Issue BriefsPublished on Apr 28, 2025
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Degrowth And The Reimagining Of Indian Agriculture

भारतीय कृषि की पुनर्कल्पना: मुनाफे से कल्याण और मिट्टी से समृद्धि तक

  • Shatadru Chattopadhayay

    दशकों से वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र में एक एक्सट्रैक्टिव यानी दोहन का ऐसा मॉडल अपना रखा है जिसमें प्रति एकड़ अधिक से अधिक फ़सल लेने की कोशिश होती है. इस मॉडल के लिए विश्व विध्वंसकारी मूल्य चूका रहा है. इसमें मिट्टी के स्तर में गिरावट, जलसंकट और गहराती असमानताओं ने यह तो साफ़ कर दिया है कि सीमित विश्व में सतत विकास का वादा भ्रामक है. इस ब्रीफ में औद्योगिकीकरण, हाई-इनपुट फार्मिंग अर्थात प्रति एकड़ अधिक से अधिक फ़सल लेने की कोशिश के पुख़्ता आख्यान को चुनौती दी गई है. इसमें भारतीय कृषि की ‘डीग्रोथ’ अर्थात गिरावट का चश्मा लगाकर पुनर्कल्पना की गई है. ‘डीग्रोथ’ एक ऐसी उभरती अवधारणा है जिसमें कम उत्पाद लेने की नहीं बल्कि अलग तरीके से उत्पाद लेने; मुनाफ़े से ज़्यादा कल्याण को महत्व देने; मोनोकल्चर यानी एकल कृषि की बजाय जैवविविधता को बेहतर मानने तथा कार्पोरेट डिपेंडेंसी यानी कार्पोरेट निर्भरता की बजाय लोकल सेल्फ-सफिशियंसी यानी स्थानीय आत्मनिर्भरता को तवज्ज़ो दी गई है. इस ब्रीफ में इस बात का पता लगाने की कोशिश की गई है कि कैसे रीजनरेटिव प्रैक्टिसेस यानी पुनरुत्पादक प्रयासों, कम्युनिटी ड्रीवन फूड सिस्टम्स यानी समुदाय संचालित खाद्यान्न व्यवस्था और इकोलॉजिकल यानी पारिस्थितिक संतुलन से किसानों और उपभोक्ता दोनों के लिए एक सतत, न्यायोचित तथा लचीले भविष्य का निर्माण किया जा सकता है. यह ब्रीफ पुरातन भारतीय ज्ञान, आधुनिक पारिस्थितिकी विज्ञान तथा वैश्विक केस स्टडीज को आधार बनाकर बदलाव का एक ऐसा रोडमैप यानी रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो न केवल ज़रूरी है, बल्कि अब अनिवार्य हो गया है.

Attribution:

शतद्रु चट्टोपाध्याय, “भारतीय कृषि में गिरावट और पुनर्कल्पना,” ORF इश्यू ब्रीफ नं. 788, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन.

प्रस्तावना

विकास पेशेवर पिछले 25 वर्षों से विकासशील देशों में गरीबी और खाद्य असुरक्षा की समस्या का हल निकालने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए जिस टेम्पलेट यानी खाके का उपयोग किया गया है वह पश्चिमी कृषि विज्ञान की ओर से तय और पर्फेक्टेड यानी परिपूर्ण माने जाने वाले मैट्रिक्स हैं. इसके तहत विकासशील देशों के किसानों को एग्रो-केमिकल्स (इनपुट) के हाई डोजेस का उपयोग करके यिल्ड (आउटपुट) बढ़ाकर आय (आउटकम) और खाद्य सुरक्षा (इम्पैक्ट) में वृद्धि करने का प्रशिक्षण दिया गया है.[1],[2] 1968 से ही यह आदर्श अंतरराष्ट्रीय विकास में एक मानक के रूप में स्वीकृत होकर चला आ रहा है. 1968 में यूनाइटेड स्टेट्‌स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID) विलियम गौड ने “ग्रीन रिवोल्यूशन” अर्थात हरित क्रांति का स्लोगन दिया था.[3] उन्होंने यह स्लोगन एक ऐसे फ्रेमवर्क यानी ढांचे की व्याख्या करने के लिए दिया था जिसमें हाइब्रीड सीड्‌स का अत्यधिक उपयोग करते हुए इससे संबंधित खाद और रसायनों के सहयोग से मोनोकल्चर यानी एकल कृषि को बढ़ावा देकर प्रति एकड़ उत्पाद में भारी वृद्धि हासिल की जाती थी. गौड ने यह विचार हेनरी फोर्ड द्वारा 1913 में दी गई प्रत्येक श्रमिक के लिए विशेष टास्क यानी कार्य वाली असेंबली लाइन की अवधारणा से लिया था. फोर्ड की इस अवधारणा के चलते एक कार का उत्पादन करने में 12 घंटे की जगह पर महज 90 मिनट का वक़्त लगने लगा था और लागत मूल्य में भी कमी आयी थी.[4] इसकी वजह से देखते ही देखते खेत “फैक्टरीज इन द फिल्ड” यानी खेतों में कारखाने बन गए, जो सिंगल-क्रॉप असेंबली लाइन अर्थात एक ही किस्म की फ़सल वाले विशेषज्ञ बन गए.

इस तरह से खेती करते हुए आधुनिक विज्ञान की सहायता से मिट्टी से अधिक से अधिक उत्पाद लेने की प्रक्रिया 1990 के दशकों तक चली. जैवतकनीकों के साथ-साथ जेनेटिकली यानी अनुवांशकीय रूप से मॉडिफाइड अर्थात संशोधित फ़सल भी ली जाने लगी थी. यह एक ऐसी फ़सल थी जो बीमारियों तथा कीटों का प्रतिकार करने में सक्षम थी. हालिया वर्षों में डिजिटल तकनीक के माध्यम से स्मार्ट एग्रीकल्चर का उपयोग भी बढ़ा है. अब सवाल यह है कि क्या इस तरह अधिक उत्पाद के रवैये पर ज़्यादा ध्यान देने से भारत समेत दुनिया को उम्मीद के अनुसार परिणाम मिला है. इस ब्रीफ में एक ऐसे विरोधाभासी दृष्टिकोण पर विचार किया जा रहा है जिससे उम्मीद की किरण जगती दिखाई देती है. इस दृष्टिकोण में दोहन करने वाले, रसायन से लदी हुई कृषि व्यवस्था से कृषि में गिरावट; उत्पाद की बजाय पारिस्थितिकी को महत्व देने और मुनाफ़े की बजाय लोगों पर ध्यान केंद्रित किया गया है.

कमियों की ख़ोज : एक्सट्रैक्टिव यानी दोहन वाले मॉडल का प्रभाव

सामाजिक प्रभाव

हरित क्रांति को ऐसी चमत्कारी गोली बताकर पेश किया गया जिसकी सहायता से भारत समेत अन्य विकासशील देशों से भूख़मरी समाप्त हो जाएगी. इसके बावजूद भूख़मरी और खाद्य असुरक्षा चिंताजनक दर से बढ़ती गई है. 1950 में विश्व के 600 मिलियन नागरिक भूख़मरी का सामना कर रहे थे. यह संख्या 2021 में बढ़कर 828 मिलियन पहुंच गई. इसी अवधि में खाद्य असुरक्षा का सामना करने वाले लोगों की वैश्विक संख्या 2.3 बिलियन थी.[5] इकोनॉमिक रिकवरी के बावजूद 2030 तक 670 मिलियन लोग भूख़मरी का शिकार रहेंगे.[6] हरित क्रांति के बावजूद इस वक़्त भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी वैश्विक भूख़ सूचकांक में शामिल 116 देशों में से 105 वें नंबर पर है.[7] इकोनॉमिक्स में नोबल विजेता अमर्त्य सेन जैसे विशेषज्ञों ने लंबे समय से यह बात रखी है कि समस्या कम उत्पाद को लेकर नहीं है, बल्कि खाद्यान्न के असंतुलित वितरण और खाद्यान्न तक पहुंच को लेकर है.[8]

यह ब्रीफ पुरातन भारतीय ज्ञान, आधुनिक पारिस्थितिकी विज्ञान तथा वैश्विक केस स्टडीज को आधार बनाकर बदलाव का एक ऐसा रोडमैप यानी रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो न केवल ज़रूरी है, बल्कि अब अनिवार्य हो गया है.

आर्थिक प्रभाव

पिछले 50 वर्षों के दौरान एक्सट्रैक्टिव एग्रीकल्चर ने वैश्विक स्तर पर ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति को न्यूनतम प्रभावित किया है. 2023 में भी दुनिया के 84 फ़ीसदी गरीब या 800 मिलियन नागरिक ग्रामीण इलाकों में ही रहते हैं.[9] पिछले 15 वर्षों में भारत ने अत्यधिक गरीबी को दूर करने में काफ़ी प्रगति हासिल की है. इस अवधि में 415 मिलियन नागरिक गरीबी के जाल[10] से बाहर निकले हैं. लेकिन विश्व बैंक के 3.20 अमेरिकी डॉलर डेली रेट्‌स के स्तर से तुलना की जाए तो यह यह आंकड़े “ट्रू पॉवर्टी” यानी सच्ची गरीबी के स्तर को ढांकने का ही काम करते हैं. इतना ही नहीं 7.40 अमेरिकी डॉलर की एथेकिल पॉवर्टी लाइन (EPL) यानी नैतिक गरीबी रेखा, जिसे अर्थशास्त्री पीटर एडवर्ड ने मंजूर किया था और जिसे अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का समर्थन हासिल है, का उपयोग किया जाए तो एक अलग ही स्थिति उभरकर आती है.[11]

वैश्विक स्तर और विशेषत: भारत में किसान अपने उत्पाद के लिए ऊंचा दाम मांग रहे हैं. भारत में धान किसान को एक सत्र में प्रति एकड़ 26,000 रुपए तथा गेहूं उत्पादक किसान को 15,390 रुपए की आय होती है. एक एकड़ की बात इसलिए की जा रही है क्योंकि भारत में बहुसंख्य किसानों के पास औसतन इतनी ही जमीन/खेती होती है.[12],[13] इसके विपरीत 2020 में दुनिया की चार सबसे बड़ी इनपुट कंपनिया-बायर-मोनसेंटो, कोर्टेवा (डॉव एवं ड्यूपॉन्ट के विलय से बनी कंपनी) केमचाइना-सिंजेंटा तथा बाडिशे-ऐनिलीन-एंड सोडाफब्रीक (BASF) - दुनिया में कीटनाशकों की 75 प्रतिशत बिक्री (51 बिलियन अमेरिकी डॉलर) तथा बीज की कुल बिक्री में से 65 प्रतिशत बिक्री (36 बिलियन अमेरिकी डॉलर) को नियंत्रित करती हैं.[14]

पर्यावरणीय प्रभाव

हरित क्रांति के दौरान बीज और रसायनों के मिश्रण को पैकेज के रूप में काफ़ी प्रोत्साहित किया गया. इस वजह से पंजाब में इसके उपयोग में नाटकीय रूप से वृद्धि देखी गई. 1970-71 में जहां राज्य में NPK रासायनिक खाद का उपयोग 213,000 टन होता था, वही यह 2015-16 में बढ़कर 2,040,000 टन पहुंच गया. इसके अलावा 1980 में राज्य में कीटनाशक का उपयोग 3,200 टन से लगभग दोगुना होकर 2016 में 5,843 टन पर पहुंच गया.[15] रासायनिक खाद के इस अत्यधिक उपयोग की वजह से सैलिनेशन यानी जमीन में खारापन बढ़ा और उसके ऑर्गेनिक कंटेंट यानी जैविक तत्वों में कमी आने की वजह से मिट्टी की गुणवत्ता कम हुई अर्थात मृदा क्षरण हुआ है. पंजाब सरकार के योजना विभाग के अनुसार 2013 में पंजाब की 39 प्रतिशत भूमि की गुणवत्ता को निम्न वर्गीकृत किया गया था. इसी प्रकार 50 प्रतिशत भूमि में नाइट्रोजन की मात्रा कम मिली और यह मिट्टी रासायनिक गिरावट के संकेत दे रही थी. इसके अलावा 10.1 मिलियन हेक्टेयर भूमि सैलिनाइजेशन का शिकार यानी खारी हो चुकी थी.[16] कुल-मिलाकर 2024 में भारत में 146.8 मिलियन हेक्टेयर भूमि डीग्रेडेड है (नेशनल ब्यूरो ऑफ सॉइल सर्वे एंड लैंड यूज प्लानिंग के अनुसार) यानी उसकी गुणवत्ता में कमी आ चुकी है. यह भूमि लगभग पश्चिमी यूरोप और जापान दोनों के पास जितना क्षेत्र है उतनी हो जाती है.[17] इस स्थिति की वजह से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2030 तक लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रैलिटी यानी भूमि क्षरण तटस्थता हासिल करने का लक्ष्य निर्धारित किया है.[18]

भारत देश में उपलब्ध संपूर्ण जल में से 78 से 90 प्रतिशत जल का उपयोग सिंचाई के लिए करता है.[19],[20] भारत में अब जल उपयोग तथा पारिस्थितिकी आवश्यकताओं को लेकर राज्यों के बीच विवाद भी देखे जा रहे हैं. 2023 तक 17 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में जलसंकट देखा गया, जबकि देश के 76 प्रतिशत नागरिक जलसंकट का सामना कर रहे हैं.[21],[22] मूडीज रेटिंग्स के अनुसार भारत का पर-कैपिटा वॉटर कंज्मशन यानी प्रति व्यक्ति जल उपयोग 1,486 क्यूबिक मीटर्स है, जो 1,700 क्यूबिक मीटर्स के थ्रेशहोल्ड स्तर यानी मानक सीमा से काफ़ी नीचे है. ऐसे में रेटिंग्स एजेंसी के अनुसार भारत एक “वॉटर-स्ट्रेस्ड” यानी जल-संकटग्रस्त देश है.[23]

स्वास्थ्य पर प्रभाव 

पटियाला स्थित पंजाबी विश्वविद्यालय ने पाया है कि पेस्टीसाइड यानी कीटनाशकों का प्रयोग किसानों के DNA को क्षति पहुंचा रहा है.[24] एक सरकारी अध्ययन में यह पता चला है कि पेयजल में भारी कीटनाशकों एवं मेटल कंटेमिनेशन यानी धातु प्रदूषण के कारण कैंसर समेत अन्य बीमारियां हो रही हैं.[25] लुधियाना में गाय के दूध के 6.9 प्रतिशत सैंपल्स में कीटनाशकों का स्तर, मान्य या स्वीकृत स्तर से अधिक था.[26] कुछ अन्य अध्ययनों में पाया गया कि पंजाब के मालवा के भूजल में मेटल पोल्यूटेंट्स यानी धातु प्रदूषकों जैसे आर्सेनिक, लीड और यूरेनियम भी थे. इन अध्ययनों का मानना था कि संभवत: इन प्रदूषकों की वजह से ही क्षेत्र में कैंसर का प्रमाण काफ़ी ज़्यादा है.[27] भारत के सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड के अनुसार भारत, विशेषतः उसके बच्चे स्वास्थ्य ख़तरे का सामना कर रहे हैं. 2024 में पाया गया कि भारत के जिलों के पेयजल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक थी. इसकी व्याख्या 45 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक के रूप में की गई थी. इसकी मुख़्य वजह कृषि उपयोग के लिए सब्सिडी पर उपलब्ध करवाए जा रहे सिंथेटिक नाइट्रोजन फर्टिलाइजर को माना गया.[28],[29]

विकास पर पुनर्विचार: शाश्वत विश्व में डिग्रोथ यानी गिरावट का मामला

डिग्रोथ की उत्पत्ति और विकास 

फ्रांस के समाजशास्त्री आंध्र गोर्ज ने 1972 में "डिग्रोथ" शब्द की व्याख्या की थी. उनका मानना था कि अर्थव्यवस्था का निरंतर विकास, समाज और पर्यावरण के लिए घातक साबित होता है.[30] फ्रांस के ही आर्थिक मामलों के प्रोफेसर सर्ज लातुश ने डिग्रोथ की व्याख्या करते हुए कहा था कि यह एक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अभियान है, जो उपभोग की पद्धति में व्यापक परिवर्तन लाकर पारिस्थितिक लचीलापन और सामाजिक समानता हासिल करना चाहता है.[31] अन्य विद्वानों ने भी डिग्रोथ की व्याख्या कुछ प्रकार की है. उनके अनुसार "डीग्रोथ उत्पादन और उपभोग के स्तर को समान रूप से कम करना है, ताकि मानव कल्याण में वृद्धि होने के साथ ही पारिस्थितिक स्थितियों को बेहतर किया जा सके."[32] डिग्रोथ विद्वान जेसन हिकेल के अनुसार डिग्रोथ का मतलब GDP पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय मानव कल्याण, सतत कृषि, नवीकरणीय ऊर्जा और मटेरियल थ्रोपुट यानी कम सामग्री प्रवाह है.[33] सरल शब्दों में डिग्रोथ एक योजनाबद्ध समन्वित नीति है, जिसका उपयोग करके पारिस्थितिक प्रभाव को घटाकर  असमानता दूर करते हुए कल्याण में वृद्धि की जाती है."[34]

प्रोफेसर सर्ज लातुश ने डिग्रोथ की व्याख्या करते हुए कहा था कि यह एक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अभियान है, जो उपभोग की पद्धति में व्यापक परिवर्तन लाकर पारिस्थितिक लचीलापन और सामाजिक समानता हासिल करना चाहता है

निश्चित रूप से एक सीमित ग्रह पर असीमित विकास संभव नहीं है. यह बात वैज्ञानिक रूप से निर्धारित ग्रहीय अर्थात ग्रहों की सीमा का उल्लंघन करके तो हासिल करना बिल्कुल भी संभव नहीं है. इन सीमाओं ने वह पर्यावरणीय रेखाएं तय कर दी है जिनके भीतर रहकर ही मानव सभ्यता टिकी रह सकती है.[35]

 

भारतीय संदर्भ में डिग्रोथ 

डिग्रोथ विद्वानों ने अक्सर उच्च आय वाले देशों की ओर से ग्रहीय सीमाओं में प्रति व्यक्ति दिए जाने वाले न्यायोचित योगदान की ज़रूरत पर ही ध्यान दिया है.[36] इन विद्वानों ने भारत जैसे बड़े विकासशील देशों में डिग्रोथ की भूमिका पर स्पष्टीकरण नहीं दिया है. हालांकि इस विषय पर अब विद्वता तेजी से उभर रही है. [a]

वेदों एवं उपनिषदों की शिक्षा भारतीय अर्थव्यवस्था में डिग्रोथ के सिद्धांतों को लागू करने के लिए वैचारिक आधार उपलब्ध करवाती है. ये शिक्षाएं एक ऐसी जीवनशैली को प्रोत्साहित करती हैं जो प्राकृतिक चक्र का सम्मान करते हुए पारिस्थितिकी संतुलन को मूल्यवान मानते हुए भौतिक लाभ की बजाय आध्यात्मिक एवं सामाजिक कल्याण को अहमियत देती हैं.[37] वैदिक ग्रंथों में इस बात पर बल दिया गया है कि सही प्रगति धन को एकत्रित करने से हासिल नहीं होती, बल्कि ज्ञान और आध्यात्मिक विकास पाने से होती है. ऐसा होने पर ही एक ऐसे समाज के निर्माण का रास्ता खुलता है जहां नित्य उपभोग की बजाय संतुष्टि एवं सादगी को कीमती समझा जाता है. ऋगवेद में एक ऐसी जीवनशैली की प्रशंसा की गई है जो अधिक एवं अत्यधिक उपभोग से बचते हुए एक ऐसे सामाजिक आदर्श की तरफ इशारा करती है जो अतिसूक्ष्मवाद और पर्याप्तता को मूल्यवान मानते हुए असमानता दूर करने और सामूहिक कल्याण पर केंद्रित है.[38] इन्हीं सांस्कृतिक जड़ों को महात्मा गांधी ने “सर्वोदय” कहा था. इसमें विकास और पारिस्थितिकी तंत्र के पोषण को समान मनाते हुए “कॉमन्स” अर्थात सामान्यों को समृद्ध करने या प्रकृति, समाज सेवा तथा आर्थिक कार्रवाईयों जैसे संसाधनों को साझा करने पर बल दिया गया है.[39]

डिग्रोथ की आलोचना

डिग्रोथ को अक्सर नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है. इसका कारण यह है कि सरकारों, विद्वानों और यहां तक की नागरिक समाज ने भी यह स्वीकार कर लिया है कि विकास ही “स्ट्रक्चरल इंपेरिटिव यानी ढांचागत आवश्यता-एक पत्थर की लकीर” है, जिसकी गणना GDP के माध्यम से की जाती है.[40] विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े नेताओं के बीच इस बात को लेकर तो मतभेद हो सकते हैं कि विकास के यिल्ड अर्थात परिणामों को कैसे बांटा जाए, लेकिन वे विकास की ज़रूरत पर एकमत ही हैं. जॉन गालब्रेथ ने “ग्रोथिज्म” यानी विकासवाद की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह एक निरंतर की जाने वाली कोशिश है जिसकी सहायता से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए स्थिर रखा जाता है.[41] इसके बावजूद अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि GDP से समाज कल्याण को नापा नहीं जा सकता. क्योंकि यह पैमाना लगाकर देश के नागरिकों के बीच होने वाले आय के बंटवारे की बात का संज्ञान नहीं लेता है.[42]

इसके अलावा एक और सवाल उठता है कि क्या तकनीकी नवाचार के कारण पड़ रहे पारिस्थितिकी प्रभाव को “ग्रीन ग्रोथ” GDP से अलग करने में सहायक साबित होगा? वर्तमान में वैश्विक तापमान को 2°C की सीमा के भीतर बढ़ने से रोकने का स्तर और उसकी गति से हरित विकास को हासिल नहीं किया जा सकता.[43]

विद्वानों ने इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है कि डिग्रोथ विकासशील देशों के लिए उपयुक्त नहीं होगा. इसका कारण यह है कि वह इन देशों में पहले से ही गरीब किसानों की आय को और कम करेगा, खाद्य असुरक्षा को बढ़ाएगा तथा गरीबी में वृद्धि करेगा.[44],[45] हालांकि डिग्रोथ का अर्थ “मौजूदा चीजों को ही कम लेना नहीं, बल्कि उपलब्ध चीजों का विनियोजन, निकासी, उत्पादन, वितरण, उपभोग और कचरे या अपशिष्ट का बेहतर संगठन या प्रबंधन करना है.”[46]

डिग्रोथ या अविकास के तहत आवश्यक सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय मुद्दों को गंभीरता से निपटाने पर ही विकासशील देशों को सतत विकास का एक साफ़ पाथवे अर्थात रास्ता हासिल होगा. अविकास के मूल में मौजूद सामाजिक समानता में असमानताओं को कम करने और सहभागिता तथा बांटनेवाली या वितरक रणनीतियों का उपयोग करते हुए समाज सशक्तिकरण में वृद्धि पर बल दिया गया है.[47] डिग्रोथ की वजह से विकास की एक संपूर्ण रणनीति उपलब्ध होती है जिसमें कल्याण और पारिस्थितिकी अखंडता को प्राथमिकता दी जाती है. यह रणनीति पारंपारिक विकास मॉडल के स्थान पर एक व्यावहारिक पर्याय मुहैया करवाती है, जिसके परिणामस्वरूप कभी-कभी कमज़ोरियां और अतिउपयोग संभव होता है.[48]

 

कृषि में डिग्रोथ यानी अविकास लागू करना 

यूरोप जैसी एग्री-फूड सिस्टम्स में डिग्रोथ को लागू करने की शुरुआत हो चुकी है. यूरोपियन यूनियन (EU) ने ग्रीन डील की शुरुआत करते हुए कीटनाशकों का उपयोग 50 प्रतिशत घटाकर 2030 तक ऑर्गेनिक यानी जैविक खेती को 30 प्रतिशत बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इसके अलावा वहां पेड़-पौधों पर आधारित आहार को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि पर्यावरणीय प्रभाव को कम किया जा सके और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके.[49]

 2021 में जब श्रीलंका ने अचानक ही जैविक खेती पद्धति को अपनाने का फ़ैसला किया तो वहां कृषि उपज में अच्छी खासी कमी देखने को मिली थी.  एग्रो-केमिकल्स पर लगाई गई पाबंदी की वजह से श्रीलंका की एक तिहाई कृषि भूमि अनुपयोगी ही रही गई थी.

भारत जैसे देशों में भी इस तरह का लगातार बढ़ने और संतुलन साधने वाला दृष्टिकोण रखे जाने की ज़रूरत है. ऐसा होने पर ही उत्पादन के साथ-साथ ख़पत में परिवर्तन लाकर कृषि में अविकास के मॉडल को सफ़ल बनाया जा सकता है. श्रीलंका का अनुभव यह बताता है कि बगैर किसी ट्रांजिशन यानी परिवर्तन संबंधी योजना के अचानक ही जैविक खेती को अपनाने का फ़ैसला लेने के बाद क्या-क्या चुनौतियां पेश आती हैं. 2021 में जब श्रीलंका ने अचानक ही जैविक खेती पद्धति को अपनाने का फ़ैसला किया तो वहां कृषि उपज में अच्छी खासी कमी देखने को मिली थी.[50] एग्रो-केमिकल्स पर लगाई गई पाबंदी की वजह से श्रीलंका की एक तिहाई कृषि भूमि अनुपयोगी ही रही गई थी. इसके अलावा धान के उत्पादन में 20 प्रतिशत की गिरावट आयी और इसके चलते धान की कीमतों में 50 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई. श्रीलंका की निर्यात के मुख़्य उत्पाद चाय उद्योग को भी 425 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुक़सान उठाना पड़ा और इस वजह से देश में करेंसी की स्थिति और भी ख़राब हो गई.[51]

 

भारत में एग्री फूड सिस्टम्स में डिग्रोथ की दिशा में परिवर्तन के लिए पांच रणनीतियों पर चर्चा की गई हैं. इन रणनीतियों पर या तो भारत या फिर किसी अन्य विकासशील देश में काम हो रहा है.

पुनरुत्थान कृषि को अपनाना

रिजनरेटिव यानी पुनरुत्थान कृषि तथा डिग्रोथ अभियान दोनों ही शोषण, दोहन वाली कृषि प्रक्रियाओं की बजाय पर्यावरणीय स्वास्थ्य और समाज कल्याण की प्रक्रियाओं की ओर जाने की वकालत करते हैं. अनेक विद्वानों का मानना है कि रिजनरेटिव एग्रीकल्चर ही कृषि में डिग्रोथ है.[52]

 

रिजनरेटिव एग्रीकल्चर की सामान्य व्याख्या इस प्रकार है. "यह खेती का ऐसा तरीका है जिसका उपयोग मिट्टी की उर्वरता या उपजाऊपन को मजबूत बनाकर उसमें वृद्धि करने और एटमॉस्फेरिक CO2 अर्थात मौसम में मौजूद CO2 को अलग करने और उसे जमा करते हुए खेती में मौजूद जैव-विविधता को बढ़ाकर जल एवं ऊर्जा प्रबंधन में वृद्धि की जाती है."[53] ऐसा करने के लिए कवर क्रॉपिंग यानी जिसमें मिट्टी को ढकने के लिए विशेष फ़सलें उगाई जाती हैं, नो-टिल फार्मिंग अर्थात बिना जुताई वाली खेती और क्रॉप डायवर्सिफिकेशन यानी फ़सल विविधीकरण [b] को अपनाया जाता है. इससे न केवल भूमि की उत्पादकता में इज़ाफ़ा होता है, बल्कि बाहरी इनपुट्‌स जैसे रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का उपयोग करने की भी कम ज़रूरत होती है.[54] 2020-22 में किए गए सॉलिडैरिडैड/सोलिडरिडाड (c) फील्ड ट्रायल्स में पाया गया कि महाराष्ट्र में कपास और सोयाबीन की खेती करने वाले 13,000 किसानों की उपज में 20-30 प्रतिशत की वृद्धि हुई, उनके लागत मूल्य में 30 प्रतिशत की कमी आयी और उन्हें बाज़ार में 3 प्रतिशत का प्रीमियम दर यानी कीमत भी हासिल हुई.[55] इसके अलावा यह भी पाया गया कि भारत के जमीन के छोटे टूकड़े के मालिक किसानों में भी 1-4 टन कार्बन को अलग करने की क्षमता मौजूद है. ये किसान केवल एक हेक्टेयर भूमि पर ही रिजनरेटिव प्रैक्टिसेस को लागू करके उपर दिए गए परिणाम को हासिल कर सकते हैं.[56]

 

FPOs के माध्यम से स्थानीय अर्थव्यवस्था में इज़ाफ़ा 

भारत में 2003 में जहां केवल 100 फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशंस (FPOs) थे, वहीं 2025 तक इनकी संख्या बढ़कर 10,000 पहुंच गई है.[57] यह संख्या इस बात का प्रमाण है कि अब एक अधिक लोकतांत्रिक, समाज-आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ कूच कर दिया गया है. यह कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त किसान संगठन पूरी तरह स्थानीय जड़ों से जुड़े उत्पादन और उपभोग चक्र को स्थापित करते हुए आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित कर रहे हैं. इसके अलावा ये समूह लंबी दूरी तक कृषि उपज के परिवहन से जुड़ी पर्यावरणीय लागत को न्यूनतम करने में सहायता भी कर रहे हैं.

 

लगभग दो दशकों से सॉलिडैरिडैड/सॉलिडारिडाड ने 300,000 किसानों के साथ काम करते हुए दर्जनों FPOs की स्थापना की है. मध्यप्रदेश में इसकी स्थापना भारतखंड कंर्सोशियम ऑफ FPOs के तहत कर उन्हें संगठित किया गया है.[58] अध्ययनों से पता चलता है कि FPOs के सदस्य किसानों की औसत आय में 15-20 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. यह वृद्धि बाज़ार तक बेहतर पहुंच और गैर FPO सदस्यों की तुलना में मोल-भाव करने की अधिक शक्ति मिलने की वजह से हुई है.[59]

 

यह पहल आर्थिक लोकतंत्र के सिद्धांतों को मजबूत करती है. ऐसा करने के लिए यह समाज-आधारित निर्णय लेने की क्षमता और मुनाफ़े में समान हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का रास्ता अपनाती है. ऐसे मॉडल में ही शोषण/दोहन वाले कृषि मॉडल से अलग होकर एक स्थानीय समाज-आधारित आर्थिक ढांचे को प्राथमिकता देकर मुनाफ़े की बजाय सस्टेनेबिलिटी यानी वहनीयता पर ध्यान दिया जा सकता है.[60] अपने ऑपरेशंस में पारिस्थितिकी और सामाजिक प्राथमिकताओं को शामिल करते हुए ऐसी पहलें भौतिक और ऊर्जा उपभोग को अलग-अलग कर सकती हैं. और यही बात डिग्रोथ का मूल सिद्धांत है.[61] ऐसे मॉडल्स पर ही वैश्विक स्तर पर अधिक अनुसंधान और संभव होने पर इस मॉडल को अपनाया जाना ज़रूरी है.[62]

 

खाद्यान्न की बर्बादी कम करना

शोषण/दोहन कृषि के समर्थक अक्सर कृषि में डिग्रोथ की यह कहते हुए आलोचना करते हैं कि इसकी वजह से खाद्यान्नों की कीमतों में वृद्धि होगी या फिर अपर्याप्त खाद्यान्न आपूर्ति के चलते खाद्यान्न की कमी हो जाएगी.[63],[64] इसके विपरीत डिग्रोथ में सोच-समझकर अधिक उत्पादन लेने, बेहतर संसाधन प्रबंधन करने और खाद्यान्न बर्बादी रोकने का सुझाव दिया जाता है.[65] वैश्विक स्तर पर मानव उपभोग के लिए उत्पादित कुल खाद्यान्न में से एक तिहाई, जो लगभग 1.3 बिलियन टन प्रति वर्ष होता है, खाद्यान्न या तो लापता हो जाता है या फिर यह बर्बाद हो जाता है.[66] यह आंकड़ा यह भी संकेत देता है कि जल, भूमि, ऊर्जा, श्रम तथा पूंजी जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों का भी नुक़सान हुआ है. इसके अलावा खाद्यान्न की बर्बादी से पर्यावरणीय क्षति के साथ-साथ कार्बन उत्सर्जन में भी इज़ाफ़ा होता है. फुड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट 2024 के अनुसार भारतीय घरों में 2024 के दौरान लगभग 78.2 मिलियन टन खाद्यान्न की बर्बादी हुई थी.[67] इतनी मात्रा के खाद्यान्न से लगभग 377 मिलियन लोगों को वार्षिक खाद्यान्न की आपूर्ति की जा सकती थी.[68]

भारत, कूपोषण तथा मोटापे के दोहरे मुद्दे से जूझ रहा है. 1990 में भारत में मोटापे की दर (महिलाओं के लिए) 1.2 प्रतिशत थी, जो 2022 में मौजूदा रूप से 9.8 प्रतिशत पहुंच गई. इसके अलावा पुरुषों के मामले में यह 1990 में 0.5 प्रतिशत थी, जबकि 2022 में यह 5.4 प्रतिशत हो गई.  मोटापे के मामले में भारत का नंबर US तथा चीन के ठीक पीछे है. 

खाद्यान्न की बर्बादी से अगर निपटा जाए तो इसके चलते कृषि व्यवस्था पर पड़ने वाला मांग का बोझ कम किया जा सकता है. इसके अलावा जल और भूमि संसाधनों पर पड़ने वाला दबाव घटने के साथ ही खाद्यान्न सड़ने की वजह से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी कमी लाई जा सकती है. इसके साथ ही ऐसा होने पर खाद्यान्न आपूर्ति श्रृंखलाओं में होने वाले अरबों रुपए के नुक़सान को होने से रोका जा सकेगा. इसकी वजह से किसानों को बेहतर आर्थिक मुनाफ़ा होगा और संभवत: खाद्यान्न की कीमतों में स्थिरता भी आ सकेगी. इस तरह की प्रक्रिया डिग्रोथ के उस व्यापक दृष्टिकोण से भी मेल खाती है जिसमें संसाधनों का कुशलता के साथ उपयोग करते हुए वहनीयता को हासिल करने पर बल दिया गया है.[69]

 

अतिउपभोग से निपटना

भारत, कूपोषण तथा मोटापे के दोहरे मुद्दे से जूझ रहा है. 1990 में भारत में मोटापे की दर (महिलाओं के लिए) 1.2 प्रतिशत थी, जो 2022 में मौजूदा रूप से 9.8 प्रतिशत पहुंच गई. इसके अलावा पुरुषों के मामले में यह 1990 में 0.5 प्रतिशत थी, जबकि 2022 में यह 5.4 प्रतिशत हो गई.[70] मोटापे के मामले में भारत का नंबर US तथा चीन के ठीक पीछे है. 2023 में भारत की अग्रणी FMCG कंपनियों ने अपनी आय में से कुल 76 फीसदी आय “लेस हेल्दी प्रॉडक्ट्‌स” यानी कम स्वास्थ उत्पादों से अर्जित की थी.[71] इस बात की ज़रूरत है कि प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को दिए जाने वाली कर राहतों को कम किया जाए. और इन कर राहतों को फार्मर मार्केट्‌स और फार्मर कंपनियों की स्थापना करने पर ख़र्च किया जाना चाहिए. क्योंकि ये मार्केट्‌स और कंपनियां ही उपभोक्ताओं के करीब स्थापित होकर उन्हें सीधे किसानों से हासिल किए गए उत्पाद उपलब्ध करवाने का काम करेंगी. [d]

इसके अलावा भारतीय कृषि में डिग्रोथ लाने के लिए उपभोक्ताओं की आदतों में बदलाव लाना आवश्यक है. यह बदलाव अभियानों और शैक्षणिक कार्यक्रमों के माध्यम से लाया जा सकता है. इन अभियानों और शैक्षणिक कार्यक्रमों में स्थानीय, जैविक खाद्यान्नों के उपभोग को प्राथमिकता देने की वकालत की जाएगी. इसका कारण यह है कि स्थानीय, जैविक खाद्यान्नों को ही लंबी दूरी से परिवहन करने और अत्यधिक पैकेजिंग की आवश्यकता नहीं होती. इस वजह से इन खाद्यान्नों का पर्यावरणीय प्रभाव कम होता है.

 

नवाचारपूर्ण स्थानीय मुद्रा व्यवस्था को स्वीकारा जाए

स्थानीय मुद्रा, क्षेत्र विशेष में ही ख़र्च को प्रोत्साहित करने वाली एक समाज-आधारित व्यवस्था है जिसके चलते स्थानीय व्यापार मजबूत होकर आर्थिक लचीलापन बढ़ता है. राष्ट्रीय मुद्राओं के विपरीत स्थानीय मुद्रा केवल एक परिभाषित इलाकें में ही संचालित होती है और इसकी वजह से स्थानीय आर्थिक विकास भी प्रोत्साहित होता है.[72] इस तरह का व्यावधान आवश्यक है, क्योंकि इम्पैक्ट इंवेस्टर्स यानी प्रभाव निवेशक भी “मार्केट रेट” अर्थात बाज़ार मूल्य रिटर्न्स चाहते हैं और वे डिग्रोथ का समर्थन नहीं करते.[73] लोकलाइज्ड एक्सचेंज सिस्टम्स अर्थात स्थानीय विनियमय व्यवस्था को प्रोत्साहित करने से किसान संगठन भी केवल GDP विकास की बजाय समाज की ज़रूरतों को प्राथमिकता देने में सक्षम हो सकेंगे.[74] स्थानीय मुद्रा की वजह से क्षेत्र विशेष में ही उत्पादन और उपभोग उत्प्रेरित होते हैं और व्यापक आपूर्ति श्रृंखलाओं की वजह से पड़ने वाले पारिस्थितिक प्रभाव में कमी आती है. इसके कुछ उदाहरणों में US के बर्कशेयर्स, केन्या में साराफू और यूनाइटेड किंगडम में ब्रिस्टल पाउंड शामिल हैं.[e],[75],[76],[77] तमिलनाडू की एक प्रायोगिक टाऊनशिप ऑरोविले में एक अनूठी आर्थिक व्यवस्था लागू की गई है. इस व्यवस्था में रुपए पर निर्भरता को न्यूनतम कर दिया गया है. यहां के नागरिक लेनदेन के लिए समुदाय के भीतर ही एक अंदरुनी, नॉन-मॉनिटरी यानी गैर-मौद्रिक व्यवस्था, जिसे ऑरोकार्ड कहा जाता है, का उपयोग करते हैं.[78] इस तरह का स्थानीयकरण ऐसी चक्रीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करेगा जो ग्रहीय सीमाओं के तहत काम करते हुए पुर्नउपयोग और पुरुनत्थान के महत्व को उजागर करेगा.

निष्कर्ष

कृषि में डिग्रोथ का अर्थ यह नहीं है कि खाद्यान्न उपज को कम किया जाए. बल्कि इसका अर्थ यह है कि कृषि व्यवस्था के लक्ष्य और मूल्यों को पुनर्परिभाषित किया जाए. पिछले पांच दशकों के अनुभव ने यह दिखाया है कि प्रति एकड़ ज़्यादा से ज़्यादा उपज लेने और ज़्यादा से ज़्यादा इनपुट्‌स यानी खेती करने के लिए अधिक संसाधनों के उपयोग की होड़ के कारण विश्व एक ऐसी अंधी गली में चला गया है जहां मुनाफ़ा कम और समस्याएं अधिक हैं. इस वजह से मिट्टी घट गई है, जल कम हो गया है, जलवायु में परिवर्तन के साथ आहार की अवनति हुई है और किसान हाशिए पर चला गया है. अब एक सैद्धांतिक बदलाव का वक़्त आ गया है. यह बदलाव शोषण, उच्च बाहरी इनपुट वाले मॉडल की बजाय पुनरुत्थान और समाज-आधारित मॉडल को अपनाकर लाया जा सकता है. यह परिवर्तन लाने के लिए अनेक चीजों को बदलना होगा. इसमें पारिस्थितिक कृषि करने वालों को प्रोत्साहित करते हुए प्रदूषण करने वालों को दंडित करने वाली नीतियां बनाने, उत्पादकों को सशक्त बनाने और आपूर्ति श्रृंखला को छोटा करने वाला आर्थिक ढांचा अपनाना होगा. इसके साथ ही हम कैसे उपज लेते हैं, साझा करते हैं और खाद्यान्न का कैसे उपभोग करते हैं इसमें सांस्कृतिक बदलाव भी स्वीकार करना होगा.

यहां चर्चा की गई रणनीतियां-पुनरुत्थान कृषि, किसान की अगुवाई वाली स्थानीय अर्थव्यवस्था, अपशिष्ट में कटौती और नवाचारयुक्त विनियमय व्यवस्था- डिग्रोथ-आधारित खाद्यान्न व्यवस्था की ओर जाने वाला व्यावहारिक रास्ता सुझाती हैं. ये रणनीतियां विश्व में अलग-अलग शैलियों में अपनी जड़े जमा रही हैं. इन समाधानों को मान्यता देकर इनका समर्थन करने वाली नीतियों और निवेश को अपनाकर इनके दायरे को विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है.

अंतत: कृषि में डिग्रोथ की ओर बढ़ते हुए संपन्नता की पुन:कल्पना करना भी ज़रूरी है. इस व्यवस्था की सफ़लता को फूड कार्पोरेशंस के प्रॉफिट मार्जिंस या अनाज के सकल उत्पादन से नापने की बजाय इसकी गणना पोषण के स्तर, मिट्टी में कार्बन तत्व की मौजूदगी, बायोडायर्वसिटी काउंट्‌स अर्थात जैविविधता संख्या, ग्रामीण रोजगार और कम्युनिटी हैप्पिनेस के पैमाने पर की जानी चाहिए.

कृषि में डिग्रोथ की ओर बढ़ते हुए संपन्नता की पुन:कल्पना करना भी ज़रूरी है. इस व्यवस्था की सफ़लता को फूड कार्पोरेशंस के प्रॉफिट मार्जिंस या अनाज के सकल उत्पादन से नापने की बजाय इसकी गणना पोषण के स्तर, मिट्टी में कार्बन तत्व की मौजूदगी, बायोडायर्वसिटी काउंट्स अर्थात जैविविधता संख्या, ग्रामीण रोजगार और कम्युनिटी हैप्पिनेस के पैमाने पर की जानी चाहिए.

भारत के संदर्भ में यह बदलाव क्रांतिकारी साबित होगा. यहां की आधे से ज़्यादा आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही निर्भर है. डिग्रोथ का दृष्टिकोण भारत के खेतों एवं गांवों को दोबारा जवान कर देगा. यह दृष्टिकोण इन्हें पारिस्थितिकी रूप से मजबूत बनाकर शहरों की तरफ होने वाले पलायन से उपजने वाले संकट को कम करते हुए भारत के समृद्ध एग्रो-कल्चरल हेरिटेज यानी कृषि-सांस्कृतिक विरासत का जतन करेगा. यह दृष्टिकोण पारंपरिक अवधारणाों जैसे ग्राम स्वराज और वहनीयता संबंधी आधुनिक आवश्यकताओं के साथ मेल खाता है. खाद्यान्न के साथ अब केवल कमोडिटी जैसा बर्ताव नहीं किया जाए, बल्कि इसे कॉमन गुड यानी सार्वजनिक हित समझा जाएगा, जिसके माध्यम से लोगों का पालन-पोषण होने के साथ समाज मजबूत होता है और ग्रह के स्वास्थ्य को बेहतर किया जा सकता है.


शतद्रु चट्टोपाध्याय, सॉलिडैरिडैड/सोलिडरिडाड के संस्थापक प्रबंध निदेशक हैं. वे एशियाई एग्रीकल्चरल सप्लाई चेंस में सस्टेनेबिलिटी के विशेषज्ञ हैं. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, भारत से साउथ एशियाई इकॉनमी में पीएचडी की है.

Endnotes

[a] Indian scholar Ashish Kothari describes ‘degrowth’ using the concept of “ecological swaraj” (ecological self-rule). It is a framework that “respects the limits of Earth and the rights of other species while pursuing the core values of social justice and equity” with a “holistic vision of human well-being [that] encompasses physical, material, socio-cultural, intellectual, and spiritual dimensions.” See: https://greattransition.org/publication/radical-ecological-democracy-a-path-forward-for-india-and-beyond

Nilanjan Ghosh argues that developing countries suffer from “growth fetishism”, referring to an obsessive pursuit of economic growth despite its adverse effects on equity and environmental sustainability and suggests that India needs its own definition of ‘degrowth’, which includes “economic efficiency, equity through distributive justice, and environmental sustainability through legal statutes.” See: https://www.orfonline.org/expert-speak/deciphering-colours-india-economic-growth

[b] Cover crop: A crop grown for the protection and enrichment of the soil.

No-till farming: A cultivation technique in which the soil is minimally disturbed during planting, and plant residue is left on the soil surface.

Crop diversification: It means growing more than one crop on a farm, and it can be implemented through cover cropping, crop rotation, intercropping, etc.

[c] The author is affiliated with Solidaridad Network.

[d] For example, through the SaFaL programme in Bangladesh, Solidaridad organised 100,000 small farmers and assisted them to produce sustainable and nutritious food, then sold at the nearby Village Super Markets owned by the local community. This shortens the supply chains and connects farmers directly with local consumers, promoting the consumption of fresh, healthy food. Such integration supports local economies, reduces transportation emissions, and ensures a sustainable, nutritious food supply. See: https://www.solidaridadnetwork.org/wp-content/uploads/migrated-files/publications/SaFaL%20Newsletter-Version%203_%20January%202017.pdf.

[e] BerkShares: BerkShares are a local currency used in the Berkshire region of Massachusetts, USA. Launched in 2006, they aim to support local businesses and foster a strong sense of community by keeping spending within the local economy.

Bristol Pound: The Bristol Pound was introduced in Bristol, UK, in 2012 to encourage spending within local independent businesses. It was designed to keep money circulating within the city, supporting the local economy and community.

Sarafu: Sarafu is a community inclusion currency used in Kenya. It enables communities to trade goods and services and sustain local economies without relying solely on national currency. Sarafu helps mitigate liquidity constraints and strengthens economic resilience among users.

[1] IOE–IFAD, “Access to Credit Leads to Higher Agriculture Yields Which Increases Farmer Incomes,” July 20, 2023, https://ioe.ifad.org/en/w/access-to-credit-leads-to-higher-agriculture-yields-which-increases-farmer-incomes.

[2] World Bank and Independent Evaluation Group, Bangladesh—Integrated Agricultural Productivity Project, Project Performance Assessment Report 182298, Washington DC, World Bank, 2023, https://documents1.worldbank.org/curated/en/099034009262326072/pdf/SECBOS02013b810ac0ad7a0b7e618134792.pdf.

[3] Rajiv Shah, “Foreword,” in USAID’s Legacy in Agriculture Development: 50 Years of Progress (Washington DC: USAID, 2013), iv–v.

[4] “Game Changer: 100th Anniversary of the Moving Assembly Line,” Ford Newsroom, September 12, 2013, https://media.ford.com/content/fordmedia/fna/us/en/features/game-changer--100th-anniversary-of-the-moving-assembly-line.html.

[5] “UN Report: Global Hunger Numbers Rose to As Many As 828 Million in 2021,” World Health Organization, July 6, 2022, https://www.who.int/news/item/06-07-2022-un-report--global-hunger-numbers-rose-to-as-many-as-828-million-in-2021.

[6] “UN Report: Global Hunger Numbers Rose to As Many As 828 Million in 2021”.

[7] Global Hunger Index, “India,” https://www.globalhungerindex.org/india.html.

[8] Amartya Sen, Poverty and Famines: An Essay on Entitlement and Deprivation (Oxford: Clarendon Press, 1981).

[9] United Nations Development Programme and Oxford Poverty and Human Development Initiative, Global Multidimensional Poverty Index 2023, New York, UNDP, 2023, https://www.undp.org/sites/g/files/zskgke326/files/2023-07/2023mpireportenpdf.pdf.

[10] PTI, “415 Million Indians Came Out of Multidimensional Poverty in 15 Years, Says UNDP Study,” The Hindu, July 12, 2023, https://www.thehindu.com/news/international/india-registers-remarkable-reduction-in-poverty-with-415-million-people-coming-out-of-it-in-15-years-united-nations/article67066698.ece.

[11] Peter Edward, “The Ethical Poverty Line: A Moral Quantification of Absolute Poverty,” Third World Quarterly 27, no. 2 (2006): 377–393, https://doi.org/10.1080/01436590500432739.

[12] Prabhudatta Mishra, “Profitability of Rice Farmers Increases 73% in 4 Years,” The Hindu Business Line, June 22, 2023, https://www.thehindubusinessline.com/economy/agri-business/profitability-of-rice-farmers-increase-73-in-4-years/article66997346.ece.

[13] “Wheat Cultivation, Income, Profit, Yield, Project Report,” Agri Farming, https://www.agrifarming.in/wheat-cultivation-income-profit-yield-proejct-report#.

[14] Samantha DeCarlo, USITC Executive Briefings on Trade: And Then There Were Four?: M&A in the Agricultural Chemicals Industry,  United States International Trade Commission, Washington DC, USITC, April 2018, https://www.usitc.gov/publications/332/executive_briefings/ag_ma_ebot_final.pdf.

[15] Dr. Parmjit Kaur Gill and Sukhdarshan Singh, “Environmental Crisis in Punjab in Context of

Agriculture: Role of the State and Central Government,” International Journal For Multidisciplinary Research 6, no. 2 (2024), https://doi.org/10.36948/ijfmr.2024.v06i02.16064.

[16] Priya Yadav, “Over 39% Soil in Punjab Completely Degraded,” The Times of India, February 6, 2013, https://timesofindia.indiatimes.com/india/over-39-soil-in-punjab-completely-degraded/articleshow/18358798.cms.

[17] Ramesh Menon, “[Commentary] Soil Degradation in India Spells Doom for Millions,” Mongabay, October 25, 2023, https://india.mongabay.com/2023/10/soil-degradation-in-india-spells-doom-for-millions/.

[18] Prime Minister’s Office, Government of India, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1727045.

[19] Central Water Commission, Ministry of Water Resources, Government of India, Guidelines

For Improving Water Use Efficiency in Irrigation, Domestic & Industrial Sectors (New Delhi: Irrigation Performance Overview Directorate, 2014), https://nwm.gov.in/sites/default/files/Final%20Guideline%20Wateruse.

[20] FAO, AQUASTAT Country Profile – India, Rome, 2015, https://openknowledge.fao.org/server/api/core/bitstreams/ad235853-d3ef-48dc-9c04-1b6ad2a7f4cb/content.

[21] Ministry of Jal Shakti, Government of India, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1705797.

[22] Subramani Ra Mancombu, “50% of Districts in India Could Face ‘Severe’ Water Scarcity by 2050, Says Report,” The Hindu Business Line, April 18, 2024, https://www.thehindubusinessline.com/economy/agri-business/50-of-districts-in-india-could-face-severe-water-scarcity-by-2050-says-report/article68072696.ece.

[23] “Worsening Water Crisis Can Weigh on India’s Sovereign Credit Strength, Moody’s Says,” Reuters, June 25, 2024, https://www.reuters.com/world/india/rising-water-stress-hurt-indias-credit-strength-moodys-says-2024-06-25/.

[24] Savvy Soumya Misra, “Pesticide-Ridden Punjab to Begin Cancer Registration,” Down To Earth, June 15, 2008, https://www.downtoearth.org.in/environment/pesticideridden-punjab-to-begin-cancer-registration-4628.

[25] Isha Bajpai, Kiran Pandey and Rajit Sengupta, “42 Rivers Have Extremely High Concentration of Neurotoxic Heavy Metals,” Down To Earth, May 15, 2018, https://www.downtoearth.org.in/water/huge-amounts-of-toxic-heavy-metals-swim-in-indian-rivers-60545.

[26] J. S. Bedi et al., “Pesticide Residues in Peri-Urban Bovine Milk from India and Risk Assessment: A Multicenter Study,” Scientific Reports 10 (2020), https://doi.org/10.1038/s41598-020-65030-z.

[27] Gurpreet Kaur, Sunil Mittal, and Gajendra Singh Vishwakarma, “Effects of Environmental Pesticides on the Health of Rural Communities in the Malwa Region of Punjab, India: A Review,” Human and Ecological Risk Assessment: An International Journal 20, no. 2 (2014): 366–387, https://doi.org/10.1080/10807039.2013.788972.

[28] Central Ground Water Board, Ministry of Jal Shakti, Government of India, Annual Ground Water Quality Report, 2024, Faridabad, Haryana, Central Ground Water Board, 2024, https://cdnbbsr.s3waas.gov.in/s3a70dc40477bc2adceef4d2c90f47eb82/uploads/2024/12/202412311183956696.pdf.

[29] Esha Lohia, “Government Report Highlights Groundwater Contamination Across India,” Mongabay, January 8, 2025, https://india.mongabay.com/2025/01/government-report-highlights-groundwater-contamination-across-india/.

[30] “Degrowth: The History of an Idea,” in The Digital Encyclopedia of European History, https://ehne.fr/en/encyclopedia/themes/material-civilization/transnational-consumption-and-circulations/degrowth-history-idea.

[31] Serge Latouche, Farewell to Growth, trans. David Macey (Cambridge, UK: Polity Press, 2009).

[32] Giorgos Kallis, Joan Martinez-Alier, and François Schneider, “Crisis or Opportunity? Economic Degrowth for Social Equity and Ecological Sustainability. Introduction to This Special Issue,” Journal of Cleaner Production 18, no. 6 (2010): 511–518, https://doi.org/10.1016/j.jclepro.2010.01.014.

[33] Jason Hickel, “Degrowth: A Theory of Radical Abundance,” Real-World Economics Review, no. 87 (2019), https://static1.squarespace.com/static/59bc0e610abd04bd1e067ccc/t/5cb6db356e9a7f14e5322a62/1555487546989/Hickel+-+Degrowth%2C+A+Theory+of+Radical+Abundance.pdf.

[34] Jason Hickel, “What Does Degrowth Mean? A Few Points of Clarification,” Globalizations 18, no. 7 (2021): 1105–1111, https://doi.org/10.1080/14747731.2020.1812222.

[35] F. Stuart Chapin III et al., “A Safe Operating Space for Humanity,” Nature 461 (2009): 472–475, https://doi.org/10.1038/461472a.

[36] Andrew L Fanning et al., “National Responsibility for Ecological Breakdown: A Fair-Shares Assessment of Resource Use, 1970–2017,” The Lancet Planetary Health 6, no. 4 (2022): e342–e349, https://www.thelancet.com/action/showPdf?pii=S2542-5196%2822%2900044-4.

[37] Anil K. Maheshwari and Rakesh Kumar Gupta, “Vedic Leadership: Theory and Practice of Operating from

Natural Law,” in The Palgrave Handbook of Workplace Spirituality and Fulfillment, ed. Joanna Crossman,

Satinder Dhiman and Gary Roberts (Switzerland: Springer International Publishing, 2018), 491–511.

[38] “8.39.3” (“Mandala 8, Sukta 39, Hymn 3”), Rig Veda Sanhita, Wisdom Library, https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/rig-veda-english-translation/d/doc836336.html.

[39] Dr. Shubhangi Rathi, “Gandhian Philosophy of Sarvodaya and Its Principles,” Bombay Sarvodaya Mandal, https://www.mkgandhi.org/articles/gandhi_sarvodaya.php.

[40] Jason Hickel, “Introduction,” in Less is More: How Degrowth Will Save the World (London: Penguin Random House, 2020).

[41] John Kenneth Galbraith, The Affluent Society (Boston: Houghton Mifflin, 1958), p. 127.

[42] Amartya Sen, Development as Freedom (New York: Anchor Books, 2000).

[43] Phoebe Barnard et al., “World Scientists’ Warning of a Climate Emergency,” BioScience 70, no.1 (2020): 8–12, https://doi.org/10.1093/biosci/biz088.

[44] Joan Martínez-Alier, The Environmentalism of the Poor: A Study of Ecological Conflicts and Valuation (Cheltenham, UK: Edward Elgar Publishing Limited, 2002).

[45] Andrew McAfee, “Why Degrowth Is the Worst Idea on the Planet,” WIRED, October 6, 2020, https://www.wired.com/story/opinion-why-degrowth-is-the-worst-idea-on-the-planet/.

[46] Julien-François Gerber, “Degrowth and Critical Agrarian Studies,” The Journal of Peasant Studies 47, no. 2 (2020): 235–264, https://doi.org/10.1080/03066150.2019.1695601.

[47] Mattias Klum and Johan Rockström, Big World, Small Planet: Abundance Within Planetary Boundaries (New Haven, CT: Yale University Press, 2015).

[48] Professor Tim Jackson, Prosperity Without Growth?: The Transition to a Sustainable Economy, Sustainable Development Commission, 2009, https://www.sd-commission.org.uk/data/files/publications/prosperity_without_growth_report.pdf.

[49] European Commission, “The European Green Deal: Striving To Be the First Climate-Neutral Continent,”

https://commission.europa.eu/strategy-and-policy/priorities-2019-2024/european-green-deal_en.

[50] Monica Verma, “How Environmental Wokeness Cost Sri Lanka Its Food Security,” News18, April 11, 2022, https://www.news18.com/news/opinion/the-indian-connection-behind-sri-lankas-disastrous-environmental-wokeness-4962938.html.

[51] S. Joshi, S. Kaushal, and K. G. Parashar, “Reliance on Organic Farming Resulted in Food Crises in Sri Lanka: A Review,”Agricultural Reviews (2023), https://doi.org/10.18805/ag.R-2589.

[52]  Giuseppe Feola et al., “Degrowth and Agri-Food Systems: A Research Agenda for the Critical Social Sciences,” Sustainability Science 18 (2023): 1579–1594, https://doi.org/10.1007/s11625-022-01276-y.

[53] Regenagri, “What is Regenerative Agriculture?,” https://regenagri.org/our-initiative/regenerative-agriculture/.

[54] Boglarka Bozsogi, “Food for Thought: Regenerative Agriculture is Degrowth,” Degrowth Journal 1 (2023), https://doi.org/10.36399/Degrowth.001.01.13.

[55] Solidaridad Network, Global Annual Report 2022 – Asia, https://www.solidaridadnetwork.org/annual_report/global-annual-report-2022/asia-2022/.

[56] Shatadru Chattopadhayay, “Regenerative Agriculture: A Solution for Soil Degradation,” Observer Research Foundation, May 11, 2023, https://www.orfonline.org/expert-speak/regenerative-agriculture.

[57] Press Trust of India, “Govt Achieves Goal of Setting Up of 10,000 Farmer Producer Organisations,” Business Standard, February 28, 2025, https://www.business-standard.com/india-news/govt-achieves-goal-of-setting-up-of-10-000-farmer-producer-organisations-125022800853_1.html.

[58] Bharatkhand, “Bharatkhand Consortium of Farmer Producer Organizations,” https://www.bharatkhand.net/.

[59] Prem Chand et al., “Farmer Producer Organizations in India: Challenges and Prospects,” ICAR-National Institute of Agricultural Economics and Policy Research, 2023, https://niap.icar.gov.in/pdf/pp40.pdf.

[60] Marjorie Kelly, Wealth Supremacy: How the Extractive Economy and the Biased Rules of Capitalism Drive Today’s Crises (Oakland, CA: Berrett-Koehler Publishers, 2023).

[61] Tim Jackson, Prosperity Without Growth: Economics for a Finite Planet (London: Earthscan, 2009).

[62] Klum and Rockström, Big World, Small Planet.

[63] Norman Borlaug, “Feeding a Hungry World,” Science 318, no. 5849 (2007): 359, https://doi.org/10.1126/science.1151062.

[64] Matt Ridley, How Innovation Works: And Why It Flourishes in Freedom (London: HarperCollins Publishers, 2020).

[65] Hickel, Less is More.

[66] Food and Agriculture Organization of the United Nations, Global Food Losses and Food Waste – Extent, Causes and Prevention, Rome, FAO, 2011, https://www.fao.org/4/mb060e/mb060e.pdf.

[67] United Nations Environment Programme, Food Waste Index Report 2024, Nairobi, UNEP, 2024, p. 170, https://wedocs.unep.org/handle/20.500.11822/45230.

[68] Shwetmala Kashyap, “Defining Food Waste for Sustainable Food Systems,” WRI India, September 27, 2024, https://wri-india.org/blog/defining-food-waste-sustainable-food-systems.

[69] Klum and Rockström, Big World, Small Planet.

[70] ET Online, “World Obesity Day: India Among Top Three Most Obese Nations, 70% Population Overweight, Says Study,” The Economic Times, March 4, 2024, https://economictimes.indiatimes.com/news/india/world-obesity-day-india-among-top-three-most-obese-nations-70-population-overweight-says-study/articleshow/108197191.cms.

[71] Suneera Tandon, “Unhealthy Items Lift FMCG Food Revenue,” Mint, November 22, 2023, https://www.livemint.com/industry/manufacturing/unhealthy-items-lift-fmcg-food-revenue-11700673619667.html.

[72] SuperMoney, “Local Currency: Empowering Communities and Boosting Economic Resilience,” April 30, 2024, https://www.supermoney.com/encyclopedia/local-currancy.

[73] Kelly, Wealth Supremacy.

[74] Vincent Liegey and Anitra Nelson, Exploring Degrowth: A Critical Guide (London: Pluto Press, 2020).

[75] BerkShares, “How It Works: Using BerkShares,” https://berkshares.org/using-berkshares/.

[76] Teodore Criscione, Carolina E. S. Mattsson and William O. Ruddick, “Sarafu Community Inclusion Currency 2020–2021,” Scientific Data 9 (2022), https://doi.org/10.1038/s41597-022-01539-4.

[77] Adam P. Marshall and Daniel W. O’Neill, “The Bristol Pound: A Tool for Localisation?,” Ecological Economics 146 (2018): 273–281, https://doi.org/10.1016/j.ecolecon.2017.11.002.

[78] Auroville, “Aurocard: The Smart, Safe Way to Financial Transactions for AV Guests,” https://auroville.org/page/aurocard.

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Shatadru Chattopadhayay

Shatadru Chattopadhayay

Dr Shatadru Chattopadhayay is Managing Director Solidaridad Asia. He holds a PhD in South Asian Economy from JNU Delhi. A specialist in sustainable supply chain ...

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