आख़िरकार वह घड़ी आ गई है. यूनाइटेड स्टेट्स द्वारा उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने के लगभग दो दशक बाद, तालिबान ने वाशिंगटन समर्थित अफ़ग़ान सरकार के साथ आमने-सामने बैठकर बातचीत शुरू की है, जो उम्मीद की जानी चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान में शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व का रास्ता निकाल सकती है. क़तर की राजधानी दोहा में बातचीत के लम्हे, जहां तालिबान का एक राजनीतिक कार्यालय है, तालिबान की दशकों चलीं हत्याओं, लूट और दहशत के बाद आए हैं. पूरी तरह साफ़ कर देना चाहिए कि, इस्लामी-आतंकवादी संगठन के रूप में तालिबान बदला नहीं है. वे अभी भी बंदूक की ताक़त पर यक़ीन रखते हैं, कि महिलाएं द्वितीय श्रेणी की नागरिक हैं और यह कि इस्लामी क़ानून और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक सिद्धांत अफ़ग़ानिस्तान के लिए सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं. हालांकि, जहां तालिबान ने बदलाव और कायांतरण दिखाया वह उनकी राजनीतिक रणनीति है कि वे इसे कैसे हासिल करने की योजना रखते हैं.
तालिबान की रणनीति का पहला तत्व अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अफ़ग़ानिस्तान के लोगों दोनों के लिए अपनी वैधता और ताक़त का प्रदर्शन करना है. यह उन्होंने दो तरीकों से किया है: वाशिंगटन के साथ अपनी नज़दीकी दिखाकर और हमलों के हिंसक अभियान द्वारा. तालिबान ने 29 फ़रवरी को अमेरिका के साथ काबुल और दुनिया के बाकी हिस्सों को दिखाने का मौक़ा नहीं गंवाया है कि ‘अफ़ग़ानिस्तान में शांति लाने के लिए समझौते’ पर दस्तख़त करके, उन्हें स्पष्ट वैधता प्रदान की गई है जो पहले उनके पास नहीं थी.
तालिबान ने 29 फ़रवरी को अमेरिका के साथ काबुल और दुनिया के बाकी हिस्सों को दिखाने का मौक़ा नहीं गंवाया है कि ‘अफ़ग़ानिस्तान में शांति लाने के लिए समझौते’ पर दस्तख़त करके, उन्हें स्पष्ट वैधता प्रदान की गई है जो पहले उनके पास नहीं थी.
अगस्त के शुरू में अमेरिका के कोई बयान जारी करने से पहले ही तालिबान ने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर तालिबान के उपनेता मुल्ला बिरादर और अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ के बीच एक वीडियो कॉल की तस्वीर जारी की. इससे तालिबान को अमेरिका के साथ अपनी नज़दीकी दिखाने में मदद मिली; इस तथ्य को दर्शाते हुए कि भले ही काबुल उनकी गतिविधियों को तिरस्कार से देखता है, उनकी वाशिंगटन तक सीधी पहुंच है, जो काबुल सरकार का सहयोगी माना जाता है. इसने तालिबान को अपने संगठन को एक संदेश भेजने में भी मदद की, कि जो कुछ भी चल रहा है हालात बातचीत करने वाली टीम के नियंत्रण में हैं और वह अपनी मांगों को सीधे अमेरिका के सामने रखेगा.
बातचीत से पहले संघर्ष विराम पर सहमत नहीं होने और देश भर में हमले जारी रखते हुए तालिबान ने हिंसा का इस्तेमाल सरकार पर दबाव बनाने के एक उपाय के रूप में किया है. अमेरिका के साथ अपने समझौते के फ़ौरन बाद, तालिबान ने अफ़ग़ान बलों के ख़िलाफ फिर से हमले शुरू कर दिए. हालांकि उन्होंने अमेरिकी सेनाओं को बख्शा हुआ है, वे बेदर्दी से सरकारी अधिकारियों, राजनेताओं, बातचीत करने वाली टीम के सदस्यों और अफ़ग़ान सैन्य बलों के पीछे पड़े हैं. तालिबान और काबुल के बीच बातचीत में देरी और दोनों पक्षों के कै़दियों की वापसी पर दोनों तरफ़ से असहमति के साथ, तालिबानी हिंसा की श्रृंखला सड़क किनारे बम धमाके, चेक पोस्ट पर धावा, सेना के शिविरों में घुसपैठ के साथ घातक चरण में पहुंच गई है और देश भर में क़हर मचा दिया है. यह तालिबान की सोच को दर्शाता है कि हिंसा और क्रूरता के अपने प्रदर्शन से वो सरकार को डराकर बात करने के लिए मजबूर कर सकते हैं. दोहा में बातचीत में शामिल होने के साथ तालिबान की योजना तुलनात्मक क्षमता की स्थिति से शुरू करना था: वाशिंगटन के दस्तख़त वाला वापसी का एक समझौता, वाशिंगटन समर्थित शांति वार्ता और अगर काबुल सरकार उनकी बात नहीं मानती है तो लड़ाकों की सेना तबाही बरपा सकती है.
अमेरिका के साथ अपने समझौते के फ़ौरन बाद, तालिबान ने अफ़ग़ान बलों के ख़िलाफ फिर से हमले शुरू कर दिए. हालांकि उन्होंने अमेरिकी सेनाओं को बख्शा हुआ है, वे बेदर्दी से सरकारी अधिकारियों, राजनेताओं, बातचीत करने वाली टीम के सदस्यों और अफ़ग़ान सैन्य बलों के पीछे पड़े हैं.
तालिबान की राजनीतिक रणनीति का दूसरा तत्व काबुल के साथ बातचीत का नेतृत्व करने के लिए एक नई वार्ता टीम नियुक्त करना था. नई 21सदस्यीय टीम उस गंभीरता को दर्शाती है, जिसके साथ तालिबान बातचीत कर रहे हैं, क्योंकि इसके ज़्यादातर सदस्य तालिबान के अंदर बेहद प्रभावशाली हैं और नेता हिबातुल्लाह अख़ुंदज़ादा के साथ इनके क़रीबी रिश्ते हैं. बातचीत करने वाली टीम के सदस्यों की उम्र 25 से 70 साल के बीच है, और इनमें से कई ने ग्वांटेनामो बे जेल में कै़द काटी है, या पिछली तालिबान सरकार (1996-2001) के विदेश, रक्षा, न्याय, कृषि, धार्मिक शिक्षा, सूचना और संस्कृति विभाग में मंत्री रहे हैं, या विभिन्न प्रांतों के राजदूत और गवर्नर के तौर पर काम किया है. ग्रुप में उनका बड़ा रुतबा और लंबे समय से जुड़ाव को देखते हुए, बातचीत करने वाली तालिबानी टीम बिना किसी का अनुमोदन लिए स्वतंत्र रूप से फ़ैसले ले सकती है, जो नेतृत्व की ख़्वाहिशों को दर्शाता है. अख़ुंदज़ादा और पाकिस्तान के क्वेटा में नेतृत्व परिषद के अनुमोदन की मुहर के साथ, बातचीत करने वाली टीम का स्वरूप दर्शाता है कि गुट काबुल के साथ बातचीत को गंभीरता से ले रहा है, क्योंकि उन्हें पता है कि दशकों के युद्ध के बाद घरेलू और अंतरराष्ट्रीय वैधता और ताक़त हासिल करने में यह उनका सबसे अच्छा दांव है.
तालिबान की रणनीति का तीसरा हिस्सा अफ़ग़ान लोगों को लगातार अपना ‘अलंघनीय दायरे’ या ‘बातचीत से परे’ के मुद्दे याद दिलाना है: देश में “इस्लामी शासन” की उनकी ख़्वाहिश. तालिबान के सदस्यों के पिछले साल के कई बयानों से पता चलता है कि गुट देश में ‘इस्लामी व्यवस्था’ को स्थापित करने पर ज़ोर दे रहा है, जबकि बाकी अस्पष्ट है कि कैसी व्यवस्था होगी और क्या यह राजनीतिक और 2001 के बाद अर्जित लाभ पलट देगी? इस मांग को बार-बार ज़ाहिर करते हुए, गुट यह दिखाना चाहता है कि इस्लामी व्यवस्था ऐसी चीज़ है जिस पर वे कभी समझौता करने को तैयार नहीं होंगे और यह उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है. बातचीत की रणनीति के तौर पर, एक निश्चित बिंदु पर लचीलेपन के अभाव का प्रदर्शन करना एक स्मार्ट तरीका है, जिसका तालिबान अपने पक्ष में फ़ायदा उठाने की उम्मीद करता है. क्या उन्हें अपने एजेंडे में इस ‘बातचीत से परे’ मुद्दे को बदलने या संशोधन करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए. वे काबुल से लेन-देन या समझौत की मांग कर सकते हैं. हालांकि इसकी बहुत संभावना है कि वे इस्लामी शासन की अपनी मांग में बदलाव करेंगे, उनकी इसे लगातार बार-बार दोहराने की रणनीति दिखाती है कि यह इस्लामी मुल्क़ बनाने के लक्ष्य के लिए अधिकतम हासिल करने की उनकी योजना का हिस्सा है.
तालिबान की रणनीति का तीसरा हिस्सा अफ़ग़ान लोगों को लगातार अपना ‘अलंघनीय दायरे’ या ‘बातचीत से परे’ के मुद्दे याद दिलाना है: देश में “इस्लामी शासन” की उनकी ख़्वाहिश. तालिबान के सदस्यों के पिछले साल के कई बयानों से पता चलता है कि गुट देश में ‘इस्लामी व्यवस्था’ को स्थापित करने पर ज़ोर दे रहा है
जबकि बातचीत शुरू हो चुकी है और अफ़ग़ान सांसें थामे इंतजार कर रहे हैं— अफ़गानिस्तान का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है. हालांकि, कई कदम हैं जिन्हें मौजूदा गतिरोध से पहले उठाने की ज़रूरत है, ताकि समझौता वार्ता कामयाब हो सके, उम्मीद की किरण यह है कि तीनों पक्षों पर लड़ाई की थकान हावी है. अमेरिका निकलने को तैयार है, काबुल सरकार और यह जिन लोगों की नुमाइंदगी करती है वे शांति के लिए उम्मीद लगाए हैं और तालिबान ख़ुद को एक वैध राजनीतिक इकाई के रूप में दिखाने के लिए उतावले हैं. हालांकि अभी भी खेल ख़राब करने वालों के लिए काफ़ी संभावनाएं हैं, मौजूदा बातचीत देश में स्थायी शांति कायम करने का सबसे अच्छा मौक़ा है. हालांकि अफ़ग़ान सरकार और तालिबान दोनों को धक्का लग सकता है और रियायतें देने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है, लेकिन तालिबान की दोहा में जाने की योजना अफ़ग़ान युद्ध के दुर्भाग्यपूर्ण सच पर रौशनी डालती है. तालिबान की राजनीतिक रणनीति ने यह सुनिश्चित किया है कि उन्होंने एक महाशक्ति को थका दिया है, और अब उनकी सुसंगत राजनीतिक दृष्टि (अगर वो कोई रखते हैं) का प्रदर्शन इसकी गारंटी होगी कि वे उन्हें उखाड़ भी फेंकेंगे.
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