सार
जलवायु नीति में एक आदर्श बदलाव हो रहा है. कार्बन उत्सर्जन से निपटने के लिए पूरी तरह से सख़्ती बरतने के बजाए, राष्ट्रीय सरकारों ने क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी विस्तार करने को महत्व देना शुरू किया है. अमेरिका के इनफ्लेशन रिडक्शन एक्ट और भारत के उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन जैसे प्रयास जलवायु संकट को एक साथ एड्रेस करने के साथ-साथ आर्थिक और भू-राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सब्सिडी का इस्तेमाल करने में बढ़ती सुविधाओं को रेखांकित करते हैं. इन प्रोत्साहनों से फॉसिल फ्यूल से होने वाले बदलाव को बढ़ावा देने के लिए नैसेंट क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी की लागत कम होने की उम्मीद है. हालांकि वैश्विक सहयोग और समन्वय के बिना इस सब्सिडी के कम होने का जोख़िम बना रहता है जहां (1) क्लीन एनर्जी इन्वेस्टमेंट और तकनीक़ी क्षमता उच्च आय वाले देशों में इकट्ठा होने लगेगी जो सबसे अधिक सब्सिडी प्रदान करने में सक्षम है और (2) कई देश भविष्य में अधिनियम बनाकर क्लीन एनर्जी फाइनेंस और टेक्नोलॉजी के प्रवाह को रोकने के लिए निर्यात प्रतिबंध या टैरिफ जैसी बाधाएं खड़ी कर सकते हैं. इस तरह का तनाव एनर्जी ट्रांजिशन को ख़तरे में डाल सकता है, ख़ासकर उन विकासशील देशों के लिए जिन्हें जलवायु वित्त और तकनीक़ी सहायता की सबसे अधिक आवश्यकता है. नतीज़तन, कम लागत वाली स्वच्छ ऊर्जा न केवल विकासशील देशों तक पहुंचने में विफल हो सकती है बल्कि औद्योगिक और तकनीक़ी क्षमता में मौज़ूदा वैश्विक असमानताओं को और बढ़ा सकती है.
जी20 इस चुनौती के पायलट सॉल्यूशन के लिए एक अधिक फ्लेक्सिबल प्लेटफॉर्म (लचीला मंच) प्रदान करता है. इस चुनौती से निपटने के लिए जी20 को तकनीक़ी जानकारी साझा करने और स्वच्छ ऊर्जा को फाइनेंस करने के लिए एक व्यापार, विकास और क्लाइमेट वर्किंग ग्रुप और एसीसीईएलईआरएटीई (आर्थिक एडवांसिंग क्लीन एनर्जी, कोलैबोरेशन एंड ट्रेड फॉर इकोनॉमिक रिकवरी एंड ट्रांसफॉर्मेशन) मंच स्थापित करना चाहिए. मध्यम और दीर्घकालिक समाधान की दिशा में एक कदम के रूप में, इन प्रयासों में विकसित और विकासशील दोनों देशों के लिए काफी ख़ास भूमिकाएं होंगी.
चुनौतियां
जलवायु नीति को लेकर दुनिया भर में बदलाव हो रहे हैं. पहले कई देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए सख़्ती का इस्तेमाल किया जाता था. जिसमें कानूनी रूप से बाध्यकारी उत्सर्जन लक्ष्य हासिल करना, रेग्युलेशन और पेनाल्टी के साथ-साथ क्लाइमेट एक्शन में तेज़ी लाने के लिए कार्बन पर विभिन्न क़ीमतें शामिल होती थीं. लेकिन क्योटो प्रोटोकॉल जैसे समझौते से इस तरह की सख़्ती में कमी के दृष्टिकोण को सामने लाया है. टॉप-डाउन समझौते ने विकासशील और विकसित देशों के बीच अंतर किया जिसके तहत उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित किए गए और हस्ताक्षरकर्ता देशों के बाद के समूह को कानूनी रूप से उन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बाध्य किया गया [1]. हालांकि क्योटो के बाद से, जिसमें अमेरिका और चीन शामिल नहीं हैं, दुनिया वैश्विक तापमान वृद्धि को कम करने के लिए पर्याप्त मात्रा में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाने में नाकाम रही है. हालत ये है कि अब देश अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए मुख्य रूप से फॉसिल फ्यूल को विस्थापित करने के लिए कम कार्बन टेक्नोलॉजी को सब्सिडी के रूप में प्रोत्साहन के तौर पर इस्तेमाल कर रही है. पेरिस समझौते ने क्लाइमेट एक्शन के लिए नीचे से ऊपर तक राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के साथ इस बदलाव की शुरुआत का संकेत दिया है. पेरिस समझौते के बॉटम-अप एनडीसी के तहत कई देशों ने घरेलू रूप से व्यवहार्य जलवायु रणनीतियों को चुना जिसमें इस "अतिरिक्त" मानसिकता को तेजी से शामिल किया गया. [2] महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत, अमेरिका और अन्य देशों ने नौकरियां पैदा करने और मैन्युफैक्चरिंग निर्माण सहित अन्य आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इस सब्सिडी-आधारित दृष्टिकोण का लाभ उठाया है.
अमेरिका का इनफ्लेशन रिडक्शन एक्ट (आईआरए) ग्रीन सब्सिडी और औद्योगिक नीति के साथ राष्ट्रीय सरकारों की बढ़ती सहूलियत का सबसे ताज़ा उदाहरण है [3] . ग्रीन सब्सिडी सौम्य घरेलू नीतियों से हटकर उन उपकरणों की ओर ऊर्जा परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से आई है, जिनका अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. कई देशों के लिए टिकाऊ, महत्वाकांक्षी जलवायु नीति तैयार करने के लिए संभवतः सब्सिडी, टैरिफ और नियमों के मिश्रण की आवश्यकता होगी जिसकी अनुमति मौज़ूदा व्यापार नियम नहीं देते हैं. क़रीबी सहयोगियों सहित कई देश, उत्सर्जन कम करने वाली टेक्नोलॉजी के बढ़ते वैश्विक बाज़ार में एक-दूसरे को प्रतिस्पर्धी के रूप में देखते हैं. आईआरए के संरक्षणवादी प्रावधानों ने अपने निकटतम साझेदारों और सहयोगियों के साथ अमेरिका के संबंधों को काफी तनावपूर्ण बना दिया है [4] . आईआरए को लेकर अमेरिका और यूरोपीय संघ (ईयू), जापान और दक्षिण कोरिया के बीच ट्रेड फ्रिक्शन, आने वाले दशक में ग्रीन ट्रेड टेंशन से केवल शुरुआती बचाव हो सकता है.
कुछ देश पहले से ही इसका अनुसरण कर रहे हैं. जलवायु संकट से निपटने और आर्थिक और भू-राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ग्रीन इंडस्ट्रियल पॉलिसी की ओर रुख़ कर रहे हैं. उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ और कनाडा ने स्वच्छ ऊर्जा सब्सिडी और प्रोत्साहन के अपने पैकेज की घोषणा की है. [5] विकसित देशों के बीच मौज़ूदा तनाव इसकी तुलना में फीका पड़ सकता है कि कैसे हरित औद्योगिक नीतियां विकसित और विकासशील दुनिया के बीच विभाजन को बढ़ा सकती हैं. निश्चित रूप से ग्रीन सब्सिडी से नैसेंट क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी की लागत कम होने की उम्मीद है लेकिन ये लाभ विकासशील देशों तक पहुंचने में वक्त लगेगा, ख़ासकर बढ़ते जलवायु संकट के मुक़ाबले में. सोर्सिंग आवश्यकताएं और घरेलू मैन्युफैक्चरिंग लक्ष्य क्लाइमेट एक्शन को राजनीतिक रूप से टिकाऊ बनाने में मदद करते हैं लेकिन अनुवर्ती नीतियों के बिना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को यह हतोत्साहित करते हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुक़सान समेत क्लाइमेट फाइनेंस में वृद्धि के लिए विकासशील देशों के आह्वान को देखते हुए यह चिंता और भी बढ़ गई है, जिसे कॉप 27 बैठक के दौरान बढ़ावा दिया गया.
जलवायु पर जी20 का काम लगातार आवश्यक होता जा रहा है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय जलवायु एज़ेंडा सहयोगात्मक के बजाय प्रतिस्पर्द्धी होता जा रहा है. सहयोग के अभाव में, सबसे अधिक ग्रीन सब्सिडी देने में सक्षम धनी देश स्वच्छ ऊर्जा निवेश और तकनीक़ी क्षमता इकट्ठा करने में जुटे हैं. ओईसीडी देश स्वच्छ ऊर्जा में गैर-ओईसीडी देशों से 5 से 20,000 गुना अधिक ख़र्च करते हैं, जिसमें अमेरिका का दबदबा है और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भारत और चीन उल्लेखनीय अपवाद हैं (चित्र 1 देखें). [6] प्रतिस्पर्धा करने के लिए फिस्कल लैटिट्यूड के बिना विकासशील देश क्लीन एनर्जी वैल्यू चेन को बढ़ावा देने के लिए क्लीन एनर्जी एक्सपोर्ट पर टैरिफ़ या कच्चे माल पर निर्यात प्रतिबंध जैसी व्यापार बाधाएं लागू कर सकते हैं. सबसे ख़राब स्थिति विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में पारस्परिक विवाद और एक व्यापार युद्ध है जो ग्लोबल क्लीन एनर्जी वैल्यू चेन को बर्बाद कर देगा और क्लाइमेट एक्शन की रफ़्तार को धीमा कर देगा. अगर संरक्षणवाद की गति यूं ही जारी रहती है तो जी20 देश घरेलू उत्पादकों के पक्ष में बंटे हुए बाज़ारों में जा सकते हैं, जिससे वैश्विक डीकार्बोनाइजेशन और अधिक कठिन हो जाएगा. ये तनाव एनर्जी ट्रांजिशन को ख़तरे में डाल सकता है, विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए जहां सबसे अधिक उत्सर्जन वृद्धि की उम्मीद है और जलवायु वित्त और तकनीक़ी सहायता की सबसे बड़ी आवश्यकता है. क्योंकि इससे औद्योगिक और तकनीक़ी क्षमता में मौज़ूदा वैश्विक असमानताओं को भी बढ़ावा देने का जोख़िम बढ़ सकता है.
चित्र 1: राष्ट्रीय सरकारों द्वारा क्लीन एनर्जी स्पेंडिंग
नोट: क्लीन एनर्जी सब्सिडी और समर्थन पर सरकारी ख़र्च में अमीर देशों का दबदबा है. वर्तमान में लागू वार्षिक और बहुवर्षीय समर्थन शामिल है. बॉक्स का क्षेत्रफल व्यय के समानुपाती होता है.
स्रोत: अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी [7]
जी20 की भूमिका
बहुपक्षीय जलवायु संदर्भ में जी20 की काफी अहम भूमिका है. फोरम के सदस्यों में दुनिया के 20 सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों में से 19 शामिल हैं. [8] जी20 विकसित और विकासशील दोनों अर्थव्यवस्थाओं, प्रमुख तेल और गैस उत्पादकों और उपभोक्ताओं के साथ क्लीन ग्लोबल एनर्जी इनोवेशन और तैनाती के प्रमुख फाइनेंसरों को अपील करता है. क्लीन एनर्जी मिनिस्टीरियल, जो क्लीन एनर्जी ट्रांजिशन में तेजी लाने के लिए दुनिया के सबसे बड़े और अग्रणी देशों और स्टेकहोल्डर्स को कॉल करता है वह जी20 सम्मेलनों के समानांतर भी चलता है. [9]
हालांकि, पिछले जी20 सम्मेलनों ने आम तौर पर क्लाइमेट एक्शन पर आम सहमति बनाने के कठिन काम को दरकिनार कर दिया है - विशेष रूप से जी7 की तुलना में, जिसमें फॉसिल फ्यूल सब्सिडी और विदेशी फॉसिल फ्यूल फाइनेंस को चरणबद्ध तरीक़े से समाप्त करने पर समझौते तैयार किए हैं, और औद्योगिक डीकार्बोनाइजेशन के लिए एक क्लब का प्रस्ताव रखा है. [10] विशेष रूप से उत्सर्जन को चरणबद्ध तरीक़े से कम करने पर विकसित और विकासशील देशों के बीच अलग-अलग विचारों को देखते हुए पार्टियों के एक बड़े, अधिक विविध समूह के बीच आम सहमति बनाना अधिक कठिन है.
डब्ल्यूटीओ जी20 और गैर-जी20 दोनों सदस्य देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नियमों को नियंत्रित करता है लेकिन यह संस्था जलवायु संकट पर ख़ास प्रतिक्रिया देने में काफी धीमी रही है. एक कॉम्प्रेहेन्सिव एनवायरनमेंट गुड्स एग्रीमेंट की कमी के कारण क्लीन एनर्जी और एनवायरमेंट टेक्नोलॉजी पर शुल्क अपेक्षाकृत अधिक है [11]. इसके अलावा, डब्ल्यूटीओ का नॉन डिस्क्रिमिनेशन का सिद्धांत, जिसके लिए देशों को आयातित वस्तुओं और सेवाओं के साथ घरेलू समकक्षों की तुलना में कम अनुकूल व्यवहार करने की आवश्यकता होती है, उभरती प्रौद्योगिकियों पर ख़र्च को हतोत्साहित करता है जो सरकारी सब्सिडी के बिना व्यवसायीकरण नहीं कर सकते हैं. इंटरनेशनल एटॉमिक एजेंसी (आईईए) के अनुसार, 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने के लिए आवश्यक लगभग आधी प्रौद्योगिकियां अभी तक बाज़ार में नहीं हैं. [12] घरेलू कंपनियों को लाभ पहुंचाने और घरेलू नौकरियां पैदा करने के अवसर के बिना सरकारें संभवतः इतना बड़ा और जोख़िम भरा निवेश नहीं करेंगी.
जी20 के लिए सिफ़ारिशें
-
जलवायु, व्यापार और डेवलपमेंट वर्किंग ग्रुप
डब्ल्यूटीओ सुधार के लिए पर्याप्त तेज़ी आने तक, जी20 एक जलवायु, व्यापार और डेवलपमेंट वर्किंग ग्रुप के साथ इस दिशा में एक मज़बूत और अधिक चुस्त भूमिका निभा सकता है जो विकासशील देशों की ओर रियायती वित्तपोषण और प्रौद्योगिकी सहायता को निर्देशित करता है, जो आने वाले समय में उत्सर्जन में आने वाले दशक में वृद्धि को प्रोत्साहित करेगा.
विशेष रूप से, जी20 को जलवायु-केंद्रित औद्योगिक नीति के लिए व्यापक 'सड़क के नियमों' पर बातचीत करनी चाहिए. यह संरक्षणवादी उपायों के दुष्चक्र में फंसने से बचने के लिए आवश्यक होगा जो डीकार्बोनाइजेशन और क्लीन टेक्नोलॉजी के प्रसार की कलेक्टिव कॉस्ट को बढ़ाते हैं. इसे एक स्थायी जी20 क्लाइमेट, ट्रेड और डेवलपमेंट वर्किंग ग्रुप का निर्माण करना चाहिए जो दुनिया के सबसे बड़े उत्सर्जकों के बीच अध्यक्षता दर अध्यक्षता व्यापार, जलवायु और विकास नीतियों को संरेखित करने के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ाते रहना चाहिए. यह प्रयास एक एज़ेंडा विकसित करके व्यापार, विकास और जलवायु को एक साथ संबोधित करने के वर्तमान अंतरराष्ट्रीय प्रयासों पर आधारित होगा जो तीनों क्षेत्रों के इंटरसेक्शन पर है. (चित्र 2 देखें)
चित्र 2 : जलवायु, व्यापार और विकास को एक साथ संबोधित करने वाले अंतरराष्ट्रीय प्रयास
स्रोत: लेखक का संकलन
यूएस-ईयू ट्रेड एंड टेक्निकल काउंसिल, ईयू-इंडिया ट्रेड एंड टेक्नोलॉजी काउंसिल और इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फोरम सहित अन्य द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मंचों ने इनमें से एक या दो सबसे बड़े मुद्दों से निपटने का प्रयास किया है लेकिन तीनों को एक साथ नहीं, और सार्थक परिवर्तन को प्रभावित करने के लिए अक्सर संस्थागत क्षमता, राजनीतिक स्थिति या कई देशों के सही कॉन्फ़िगरेशन का अभाव होता है [13].
जी20 जलवायु, व्यापार और डेवलपमेंट वर्किंग ग्रुप को एक मंत्री-स्तरीय विज्ञप्ति विकसित करनी चाहिए जो सदस्यों को प्रतिबद्ध करे और घरेलू स्वच्छ ऊर्जा विनिर्माण, तैनाती और इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए स्वीकार्य व्यापार उपकरणों के 'ग्रीन बॉक्स' और डिसकैरेज्ड ट्रेड रेमेडीज के लिए 'रेड बॉक्स' की रूपरेखा तैयार करें. इसके साथ ही विज्ञप्ति में विकसित देशों को अपनी ग्रीन इंडस्ट्रियल पॉलिसी को विकासशील देशों में क्लाइमेट फाइनेंस और टेक्नोलॉजी असिस्टेंस के लिए बढ़े हुए समर्थन के साथ जोड़ने के लिए प्रतिबद्ध किया जाएगा (तालिका 1 देखें).
तालिका 1 : जी20 व्यापार, विकास और जलवायु एज़ेंडा के भीतर विकसित और विकासशील देशों के लिए प्रस्तावित भूमिकाएं
a
Trade Policy |
Developed Countries |
Developing Countries |
Green Subsidies |
The US and other developed countries agree to limit domestic sourcing provisions for green subsidies to emerging, innovative clean technologies that require public support to commercialise.
Developed countries pledge to increase concessional finance and technology assistance to developing countries in the same sectors that they domestically support with green subsidies.
|
Developing countries pledge not to limit or place exceedingly costly tariffs on imports of clean energy technologies from developed countries.
Developing countries agree to abide by a green peace clause, under which all countries refrain from pursuing cases at the WTO against one another.
|
Carbon Border Tariffs |
The EU and other countries that impose carbon border adjustment mechanisms (CBAM) agree to mobilise equivalent flows of concessional finance toward the most impacted countries and mitigate other effects of the tariff. |
Developing countries to work with the EU and other ‘CBAM countries’ to avoid ‘carbon leakage’ and work toward decarbonizing industrial exports. |
Supply Chain Coordination |
Developed countries pledge to help developing countries move up the value chain in emerging clean energy technology supply chains given burgeoning global demand in coming decades. |
Developing countries pledge to not impose export controls on critical raw materials, including critical minerals. |
अगर यह एज़ेंडा सभी पक्षों को मान्य हो जाता है तो व्यापार, जलवायु और विकास के त्रिकोण पर उभर रहे अधिकांश तनाव को दूर कर दिया जाएगा. इसके अलावा, यह जी20 देशों को विकासशील देशों में काम करने के लिए आईआरए जैसे विकसित देशों में घरेलू निवेश करने की राह पर ले जाएगा. इसके अलावा, यह स्वच्छ ऊर्जा तकनीक़ी सहायता और यूएस-भारत रणनीतिक स्वच्छ ऊर्जा साझेदारी जैसे इनोवेशन सपोर्ट के लिए मौज़ूदा द्विपक्षीय प्लेटफार्मों का पूरक होगा, जो ऊर्जा भंडारण, रिन्यूएबल एनर्जी और हाइड्रोजन जैसे कई क्षेत्रों पर केंद्रित है [14].
-
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी से विश्लेषणात्मक सहायता
इस प्रयास का समर्थन करने के लिए जी20 को आईईए के साथ साझेदारी करनी चाहिए, जिसने डीकार्बोनाइजेशन पर आधिकारिक विश्लेषण देने के लिए अपने पारंपरिक ऊर्जा सुरक्षा जनादेश से आगे विस्तार किया है. इससे आगे बढ़ते हुए पोटेन्शियल सप्लाई चेन डिसरप्शन का प्रबंधन करते हुए इनोवेटिव टेक्नोलॉजी को कैसे बढ़ाया जाए, इसकी तकनीक़ी जानकारी वैश्विक डीकार्बोनाइजेशन के लिए आवश्यक होगी. आईईए स्टील और सीमेंट जैसे क्षेत्रों के लिए गहन, सेगमेंट बाय सेगमेंट सप्लाई चेन रोडमैप तैयार करने के लिए अपनी तकनीक़ का विस्तार कर सकता है, जो बताई गई नीतियों और घोषित प्लेज के अनुसार जी20 देशों के बीच सहयोग के क्षेत्रों का विवरण देता है. इसके अलावा, जी7 जलवायु क्लब के सचिवालय की मेजबानी में आईईए की संभावित भूमिका के साथ, जी20, जी20-वाइड वर्किंग ग्रुप विज्ञप्ति की महत्वाकांक्षा से परे विभिन्न जलवायु और व्यापार विषयों पर 'जलवायु क्लब' के निर्माण और विस्तार की सुविधा के लिए आईईए के साथ काम कर सकता है [15] . उदाहरण के लिए जी G20 देशों का एक उपसमूह यूरोपीय संघ के कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट तंत्र पर तनाव के माध्यम से काम करने का विकल्प चुन सकता है, जिसके लिए यूरोप को अमेरिका, भारत और चीन सहित कई अन्य देशों पर टैरिफ लगाने की आवश्यकता होगी. अमेरिका, जापान और यूरोपीय संघ भी इंडोनेशिया को उभरते 'महत्वपूर्ण खनिज क्लब' में शामिल करने की मांग कर सकते हैं, जो आईआरए के सोर्सिंग प्रावधानों से संबंधित चिंताओं के बीच आकार लेना शुरू हो गया है. [16]
ट्रेड फ्लो को पूरक बनाने के लिए अतिरिक्त निवेश को कैटालाइज करने के लिए जी20 आगामी कॉप बैठक में एक इनोवेशन-शेयरिंग, व्यापार पहल शुरू कर सकता है, जिसे एक्सलरेट (एडवांसिंग क्लीन एनर्जी कोलैबोरेशन एंड ट्रेड फॉर इकोनॉमिक रिकवरी एंड ट्रांसफॉर्मेशन) कहा जाएगा. एक्सलरेट प्लेटफ़ॉर्म जी20 देशों के बीच नेट-ज़ीरो-इनेबलिंग टेक्नोलॉजी के प्रदर्शन के लिए सामूहिक रूप से प्रौद्योगिकी सहायता और विदेशी वित्त बढ़ाने की एक पहल होगी. यह मंच सूचना साझा करने और विकासशील देशों की ओर प्रत्यक्ष और पूल वित्त दोनों का एक तरीक़ा होगा.
एक्सलरेट के तहत, यूएस इंटरनेशनल डेवलपमेंट फाइनेंस कॉरपोरेशन और जापान बैंक फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन जैसी विकास वित्त एजेंसियां विकासशील दुनिया में अल्ट्रा-लो उत्सर्जन स्टील और सीमेंट परियोजनाओं को वित्त पोषित कर सकती हैं, जिसमें तकनीक़ी सहायता, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, कम लागत वाला वित्त प्रदान करना और निर्यात के लिए बाज़ार तक पहुंच की गारंटी शामिल है.
ऐसा करने से वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन में कमी लाने का अंतिम लक्ष्य पूरा हो जाएगा, विशेष रूप से उच्च उत्सर्जन वाले उद्योगों के लिए और विकासशील देशों को जलवायु लक्ष्यों को पूरा करते हुए औद्योगीकरण जारी रखने में सहायता मिलेगी. एक्सलरेट आईईए द्वारा प्रदान किए गए रोडमैप के आधार पर परियोजनाओं की योजना बना सकता है. इसके अलावा एक्सलरेट जलवायु, इनोवेशन और व्यापार को लेकर सहकारी एज़ेंडा को आगे बढ़ाने के लिए व्यापार, ऊर्जा और अर्थव्यवस्था मंत्रियों और दूसरे स्टेकहोल्डर्स के बीच मंत्रिस्तरीय आदान-प्रदान के लिए मंच भी प्रदान कर सकता है. यह मंच अतिरिक्त वित्त जुटाने और मौज़ूदा सार्वजनिक और निजी ख़रीद प्रयासों के साथ व्यापार और विकास नीतियों को संरेखित करने के लिए क्लीन एनर्जी मिनिस्टीरियल के तहत संयुक्त राष्ट्र (यूएन) औद्योगिक विकास संगठन द्वारा आयोजित फर्स्ट मूवर्स गठबंधन और औद्योगिक डीप डीकार्बोनाइजेशन पहल पर निर्माण कर सकता है. [17]
निष्कर्ष : मध्यम और दीर्घकालिक रणनीतियों की आवश्यकता
जी20 के लिए बताई गई सिफ़ारिशें ग्लोबल ग्रीन सब्सिडी रेस से कम समय की चुनौतियों का समाधान करने के लिए एक शुरुआती बिंदु हैं. इसलिए, जी20 को उल्लिखित रणनीतियों को मध्यम और दीर्घकालिक समाधानों के साथ जोड़ना चाहिए जो विकासशील देशों को पर्याप्त क्लीन एनर्जी फाइनेंस और संबंधित टेक्नोलॉजी दोनों प्रदान करें. इन समाधानों के पीछे विकसित और विकासशील देशों के बीच पर्याप्त इंटरैक्टिव बायडायरेक्शनल इनोवेशन कोलैबोरेशन होना चाहिए, ना कि विकसित से विकासशील तक निष्क्रिय, यूनिडायरेक्शनल प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का एक मॉडल. [18] पहला विकासशील देशों में बेहतर जलवायु और क्लीन टेक्नोलॉजी इनोवेशन से जुड़ा है. [19] इस इनोवेशन से टिकाऊ क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी कैपेबिलिटी और संबंधित बाज़ार तैयार होने की संभावना है.
मध्यम और लंबी अवधि में, यह स्पष्ट है कि अमीर देशों को विकासशील देशों में क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने के लिए अपनी ग्रीन सब्सिडी के साथ सुसंगत रणनीतियों की आवश्यकता है [20]. जलवायु परिवर्तन पर मौज़ूदा यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) पर निर्भर रहने से जलवायु प्रौद्योगिकी केंद्र और नेटवर्क जैसी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण प्रक्रियाओं के सफल होने की संभावना नहीं है और ना ही अकेले निजी क्षेत्र पर निर्भर रहने से इसके सफल होने की संभावना है. [21] हालांकि, क्या विचार किया जाए और इन नीतियों की संरचना कैसे की जाए, यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है. भविष्य के कदम के रूप में, विकासशील देशों में टेक्नोलॉजी फाइनेंस और विकसित देशों में तैनाती एनडीसी का हिस्सा हो सकती है, जैसे कि कई विकासशील देश एनडीसी के लिए हैं. [22]
विकासशील देशों के लिए क्लीन एनर्जी टेक्नोलॉजी को सक्षम करने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां महत्वपूर्ण हैं. उदाहरण के तौर पर रेग्युलेटरी सर्टेनिटी, प्रोटेक्शन ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स की सुरक्षा और ट्रेड टैरिफ्स में कमी शामिल हैं [23]. हालांकि विकासशील देशों में क्लीन एनर्जी सप्लाई चेन विकसित करने के लिए अकेले एफडीआई नीतियां पर्याप्त नहीं हैं. मानव, शारीरिक और संस्थागत क्षमताएं जैसे अन्य कारक भी इस वृद्धि को प्रभावित करते हैं. [24] नतीज़तन, स्थानीय संदर्भ कई रूप में मायने रखते हैं. कोई एक आकार सभी के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है और विकासशील देशों में ग्रीन इंडस्ट्रियल पॉलिसी कठिन है. [25] इस मामले में जी20 पायलट समाधानों के लिए एक सशक्त और बहुपक्षीय मंच प्रदान करता है. क्योंकि समूह नियमित रूप से नेता और मंत्री स्तर दोनों पर, विकसित और विकासशील दोनों देशों के एक अपेक्षाकृत छोटे समूह को बुलाता है जो अधिकांश ग्लोबल इकोनॉमिक एक्टिविटी और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं, यह पर्याप्त ग्लोबल स्केल प्रदान करते हुए हर देश के लिए अनोखे संदर्भों पर विचार कर सकता है. जी20 में शुरू किए गए प्रयास अधिक देशों के साथ व्यापक यूएनएफसीसीसी तक पहुंच सकते हैं.
Endnotes
[1] United Nations, “Kyoto Protocol to the United Nations Framework Convention on Climate Change,” 1998.
[2] United Nations, “Paris Agreement,” 2015.
[3] “Inflation Reduction Act of 2022,” Pub. L. No. 117- 169 (08/16/2022) (n.d.).; John Bistline, Neil R Mehrotra, and Catherine Wolfram, “Economic Implications of the Climate Provisions of the Inflation Reduction Act,” March 31, 2023.
[4] David Kleimann et al., “How Europe Should Answer the US Inflation Reduction Act” (Brussels: Bruegel, 2023); Shoko Oda and Eric Martin, “US, Japan Strike Deal on Supply of Minerals for EV Batteries,” Bloomberg, March 28, 2023.; Jin Min-Ji “Korea to Continue Negotiations with U.S. over IRA,” Korea JoongAng Daily, April 5, 2023.
[5] European Commission, “A Green Deal Industrial Plan for the Net-Zero Age” (European Commission, February 1, 2023); Steve Scherer and Nia Williams, “Canada Offers C$35 Bln Green Tax Credits but Still Trails Generous US Incentives,” Reuters, March 29, 2023, sec. Sustainable Business.
[6] International Energy Agency, “Government Energy Spending Tracker: Policy Database,” December 9, 2022.
[7] International Energy Agency, “Government Energy Spending Tracker: Policy Database”
[8] World Resources Institute, “CAIT Climate Data Explorer,” 2019.
[9] “Clean Energy Ministerial,” 2023.
[10] International Energy Agency et al., “Joint Report by IEA, OPEC, OECD and World Bank on Fossil-Fuel and Other Energy Subsidies: An Update of the G20 Pittsburgh and Toronto Commitments,” 2011; “G7 Climate, Energy and Environment Ministers’ Communiqué,” May 27, 2022.; “G7 Statement on Climate Club,” June 28, 2022.
[11] William Alan Reinsch, Emily Benson, and Catherine Puga, “Environmental Goods Agreement: A New Frontier or an Old Stalemate?,” CSIS, October 28, 2021.
[12] International Energy Agency, “Net Zero by 2050 – A Roadmap for the Global Energy Sector” (Paris, 2021).
[13] The White House, “FACT SHEET: In Asia, President Biden and a Dozen Indo-Pacific Partners Launch the Indo-Pacific Economic Framework for Prosperity,” The White House, May 23, 2022.; “EU-India: New Trade and Technology Council,” Text, European Commission – European Commission, accessed April 6, 2023.; “U.S.-E.U. Trade and Technology Council (TTC),” United States Trade Representative, accessed April 6, 2023.
[14] U.S. Department of Energy, “U.S.-India Strategic Clean Energy Partnership Ministerial Joint Statement,” Energy.gov, accessed April 6, 2023.
[15] “G7 Statement on Climate Club.”
[16] “Minerals Security Partnership,” IEA, 2022; Owen Minott and Helen Nguyen, “IRA EV Tax Credits: Requirements for Domestic Manufacturing | Bipartisan Policy Center,” accessed April 6, 2023.
[17] “First Movers Coalition,” 2023; “Industrial Deep Decarbonisation Initiative | UNIDO,” accessed April 6, 2023.
[18] Nimisha Pandey, Heleen Coninck, and Ambuj D Sagar, “Beyond Technology Transfer: Innovation Cooperation to Advance Sustainable Development in Developing Countries,” WIREs Energy and Environment 11, no. 2 (March 2022); Miria Pigato et al., Technology Transfer and Innovation for Low-Carbon Development (The World Bank, 2020).
[19] Kyle S. Herman, “Beyond the UNFCCC North-South Divide: How Newly Industrializing Countries Collaborate to Innovate in Climate Technologies,” Journal of Environmental Management 309 (May 2022): 114425.
[20] Silvia Weko and Andreas Goldthau, “Bridging the Low-Carbon Technology Gap? Assessing Energy Initiatives for the Global South,” Energy Policy 169 (October 2022): 113192; Heleen de Coninck and Ambuj Sagar, “Making Sense of Policy for Climate Technology Development and Transfer,” Climate Policy 15, no. 1 (January 2, 2015): 1–11.
[21] Weko and Goldthau, “Bridging the Low-Carbon Technology Gap?”
[22] Pigato et al., Technology Transfer and Innovation for Low-Carbon Development; Weko and Goldthau, “Bridging the Low-Carbon Technology Gap?”
[23] Pigato et al., Technology Transfer and Innovation for Low-Carbon Development; Ann Harrison, Leslie Martin, and Shanthi Nataraj, “Green Industrial Policy in Emerging Markets,” Annual Review of Resource Economics 9 (November 10, 2017).
[24] Pigato et al., Technology Transfer and Innovation for Low-Carbon Development.
[25] Pandey, Coninck, and Sagar, “Beyond Technology Transfer”; Harrison, Martin, and Nataraj, “Green Industrial Policy in Emerging Markets.”
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.