विमुद्रीकरण (नोटबंदी) से भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार धीमी पड़ जाने की आशंका जताने वाले तमाम विशेषज्ञ आखिरकार बिल्कुल सही साबित हुए हैं। दरअसल, इन सभी की दलील को सही ठहराने वाला ठोस सबूत मिल गया है। ताजा आंकड़े इस बात के गवाह हैं। जनवरी-मार्च 2017 की तिमाही में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर देश की अर्थव्यवस्था में सुस्ती की दस्तक देकर महज 6.1 फीसदी रह गई है जो पिछले दो वर्षों में सबसे कम है। मालूम हो कि देश की जीडीपी वृद्धि दर पिछली तिमाही में 7.4 फीसदी और पिछले वर्ष की इसी तिमाही में 7.6 फीसदी थी। यही नहीं, भारत इसके साथ ही ‘दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था’ का तमगा भी गंवा बैठा है। यह सेहरा फिर से चीन के सिर बंध गया है जिसकी जीडीपी वृद्धि दर इसी अवधि में 6.9 फीसदी आंकी गई है। इससे भी बदतर तथ्य यह है कि जनवरी-मार्च 2017 की तिमाही के दौरान भारत में सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) की वृद्धि दर घटकर महज 5.6 फीसदी रह गई है, जो पिछली तिमाही में 6.7 फीसदी और पिछले वर्ष की इसी तिमाही में 8.7 फीसदी थी। जीवीए दरअसल पूंजी और श्रम द्वारा उत्पादन में जोड़ा गया मूल्य वर्धन है अथवा जीडीपी में करों एवं सब्सिडी को घटाने पर यह आंकड़ा (जीवीए) निकलता है। सरकार ने जिसे भ्रष्टाचार एवं काले धन से लेकर आतंकवादियों के वित्त पोषण एवं नकली नोटों तक की समस्त आर्थिक और नैतिक बुराइयों का नाश करने वाला ‘रामबाण’ बताया था वह तो बेअसर साबित हुआ। यही नहीं, इसने देश में आर्थिक विकास की रफ्तार सुस्त कर दी है अथवा जैसी कि धारणा बन गई है। कई पर्यवेक्षकों ने जो ढेर सारी अटकलें लगाई थीं और जिन्हें वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बेतुका बताया था, वे अब धीमी आर्थिक विकास दर के आंकड़े के रूप में सही साबित हुई हैं। दिसंबर 2017 में समाप्त तिमाही के दौरान अप्रत्यक्ष करों में 14.2 फीसदी की बढ़ोतरी के बाद उन्होंने कहा था, ‘ये सभी कहानियां और रिपोर्ट मनगढ़ंत हैं। विकास का आंकड़ा मनगढ़ंत आधार पर निर्भर नहीं करता है। नवीनतम डेटा एवं कराधान के आंकड़े ही वास्तविक हैं। यह वह धन है जो वास्तव में आ गया है।’ चूंकि मनगढ़ंत साक्ष्य अब वास्तविकता में तब्दील हो चुका है, अत: वित्त मंत्री से उम्मीद की जा रही है कि वह ‘सब ठीक है’ जैसी अपनी आर्थिक बयानबाजी में संभवत: फेरबदल करेंगे।
सरकार ने जिसे भ्रष्टाचार एवं काले धन से लेकर आतंकवादियों के वित्त पोषण एवं नकली नोटों तक की समस्त आर्थिक और नैतिक बुराइयों का नाश करने वाला ‘रामबाण’ बताया था वह तो बेअसर साबित हुआ। यही नहीं, इसने देश में आर्थिक विकास की रफ्तार सुस्त कर दी है अथवा जैसी कि धारणा बन गई है। हालांकि, शायद ऐसा नहीं होगा। सरकार अब भी विमुद्रीकरण (नोटबंदी) को आर्थिक सुस्ती का एक प्रमुख कारण मानने को तैयार नहीं है। मुख्य सांख्यिकीविद् टी.सी.ए. अनंत ने 31 मई को जीडीपी डेटा जारी करते हुए कहा, ‘हर नीतिगत निर्णय का आर्थिक आंकड़ों पर असर पड़ता है। अत: विमुद्रीकरण (नोटबंदी) का भी असर पड़ा है। लेकिन सिर्फ किसी एक निर्णय के असर को अलग करके देखना एक जटिल कार्य है।’ मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने कहा, ‘आर्थिक सर्वेक्षण में हमने जो कहा था, जीडीपी डेटा उसी के अनुरूप है। विमुद्रीकरण (नोटबंदी) से अस्थायी झटका लगा था और अर्थव्यवस्था अब पुनर्मुद्रीकरण की बदौलत फिर से पटरी पर वापस आ गई है।’ सर्वेक्षण में कहा गया था, ‘विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के कारण अर्थव्यवस्था को तीन तरह से झटके लग सकते हैं। एक, कुल मांग को प्रभावित करने वाला झटका लग सकता है। कारण यह है कि इस वजह से मुद्रा आपूर्ति घट जाती है और निजी दौलत पर प्रतिकूल असर पड़ता है (विशेषकर उन लोगों की दौलत प्रभावित होती है जो अघोषित धनराशि रखते हैं और अचल संपत्ति के मालिक हैं)। दो, कुल आपूर्ति को प्रभावित करने वाला झटका लग सकता है क्योंकि आर्थिक गतिविधियों के लिए नकदी अत्यंत आवश्यक होती है। तीन, अनिश्चितता का झटका लग सकता है क्योंकि आर्थिक एजेंटों को तरलता के झटके के असर एवं उसकी अवधि के साथ-साथ संभावित नीतिगत कदमों से उपजी स्थितियों का सामना करना पड़ता है और ऐसे में उपभोक्तागण अपने विवेकाधीन या मनमाने उपभोग और कंपनियां अपनी निवेश योजनाओं को टाल देती हैं।’ यदि सरकार के अर्थशास्त्री इस विषय पर कुछ भी कहने से बचना चाह रहे हैं तो जीडीपी वृद्धि दर में आई कमी पर विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के असर को लेकर गैर-सरकारी अर्थशास्त्रियों के विचार अनुकूल हैं। इंडिया रेटिंग्स के मुख्य अर्थशास्त्री देवेन्द्र कुमार पंत का कहना है, ‘चौथी तिमाही में विनिर्माण की जीवीए वृद्धि दर पर विमुद्रीकरण (नोटबंदी) का असर साफ नजर आ रहा है।’ मिजुहो बैंक के भारतीय रणनीतिकार तीर्थंकर पटनायक ने रायटर को बताया, ‘चौथी तिमाही के डेटा निश्चित रूप से निराशाजनक हैं और वे स्पष्ट रूप से कुछ हद तक विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के अत्यधिक असर को दर्शाते हैं।’ शायद हम आंकड़ों को बहुत बारीकी से देख रहे हैं और अपनी आशंका को सही साबित करने के लिए इसे विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के पहले शिकार के रूप में पेश कर रहे हैं। ऐसा संभवत: इसलिए भी है क्योंकि पहले दो हफ्तों के बाद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने विमुद्रीकरण (नोटबंदी) की ताजा स्थिति के बारे में जानकारी देनी बंद कर दी थी। ऐसे में लोगों को यह संशय हुआ कि कुछ न कुछ तो गलत है और आरबीआई सरकार के साथ मिलकर विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के प्रतिकूल असर को छिपाना चाहता है। दरअसल, तमाम एटीएम पर उपभोक्ताओं की लंबी-लंबी लाइनों ने लोगों को वास्तविक तौर पर हो रही कठिनाइयों के जरिए अनुभवजन्य साक्ष्यों को पुख्ता कर दिया। अब चूंकि आंकड़े आ गए हैं, इसलिए इस तरह के वृतांत अचानक तर्कसंगत हो गए हैं। हमें पीछे चलने की जरूरत है। तथ्य यह है कि विमुद्रीकरण का झटका भारतीय अर्थव्यवस्था को और ज्यादा औपचारिक रूप देगा — जो समग्र नहीं, बल्कि कई कदम आगे ले जाने वाला होगा। विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के कारण नकदी की किल्लत और भुगतान में हुई परेशानी की वजह से इस तिमाही के दौरान आर्थिक विकास की रफ्तार धीमी होने का अंदेशा था। यह आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट कोई खास नहीं है। दरअसल, 6.1 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर के साथ भी भारत उल्लेखनीय विकास को दर्शा रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जीडीपी वृद्धि दर में लगभग 2 फीसदी की गिरावट होने का अनुमान व्यक्त किया था, लेकिन वास्तविक गिरावट तो इसके आसपास भी नहीं है। यही नहीं, उन्होंने इस कदम को ‘भारी कुप्रबंधन’, ‘संगठित लूट’ और आम लोगों की ‘वैध लूट’ करार दिया था। चूंकि विमुद्रीकरण के अल्पकालिक झटके धीमी जीडीपी वृद्धि दर के रूप में बाकायदा लग चुके हैं, इसलिए अब समय आ गया है कि दीर्घकालिक फायदों पर नजरें दौड़ाई जाएं, जो विश्व बैंक के भारत विकास अद्यतन के अनुसार ये तीन हैं: ‘अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देना; कर संग्रह में वृद्धि और अधिक-से-अधिक डिजिटल वित्तीय समावेश।’ हम चूंकि जीडीपी वृद्धि दर में 1 फीसदी से भी कम के नुकसान के साथ इस झटके से बाहर निकलने में सक्षम साबित हुए हैं, इसलिए यह भारत के आर्थिक लचीलेपन को दर्शाता है। इसके साथ ही यह नए आर्थिक नीतिगत प्रयोगों के लिए हमारी आशंकाओं, चिंताओं और यहां तक कि उपेक्षा को भी दर्शाता है। . विमुद्रीकरण का प्रतिकूल असर भले ही अब समाप्त हो रहा हो, लेकिन अर्थव्यवस्था को एक नया झटका लगने का अंदेशा है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को देश भर में 1 जुलाई से लागू करने पर यह झटका लग सकता है। कराधान की इस पूरी तरह से डिजिटल आधुनिक प्रणाली के बारे में जागरुकता की कमी और कई दशकों तक उद्यमियों से पैसा झटकने वाली टैक्स नौकरशाही के कारण जीएसटी को लागू करने के बाद पहली तिमाही, यहां तक कि दूसरी तिमाही में भी जीडीपी वृद्धि दर को और अधिक झटके लग सकते हैं। सरकारी अधिकारियों के मुताबिक, जीडीपी में वृद्धि को तो भूल ही जाइये, हो सकता है कि इसमें कमी देखने को मिले क्योंकि नई प्रणाली को अपनाने पर सारी ऊर्जा बिजनेस करने के बजाय इनपुट क्रेडिट के प्रबंधन, बारीकियों को समझने और अनुपालन प्रणाली का पूरी तरह से हिसाब लगाने में चली जाएगी। उत्पादन में कमी की बात अतिशयोक्ति हो सकती है, लेंकिन हमें इस तथ्य को अवश्य ही ध्यान में रखना चाहिए कि कराधान की किसी भी नई प्रणाली में कुछ सीखने की गुंजाइश रहती है जिसमें समय लगता है। अत: जीएसटी सिस्टम भले ही डिजिटल सुविधा से युक्त हो जिससे लागत घटेगी और जीएसटी सुविधा प्रदाता इस प्रणाली को अपनाने में मदद करेंगे, लेकिन इसे पूरी तरह से समझने एवं अपनाने में समय लगेगा। ऐसे में पहली तिमाही में तो निश्चित तौर पर और संभवत: दूसरी तिमाही में भी आर्थिक सुस्ती रहने का अंदेशा है। हालांकि, टैक्स अनुपालन के जाल, जो आज भारतीय उद्यमियों के समक्ष मौजूद सबसे बड़ा खतरा है, के एक बार हटते ही लेन-देन की गति में वृद्धि, कर संग्रह की दक्षता और बिजनेस करने के फायदों का एक अच्छा चक्र शुरू हो जाएगा, जो देश में आर्थिक विकास को नई गति देगा। ऐसे समय में जब विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के कारण मध्यम अवधि में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के औपचारिक रूप धारण करने की प्रक्रिया जारी रहेगी, जीएसटी को अपनाने के कारण एक या दो तिमाहियों के दौरान जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट महज एक विराम के तौर पर होगी क्योंकि अर्थव्यवस्था एक नए और अधिक प्रभावकारी संतुलन हासिल करने की दिशा में उन्मुख हो जाएगी। हालांकि, जीएसटी को अपनाने का तरीका यदि अतीत जैसा ही होगा और राजनीतिक नेतृत्व द्वारा विकास के लिए दबाव डालने के बावजूद लालफीताशाही के साथ-साथ टैक्स नौकरशाही द्वारा पैसे झटकने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा, तो वैसी स्थिति में जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट का दौर लंबा रहने का अंदेशा है। जीएसटी परिषद की बैठक 3 जून को होनी है। बैठक में इस मसले पर विस्तार से विचार-विमर्श करने की सख्त जरूरत है।
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