Author : Kabir Taneja

Published on Jun 14, 2022 Updated 0 Hours ago

क्या भाजपा प्रवक्ता की हालिया टिप्पणियां आर्थिक और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मध्य पूर्व में भारत की प्रतिष्ठा और उसके विदेश नीति लक्ष्यों को नुक़सान पहुंचा सकती हैं?

भारत और खाड़ी के बीच छिड़ा एक गैरज़रूरी विवाद

भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता की नयी दिल्ली में पैगंबर मोहम्मद साहब के बारे में हालिया टिप्पणियों ने एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय घटना का रूप ले लिया है, जिसकी बहुत सी परतें हैं. मध्य पूर्व और इससे इतर इस्लामी राष्ट्रों ने इन विचारों की निंदा की, और ख़ुद भारत सरकार ने भी उन पार्टी पदाधिकारियों से दूरी बना ली. भाजपा नेतृत्व ने उन्हें उनके पदों से निलंबित कर दिया, जबकि राजनयिकों को नुक़सान की भरपाई के लिए खूब खटना पड़ा.

ईरान के विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन हाल ही में अपनी बहु-प्रतीक्षित पांच दिवसीय भारत यात्रा पर आये. उन्होंने भारतीय प्रतिनिधियों के सामने एक बार फिर यह मुद्दा उठाया. इसने अफ़ग़ानिस्तान के हालात, ऊर्जा सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को गौण कर दिया.

15 से ज़्यादा इस्लामिक राष्ट्रों, जिनमें से ज़्यादातर के नयी दिल्ली से बहुत अच्छे संबंध हैं, ने बयान जारी किये और पैगंबर के बारे में की गयी टिप्पणियों को लेकर भारतीय राजदूतों को तलब किया. ईरान के विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन हाल ही में अपनी बहु-प्रतीक्षित पांच दिवसीय भारत यात्रा पर आये. उन्होंने भारतीय प्रतिनिधियों के सामने एक बार फिर यह मुद्दा उठाया. इसने अफ़ग़ानिस्तान के हालात, ऊर्जा सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को गौण कर दिया.

खाड़ी-भारत संबंधों का बढ़ता दायरा

हालात क़ाबू में करने की भागदौड़ नयी दिल्ली में साफ़ दिख रही थी. बीते कुछ सालों में खाड़ी और विस्तारित पश्चिम एशिया क्षेत्र ने भारतीय विदेश नीति के लिए ख़ास रणनीतिक और आर्थिक महत्व हासिल किया है.   

यह भी विडंबना है कि इस क्षेत्र और भारत के बीच कुछ सबसे महत्वपूर्ण क़दम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ही उठाये गये हैं. इस अवधि के दौरान, खाड़ी में भारत के हितों का विस्तार प्रवासी भारतीयों और तेल से परे जाकर हुआ है. इसमें आर्थिक, आतंकवाद निरोध, रक्षा, तकनीक और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के अन्य बेहद अहम पहलुओं को महत्वपूर्ण बढ़ावा मिलना शामिल है. खाड़ी में शासन करने वाली राजशाहियों और मोदी सरकार के दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी झुकाव के बीच बड़ी राजनीतिक और वैचारिक खाई को देखते हुए यह बात और भी ज़्यादा प्रभावशाली हो जाती है. हालांकि, अभी तक दोनों पक्ष इन दरारों के बीच से सरकार-से-सरकार के स्तर पर राह निकालने में सफल रहे हैं.

इस्लामी दुनिया के साथ भारत के संबंध 1992 में अयोध्या में मस्जिद के ढहने, 2002 में गुजरात में गोधरा दंगों जैसी बड़ी-बड़ी घटनाओं से निकल पाने में सफल रहे हैं. ऐसा दोनों पक्षों की ओर से कुशल राजनय के मोर्चा संभालने, संबंधों को खराब नहीं होने देने और वैचारिक व धार्मिक दरारों के बावजूद परस्पर लाभकारी राष्ट्रीय हितों की रक्षा के चलते हुआ.

भारतीय समाज और राजनीति में सांप्रदायिक विसंगतियां नयी नहीं हैं. इस्लामी दुनिया (ख़ासकर फ़ारस की खाड़ी में) के साथ भारत के संबंध 1992 में अयोध्या में मस्जिद के ढहने, 2002 में गुजरात में गोधरा दंगों जैसी बड़ी-बड़ी घटनाओं से निकल पाने में सफल रहे हैं. ऐसा दोनों पक्षों की ओर से कुशल राजनय के मोर्चा संभालने, संबंधों को खराब नहीं होने देने और वैचारिक व धार्मिक दरारों के बावजूद परस्पर लाभकारी राष्ट्रीय हितों की रक्षा के चलते हुआ. इस्लामी नेताओं और मुफ़्तियों ने इन घटनाओं के बाद खाड़ी में हुए किसी दुष्प्रभाव को कम करने के लिए भारत के साथ काम किया. ग़ौरतलब है कि खाड़ी में लाखों की तादाद में दक्षिण एशियाई प्रवासी समुदाय के लोग काम करते हैं. सीधे 2010 के दशक में आएं, तो तेज़ी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था ने उस दीर्घकालिक धारणा को बदलने में मदद की जिसने खाड़ी की विदेश नीति को भारत की ओर प्रेरित किया. यह परस्पर लाभकारी वास्तविकता 1990 के दशक में संभव नहीं हो पाती. वह एक ऐसा वक़्त था जब आतंकवाद निरोधक सहयोग नगण्य था, खाड़ी के पाकिस्तान के लिए लगाव और पाकिस्तान के हितों को भारत पर बरतरी हासिल थी, और भारत में आतंकवाद के लिए वांछित व्यक्तियों को खाड़ी में आसानी से शरण मिल जाती थी. दरअसल, मोदी की जीत और गठबंधन के बजाय एक बहुमत की सरकार बनने को खाड़ी में सकारात्मक ढंग से देखा गया. इसकी वजह थी मोदी का ‘टॉप-डाउन’ शैली का शासन, जो कि खाड़ी क्षेत्र के ज़्यादातर देशों में चलने वाली शासन पद्धति के काफ़ी क़रीब है. उनकी नज़र में यह नौकरशाही कम करके तेज़ी से नतीजे देता है.

बयानों से संबंधों को पहुंचा नुक़सान

भाजपा प्रवक्ताओं की टिप्पणियों को लेकर जो राजनयिक संकट सामने आया वह अप्रत्याशित नहीं था. इंटरनेट व सोशल मीडिया के तेज़ विस्तार और संचार तकनीकों की गति ने मुद्दों पर आधिकारिक सरकारी स्थिति और जमीन पर घटनाएं जिस तरह आकार ले रही हैं, उनके बीच की रेखाओं को धुंधला कर दिया है. राजनय की छन्नी की भी आज अपनी सीमाएं हैं, क्योंकि जैसे-जैसे हम हाइपर-कनेक्टेड (अति-संपर्कित) दुनिया में आगे बढ़ रहे हैं आधिकारिक आख्यानों (नैरेटिव) और प्रति-आख्यानों पर नियंत्रण और कमज़ोर होता जा रहा है. सरकार का पक्ष ज़्यादा मायने नहीं रखता अगर घटना का वीडियो या ऑडियो सीधे उपलब्ध हो, और सोशल मीडिया मंचों पर शेयर होकर मिनटों में हज़ारों लोगों तक पहुंच गया हो. खाड़ी राष्ट्रों में ठीक यही हुआ है. पैगंबर पर भाजपा प्रवक्ताओं की टिप्पणियों का वीडियो कुछ पड़ोसी देशों की मदद से तेज़ी से फैला. अपने दूतावासों द्वारा जारी बयानों के ज़रिये भारत की प्रतिक्रिया ने राजनयिक तनाव को कम किया, लेकिन जनता के स्तर पर एक स्तर का नुक़सान पहले ही हो चुका था.

सांप्रदायिक हिंसा को खाड़ी देशों ने विरले ही भारत के साथ द्विपक्षीय तनाव का मुद्दा बनाया है. इसी तरह उन्होंने शिनजियांग और वीगर मुसलमानों के मुद्दे को चीन के साथ नहीं उठाया है.

सोशल मीडिया पर मुस्लिम-विरोधी पोस्ट्स, ख़ासकर इस क्षेत्र में रहने वाले प्रवासियों द्वारा की गयी पोस्ट्स, के पुराने मामलों में खाड़ी देशों की ओर से शालीन, लेकिन उल्लेखनीय प्रतिक्रियाएं दी गयी थीं. बीते सालों में, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई ) कुछ भारतीयों को नफ़रती सामग्री पोस्ट करने के लिए देश से निकाल भी चुका है. भारतीय दूतावासों द्वारा इस पूरे भौगोलिक क्षेत्र में काम करने वाले अपने नागरिकों को ऑनलाइन गतिविधियों के प्रति सचेत रहने के लिए कहे जाने के बावजूद ऐसा हुआ है. हालांकि, खाड़ी देशों ने इन मामलों को विचलन के रूप में देखने से अधिक आगे नहीं बढ़ाया, और नयी दिल्ली के साथ व्यापक संबंधों की रोशनी में इसे अधिक तूल नहीं दिया. हालांकि, यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए, और अभी इसकी ज़रूरत पहले किसी समय के मुक़ाबले ज़्यादा है.

सबसे ज़्यादा नुक़सानदेह पहलू यहां यह है कि यथास्थिति को तोड़ने का काम एक पार्टी पदाधिकारी ने किया है, न कि ‘अज्ञानी’ जनता के किसी सदस्य ने. जो बात घरेलू स्तर पर कही जाती है वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उतना ही पहुंचती है, और शब्दों के साधारण सामाजिक अंकगणित के अपने नतीजे होते हैं – इस एहसास को पार्टी के संचार तंत्र के डिजाइन के भीतर अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. पैगंबर पर टिप्पणी को पश्चिम एशिया के ज़्यादातर हिस्सों में एक लाल लकीर की तरह देखा जाता है, जो इस्लामी दुनिया के विभिन्न हिस्सों से अमूमन प्रतिक्रियाएं लेकर आती है. सांप्रदायिक हिंसा को खाड़ी देशों ने विरले ही भारत के साथ द्विपक्षीय तनाव का मुद्दा बनाया है. इसी तरह उन्होंने शिनजियांग और वीगर मुसलमानों के मुद्दे को चीन के साथ नहीं उठाया है.

… और इसकी भूराजनीति

इस संकट पर प्रतिक्रिया के पैमाने का एक भूराजनीतिक अवयव भी है. क़तर शायद पहला देश था जिसने भाजपा के राजनीतिज्ञों द्वारा दिये गये बयानों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठायी. क़तर के पहला क़दम उठाने, और पैगंबर को अपमानित करने वाले एक बयान को प्रतिक्रिया देने के लिए महत्वपूर्ण समझने के कई कारण हो सकते हैं. हालांकि, अंतत: इस घटना ने जिस तरह का रूप लिया, उसमें खाड़ी की अंदरूनी प्रतिद्वंद्विता भी शामिल है. एक बार जब दोहा ने पहला क़दम उठा लिया, तो यह अपरिहार्य हो गया कि सऊदी अरब और यूएई जैसी दूसरी क्षेत्रीय शक्तियां भी यही करें, और उस समय चुप न दिखें जब दूसरे इस्लामी राष्ट्रों ने अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर दी थी. यह कुछ देशों के अक्सर ठंडे और संतुलित बयानों से भी देखने को मिलता है, जहां भारतीय राजनीतिक आख्यान की निंदा करते हुए, टिप्पणी करने वालों को निलंबित करने में सरकार की द्रुत कार्रवाई के साथ उन भारतीय बयानों की सराहना भी की गयी, जो उक्त प्रवक्ताओं को ‘फ्रिंज एलीमेंट्स’ (हाशिये के तत्व) क़रार देते हैं. इसका एक पुराना उदाहरण अक्टूबर 2021 का है, जब कुवैत असेंबली ने कथित तौर पर भारत में एक सांप्रदायिक घटना की निंदा की. हालांकि, यह उस समय क्षेत्र-व्यापी परिघटना का रूप नहीं ले पायी थी.

अगर दोहा ने भारत में पैगंबर पर दिये गये बयानों के मुद्दे को सार्वजनिक मंचों पर उठाने का निर्णय नहीं किया होता, तो यह संभव था कि खाड़ी देशों ने पहले की तरह इस मुद्दे को निजी तौर पर उठाया होता, या अधिक से अधिक इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) के ज़रिये उठाया होता.

रियाद और अबू धाबी स्थित क्षेत्रीय शक्ति केंद्रों के साथ क़तर के रिश्ते बीते कुछ सालों में मूलभूत रूप से बदल चुके हैं. जनवरी 2021 में अपने ख़िलाफ़ आर्थिक नाकाबंदी ख़त्म होने के बावजूद, दोहा ने अपनी आर्थिक और रणनीतिक सोच मूलभूत रूप से बदल ली थी. वह ईरान और तुर्की के क़रीब आया, अपनी घरेलू आर्थिक मज़बूती को प्राकृतिक गैस के बूते सहारा दिया, और क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर ज़्यादा स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाया. उदाहरण के लिए, अब्राहम समझौतों ने यूएई की अगुवाई वाले कुछ अरब देशों और इजरायल के बीच संबंधों को सामान्य किया, यहां तक कि सऊदी अरब ने इस यहूदी बहुल राष्ट्र तक अपने जन संपर्क को महत्वपूर्ण ढंग से बढ़ाया है, लेकिन क़तर ने ज़्यादा स्वतंत्र दृष्टि अपनाया है, फिलिस्तीन मक़सद को समर्थन देना और उसके लिए आह्वान करना जारी रखा हुआ है, जबकि इसी मक़सद के लिए सऊदी, यूएई और अन्य की आवाज़ें कमज़ोर हुई हैं. अगर दोहा ने भारत में पैगंबर पर दिये गये बयानों के मुद्दे को सार्वजनिक मंचों पर उठाने का निर्णय नहीं किया होता, तो यह संभव था कि खाड़ी देशों ने पहले की तरह इस मुद्दे को निजी तौर पर उठाया होता, या अधिक से अधिक इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) के ज़रिये उठाया होता.

निष्कर्ष

संभावित भूराजनीतिक बाध्यताओं के चलते कुछ खाड़ी राष्ट्रों की दोहा के नक्शेक़दम पर बयान देने की मजबूरी के बावजूद, इस पूरे प्रकरण को बहानेबाजी की आड़ में नहीं छिपाया जा सकता. तथ्य यही है कि यह अनुभव नयी दिल्ली के लिए एक सबक होना चाहिए. एक राजनीतिक आख्यान (जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किये जाने वाले से अलग हो) को घरेलू स्तर पर चलाने की कोशिश की हाइपर-कनेक्टिविटी के युग में गंभीर सीमाएं हैं. इस तरह के दोहरेपन के अंतरराष्ट्रीय मंच पर निंदित होने की पूरी आशंका है. हालांकि, खाड़ी देशों का डिजाइन ऐसा है कि वे धर्म पर बेलौस बहसों के अभ्यस्त भी नहीं हैं. अमेरिका और यूरोप में पहले की गयी टिप्पणियों के बाद भी इसी तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं. अतीत के कई उदाहरणों की तरह, उम्मीद है कि यह संकट भी भारत-खाड़ी रिश्तों की मज़बूत सभ्यतागत बुनियादों के मज़बूत आधारों को चुनौती नहीं देगा.

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Kabir Taneja

Kabir Taneja

Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...

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