एक के बाद एक लगातार तीन आम चुनावों के रिकॉर्ड के बावजूद, जब प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू और उनके प्रतिद्वंदी बेनी गैंट्ज के बीच मुक़ाबले का कोई स्पष्ट नतीजा नहीं निकला. तो इस साल मई महीने में जाकर दोनों नेताओं ने देश के नाम पर साझा सरकार बनाने का फ़ैसला किया. क्योंकि, देश में कोविड-19 की महामारी तेज़ी से फैल रही थी. और ऐसे मुश्किल वक़्त में किसी सरकार का न होना देश के लिए चुनौतीपूर्ण हालात पैदा कर रहा था. सरकार बनाने के लिए देश के नाम पर नेतान्याहू और गैंट्ज के बीच हुए इस ‘एकता समझौते’ के तहत बेंजामिन नेतान्याहू अगले 18 महीने तक देश के प्रधानमंत्री रहेंगे. जिसके बाद बेनी गैंट्ज प्रधानमंत्री का पद संभालेंगे. कार्यकाल का आधा समय पूरा होने पर दोनों नेता कैबिनेट में भी अपने अपने पदों की अदला-बदली करेंगे.
बेंजामिन नेतान्याहू ने ये चुनाव अपनी मज़बूत नेता की छवि और दक्षिणपंथी राजनीति के आधार पर लड़े थे. चुनाव अभियान के दौरान बेंजामिन नेतान्याहू के कई विदेशी दक्षिणपंथी नेताओं के साथ की तस्वीरें पोस्टर के तौर पर लगाई गई थीं. तेल अवीव से लेकर येरूशलम तक में नेतान्याहू और ट्रंप, नरेंद्र मोदी और बेंजामिन नेतान्याहू की तस्वीरें देखी गई थीं. हालांकि, बेंजामिन नेतान्याहू जॉर्डन घाटी की तर्ज पर फिलिस्तीन के पश्चिमी तट को इज़राइल में मिलाने के अपने इरादे पर अडिग हैं. इस विचार को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी समर्थन देते हैं. ट्रंप ने इस साल की शुरुआत में अपनी मध्य पूर्व की शांति योजना के तहत इज़राइल की पश्चिमी तट पर क़ब्ज़ा करने की योजना पर सहमति जताई थी. मध्य पूर्व की ये शांति योजना, डोनाल्ड ट्रंप के दामाद जेयर्ड कुशनर ने तैयार की है. जबकि, मज़े की बात ये है कि कुशनर को मध्य पूर्व की राजनीति का कोई तजुर्बा नहीं है. कहा जा रहा है कि बेंजामिन नेतान्याहू, फिलिस्तीन के पश्चिमी तट इलाक़े पर क़ब्ज़े की योजना को कभी भी अंजाम दे सकते हैं.
पश्चिमी तट को मिलाने की इस योजना को लेकर इज़राइल और जॉर्डन के बीच ज़बरदस्त तनाव है. नेतान्याहू ने इज़राइल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के चीफ योसी कोहेन को जॉर्डन के बादशाह अब्दुल्ला से मिलने के लिए राजधानी अम्मान भेजा था. समझा जाता है कि इस मुलाक़ात के दौरान जॉर्डन ने इज़राइल के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करने की धमकी दी. फ़िलिस्तीन के वेस्ट बैंक पर इज़राइल के संभावित कब्ज़े की इस योजना के निशाने पर फ़िलिस्तीन की उपजाऊ और संसाधनों से भरपूर ज़मीन है. जिसकी मदद से फ़िलिस्तीन की जनता कारोबार और रोज़गार चलाती है. फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण (PA) के प्रधानमंत्री मोहम्मद शतैया ने कहा कि अगर इज़राइल, वेस्ट बैंक पर कब्ज़ा करता है, तो इससे फ़िलिस्तीन के अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा हो जाएगा. वहीं, फिलिस्तीन के विदेश मंत्री रियाद अल-मलिकी ने चेतावनी दी कि इज़राइल को अपने इस षडयंत्र के गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं.
UAE का ये क़दम, इज़राइल के ख़िलाफ़ अरब एकता की अब तक की नीति के ख़िलाफ़ ही जाता है. हालांकि, अरब देश खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) जैसे संगठनों के माध्यम से इज़राइल के ख़िलाफ़ एकजुट रहने की बातें करते रहे हैं.
हालांकि, बेंजामिन नेतान्याहू द्वारा फ़िलिस्तीन के वेस्ट बैंक पर क़ब्ज़े का खुला इरादा जताने के बावजूद, अरब देशों की प्रतिक्रिया बहुत कमज़ोर रही है. जब इस साल जनवरी में डोनाल्ड ट्रंप और बेंजामिन नेतान्याहू ने व्हाइट हाउस में मध्य पूर्व शांति योजना का एलान किया था. तब, ओमान, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात के राजदूत भी उनके साथ थे. पिछले कुछ वर्षों के दौरान ओमान और संयुक्त अरब अमीरात ने पिछले दरवाज़े से इज़राइल से काफ़ी नज़दीकी संबंध बना लिए हैं. बल्कि, इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात ने पिछले ही महीने औपचारिक रूप से कूटनीतिक संबंध स्थापित करने की घोषणा की है. और पिछले हफ़्ते इज़राइल से एक सीधी उड़ान, संयुक्त अरब अमीरात गई थी. जिसमें डोनाल्ड ट्रंप के दामाद जेयर्ड कुशनर भी सवार थे. इन सभी बातों से एक बात एकदम साफ़ हो जाती है कि मध्य पूर्व की राजनीति में अरब देशों की सोच में इज़राइल को लेकर बदलाव आ रहा है. इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतान्याहू अक्टूबर 2018 में अचानक ओमान की राजधानी मस्कट जा पहुंचे थे. उनका मक़सद, अरब इज़राइल संघर्ष में ओमान के निष्पक्ष रुख़ का फ़ायदा उठाना था. इसके अलावा ओमान, लंबे समय से अरब देशों और ईरान के बीच एक मध्यस्थ का काम भी करता आ रहा है. ओमान की इस भूमिका के विकास में वहां के पूर्व सुल्तान क़बूस बिन सैयद अल सैयद की बड़ी भूमिका रही थी.
ओमान की तरह ही संयुक्त अरब अमीरात ने भी इज़राइल को लेकर संतुलित रवैया अपनाया हुआ है. जो इज़राइल को लेकर अब तक रही अरब देशों की नीति से बिल्कुल अलग है. संयुक्त अरब अमीरात ने इज़राइल के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति पर चलते हुए अब संबंध सामान्य कर लिए हैं. UAE का ये क़दम, इज़राइल के ख़िलाफ़ अरब एकता की अब तक की नीति के ख़िलाफ़ ही जाता है. हालांकि, अरब देश खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) जैसे संगठनों के माध्यम से इज़राइल के ख़िलाफ़ एकजुट रहने की बातें करते रहे हैं. लेकिन, कोविड-19 की महामारी के दौरान संयुक्त अरब अमीरात ने फ़िलिस्तीन की मदद के लिए मेडिकल सामान से भरे हुए जहाज़, इज़राइल के तेल अवीव एयरपोर्ट पर भेजे थे. ये अबू धाबी और तेल अवीव के बीच पहली सीधी उड़ान थी. संयुक्त अरब अमीरात ने ये क़दम इस तथ्य के बावजूद उठाया था कि इज़राइल, वेस्ट बैंक पर क़ब्ज़ा करने की योजना बना रहा है. हालांकि, संयुक्त अरब अमीरात ने इज़राइल की इस योजना पर ऐतराज़ जताया था. वैसे, उसका ये विरोध प्रतीकात्मक अधिक था. बेंजामिन नेतान्याहू ने इज़राइल को लेकर UAE के इस बदलते रुख़ का फ़ायदा उठाते हुए कोविड-19 के ख़िलाफ़ संघर्ष में संयुक्त अरब अमीरात के साथ मिलकर काम करने का प्रस्ताव रखा था. हालांकि, उस समय संयुक्त अरब अमीरात के प्रिंस मोहम्मद बिन ज़ायद ने इस प्रस्ताव पर कोई ख़ास उत्साह नहीं जताया था. लेकिन, कोविड-19 के दौरान इस सहयोग से साफ़ हो गया था कि इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात अपने कारोबारी रिश्तों को आगे बढ़ा रहे हैं.
इस क्षेत्र की जानकार एलिज़ाबेथ त्सुर्कोव, मध्य पूर्व के समीकरणों में आ रहे इन बदलावों पर रौशनी डालते हुए कहती हैं कि, ‘खाड़ी देशों के बीच ये बदलते समीकरण इशारा करते हैं कि इन इलाक़ों के शेख़ों की प्राथमिकताएं अब बदल रही हैं.
अरब देशों और इज़राइल के बीच बढ़ती दोस्ती को ईरान और अरब देशों के बीच बढ़ते तनाव के नज़रिए से देखा जाना चाहिए. क्योंकि, ईरान को सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश अपने अस्तित्व, अपनी अर्थव्यवस्था और समृद्धि के लिए बड़ा ख़तरा मानते हैं. लेकिन, संयुक्त अरब अमीरात के ईरान से भी अच्छे संबंध रहे हैं. असल में संयुक्त अरब अमीरात, इस भयंकर उठा-पटक वाले क्षेत्र में ख़ुद को एक बड़े वैश्विक वित्तीय और आर्थिक केंद्र के तौर पर विकसित करने में जुटा हुआ है. इसके अलावा UAE के शासकों को ये बात भी अच्छे से बता है कि अब अरब देशों की सुरक्षा के लिए पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर रहने का समय बीत चुका है. ऐसे में ईरान से ख़तरे को दूर करने के लिए ईरान के साथ सीधा संबंध स्थापित करना ज़्यादा बेहतर विकल्प है. इसीलिए मार्च महीने से लेकर जून के दौरान संयुक्त अरब अमीरात ने ईरान को कोविड-19 से लड़ने के लिए ज़रूरी सामान से लदे चार विमान भेजे थे. ख़ासतौर से कोरोना वायरस का प्रकोप जब अपने शुरुआती दौर में था और तब ईरान में इस वायरस से कई स्वास्थ्य कर्मियों की मौत हो गई थी.
खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के भीतर भी इस बात को लेकर मतभेद हैं कि ईरान की चुनौती से कैसे निपटा जाए. क्योंकि, ईरान के मसले पर तमाम सदस्य देश किसी एक नीति पर सहमत नहीं हो सके हैं. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात इस मसले पर जब क़तर से भिड़े, तो क़तर ने ईरान से नज़दीकी बढ़ा ली. क्योंकि, खाड़ी सहयोग परिषद में सऊदी अरब और UAE ने मिलकर क़तर को अलग-थलग कर दिया है. क्योंकि इन दोनों देशों का मानना है कि क़तर की हरकतों से उनके अपने हितों को नुक़सान पहुंच रहा है. जबकि, फ़िलिस्तीन मसले पर क़तर कई बार अन्य अरब देशों के मुक़ाबले ज़्यादा आक्रामक और सक्रिय रवैया अपनाता रहा है. और इस वजह से अरब देशों के बीच मतभेद और बढ़ गए हैं. इस क्षेत्र की जानकार एलिज़ाबेथ त्सुर्कोव, मध्य पूर्व के समीकरणों में आ रहे इन बदलावों पर रौशनी डालते हुए कहती हैं कि, ‘खाड़ी देशों के बीच ये बदलते समीकरण इशारा करते हैं कि इन इलाक़ों के शेख़ों की प्राथमिकताएं अब बदल रही हैं. इसी वजह से अरब देश अब फ़िलिस्तीन के मसले की अनदेखी कर रहे हैं. क्योंकि फ़िलिस्तीन का मसला केवल अरब देशों के बीच ही नहीं, अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी अहमियत खो चुका है.’ पश्चिमी देशों के विद्वान ही नहीं, अब खाड़ी देशों के विचारक यही मानते हैं कि फ़िलिस्तीन की समस्या खाड़ी देशों के लिए एक संकट भर नहीं है. वो इसका फ़ायदा अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए भी उठाते रहे हैं. ख़ासतौर से जब उन्हें पश्चिमी देशों की ओर से इज़राइल पर दबाव बढ़ाना होता है, तो वो इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उछालते रहे हैं.
अगर ख़ुद अरब देश ही अपने आप को फ़िलिस्तीन के मसले से दूर कर रहे हैं. तो, भारत के लिए नैतिकता और सिद्धांतों के नाम पर फ़िलिस्तीन के लिए विश्व मंच पर खड़े रहने का कोई औचित्य नहीं बनता.
हालांकि अगर इज़राइल, फ़िलिस्तीन के पश्चिमी तट पर क़ब्ज़े की योजना पर आगे बढ़ता है, तो इससे फ़िलिस्तीन को एक अलग तरह की तबाही का सामना करना पड़ सकता है. अभी कोविड-19 की महामारी एक वैश्विक संकट बनी हुई है. ऐसे में अगर वेस्ट बैंक पर इज़राइल अपना क़ब्ज़ा बढ़ाता है, तो इससे इज़राइल, जॉर्डन और मिस्र के साथ साथ अन्य अरब देशों के बीच तनाव बढ़ रहा है. हालांकि, भारत की सरकार ने इज़राइल की इस योजना पर टिप्पणी करने से ख़ुद को दूर ही रखा है. क्योंकि भारत की सरकार घरेलू स्तर और अपने पड़ोसियों के साथ एक साथ कई मोर्चों और कई चुनौतियों से जूझ रही है. हालांकि, ये देखने वाली बात होगी कि अगर नेतान्याहू, वेस्ट बैंक पर क़ब्ज़े की योजना पर अमल करते हैं, तो भारत का रुख़ क्या रहता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत को इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के रूप में एक अच्छा दोस्त मिला है. दोनों ही देशों की दक्षिणपंथी राजनीतिक के विचार भी आपस में मिलते हैं. इसके बावजूद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारत ने खाड़ी देशों और ख़ासतौर से संयुक्त अरब अमीरात से अपने संबंध काफ़ी मज़बूत बना लिए हैं. आज संयुक्त अरब अमीरात, भारत की अर्थव्यवस्था में अरबों डॉलर का निवेश करने के लिए तैयार है. भारत और UAE के संबंधों में भी फिलिस्तीन कोई अहम मुद्दा नहीं है. ख़ासतौर से इज़राइल के लिए तो इस मोर्चे पर चिंता की कोई बात ही नहीं. क्योंकि, आज उसके और संयुक्त अरब अमीरात के बीच सीधे कूटनीतिक संबंध बन गए हैं. वहीं, भारत उसका अच्छा दोस्त है ही. और नेतान्याहू को ये भी पता है कि फ़िलिस्तीन को लेकर भारत का रुख़ हमेशा ही घरेलू राजनीतिक माहौल के आधार पर तय होता रहा है. इन सब बातों से इतर नरेंद्र मोदी ने कभी भी फिलिस्तीन को लेकर भारत के रुख़ में खुलकर किसी बदलाव का संकेत नहीं दिया है. जब वो 2017 में इज़राइल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने थे. तब भी, उनके इज़राइल जाने से पहले फ़िलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास भारत के दौरे पर आए थे. इसके बाद नरेंद्र मोदी फरवरी 2018 में फ़िलिस्तीन के रामल्ला शहरे के दौरे पर भी गए थे. हालांकि, कूटनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस दौरे को कोई ख़ास अहमियत मोदी सरकार की ओर से नहीं दी गई थी. क्योंकि, मोदी की पार्टी बीजेपी की छवि एक हिंदूवादी सरकार की रही है. लेकिन, अगर ख़ुद अरब देश ही अपने आप को फ़िलिस्तीन के मसले से दूर कर रहे हैं. तो, भारत के लिए नैतिकता और सिद्धांतों के नाम पर फ़िलिस्तीन के लिए विश्व मंच पर खड़े रहने का कोई औचित्य नहीं बनता. इस बीच, सबसे बड़ी मुश्किल तो फ़िलिस्तीनी जनता के लिए है. जो विश्व राजनीति की उठा-पटक के शिकार हो गए हैं. अब क्षेत्रीय भू राजनीति के बदलते समीकरणों में उन्हें ये समझ में नहीं आ रहा है कि वो कैसे और किसके बल बूते पर अपने हितों की हिफ़ाज़त करें.
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