वर्ष 2019 की शुरुआत में जम्मू-कश्मीर कैडर के 2010 बैच के आईएएस अफ़सर शाह फ़ैसल ने भारतीय प्रशासनिक सेवा से अपना इस्तीफ़ा भेज दिया. और अभी हाल ही में, अगस्त 2019 में 2012 बैच के एजीएमयूटी कैडर के अधिकारी कन्नन गोपीनाथ ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया. बड़े सरकारी अधिकारियों के इन इस्तीफ़ों की सबसे ताज़ा कड़ी में 2009 बैच के कर्नाटक कैडर के अधिकारी शशिकांत सेंथिल ने इस महीने के आख़िर में ही इस्तीफ़ा दे दिया था. इन सभी इस्तीफ़ों में सबसे ध्यान देने वाली बात ये है कि ये सभी अधिकारी, अपने करियर के ज़्यादा वक़्त बिताने वाले नहीं, बल्कि इन्होंने प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़ने के कमोबेश एक दशक में इसे छोड़ने का फ़ैसला किया.
ऐसा नहीं है कि समय से पहले प्रशासनिक सेवा छोड़ने का फ़ैसला एकदम अजूबी घटना है. पिछले कई बरस के दौरान बहुत से आईएएस अधिकारियों ने स्वैच्छिक रिटायरमेंट लिया था. अक्सर कई अधिकारी, सरकारी सेवा में अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही इसे छोड़ देते आए हैं. इन अधिकारियों के पद छोड़ने की कई वजहें होती हैं. हालाकि, आम तौर पर अब तक ऐसे फ़ैसले सीनियर अधिकारी ही करते आए हैं, जो रिटायरमेंट के क़रीब होते हैं और जिनका इरादा एक नये करियर की शुरुआत करने का होता है. ऐसे स्वैच्छिक सेवा छोड़ने वाले अधिकारी या तो सियासत का दामन थामते हैं या फिर निजी क्षेत्र से जुड़ते आए हैं. वरिष्ठ अधिकारियों के नौकरी छोड़ कर राजनीति के अखाड़े में कूदने पर विवाद भी उठते रहे हैं. कई लोग इसे अनैतिक मानते हैं. उनका कहना है कि इससे हितों का टकराव होता है. अन्य लोगों का मानना है कि सिविल सेवा छोड़कर राजनीति में जाने में कुछ भी ग़लत नहीं है. समय से पहले नौकरी छोड़ना तो असल में एक जोखिम होता है, जो कुछ अधिकारी ही लेने को तैयार होते हैं. वो एक सुरक्षित करियर को अलविदा कहते हैं और सार्वजनिक जीवन की अनिश्चितताओं में गोते लगाते हैं.
शाह फ़ैसल ने भारत सरकार पर रिज़र्व बैंक, सीबीआई और एनआईए जैसी संस्थाओं से खिलवाड़ करने और उनकी गरिमा को ठेस पहुंचाने का भी आरोप लगाया. वहीं, कन्नन को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई पड़ी. उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लोगों को ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी न मिलने’ को अपने नौकरी छोड़ने की वजह बताया.
लेकिन, जिन इस्तीफ़ों का ज़िक्र हम ने शुरू में किया, उनकी ख़बरों ने सुर्ख़ियां बटोरीं. इसका कारण वो वजहें थीं, जो इन अधिकारियों ने समय से पहले नौकरी छोड़ने के लिए गिनाईं. शाह फ़ैसल ने कहा कि उन्होंने आईएएस की नौकरी कश्मीर में लगातार हो रही हत्याओं और भारत में मुसलमानों के साथ बढ़ते अन्याय की वजह से छोड़ी. शाह फ़ैसल ने भारत सरकार पर रिज़र्व बैंक, सीबीआई और एनआईए जैसी संस्थाओं से खिलवाड़ करने और उनकी गरिमा को ठेस पहुंचाने का भी आरोप लगाया. वहीं, कन्नन को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई पड़ी. उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लोगों को ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी न मिलने’ को अपने नौकरी छोड़ने की वजह बताया. कन्नन ने अफ़सोस जताया कि, ‘मैं ने आईएएस की नौकरी इसलिए चुनी थी कि मैं समाज में हाशिये पर धकेल दिए गए उन लोगों की आवाज़ बनूंगा, जिन्हें ख़ामोश कर दिया गया है. लेकिन मेरी ख़ुद की आवाज़ ही दबा दी गई.’ वहीं, सेंथिल देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन से बहुत परेशान थे. उनका कहना था कि, ‘आज जिस तरह हमारे देश की लोकतंत्र की बुनियादी विविधता से खिलवाड़ हो रहा है, वैसा आज से पहले कभी नहीं हुआ था.’ सेंथिल की मानें तो आने वाले दिनों में राष्ट्र की बनावट की बुनियाद को भारी और मुश्किल चुनौती का सामना करना पड़ेगा. ऐसे में बेहतर ये होगा कि वो आईएएस की नौकरी छोड़कर नया जीवन जिएं. क्योंकि सेंथिल के मुताबिक़, ‘अब सब चलता है का समय बीत चुका है.’
हालांकि कन्नन और सेंथिल को अभी भी अपने आगे की योजना के बारे में सोचा है, लेकिन कन्नन चाहते हैं कि वो, ‘लोगों से जुड़े रहें.’ इन दोनों ही पूर्व अधिकारियों ने राजनीतिक गोता लगाने से इनकार नहीं किया है. हालांकि, ये बिल्कुल स्पष्ट है कि दोनों अब नौकरी पर आधारित करियर के विकल्प पर ग़ौर नहीं कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ़, शाह फ़ैसल ने अपने भविष्य की तस्वीर एकदम साफ़ कर रखी है और उन्होंने राजनीति के मैदान में ज़ोर-आजमाइश का मन पूरी तरह से बना लिया है. अपनी राजनीतिक पार्टी, ‘जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट’ की शुरुआत के वक़्त फ़ैसल ने कहा कि, ‘मैं जम्मू-कश्मीर के उन लोगों का स्वागत करता हू जो इस रैली में शामिल होने आए हैं. पहले तो मैंने सोचा था कि मैं किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी का दामन थामूंगा, लेकिन मेरे प्रति उनका रुख़ बहुत नकारात्मक था. तो, मैने फ़ैसला किया कि मैं अपनी ख़ुद की राजनीतिक पार्टी बनाऊंगा. जो कश्मीर घाटी के युवाओं के लिए एक नए मंच का काम करेगी.’
अब सरकार अधिकारियों की भर्ती के बजाय लैटेरल एंट्री के माध्यम से क़ाबिल लोगों को प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा बना रही है. ऐसे में अनुभवी लोगों के सरकारी तंत्र में शामिल होने से, इन अधिकारियों के इस्तीफ़े से ख़ाली जगह को आसानी से भरा जा सकेगा.
सवाल ये है कि आख़िर आईएएस अधिकारियों के इन इस्तीफ़ों किस नज़रिए से देखा जाना चाहिए? अगर कोई ये समझता है कि सिविल सेवा से इस्तीफ़े का मतलब राजनीति के मैदान में प्रवेश है, तो इन इस्तीफ़ों का मतलब एक सकारात्मक पहल है. इस में कोई दो राय नहीं है कि आज हमारी राजनीति को जनहित की योजनाओं की समझ रखने वाले ज़्यादा क़ाबिल लोगों की ज़रूरत है. सिविल सेवा में क़रीब दस साल काम करने के बाद इन अधिकारियों को इतना तजुर्बा तो हो ही गया होगा, जिससे वो जनसेवा के अपने मिशन की बुनियाद रख सकते हैं. चूंकि आज की तारीख़ में बहुत से राजनीतिक दल बिखराव के शिकार हैं, और मौजूदा सत्ताधारी दल का विजय रथ आगे ही बढ़ता चला जा रहा है. ऐसे में राजनीति में इन नए लोगों के दाख़िल होने से विपक्ष को वो ताक़त मिलेगी, जिसकी उसे शिद्दत से तलाश है और सत्ताधारी दल के मुक़ाबले के लिए विपक्ष को संतुलन का मौक़ा भी मिलेगा, ताकि हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का बैलेंस बना रहे. ऐसे में आईएएस अधिकारियों की घटती तादाद सरकार के लिए फ़िक्र की बात नहीं होनी चाहिए. क्योंकि अब सरकार अधिकारियों की भर्ती के बजाय लैटेरल एंट्री के माध्यम से क़ाबिल लोगों को प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा बना रही है. ऐसे में अनुभवी लोगों के सरकारी तंत्र में शामिल होने से, इन अधिकारियों के इस्तीफ़े से ख़ाली जगह को आसानी से भरा जा सकेगा.
और जहां तक इन अधिकारियों की इस सोच का सवाल है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्यों में कमी आ रही है, तो ये उनकी निजी राय है. अगर किसी को उनके इस ख़याल से नाइत्तेफ़ाक़ी भी है, तो भी अगर कोई निजी कारण से सिविल सेवा से इस्तीफ़ा देता है, तो इस बात पर उससे झगड़ने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन, इस्तीफ़ा देने वाले आईएएस अधिकारियों में से एक का ये कहना कि उसकी आवाज़ प्रशासनिक व्यवस्था ने दबा दी थी, और उसके पास अपनी बात खुल कर कहने का मौक़ा नहीं था. इस अधिकारी का ये बयान दिखावटी लगता है, क्योंकि इस बात का अंदाज़ा तो उसे सिविल सेवा में शामिल होने से पहले से ही रहा होगा. ये सब को मालूम है कि जब भी कोई किसी संगठन में शामिल होता है, तो भले ही वो एक सियासी दल हो या सिविल सेवा या फिर कोई निजी कंपनी, तो उस व्यक्ति को संगठन की मर्यादाओं और सीमाओं के हिसाब से ही अपनी राय व्यक्त करने की आज़ादी मिलती है. ऐसे में कोई किसी संगठन से जुड़ने के बाद सार्वजनिक रूप से अपने निजी विचार व्यक्त करने के लिए आज़ाद नहीं होता. संस्थागत अनुशासन की मांग ये होती है कि कोई भी सदस्य व्यवस्था का हिस्सा होकर उसकी आलोचना नहीं कर सकता. अगर ऐसा अनुशासन न हो, तो कोई भी संगठन काम नहीं कर सकता है.
जब कोई भी देश आतंकवाद के दिनों-दिन बढ़ते ख़तरे से निपट रहा हो, तो तरक़्क़ीपसंद, लोकतांत्रिक प्रशासन को नियमित रूप से झटके लगते हैं. क्योंकि,मुश्किल हालात में देश की सुरक्षा सर्वोपरि होती है. हमें देश हित में कुछ नागरिक अधिकारों को सीमित करने की क़ीमत चुकानी पड़ती है.
इन सभी इस्तीफ़ों में एक और बात जो एक सी है, वो ये है कि इन सभी अधिकारियों ने देश में लोकतंत्र पर मंडरा रहे ख़तरे को लेकर चिंता जताई है. इन अधिकारियों की चिंता एक ख़ास केंद्र शासित प्रदेश में नागरिक अधिकारों को कुछ समय के लिए सीमित करने को लेकर है. ये एक सार्वभौम सत्य है कि असाधारण परिस्थितियों में असामान्य क़दम उठाने पड़ते हैं. इतिहास में इस बात की कोई मिसाल नहीं मिलती है कि असाधारण परिस्थितियों से और लोकतांत्रिक अधिकार देकर निपटा जाता हो. जब कोई भी देश आतंकवाद के दिनों-दिन बढ़ते ख़तरे से निपट रहा हो, तो तरक़्क़ीपसंद, लोकतांत्रिक प्रशासन को नियमित रूप से झटके लगते हैं. क्योंकि,मुश्किल हालात में देश की सुरक्षा सर्वोपरि होती है. हमें देश हित में कुछ नागरिक अधिकारों को सीमित करने की क़ीमत चुकानी पड़ती है. आतंकवादी हमले जब भी और जहां भी होते हैं, तब उन्हें दबाने के लिए सरकारों द्वारा सख़्त क़ानून बनाए जाते हैं और सरकार अपनी सत्ता का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करती है. हालात से निपटने के लिए सुरक्षा एजेंसियों को और अधिकार दिए जाते हैं. इसकी मिसाल हमें अमेरिका और फ्रांस से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक देखने को मिलती है. एक मानवाधिकार संगठन फ्रीडम हाउस की ‘द सिविल लिबर्टीज़ इम्पिलकेशन्स ऑफ़ काउंटरटेररिज़्म पॉलिसीज़’ नाम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि, ‘पूरे यूरोप में सरकारों ने आतंकवादी हमलों के ख़तरों से निपटने के लिए आतंकवाद निरोधक क़ानून सख़्त किए हैं, सरकार के निगरानी के अधिकारों का दायरा बढ़ाया है, अप्रवासियों को पनाह देने और आने की प्रक्रिया को सख़्त बनाया है, और उन अवैध अप्रवासियों को वापस उनके देश भेजने पर कभी बातों से और कभी कार्रवाई से ज़ोर दिया है, जिनके ऊपर आतंकवादी गतिविधियों का समर्थन का शक होता है.’ सरकारों ने ऐसा क़दम इसलिए उठाया है, ताकि किसी भी अव्यवस्था को फैलने से रोका जा सके. अब ये देखने वाली बात है कि सरकारों ने इनकी आड़ में अपने अधिकारों में बेतरह इज़ाफ़ा तो नहीं कर लिया है.
ऐसे हालात से बचने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओँ में मीडिया और न्यायपालिका जैसे अंकुश मौजूद होते हैं. मीडिया को लगातार सरकार से ऐसी नीतियों के असर को लेकर सख़्त सवाल करते रहने चाहिए. साथ ही उन्हें किसी व्यक्ति या संगठन से नाइंसाफ़ी की घटनाओं को ज़ोर-शोर से उजागर करते रहना चाहिए. इसके अलावा मीडिया को सरकार द्वारा उठाए गए क़दमों के प्रभाव की समीक्षा भी करते रहनी चाहिए. वहीं, न्यायपालिका सरकार के बनाए क़ानूनों की समीक्षा करती है. सरकार के उठाए हुए क़दमों की न्यायिकता की पड़ताल करती है. फिर न्यायपालिका या तो उन्हें न्यायसंगत बताती है. या फिर उन्हें क़ानून के दायरे से बाहर पाने पर सीमित करती है. लोकतंत्र के ये दोनों ही माध्यम हमारे देश में बहुत मज़बूत मालूम होते हैं. इससे हमारे देश के लोकतंत्र की मज़बूती का पता चलता है.
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