हाल ही में जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सु इयोल ने दो महीनों के भीतर अपनी तीसरी मुलाक़ात की थी. दोनों नेताओं के बीच ये बैठक G7 शिखर सम्मेलन के दौरान हुई थी और इसका मक़सद, जापान और दक्षिण कोरिया के आपसी संबंधों को आगे बढ़ाना था. दोनों देशों के संबंध में आए इस सुधार के लिए, उत्तर कोरिया से परमाणु ख़तरे और उसके जासूसी उपग्रह के साथ साथ चीन के आक्रामक रवैये को वजह बताया जा रहा है.
उत्तर कोरिया का जासूसी उपग्रह
उत्तर कोरिया, जापान और दक्षिण कोरिया के अस्तित्व के लिए ख़तरा बनता जा रहा है. इसकी वजह, उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार हैं, जिनका ख़तरा हाल ही में उसके उपग्रह लॉन्च करने की योजना से फिर ज़ाहिर हो गया है. उत्तर कोरिया ने अपना सैटेलाइट लॉन्च करने की ये योजना उस वक़्त बनाई है, जब अमेरिका और दक्षिण कोरिया मिलकर युद्ध अभ्यास कर रहे हैं, जिससे कोरियाई प्रायद्वीप में तनाव और बढ़ गया है. वर्कर्स पार्टी की केंद्रीय सैन्य समिति के उपाध्यक्ष री प्योंग–चोल ने बयान दिया कि ये उपग्रह, अमेरिका और उसके साथी देशों की सैन्य गतिविधियों का पता लगाने, उन पर नज़र रखने, उनका विश्लेषण और नियंत्रण करने के साथ साथ उनके किसी भी संभावित आक्रामक रवैये का पहले ही जवाब देने के लिए ज़रूरी है. उन्होंने अमेरिका और दक्षिण कोरिया के साझा युद्ध अभ्यास जैसे कि गोलीबारी से ‘सफाया करने’ और अमेरिकी विमानों द्वारा जासूसी के अभियान चलाने की आलोचना करते हुए अपने जासूसी उपग्रह को ये कहते हुए बेहद ज़रूरी बताया कि ये अमेरिका और दक्षिण कोरिया की ‘ख़तरनाक सैन्य गतिविधियों’ की निगरानी के लिए आवश्यक है.
अमेरिका और दक्षिण कोरिया के साझा युद्ध अभ्यास जैसे कि गोलीबारी से ‘सफाया करने’ और अमेरिकी विमानों द्वारा जासूसी के अभियान चलाने की आलोचना करते हुए अपने जासूसी उपग्रह को ये कहते हुए बेहद ज़रूरी बताया कि ये अमेरिका और दक्षिण कोरिया की ‘ख़तरनाक सैन्य गतिविधियों’ की निगरानी के लिए आवश्यक है.
कोरियन सेंट्रल न्यूज़ एजेंसी (KCNA) के मुताबिक़, उत्तर कोरिया के नेशनल एयरोस्पेस डेवलपमेंट एडमिनिस्ट्रेशन (NADA) ने चोलिमा-1 सैटेलाइट लॉन्च रॉकेट की मदद से 31 मई को मल्लिग्योंग-1 नाम का सैन्य जासूसी उपग्रह लॉन्च किया था. हालांकि, बाद में उत्तर कोरिया ने इस बात की पुष्टि की कि जासूसी उपग्रह को कक्षा में स्थापित करने का उसका प्रयास नाकाम रहा है. कक्षा में पहुंचाए जाने के दूसरे चरण में उपग्रह की रफ़्तार कम हो गई और आख़िरकार वो पीले सागर में जा गिरा. फरवरी 2016 के बाद ये पहली बार था, जब उत्तर कोरिया ने कोई उपग्रह लॉन्च करने की कोशिश की थी. इससे पहले अप्रैल 2012 में भी उत्तर कोरिया ने माना था कि उपग्रह लॉन्च करने का उसका मिशन नाकाम हो गया है. इसके बाद उसने उसी साल दिसंबर तक कोई सैटेलाइट लॉन्च करने की कोशिश फिर से नहीं की थी.
सैटेलाइट लॉन्च की नाकामी के फ़ौरन बाद उत्तर कोरिया ने अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया की आलोचना वाले अपने शब्द वापस ले लिया. इसके अलावा, जापान ने अपने बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम को एलर्ट कर दिया था और उसके रक्षा मंत्री यासुकाज़ु हमादा ने जापान के आत्मरक्षक बलों को आदेश दिया था कि अगर उत्तर कोरिया के उपग्रह का मलबा, जापान के लिए कोई भी ख़तरा बने, तो वो उसे मार गिराएं. वहीं, दक्षिण कोरिया ने भी उत्तर कोरिया को चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर उत्तर कोरिया, अपना सैटेलाइट लॉन्च करने की योजना पर आगे बढ़ता है, तो उसको इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं. क्योंकि, सैटेलाइट लॉन्च संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के उन प्रस्तावों के ख़िलाफ़ है, जो उत्तर कोरिया द्वारा किसी भी बैलिस्टिक तकनीक से कोई लॉन्च करने पर पाबंदी लगाते हैं. इसके अलावा, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सुक इयोल ने उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम से निपटने के लिए एक वैश्विक अप्रसार संगठन बनाने की मांग की और कहा कि उत्तर कोरिया के परमाणु हथियारों के ज़ख़ीरों से सुरक्षा के लिए ख़तरा बढ़ता जा रहा है. इसके अलावा, अमेरिका ने भी उत्तर कोरिया की हरकतों की कड़ी आलोचना की और अपने साथी देशों की चिंताओं को दोहराया.
चीन की भूमिका
जापान ये मानता है कि इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा चीन है. क्योंकि वो तेज़ी से ताक़तवर हो रहा है. समुद्र में आक्रामक नीति पर चल रहा है. उत्तर कोरिया को समर्थन कर रहा है और चीन के पास ये क्षमता है कि वो जापान की अर्थव्यवस्था, कूटनीति और क्षेत्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सके. दक्षिण कोरिया भी चीन से इन ख़तरों को स्वीकार करता है. दोनों ही देश चीन के आक्रामक रवैये का निशाना बन रहे हैं और इससे जापान और दक्षिण कोरिया को चीन से होने वाले आर्थिक लाभ भी सिमट रहे हैं. इस परिवर्तन का एक बुनियादी पहलू, दोनों ही देशों के निर्यात के अहम क्षेत्रों में आ रहे बदलाव हैं. इनमें ख़ास तौर से ऑटोमोबाइल उद्योग शामिल है, जिस पर इलेक्ट्रिक व्हीकल (EV) के तेज़ी से बढ़ते बाज़ार का बुरा असर पड़ रहा है. क्लाइमेट ग्रुप की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक़, बैटरी से चलने वाली गाड़ियों के मामले में जापान की धीमी प्रगति उसके कार उद्योग के लिए बड़ा ख़तरा बन गई है. इस सेक्टर में चीन के कार निर्माता बड़ी तेज़ी से तरक़्क़ी कर रहे हैं और आगे चलकर उनके, इस बाज़ार पर दबदबा क़ायम करने की संभावना है. इस वजह से, जापान के ऑटोमोबाइल उद्योग से 17 लाख नौकरियां जा सकती हैं. इसके अलावा जापान की ऑटोमोबाइल कंपनियों को काफ़ी वित्तीय क्षति भी पहुंचने का डर है. जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है कि, इसके नतीजे में जापान की GDP में 14 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है, जिससे भू–राजनीतिक माहौल और भी ख़राब हो सकता है.
इसी तरह का असर दक्षिण कोरिया के ऑटोमोबाइल उद्योग पर भी दिख रहा है. 2022 में चीन के बाज़ार में दक्षिण कोरिया की हिस्सेदारी घटकर दो फ़ीसद से भी कम रह गई. 2016 में 8 प्रतिशत हिस्सेदारी की तुलना में ये भारी गिरावट है. इस गिरावट ने दक्षिण कोरिया के कार निर्माताओं को चीन में अपने कई कारखाने बंद करने पड़े हैं. जिससे 2021 की तुलना में उनकी बिक्री में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है. हालांकि, चीन की कंपनियों से मुक़ाबला और उसके बाज़ार में दक्षिण कोरिया की लगातार कम होती हिस्सेदारी का असर, उसके ऑटोमोबाइल उद्योग के बाहर भी पड़ रहा है. उल्लेखनीय रूप से दक्षिण कोरिया से चीन को होने वाला निर्यात 2023 में काफ़ी कम हो गया है. इसकी मुख्य वजह दक्षिण कोरिया से चीन के बाज़ार को होने वाले सेमीकंडक्टर के निर्यात में कमी होना है.
दोनों ही देश चीन के आक्रामक रवैये का निशाना बन रहे हैं और इससे जापान और दक्षिण कोरिया को चीन से होने वाले आर्थिक लाभ भी सिमट रहे हैं. इस परिवर्तन का एक बुनियादी पहलू, दोनों ही देशों के निर्यात के अहम क्षेत्रों में आ रहे बदलाव हैं.
इसके अलावा, चीन और दक्षिण कोरिया के रिश्तों में भी गिरावट आ रही है. इसका प्रमुख कारण, ताइवान को लेकर दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति के रुख़ का चीन द्वारा विरोध करना है. चीन के उप विदेश मंत्री सुन वीडॉन्ग ने दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति के बयानों को ग़लत और पूरी तरह से अस्वीकार्य क़रार दिया था. इसके साथ साथ एक बार बीजिंग में दक्षिण कोरिया के दूतावास ने चीन के सरकारी अख़बारों हुआनक़ियू शिबाओ और ग्लोबल टाइम्स के ख़िलाफ़ भी शिकायत दर्ज कराई थी. क्योंकि दोनों अख़बारों ने दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति की अमेरिका और जापान के साथ रिश्ते मज़बूत करने के प्रयासों की आलोचना की थी. इसीलिए, हाल की घटनाओं ने दक्षिण कोरिया और चीन के सुरक्षा और कूटनीतिक संबंधों पर असर डाला है और इन घटनाओं से इस क्षेत्र की भू–राजनीति में भी बदलाव आया है.
उत्तरी पूर्वी एशिया की भू-राजनीति
जापान ने चीन के आर्थिक और सैन्य ताक़त में उभार से निपटने की अपनी कोशिशें तेज़ कर दी है. इसी तरह दक्षिण कोरिया ने भी इस क्षेत्र में चीन के आक्रामक विस्तार के ख़िलाफ़ अधिक आक्रामक रुख़ अपनाया है. दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सुक इयोल ने अप्रैल में रॉयटर्स के साथ एक इंटरव्यू में ज़ोर देते हुए कहा था कि ताइवान में तनाव बढ़ने का कारण चीन द्वारा ज़बरदस्ती यथास्थिति बदलने की कोशिश है. हालांकि, यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि क्या जापान और चीन और चीन– दक्षिण कोरिया के बीच हालिया कूटनीतिक विवाद उस आर्थिक बुनियाद को कमज़ोर कर रहे हैं, जिसकी वजह से पहले उनके रिश्ते सामान्य बने रहे थे. इसके अलावा, चीन के साथ व्यापार करने में घटते हुए लाभ के साथ साथ बढ़ती आर्थिक चुनौतियां भी दक्षिण कोरिया और जापान को नज़दीक आने के लिए प्रेरित कर रही हैं. इसलिए, चीन के साथ दोनों देशों के रिश्तों में बढ़ते तनाव को बयान करने लिए आर्थिक नज़रिए को भी समझना होगा. क्योंकि अक्सर होता ये है कि इस तनाव को जातीय, ऐतिहासिक और भौगोलिक विवादों के चश्मे से देखा जाता है और आर्थिक पहलू की अनदेखी कर दी जाती है.
यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि क्या जापान और चीन और चीन- दक्षिण कोरिया के बीच हालिया कूटनीतिक विवाद उस आर्थिक बुनियाद को कमज़ोर कर रहे हैं, जिसकी वजह से पहले उनके रिश्ते सामान्य बने रहे थे.
इसके अलावा, चीन और उत्तर कोरिया का प्रभाव कम करने के लिए, जापान और दक्षिण कोरिया पर अपने ऐतिहासिक मतभेद दूर करने और सुदूर पूर्व में सुरक्षा का एकजुट मोर्चा स्थापित करने के लिए बाहर से भी काफ़ी दबाव पड़ रहा है. ये हालात, दक्षिण कोरिया और जापान को और नज़दीकी बढ़ाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. इसके अलावा अमेरिका बड़ी सक्रियता से अपने साथी देशों को एकजुट करने की कोशिश कर रहा है, जिससे लचीली आपूर्ति श्रृंखलाएं बनाई जा सकें. और फिर उनसे इन साथी देशों के लिए व्यापार की नई संभावनाएं पैदा हो सकें. इसके अतिरिकत अमेरिका, चीन की तकनीकी तरक़्क़ी से संतुलन बिठाने के लिए उन्नत देशों के बीच एक बड़ा गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहा है. हालांकि, चीन के आर्थिक प्रभाव के आगे दक्षिण कोरिया की कमज़ोर स्थिति के बावजूद, जानकारों का ये मानना है कि जापान और दक्षिण कोरिया के नज़दीक आने का सिलसिला जारी रहेगा. क्योंकि, उत्तर कोरिया और चीन अपने अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं और निकट भविष्य में उनके रवैये में कोई बदलाव आने की उम्मीद नहीं है.
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