मांस कोशिकाओं के स्तर पर प्राकृतिक मांस से मिलता है, क्योंकि इसे जानवर की असली कोशिका से विकसित किया जाता है. हाल ही में अमेरिका के कृषि विभाग ने कैलिफोर्निया की दो कंपनियों, अपसाइड फूड्स और ईट जस्ट को कल्चर्ड चिकन बेचने की इजाज़त दे दी है. इस वजह से लैब में बनने वाले मांस को लेकर चर्चाएं तेज़ हो गई हैं. अपने इस फ़ैसले के साथ ही अमेरिका, सिंगापुर के रास्ते पर चल पड़ा है, जिसने लैब में बने मांस को परोसने की इजाज़त पहले ही दे दी थी. दुनिया के सामने खड़ी जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की क़िल्लत जैसी चुनौतियों के बीच, इस बात की पड़ताल करना ज़रूरी हो जाता है कि प्रयोगशाला में बना मांस, भविष्य में हमारे खान-पान को कैसा स्वरूप देने वाला है.

दुनिया के सामने खड़ी जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की क़िल्लत जैसी चुनौतियों के बीच, इस बात की पड़ताल करना ज़रूरी हो जाता है कि प्रयोगशाला में बना मांस, भविष्य में हमारे खान-पान को कैसा स्वरूप देने वाला है.

इसे बनाने वालों ने क्या वादे किए हैं?

मांस और उससे बने उत्पादों को प्रयोगशालाओं में बनाने की संभावना बिल्कुल सटीक समय पर आई है, जब पर्यावरण और जलवायु संबंधी चुनौतियों से निपटने की चर्चाएं तेज़ हैं. इसकी मुख्य वजह ये है कि 2010 की तुलना में 2050 तक दुनिया में जानवरों के मांस की खपत 70 प्रतिशत से ज़्यादा बढ़ने का अनुमान लगाया गया है. 2014 में दुनिया का पहला सिंथेटिक मांस से बना बर्गर, जलवायु संबंधी मसलों के संभावित समाधान के तौर पर पेश किया गया था. मार्च 2023 में, यानी एक दशक से भी कम समय के भीतर, विलुप्त हो चुके जीव, घने बालों वाले मैमथ के DNA से बने मीटबॉल को दुनिया के सामने पेश किया गया था. इसको मैमथ के मायोग्लोबिन को अफ्रीकी  हाथियों के जीन्स से मिलाकर तैयार किया गया था. सेल्यूलर एग्रीकल्चर और प्रयोगशाला में बने मांस में इस बात की संभावनाएं हैं कि वो खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन पर गहरा असर डाल सके. क्योंकि, जानवरों से बने सामानों का वैश्विक दुष्प्रभाव नॉन एनिमल उत्पादों की तुलना में कहीं ज़्यादा है. मिसाल के तौर पर 16.5 से 19.4 प्रतिशत तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन, ज़मीन के खेती के लिए इस्तेमाल का 83 प्रतिशत और इंसानी गतिविधियों से उत्सर्जित होने वाली नाइट्रोजन के पीछे जानवर पालने और उनके रख-रखाव की ज़रूरतें हैं.

ये मांस तैयार करने के केंद्रों में साफ़ सफ़ाई का ख़याल रखकर, जानवरों से जानवरों में फैलने वाली और खाने से होने वाली बीमारियों की रोकथाम भी की जा सकती है.

यूनिवर्सिटी ऑफ हेलसिंकी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हाना तुओमिस्तो ने सुझाव दिया है कि प्रयोगशाला में बने मांस के जलवायु संबंधी बहुत अहम फ़ायदे हो सकते हैं. उनके अध्ययन में बताया गया है कि शैवाल के कल्चर में मांस विकसित करने से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन काफ़ी कम यानी 78 से 96 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है. यही नहीं, इसकी वजह से ज़मीन का इस्तेमाल, पानी की खपत और ऊर्जा का इस्तेमाल भी पारंपरिक रूप से मांस तैयार करने की प्रक्रिया की तुलना में कम हो जाएगा. लैब में बने मांस में इस बात की संभावनाएं हैं कि वो न सिर्फ़ जलवायु और पर्यावरण संबंधी समस्याओं से निपटने में मदद करेगा, बल्कि इससे जनता की सेहत की चुनौतियों का सामना भी किया जा सकेगा. मेडिकल विद्वान डेनियल  सर्गेलिडिस कहते हैं कि सिंथेटिक मांस को आबादी के किसी ख़ास समूह की पोषण संबंधी ज़रूरतों के मुताबिक़ अतिरिक्त बायोएक्टिव तत्वों को मिलाकर भी तैयार किया जा सकता है. ये मांस तैयार करने के केंद्रों में साफ़ सफ़ाई का ख़याल रखकर, जानवरों से जानवरों में फैलने वाली और खाने से होने वाली बीमारियों की रोकथाम भी की जा सकती है. यही नहीं, लैब में मांस बनाने की प्रक्रिया से कीटनाशकों, जीवनाशकों, विकास के बनावटी कारकों, मांस उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान आम तौर पर कीटाणु मारने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों की ज़रूरत भी ख़त्म हो सकती है.

मगर, सिंथेटिक मांस के ख़तरे भी हैं

वैसे तो काग़ज़ पर सिंथेटिक मांस के फ़ायदे बिल्कुल अकल्पनीय लगते हैं. लेकिन, इसे लागू करने की संभावनाओं से कुछ सवाल भी खड़े होते हैं. पहला तो ये कि क्या सिंथेटिक मांस से पर्यावरण पर भविष्य में पड़ने वाले असर का अभी से बढ़-चढ़कर दावा करना जल्दबाज़ी होगा? दूसरा, अगर ये तकनीक कामयाबी से लागू की जाती है, तो इससे जंगली जीवों और जैव विविधता पर क्या असर पड़ेगा? पहले सवाल का जवाब, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में फूड साइंस और टेक्नोलॉजी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर एडवर्ड स्पैंग और उनके साथियों ने दिया है. उनका कहना है कि लैब में बने मांस की ख़ूबियों की कशीदाकारी करने वाले पहले के अध्ययन, इन उत्पादों को बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तौर-तरीक़ों को ‘सटीक ढंग से पेश नहीं करते हैं.’ स्पैंग और उनके साथियों ने ये निष्कर्ष निकाला कि पारंपरिक तरीक़ों से मांस उत्पादन की व्यवस्थाओं की तुलना में सिंथेटिक मांस के निर्माण का पर्यावरण पर कहीं ज़्यादा गहरा असर पड़ेगा.

सिंथेटिक मांस और जैव विविधता

अब तक लैब में बने मांस के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर से जुड़े अध्ययनों, जिनमें से एक का ज़िक्र हमने ऊपर भी किया है, में मुख्य रूप से इसके जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने पर ही ज़ोर दिया गया है. हालांकि, लैब में बने मांस के जंगली जीवों और जानवरों की संरक्षित प्रजातियों पर पड़ने वाले असर को लेकर पत्रकारों और इस उद्योग के विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाले रिसर्च का अभाव है. जो तकनीक लैब में बने चिकन को रेस्तरां और घरों में खाने की प्लेट तक ला सकती है, उसी का इस्तेमाल ऐसे अनोखे मांस परोसने के लिए भी किया जा सकता है, जो अब तक कारोबारी तौर पर उपलब्ध नहीं हैं. जैसे कि बाघ, शेर, तेंदुआ , हाथी और दूसरे जानवरों का मांस. लैब में बनने वाले मांस को बढ़ावा देने वाली और इसमें निवेश कर रही कंपनियां, इस कारोबारी अवसर से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं. इसकी एक मिसाल, ब्रिटेन स्थित एक कल्चर्ड मांस बनाने वाली कंपनी प्राइमेवल फूड्स है. कहा जा रहा है कि वो ऐसे अनोखे मांस से बने खान-पान तैयार करके, अपने कारोबार की संभावनाएं बढ़ाने के विकल्प तलाश रही है, जिसमें ’शेर के मांस से बने मज़बूत और ज़ोरदार बर्गर से लेकर ज़ेब्रा के मुलायम मांस से तैयार सुशी’ भी शामिल है. कंपनी का कुल लक्ष्य ये है कि वो सेल्यूलर एग्रीकल्चर की तकनीकों का इस्तेमाल करके, दुनिया भर के लोगों को ऐसे एक्जॉटिक मांस परोसेगी, जिसमें किसी भी जानवर या फिर उनके प्राकृतिक आवास को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया जाएगा.

अवैध बाज़ार और एक्जॉटिक उत्पादों की भारी मांग

पारंपरिक पालतू जानवरों से मिलने वाले मांस के विकल्प के तौर पर लैब में बने मांस को विकसित करने और इसकी खपत की एक ऐसे आविष्कार के तौर पर तारीफ़ करनी चाहिए, जो खाने पीने की चीज़ों के टिकाऊ उत्पादन का विकल्प देगा. लेकिन, जंगली जानवरों के मांस को लैब में तैयार करके परोसने के विकल्पों की बारीक़ी से पड़ताल करने की ज़रूरत है. अनजाने में ऐसे प्रयास, जंगली जानवरों से जुड़े अवैध कारोबार को बढ़ावा देंगे और इनसे लैब में बने जंगली जानवरों की बेलगाम मार्केटिंग का भारत जैसे जैविक रूप से विविधतापूर्ण देश पर तो ख़ास तौर से गहरा असर पड़ सकता है. भारत में दुनिया के लगभग आठ प्रतिशत जंगली जीव रहते हैं. मगर, दुनिया में जानवरों के अवैध आयात निर्यात के मामले में भारत शीर्ष के 20 देशों में से एक है. भारत से भेजे जाने वाले जंगली जीवों के उत्पादों के सबसे बड़े ग्राहक, चीन और दक्षिणी पूर्वी एशिया के साथ साथ खाड़ी देश, यूरोप और उत्तरी अमेरिका हैं. जानवरों के अवैध कारोबार की एक मिसाल अनूठे पालतू जानवरों की मांग और उस घिसी पिटी सोच पर आधारित है, जिसमें ये माना जाता है कि कुछ ख़ास जंगली जीवों से तैयार चीज़ों में मर्ज़ ठीक करने या ताक़त देने की अभूतपूर्व क्षमता होती है. जैसे कि दरियाई घोड़े के सींग, तेंदुए की खाल और बाघों के शरीर के अंग वग़ैरह. 2019 में भारत के कई राज्यों में सैकड़ों लोगों को अवैध रूप से घरों में मिलने वाली छिपकली पकड़ने और उनका कारोबार करने के जुर्म में गिरफ़्तार किया गया था. ये कारोबार एक काल्पनिक दावे की वजह से फल-फूल रहा था, जिसमें कहा गया था कि छिपकली से बनी दवाएं, एड्स की बीमारी ठीक कर सकती हैं. कुछ ख़ास जानवरों से बनी चीज़ों की बेबुनियाद ख़ूबियों पर भरोसे की वजह से उनके कल्चर्ड विकल्प इन जानवरों के लिए घातक हो सकते हैं. क्योंकि इससे जंगली जीवों की आबादी पर मांग और दबाव बढ़ सकता है. बाघ के या फिर ऐसे ही किसी जानवर के लैब में बने मांस का कारोबार, भारत जैसे जंगली जीवों के अवैध कारोबार के बड़े अड्डों के लिए नुक़सानदेह हो सकता है, जिन्होंने बड़ी मुश्किल से ऐसे अवैध कारोबार पर क़ाबू पाया है. इसलिए, इस मोर्चे पर बहुत सावधानी से आगे बढ़ने की ज़रूरत है और आविष्कार को पर्यावरण के लिहाज़ से सावधानी के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

आगे की राह

हाल ही में अमेरिका के कृषि विभाग ने लैब में बने चिकन के उत्पादन और देश भर में वितरण को जो मंज़ूरी दी है, उससे दुनिया भर में इस कारोबार में निवेश और बढ़ेगा. ये निवेश न सिर्फ़ पालतू जानवरों का मांस लैब में बनाने के मामले में होगा, बल्कि, जंगली जानवरों का मांस भी विकसित करने में किया जाएगा. इसका नतीजा ये होगा कि अगर लैब में बना जंगली जानवरों का मांस, कारोबारी तौर पर जल्दी ही उपलब्ध होगा, तो फिर जंगली जानवरों का मांस खाने की भूख को भी बढ़ावा मिल सकता है. अगर लैब में नैतिक रूप से उचित नियमों के दायरे में हकर मांस बनाने को सख़्ती से लागू नहीं किया, तो ये बात ख़ास तौर से ख़तरनाक हो सकती है. इसीलिए, जस्ट फूड्स, अपसाइड फूड्स, प्राइमेवल फूड्स, भले ही एक आदर्श, पोषक, निर्दयता और मांस के लिए जानवरों के क़त्ल से मुक्त भविष्य की तस्वीर पेश करते हैं, जो अपने स्वाद के साथ साथ जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी मदद का दावा कर रहे हैं. लेकिन, उनके दावों पर आंख मूंदकर यक़ीन करना ठीक नहीं है.

नीति निर्माताओं को चाहिए कि वो मार्केटिंग के लिए सख़्त दिशा-निर्देश और नियम बनाएं, जिससे ये सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसी कोशिशों से जाने-अनजाने जंगली जीवों पर बुरा असर न पड़े और न ही इन जानवरों के अवैध कारोबार को बढ़ावा मिल सके.

लैब में बने मांस के पर्यावरण पर प्रभाव का सटीक आकलन, या फिर संरक्षित जंगली जानवरों की प्रजातियों के ऊपर जोखिम का मूल्यांकन करने वाला कोई वैज्ञानिक अध्ययन या मॉडल न होने के कारण आगे चलकर, इस मामले में सभी भागीदारों और नीति निर्माताओं की तरफ़ से सावधानी भरा रवैया अपनाने की ज़रूरत होगी. नीति नियंताओं को चाहिए कि वो सिंथेटिक मांस उत्पादन की सभी सुविधाओं के जैविक प्रभाव का मूल्यांकन, बार बार व्यापक और निरपेक्ष ढंग से करने का आदेश दें. इससे ये सुनिश्चित हो सकेगा कि जैसे जैसे तकनीक विकसित होगी और इसका दायरा बढ़ेगा, वैसे वैसे वास्तविक दुनिया पर उनके असर का नियमित रूप से मूल्यांकन होता रहेगा, ताकि टिकाऊ विकास के लक्ष्य हासिल करने में इनका सच्चा योगदान सुनिश्चित किया जा सके.

एग्जॉटिक  मांस को लैब में बनाने का इरादा रखने वाली कंपनियों के उभार के साथ, भारत जैसे व्यापक जैविक विविधता वाले देशों के लिए बड़ा ख़तरा पैदा हो सकता है. क्योंकि इससे अवैध कारोबार का बाज़ार बढ़ेगा और जंगल में पकड़े जाने वाले जीवों की मांग बढ़ेगी. चूंकि भारत, कन्वेंशन ऑन इंटरनेशल ट्रेड इन एंडेंजर्ड  स्पीशीज़ ऑफ फ्लोरा ऐंड फॉना (CITES) का सदस्य है, इसलिए लैब में बने मांस की ग़ैर ज़िम्मेदाराना तरीक़े से मार्केटिंग को रोकने के लिए बहुराष्ट्रीय नियम बनाए जाने का प्रस्ताव भारत की तरफ़ से रखा जाना चाहिए. नीति निर्माताओं को चाहिए कि वो मार्केटिंग के लिए सख़्त दिशा-निर्देश और नियम बनाएं, जिससे ये सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसी कोशिशों से जाने-अनजाने जंगली जीवों पर बुरा असर न पड़े और न ही इन जानवरों के अवैध कारोबार को बढ़ावा मिल सके. इसके साथ साथ लैब में बने मांस की प्रकृति बताने के लिए उनकी पैकेजिंग और लेबलिंग  के कड़े और स्पष्ट नियम भी लागू किए जाने चाहिए. इसके साथ साथ, जंगली जानवरों के या फिर उनके लैब में बने मांस को खाने के अनैतिक प्रभाव के बारे में लोगों को जागरूक करने के अभियान भी चलाए जाने चाहिए.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.