Issue BriefsPublished on Mar 10, 2023
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ताक़तवर देशों की शक्ति स्पर्धा में शामिल होते छोटे देश: सत्ता बचाने के लिए ’राष्ट्रवाद’ का सहारा!

  • Charmaine Misalucha-Willoughby

यह लेख रायसीना फाइल्स 2023 सीरीज़ का हिस्सा है.


महान-शक्ति प्रतिस्पर्धा के दौर में दक्षिण पूर्व एशियाई देश अपने-अपने हितों को ध्यान में रखकर ख़ुद की नीतियां तय करते हैं. कुछ देश जहां इस प्रतिस्पर्धा में संतुलन साधने की कोशिश करते हैं, वहीं कुछ देश हेजिंग अर्थात अपने बचाव की नीति को अपनाते हैं. कुछ देशों की सीमित क्षमताओं की वज़ह से उनके भू-राजनीतिक विकल्प सीमित हो जाते हैं. ऐसे में ये देश इस प्रतिस्पर्धा में शामिल होने से बचते हैं. लेकिन एक बात तो साफ़ है कि महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा के इस दौर में भी छोटे देशों की प्रतिक्रियाएं आज भी वहीं हैं, जो पूर्व में उपनिवेशित वैश्विक स्थितियों में देखी जाती थी. ऐसे देश अक्सर रुल-टेकर्स अर्थात दूसरे के बनाए नियमों को आसानी से अपनाने वाले होते है. लेकिन इन देशों को यह पता होता है कि नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अगर वे नए नियमों को बनाने की पहल नहीं कर सकते, परन्तु फिर भी वे इस व्यवस्था में निश्चित रूप से ख़ुद के लिए जगह बनाने की क्षमता तो रखते हैं. यह बात भी तय ही है कि नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था बनाने का काम बड़े और शक्तिशाली देशों का कार्यक्षेत्र और विशेषाधिकार है, लेकिन छोटे देश भी नई व्यवस्था में अपनी स्थिति को बनाने की कोशिश कर सकते हैं और वे ऐसा करते भी हैं. अत: छोटे देश भले ही नई व्यवस्था में पहल करने की स्थिति में नहीं होते, लेकिन वे निश्चित रूप से उस व्यवस्था को बनाए रखने में रखने में अहम प्रतिभागी होते हैं.

यह बात भी तय ही है कि नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था बनाने का काम बड़े और शक्तिशाली देशों का कार्यक्षेत्र और विशेषाधिकार है, लेकिन छोटे देश भी नई व्यवस्था में अपनी स्थिति को बनाने की कोशिश कर सकते हैं और वे ऐसा करते भी हैं.

उदाहरण के लिए, 1945 के बाद अमेरिका-केंद्रित व्यवस्था को फिलीपींस ने अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर पूर्ण समर्थन दे दिया था. फिलीपींस के लिए इस व्यवस्था का विरोध करना न केवल अव्यावहारिक था, बल्कि यह अकल्पनीय भी था. इसका कारण यह है कि फिलीपींस के पास स्पेन के ख़िलाफ़ 1896 की फिलीपीन क्रांति और इसके तुरंत बाद 1899 में अमेरिकी उपनिवेशवाद का विरोध करने (लेकिन उसमें असफ़ल होने) की वज़ह से ऐसे मामलों में होने वाली हिंसा का न भूलने वाला अनुभव मौजूद था. फिलीपींस को 1946 में अमेरिका द्वारा स्वतंत्रता प्रदान करने से पहले ही स्थानीय एलाइट्स अर्थात अभिजात वर्ग ने अपने पारिवारिक संबंधों के माध्यम से ख़ुद को यहां राजनीति में शामिल करते हुए अपनी जड़ों को पुख्ता कर लिया था. ऐसे में कालांतर में राष्ट्रवाद ही इन राजनीतिक राजवंशों के अस्तित्व के लिए अहम मुद्दा बनता चला गया. इन्हीं कारणों के चलते 1896 की क्रांति को प्रेरित करने वाले राष्ट्रवाद के प्रारूप को पीछे छोड़ दिया गया. वहां दूसरे विश्व युद्ध के बाद का गुबार थमने के पश्चात वैश्विक मंच पर नई शुरूआत करते हुए फिलिपीन ने एक नवोदित लोकतंत्र को चित्रित करने के लिए नए सिरे से राष्ट्रवाद को अपना लिया. ऐसे में अमेरिकी नेतृत्व वाली उदार नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का समर्थन करना ही फिलीपींस के लिए इस व्यवस्था में आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका था.

फिलीपींस द्वारा नई व्यवस्था का समर्थन किया जा रहा है इस बात का एक अन्य संकेत यह भी था कि दक्षिण चीन सागर के विवादों में फिलीपींस ने अपनी स्थिति को कैसे पुख्ता करते हुए कानून का सहारा लिया.कम्युनिटिज ऑफ नेशन्स अर्थात राष्ट्रों के समुदाय का पूर्ण सदस्य होने के साथ-साथ फिलीपींस यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ द सी अर्थात समुद्र के कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीएलओएस) का एक हस्ताक्षरकर्ता भी हैं. अतः फिलीपींस ने नियमित रूप से चीन के सैन्य प्रतिष्ठानों और कृत्रिम द्वीपों, जिसे यह पश्चिम फिलीपीन सागर के रूप में संदर्भित करता है, के निर्माण के खिलाफ एक के बाद एक राजनयिक विरोध दायर करना शुरू कर दिया. इस मामले को लेकर 2012 में स्कारबोरो शोल में दोनों देशों के बीच उपजे गतिरोध के कारण ही फिलीपींस ने चीन के ख़िलाफ़ मध्यस्थता का मामला दायर करने का अपना इरादा मज़बूत कर लिया था. आर्बिट्रेशन ट्रिब्यूनल अर्थात मध्यस्थता अधिकरण का फ़ैसला भी फिलीपींस के पक्ष में पुख्ता रूप से आया था. लेकिन यह जीत अल्पकालिक और संभवत: पिरिक अर्थात ऐसी जीत जिसे हासिल करने में काफ़ी कुछ गंवाना पड़ा था, भी साबित हुई. इसका कारण यह था कि फिलीपींस के पूर्व रोड्रिगो दुतेर्ते ने अपनी विदेश नीति की दिशा चीन की ओर मोड़ दी थी. यह फिलीपींस के वर्तमान राष्ट्रपति, फर्डिनेंड 'बोंगबोंग' मार्कोस, जूनियर, का देश की क्षेत्रीय और संप्रभु अखंडता को बनाए रखने में एक मज़बूत रुख हो सकता है, लेकिन इस लेख लिखे जाने तक, उन्होंने भी अभी तक किसी भी घरेलू मंच और अपने किसी भी अंतर्राष्ट्रीय बातचीत के दौरान 2016 में फिलीपींस के पक्ष में आए अवार्ड अर्थात फ़ैसले का जिक़्र तक नहीं किया है. फिर भी, मध्यस्थता के इस मामले ने फिलीपींस, चीन और अंतरराष्ट्रीय कानून, विशेष रूप से समुद्र के कानून की दृष्टि से एक मिसाल कायम की है. मध्यस्थता के इस मामले को लेकर आया फ़ैसला मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में भी टिका रहेगा.

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में, राष्ट्रवाद वह ईंधन है जो राज्य की संप्रभुता को वैधता प्रदान करते हुए वैश्विक विश्व व्यवस्था को बनाए रखता है. लेकिन यह तर्क कि राष्ट्रवाद, आत्मनिर्णय के दावों को उचित ठहराता है, एक कमज़ोरी को उजागर करता है.

यह तर्क कि छोटे देश, भले ही असमानताओं और अन्याय का स्थल अथवा उन्हें बढ़ावा देने वाली ही अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था क्यों न हो, ऐसे छोटे देश उस व्यवस्था को स्थिर बनाए रखते हैं. यह तर्क केवल ऐसे लोगों के संदर्भ में सटीक साबित होता है, जहां मामला रुल-टेकर्स अर्थात नियमों का पालन करने वालों का होता है. दूसरे मायनों में इसमें लाभ कम और लागत ज़्यादा होती है. मुख्यत: छोटे देश, राष्ट्रों के समुदाय का सदस्य होने की वज़ह से मिलने वाले लाभों को देखकर ही इस व्यवस्था को स्वीकृत कर लेते हैं. अत: ऐसी व्यवस्था में फिलीपींस के आदान-प्रदान के दृष्टिकोण के मामले में भी यही बात सच है : फिलीपींस का नए ढांचे में ढाला गया राष्ट्रवादी नज़रिया और अपनी समस्याओं को हल करने के लिए कानून का सहारा लेने की उसकी प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि वह स्वयं को इस नई व्यवस्था के तहत समायोजित कर लेना चाहता है.

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में, राष्ट्रवाद वह ईंधन है जो राज्य की संप्रभुता को वैधता प्रदान करते हुए वैश्विक विश्व व्यवस्था को बनाए रखता है. लेकिन यह तर्क कि राष्ट्रवाद, आत्मनिर्णय के दावों को उचित ठहराता है, एक कमज़ोरी को उजागर करता है. यह कमज़ोरी संप्रभु राज्यों की व्यवस्था को कमज़ोर करने से जुड़ी होती है. इतिहास इस बात के उदाहरणों से भरा पड़ा है कि कैसे राष्ट्रवाद देखते ही देखते सैन्यवादी दृष्टिकोण में बदल गया और इसने विदेशी आक्रमण को प्रेरित और प्रोत्साहित किया. अनेक लोगों का मानना है कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के पीछे का असल कारण राष्ट्रवादी झुकाव ही था. यह सर्वमान्य दृष्टिकोण है कि राष्ट्रवाद जीरो-सम सुरक्षा नीतियों को प्रोत्साहित करते हुए समझौते और आम सहमति के विपरीत कार्य करते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को कमज़ोर बनाता है. अत: एक तरह से राष्ट्रवाद को वैश्विक व्यवस्था के लिए एक गंभीर चुनौती पेश करते देखा जाता है.

इस रूप में राष्ट्रवाद को विध्वंसक के रूप में देखा जा सकता है. लेकिन औपनिवेशिक काल के बाद की दुनिया में अनेक लोगों के लिए यह वह उत्साह पैदा करने वाला कारक था, जिसकी वज़ह से अनेक स्वतंत्रता आंदोलनों का जन्म हुआ था. स्पेन और अमेरिका के ख़िलाफ़ 19वीं शताब्दी के अंत में फिलीपींस का अनुभव आत्मनिर्णय और साम्राज्यों पर आधारित वैश्विक व्यवस्था के विनाश के बीच घनिष्ठ संबंध को प्रदर्शित करता है. लेकिन एक बार जब फिलीपींस को आज़ादी मिल गई (1898 में स्पेन से और 1946 में अमेरिका से) वैसे ही फिलीपींस ने अमेरिकी नेतृत्व वाली उदार नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ख़ुद को समायोजित कर लिया. लेकिन इसे मौजूदा व्यवस्था के पूर्ण समर्थन के पर्याय के रूप में नहीं देखा जा सकता है. आज़ादी के बाद के पूरे युग में, फिलीपींस ने इस वज़ह से राष्ट्रवाद को बढ़ावा नहीं दिया कि वह इस व्यवस्था को चुनौती देने का इरादा रखता था, बल्कि इसलिए बढ़ावा दिया कि वह इस व्यवस्था का हिस्सा बन जाना चाहता था. अत: मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के लिए फिलीपींस के समर्थन को इस मायने में राष्ट्रवाद की आड़ लेकर वहां सत्ता में बने रहने की कोशिश का मूल कारक माना जा सकता है.

यह अमेरिका के साथ फिलीपींस के गठबंधन और हाल ही में फिलीपींस की नीति में चीन की ओर आए बदलाव पर आगे की गई चचार्ओं में साफ़ दिखाई देता है. एक शासन को सही ठहराने या उसके अस्तित्व को पुख्ता करने की गारंटी की चाह रखने वाला फिलीपींस राष्ट्रवाद का उपयोग करके 1945 के बाद उभरी वैश्विक व्यवस्था में अंतर्निहित रहते हुए ख़ुद के आगे बढ़े रहने की जगह बना रहा था. इसी वज़ह से उसने व्यापक क्रम में शामिल होने के लिए राष्ट्रवाद का एक साधन के रूप में उपयोग किया था. यही तर्क यहां व्यापक तौर पर इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि फिलीपींस जैसे कई छोटे देश महान-शक्ति प्रतियोगिता को नेविगेट करने अर्थात अपनी राह ख़ोजने के लिए समायोजन की रणनीति अपनाते हैं: अर्थात दूसरों को समायोजित करते हुए इसके बदले में उसी स्थान पर ख़ुद को समायोजित करने की कोशिश करते हैं.

तख्ता पलट के लिए राष्ट्रवाद

वर्तमान फिलिपिनो राष्ट्र की उत्पत्ति का मूल 1896 की फिलीपीन क्रांति में छुपा है. इसका कारण यह था कि फिलिपीन के क्रांतिकारियों को उस दौर में पहले अमेरिकियों के सहयोग से स्पेन और उसके तुरंत बाद अमेरिका के ही ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी पड़ी थी. अत: 1896 से 1902 के वर्ष अस्थिर और हिंसक थे. इस में ही अमेरिका हमदर्दी की बजाय समझौते की दिशा में तेजी से आगे बढ़ गया था.[1] अमेरिकी दृष्टिकोण से, नवोदित फिलिपिनो राष्ट्र को संरक्षकता की अवधि से गुजरना था, क्योंकि वहां औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली के माध्यम से क्रांति के वर्ष पुन:स्थापित हो चुके थे.[2] आन्द्रेस बोनिफेसियो और होसे रिसाल का मानना इसके विपरीत था कि राष्ट्रवाद का उपयोग मौजूदा व्यवस्था के ख़िलाफ़ तख्ता पलट के साधन के रूप में किया जा रहा है. ऐसे में उनके तर्क की वज़ह से जो जोश और जुनून पैदा हो रहा था उसे संयमित और लाइन में रखा जाना ज़रूरी हो गया था.

अमेरिकियों के मार्गदर्शन में फिलीपीन राष्ट्रवाद के उत्साह को संयमित करते हुए कानून और व्यवस्था के दायरे में लाया जाना था. यह एक बच्चे को अच्छी तरह से बढ़ने और फलने-फूलने के लिए सावधानी से तैयार किए गए माहौल को प्रदान करने जैसा ही था. 

1896-1898 (फिलीपीन क्रांति) और 1899-1902 (फिलीपीन-अमेरिकी युद्ध) की घटनाओं को बनाने में सदियां लग गई थीं. 1560 के दशक में स्पेनिश विजय की शुरूआत के बाद ही देश की सत्ता में कैथोलिक चर्च मध्यस्थ के रूप में अहम भूमिका निभा रहा था. 1700 के दशक के अंत में कृषि के व्यावसायीकरण और तथाकथित मेस्टिजोस अर्थात वर्णसंकर (स्पेनिश-फिलिपिनो या चीनी-फिलिपिनो अंतर्विवाह की संतान) द्वारा निभाई गई भूमिका के कारण पादरियों का प्रभुत्व सदियों तक चलता रहा. इसके परिणामस्वरूप मेस्टिजोस ने ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न कारोबार अथवा उद्योग स्थापित कर लिए. इसकी वज़ह से द हेकेंडाडोस अर्थात किसान वर्ग अस्तित्व में आया. इस वर्ग के पास जब संपत्ति बढ़ने लगी तो उन्होंने अपने बच्चों को यूरोप में पढ़ने के लिए भेजना शुरू कर दिया. इन बच्चों को बाद में इलस्ट्राडोस अर्थात प्रबुद्ध कहा जाने लगा. ये इलस्ट्राडोस देखते ही देखते उपनिवेश के बुद्धिजीवी बन गए और इन्होंने स्पेनिश पादरियों और राजनीतिक शक्ति के विरोध में एक सांस्कृतिक आंदोलन शुरू कर दिया.[3] 1800 के दशक के अंत तक, फिलीपींस में भूस्वामी वर्गों की बढ़ती मांगों को रोकने के लिए स्पेनिश साम्राज्य के पास आर्थिक और राजनीतिक ताकत नहीं थी. अत: स्पेनिश साम्राज्य ने उनके ख़िलाफ़ दमनकारी नीतियों को अपना लिया. इसी संदर्भ में क्रांति की केंद्रीय शख्सियत रिसाल ने दो उपन्यास नोली मी तांगेरे और एल फिलिबस्टरिस्मो की रचना की. उन्हें इसी वज़ह से बाद में 1896 में फांसी दे दी गई.

अपने उपन्यासों में पहली बार ‘द फिलीपींस’ का वर्णन करने के लिए ही आज रिसाल को याद किया जाता है. दरअसल, रिसाल ही 'इस सामाजिक समग्रता की कल्पना' करने वाले पहले व्यक्ति हैं.[4] लेकिन 1896 में शुरू हुए विद्रोह से इलस्ट्राडो वर्ग दूर ही रहा था. यह 'जनता का विद्रोह' था, जिसका नेतृत्व बोनिफेसियो ने किया था.[5] उन्होंने एक गुप्त क्रांतिकारी समाज कटिपुनन का गठन करते हुए विद्रोह शुरू किया, जिसे दबा दिया गया. लेकिन युवा मेस्टिजोस ने शीघ्र ही इस विद्रोह की अगुवाई आरंभ कर दी. इस वज़ह से यह आंदोलन पास के प्रांतों में फैल गया.[6] इनमें से एक एमिलियो अग्विनाल्दो थे, जिन्होंने 1899 में फिलीपींस गणराज्य की घोषणा कर दी थी (और जिन्होंने 1897 में बोनिफेसियो को भी मार डाला था).

अग्विनाल्दो का गणतंत्र नाजुक और भू-राजनीति में उलझा हुआ था. अप्रैल 1898 तक स्पेन के ख़िलाफ़ फिलीपींस के युद्ध में अमेरिका भी शामिल हो गया. लेकिन जब उसी वर्ष दिसंबर में पेरिस संधि पर हस्ताक्षर किए गए और फिलीपींस को अनिवार्य रूप से अमेरिका को बेच दिया गया, तो अमेरिकी ने बड़ी तेजी के साथ हमदर्दी वाली अपनी नीति को बदलते हुए फिलीपींस में अपनी उपनिवेशवादी नीति का विस्तार कर लिया.[7] 1902 तक अमेरिका ने सभी विरोधों को कुचल कर रखा दिया. फिलीपीन के लिए यह वर्ष बेहद मुश्किलों से भरे हुए थे. अमेरिकियों के मार्गदर्शन में फिलीपीन राष्ट्रवाद के उत्साह को संयमित करते हुए कानून और व्यवस्था के दायरे में लाया जाना था. यह एक बच्चे को अच्छी तरह से बढ़ने और फलने-फूलने के लिए सावधानी से तैयार किए गए माहौल को प्रदान करने जैसा ही था.[8]

को-ऑप्टेशन अर्थात सह-विकल्प के रूप में राष्ट्रवाद

फिलिपिनो राष्ट्रवाद ने स्पेन से आज़ादी को बढ़ावा देकर एक नए राष्ट्र को जन्म दिया.  ऐसे में यह उस मानक तर्क के अनुरूप ही है, जिसमें माना जाता है कि राष्ट्रवाद वैश्विक व्यवस्था को चुनौती देता है. लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि राष्ट्रवाद का उपयोग व्यवस्था को बनाए रखने के लिए भी किया जा सकता है, ख़ासकर अगर - जैसा कि फिलीपींस के मामले में देखा गया है – इसका उपयोग सत्ता का अस्तित्व बनाए रखने के काम को पूरा करने के लिए किया जाता है. इसे समझना है तो हमें इसमें आलगार्की अर्थात कुछ लोगों के हाथों में स्थापित सत्ता, की भूमिका को समझना होगा. सत्ता में उनकी भूमिका का उपयोग करने के लिए ही अमेरिका ने अनेक प्रांतीय और वैकल्पिक कार्यालयों के साथ एक द्विसदनीय विधायिका का निर्माण किया था.[9]अत: इसके बाद 'कैसिक लोकतंत्र' ने अपनी जड़े पुख्ता कर ली. इसका उपयोग करते हुए आलगार्की अर्थात कुलीनतंत्र ने अपने स्थानीय आधारों को पुख्ता करने के साथ इस व्यवस्था में अपनी जड़ों को मज़बूत करने के लिए इन नए कार्यालयों का उपयोग किया.[10]

द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने के साथ जापानी कब्ज़े ने फिलीपीनी समाज को विघटित कर दिया. लेकिन 1946 में अमेरिका द्वारा फिलीपींस को स्वतंत्रता प्रदान करने के बाद कैसिक लोकतंत्र अपने शीर्ष पर पहुंच गया. अपने मार्गदर्शक समझे जाने वाले अमेरिकियों का हाथ सिर से उठ जाने के बाद कुलीन वर्ग के पास उन्हें संरक्षण देने वाला अब कोई नहीं बचा था. ऐसे में उन्हें अपनी होल्डिंग्ज अर्थात संपत्ति की रक्षा करने के लिए निजी सेनाओं को नियुक्त करना पड़ा था. इस स्थिति में इन कैसिक-राजनीतिक राजवंशों ने स्वीकार कर लिया कि उनका अस्तित्व अब सीधे देश से जुड़ गया है. इसी बात को ध्यान में रखकर राष्ट्रवाद की आड़ में राष्ट्र-राज्य के लिए और उनके विचार और जोड़तोड़ सत्ता में बने रहने के लिए किया गया काम ही साबित होता है. हमने इस तरह के अनेक उदाहरण देखे हैं.

पहली बात तो यह है कि जब शीत युद्ध गर्म होने ही लगा था लगभग उसी वक़्त फिलीपींस ने एक स्वतंत्र देश के रूप में अपनी यात्रा की शुरुआत की थी. 1946 में फिलीपीन की आज़ादी में अपनी भूमिका को देखते हुए अमेरिका ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया कि फिलीपींस को उसके अर्थात अमेरिका के ख़ेमे में ही रहना चाहिए. अत: अमेरिका ने अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए बयानबाजी शुरू कर दी, जिसका फिलीपींस ने भी पूरज़ोर समर्थन करना शुरू कर दिया. ऐसे में दक्षिणपूर्व एशिया के कमज़ोर देशों ने इसका अनुसरण शुरू कर दिया. इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए दोहरी धारणाओं को ध्यान में रखकर रणनीति आंकी गई. इस नीति में साम्यवाद को एक ख़तरा बताकर अमेरिका को ही इस कन्टैजन अर्थात छूत को रोकने में अहम और केंद्रीय भूमिका निभाने की वकालत की गई.

हुकबलाहाप नामक एक कम्युनिस्ट गुरिल्ला आंदोलन द्वारा उत्पन्न बढ़ते ख़तरे के कारण यह फिलीपींस में प्रतिध्वनित हुआ. अमेरिकी नियंत्रण को स्थापित करने की इस रणनीति को कुछ शर्तों के साथ स्वीकृति दी गई, क्योंकि फिलीपींस ने अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र के तहत अपनी स्थिति का मुद्दा उठा दिया था. इसी वज़ह से युद्ध के कारण क्षतिग्रस्त हुई निजी संपत्तियों को मुआवजा प्रदान करने के लिए फिलीपींस द्वारा 1946 में पुनर्वास अधिनियम की मांग को स्वीकार कर लिया गया था. इसके साथ ही ट्रेड एक्ट अर्थात व्यापार अधिनियम ने अमेरिकी बाज़ारों में फिलीपीन व्यापार को दी जाने वाली तरजीहों पर विस्तृत नीतियों को भी शामिल किया गया था. फिलीपीन ने सैन्य मोर्चे पर भी अमेरिका से इसी तरह की प्रतिबद्धताएं हासिल की थीं. 1947 के सैन्य सहायता समझौते के तहत फिलीपीनी कर्मियों को सैन्य और नौसैनिक प्रशिक्षण मुहैया करवाना, उपकरणों के रखरखाव को अधिकृत करना और आपूर्ति के हस्तांतरण को मंजूरी देना इसमें शामिल किया गया था. इसके बाद 1947 का यही सैन्य समझौता आगे जाकर मिलिट्री बेसेस् एग्रीमेंट अर्थात सैन्य आधार समझौते (एमबीए) और 1951 में म्युच्युअल डिफेंस ट्रिटी अर्थात पारस्परिक रक्षा संधि (एमडीटी) पर हस्ताक्षर का आधार बना था.

राष्ट्रवाद का आधार लेने की फिलीपींस की प्रवृत्ति का एक और संकेत उस वक़्त मिला जब 1991 में उसने एमबीए का नवीनीकरण करने से इंकार कर दिया. उसके इस फ़ैसले के परिणामस्वरूप क्लार्क एयर बेस और सुबिक बे नेवल कॉम्प्लेक्स में प्रमुख सुविधाएं बंद हुई और फिलीपींस से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता साफ़ हुआ था. फिलीपींस के ऐसा करने का प्रमुख कारण यह था कि सोवियत संघ के विघटन और उसके पतन के साथ ही वैश्विक परिदृश्य से साम्यवादी ख़तरा लगभग गायब हो गया था. अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनेक ख़तरे अब भी मौजूद थे, लेकिन ये ख़तरे लगभग अप्रासंगिक थे. इसे देखते हुए फिलीपींस में सैन्य ठिकानों का रखरखाव कॉस्ट-एफिशियन्ट अर्थात लागत-कुशल नहीं रह गया था.[11] इसी बात को ध्यान में रखकर फिलीपींस ने अमेरिकियों को देश से अपने सैन्य ठिकानों को वापस लेने के लिए दबाव डालकर अपनी आज़ादी का दावा कर दिया था. इसके बावजूद एमडीटी यथावत बना रहा. 1995 में स्प्रैटली द्वीप में हुई एक घटना फिलीपींस और अमेरिका को फिर से करीब लेकर आ गई. दक्षिण चीन सागर में निम्न-स्तरीय ख़तरों के उदय ने 1999 में विजिटिंग फोर्सेज एग्रीमेंट का मार्ग प्रशस्त करते हुए अमेरिकी सेना को फिलीपींस के साथ संयुक्त अभ्यास करने की अनुमति दी गई.

2003 आते-आते फिलीपींस और अमेरिका के बीच 9/11 के बाद के सहयोग के क्षेत्रों में संयुक्त सैन्य अभ्यास, सैन्य सहायता, पहुंच समझौते और राजनीतिक और सैन्य परामर्श शामिल हो गए थे. इस तरह फिलीपींस और अमेरिकी गठबंधन को ‘‘पुनर्जीवित’’ कर दिया गया. 

11 सितंबर के हमले के वक़्त तक फिलीपीन-अमेरिका संबंध वापस ट्रैक अर्थात सही रास्ते पर आते दिखाई दे रहे थे. इसे देखते हुए ही फिलीपीनी राष्ट्रपति ग्लोरिया अरोयो, अमेरिका को अपना बिना शर्त समर्थन देने के लिए तैयार और प्रेरित हुई थीं. ग्लोरिया अरोयो यह बात बखूबी जानती थी कि अबू सैयफ्फ जैसे स्थानीय आतंकवादी समूहों को अगर पराजित किया जा सकता है तो इसके लिए उसे 'वॉर ऑन टेरर' के बैनर अर्थात झंडे तले आना ही होगा.[12] फिलीपींस ने हुकबलाहाप को हराने के लिए अपनी ज़िम्मेदारी झटकते हुए अमेरिका की नियंत्रण स्थापित करने की नीति को स्वीकार कर लिया था. लेकिन इस बार फिलीपींस ने अमेरिका के उस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, जिसमें अमेरिका ने फिलीपींस में सैन्य ठिकाने बनाने की बात कही थी. फिलीपींस का मानना था कि अगर उसने ऐसा करने की अमेरिका को अनुमति दे दी तो उसकी मुस्लिम आबादी के बीच अमेरिका विरोधी भावना भड़क सकती है.[13] इसके बावजूद 2002 की शुरुआत में बालिकातन अभ्यास के दौरान अमेरिकी सैनिकों को देश में प्रवेश करने की अनुमति दे दी गई. 2003 आते-आते फिलीपींस और अमेरिका के बीच 9/11 के बाद के सहयोग के क्षेत्रों में संयुक्त सैन्य अभ्यास, सैन्य सहायता, पहुंच समझौते और राजनीतिक और सैन्य परामर्श शामिल हो गए थे. इस तरह फिलीपींस और अमेरिकी गठबंधन को ‘‘पुनर्जीवित’’ कर दिया गया. इसके बाद जब व्हाइट हाउस ने फिलीपींस को एक प्रमुख गैर-नाटो सहयोगी के रूप में नामित किया तो यह गठबंधन और भी मज़बूत हो गया.[14]

उन्नत रक्षा सहयोग समझौता (ईडीसीए) वह नवीनतम साधन है जो एमडीटी के लिए पूरक साबित होता है. ईडीसीए के तहत फिलीपींस की न्यूनतम विश्वसनीय रक्षा मुद्रा विकसित करके गठबंधन को मज़बूत किया जाना था. ईडीसीए की वज़ह से मज़बूत होने वाले इस गठबंधन से बदलते भूस्थैतिक माहौल में दोनों देशों की व्यक्तिगत और सामूहिक रक्षा क्षमताओं में सुधार अपेक्षित है. लेकिन इसके साथ ही ईडीसीए में इस बात का विशेष ध्यान रखते हुए स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि फिलीपींस में अमेरिका का कोई स्थायी आधार स्थापित नहीं होने दिया जाएगा. इसके बजाय, अमेरिका को फिलीपींस के स्वामित्व और नियंत्रित निर्दिष्ट क्षेत्रों तक पहुंच और उपयोग करने की अनुमति दी जाएगी. ईडीसीए, फिलीपींस के सशस्त्र बलों (एएफपी) के दृष्टिकोण में आंतरिक अर्थात घरेलू सुरक्षा से बाहरी सुरक्षा अर्थात सीमा सुरक्षा पर ध्यान देने को लेकर आए बदलाव की वज़ह से उपजा था. स्थानीय विद्रोह आंदोलनों की वज़ह से आंतरिक सुरक्षा पर ध्यान जा रहा था. लेकिन दक्षिण चीन सागर में चीन के हठधर्मी कदमों की वज़ह से फिलीपींस की समझ में आ गया था कि अब बाहरी अर्थात सीमा की सुरक्षा को हल्के में नहीं लिया जा सकता था. इसी बात को ध्यान में रखकर ईडीसीए को इस तरह बनाया अथवा तैयार किया गया था कि गठबंधन को मज़बूती देने में फिलीपींस की भूमिका अग्रणी रहे. इसके बावजूद फिलीपींस में महत्वपूर्ण ईडीसीए की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी. इसके आलोचकों का कहना था कि यह समझौता फिलीपींस की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का उल्लंघन करता है, जबकि सरकार का दावा था कि यह समझौता केवल एमडीटी के कार्यान्वयन समझौते से ज़्यादा नहीं था.[15]  इसके बाद जुलाई 2016 में, सुप्रीम कोर्ट ने ईडीसीए को संवैधानिक घोषित कर दिया.[16]

कुलीन वर्गों और राजनीतिक राजवंशों की भूमिका को इस बात से छूट नहीं दी जा सकती है कि कैसे फिलीपींस ने मौजूदा व्यवस्था में देश को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया. यह अनुभव उस मानक धारणा को चुनौती देने वाला है कि राष्ट्रवाद, वैश्विक व्यवस्था को कमज़ोर करता है. 

ईडीसीए के फ़ैसले के समय ही राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते सत्ता में आए थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में बहुत पहले ही यह बात स्पष्ट कर दी थी कि वे अमेरिका से अलग होकर चीन के साथ संबंधों को फिर से मज़बूत करने का इरादा रखते हैं.[17] चीन की धुरी के करीब जाने की उनकी नीति जैसे को तैसा रणनीति के संदर्भ में देखी जा सकती है. इसका कारण यह था कि दुतेर्ते अपने ही देश में जो मादक पदार्थ विरोध अभियान चला रहे थे उसे न केवल अमेरिका बल्कि यूरोपीय संघ और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय की बढ़ती आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था. इन सभी ने जांच में इस बात के सबूत पाए थे कि फिलीपींस में वहां के नागरिकों के ख़िलाफ़ ही मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, लेकिन चीन इस मामले में दुतेर्ते के समर्थन में खड़ा दिखाई दे रहा था. इसी वज़ह से दुतेर्ते ने चीन के साथ एक मज़बूत द्विपक्षीय संबंध बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए थे.[18] इसके अलावा, चीन के साथ घनिष्ठ संबंधों की वज़ह से चीन ने दुतेर्ते के फ्लैगशिप अर्थात महत्वाकांक्षी बिल्ड, बिल्ड, बिल्ड प्रोग्राम का समर्थन करते हुए 2016 में इस प्रोग्राम में 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करने की पेशकश की थी. लेकिन इस निवेश की वज़ह से चीन को ज़्यादा रिटर्न अर्थात प्रतिफल या लाभ नहीं हुआ, क्योंकि दुतेर्ते का कार्यकाल 2022 में समाप्त हो गया था.[19] इसके बावजूद इस निवेश से चीन को एक फ़ायदा हुआ. पहला यह कि अब 2016 के अवार्ड अर्थात मध्यस्थता के फ़ैसले पर दबी आवाज़ में बात होती है. और दूसरा यह कि 2017 में एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस (आसियान) में फिलीपींस की अध्यक्षता के दौरान दक्षिण चीन सागर के बारे में उठाए जाने वाले मुद्दों को हाशिए पर डाल दिया गया था. इसके अलावा, चीनी मिलिशिया अर्थात रक्षक योद्धाओं और फिलिपिनो मछुआरों से जुड़ी समुद्री घटनाओं को कमतर आंका गया. इतना ही नहीं सशस्त्र बलों और फिलीपीन कोस्ट गार्ड (पीसीजी) की गश्त और उपस्थिति को भी सीमित कर दिया गया. जब तक फिलीपीन की स्थिति ऐसी ही बनी रहती है तब तक चीन अनिश्चित काल तक इन लाभों का आनंद उठाने को लेकर आश्वस्त रह सकता है.

दुतेर्ते के कार्यकाल में फिलीपींस और अमेरिका के संबंधों को दिलचस्प ही कहा जाएगा. दुतेर्ते जब दवाओं के महापौर थे तब भी उनकी अमेरिका विरोधी स्थिति हमेशा बहुत मज़बूत और स्पष्ट रही थी. बतौर राष्ट्रपति उनके कार्यकाल में उनके नाटकीय नीतिगत बदलावों को याद रखा जा सकता है: 2020 की शुरूआत में जब फिलीपींस के पुलिस प्रमुख का वीजा रद्द किया गया तो उनकी वीएफए को निरस्त करने की इच्छा से लेकर कोविड-19 महामारी की ऊंचाई पर इस निरस्तीकरण को निलंबित करने और अंत में 2021 के मध्य में अमेरिकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन की मनीला यात्रा के बाद वीएफए के निरस्तीकरण के विचार को ही रद्द करने के फ़ैसले इसमें शामिल हैं. ऐसे में नीति का ढुलमुलपन मार्कोस, जूनियर के नए प्रशासन से की जाने वाली उम्मीदों पर भी सवालिया निशान लगा देता है.

कुल मिलाकर संक्षेप में, कुलीन वर्गों और राजनीतिक राजवंशों की भूमिका को इस बात से छूट नहीं दी जा सकती है कि कैसे फिलीपींस ने मौजूदा व्यवस्था में देश को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया. यह अनुभव उस मानक धारणा को चुनौती देने वाला है कि राष्ट्रवाद, वैश्विक व्यवस्था को कमज़ोर करता है. हालांकि यह धारणा 19वीं शताब्दी में फिलीपीन क्रांति के दौर तक सटीक थी, लेकिन 1946 में मिली आज़ादी के बाद का दौर ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा हैं, जहां स्थानीय कुलीन वर्ग ने राष्ट्रवादी भावनाओं की आड़ में अपने अस्तित्व की सफ़लतापूर्वक रक्षा की थी. इसी कारण राष्ट्रवाद ने अमेरिकी नेतृत्व वाली उदार नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखा. खैर, यह अनुभव निश्चित रूप से फिलीपींस की दृष्टि से अनूठा है, लेकिन औपनिवेशिक काल के बाद बनी वैश्विक स्थिति में भी राष्ट्रवाद की आड़ लेकर अपनी सत्ता को बचाने की कोशिश करने के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं. यह इस बात का संकेत है कि अनेक छोटे देश भले ही अमेरिकी नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहते हैं, लेकिन वे ऐसा उपयोगितावादी कारणों की वज़ह से करते हैं: अर्थात वे मौजूदा व्यवस्था मांगों और आवश्यकताओं को समायोजित कर रहे हैं, क्योंकि वे बदले में इस व्यवस्था में ख़ुद को समायोजित करना चाहते हैं.

 Endnotes

[1] Benedict Anderson, The Spectre of Comparisons: Nationalism, Southeast Asia, and the World (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 2004).

[2] Reynaldo Clemeña Ileto, Pasyon and Revolution: Popular Movements in the Philippines, 1840-1910 (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 1979); Reynaldo Clemeña Ileto, Knowledge and Pacification: On the US Conquest and the Writing of Philippine History (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 2017); Malini Johar Schueller, Campaigns of Knowledge: US Pedagogies of Colonialism and Occupation in the Philippines and Japan (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 2019).

[3] John N. Schumacher, The Propaganda Movement, 1880-1895: The Creation of a Filipino Consciousness, the Making of the Revolution (Manila: Solidaridad, 1973); Cesar Adib Majul, Political and Constitutional Ideas of the Philippine Revolution (Manila: University of the Philippines Press, 1967).

[4] Anderson, The Spectre of Comparisons: Nationalism, Southeast Asia, and the World, 230.

[5] Teodoro A. Agoncillo, The Revolt of the Masses: The story of Bonifacio and the Katipunan (Quezon City: University of the Philippines, 1956); Teodoro A. Agoncillo, Malolos: The Crisis of the Republic (Quezon City: University of the Philippines, 1960); T. M. Kalaw, The Philippine Revolution (Mandaluyong: Jorge B. Vargas Filipiniana Foundation, 1969).

[6] Alfred W. McCoy and Ed C. de Jesus, eds., Philippine Social History: Global Trade and Local Transformations (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 1982).

[7] Frank Hindman Golay, Face of Empire: United States-Philippine Relations, 1898-1946 (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 1997).

[8] Reynaldo Clemeña Ileto, “Knowing America’s Colony: A Hundred Years from the Philippine War,” in Philippine Studies Occasional Papers Series No. 13 (Hawaii: University of Hawaii at Manoa, 1999).

[9] Floro C. Quibuyen, A Nation Aborted: Rizal, American Hegemony, and Philippine Nationalism (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 1999); Michael Cullinane, Ilustrado Politics: Filipino Elite Responses to American Rule, 1898-1908 (Quezon City: Ateneo de Manila University Press, 2003).

[10]  Anderson, The Spectre of Comparisons: Nationalism, Southeast Asia, and the World.

[11] Renato Cruz de Castro, “The Revitalized Philippine-US Security Relations: A Ghost from the Cold War or an Alliance for the 21st Century?,” Asian Survey 43, no. 6 (2003): 971–988.

[12] Deidre Sheehan and David Plott, “A War Grows,” Far Eastern Economic Review, October 11, 2001.

[13] Michael Richardson, “US Allies in Asia Will Support Action, but within Limits They Set,” International Herald Tribune, September 19, 2001; Michael Richardson, “Southeast Asia Bars Help by US Troops in Fighting Terror,” International Herald Tribune, December 14, 2001.

[14] Renato Cruz de Castro, “Philippines Defense Policy in the 21st Century: Autonomous Defense or Back to the Alliance?,” Pacific Affairs 78, no. 3 (2005): 403–422; “Fact Sheet: Announcements Related to the Visit of President Arroyo,” The White House, May 19, 2003.

[15] Supreme Court of the Philippines, “Petition for Certiorari and Prohibition with Prayer for TRO and/or Preliminary Injunction. Bayan et al. vs. Defense Secretary Voltaire Gazmin et al.,” May 2014.

[16] Edu Punay, “SC Rules with Finality: EDCA Constitutional,” Philippine Star, July 27, 2016.

[17] Melina Delkic, “Duterte: Philippines Separating from ‘Discourteous’ US, Turning to China,” ABC News, October 21, 2016.

[18]China: ‘We Understand and Support’ the Philippines’ Drug War,” Business Insider, October 14, 2016; International Criminal CourtReport on Preliminary Examination Activities 2020, December 14, 2020.

[19] Willard Cheng, “Duterte Heads Home from China with $24 Billion Deals,” ABS-CBN News, October 21, 2016; Alvin Camba, “How Duterte Strong-armed Chinese Dam-builders but Weakened Philippine Institutions,” Carnegie Endowment for International Peace, 2021.

चीन

उपरोक्त विचार लेखक के हैं.

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Charmaine Misalucha-Willoughby

Charmaine Misalucha-Willoughby

Charmaine Misalucha-Willoughby is Associate Professor at the Department of International Studies of De La Salle University. She is Senior Editor of Asian Politics and Policy ...

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