लगता है जैसे शिक्षा से जुड़ा क्षेत्र चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के निशाने पर है. चीन में एजुकेशन सेक्टर के नए नियम–क़ायदों के मुताबिक स्कूल के सिलेबस में शामिल पाठ्य सामग्रियों की पढ़ाई कराने वाली कंपनियों के लिए विदेशी शेयर बाज़ारों में लिस्टिंग की मनाही हो गई है. ऐसी कंपनियों में विदेशी निवेश पर पाबंदी लग गई है और उनके भारी–भरकम मुनाफ़ा कमाने पर भी रोक लगाई गई है. इन नए नियमों के चलते न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड चीन की तीन ऑनलाइन शिक्षा कंपनियां के स्टॉक भाव में 65 प्रतिशत तक की गिरावट आ चुकी है. हाल के वर्षों में वर्चुअल–ट्यूटरिंग का कारोबार चीन में सबसे तेज़ी से बढ़ते सेक्टरों में शुमार हो गया है. आलम ये है कि 2019 के बाद से इस क्षेत्र से 27 इनिशियल पब्लिक ऑफ़रिंग (आईपीओ) आ चुके हैं.
ग़ौरतलब है कि चीन में तमाम तरह के बिज़नेस वेंचरों के ज़रिए अनगिनत उद्यमियों ने ‘bǔkè’ जैसी सामाजिक संस्थाओं में निवेश कर मोटा मुनाफ़ा कमाया है.
स्कूल के बाहर की शिक्षा पर निगरानी
जून में तत्कालीन शिक्षा मंत्री चेन बाओशेंग ने ‘स्कूल के बाहर की शिक्षा’ पर निगरानी रखने के लिए एक नया विभाग गठित करने की घोषणा की थी. ये नया विभाग कोर्स सामग्री के मानक तय करेगा. साथ ही ऑनलाइन और ऑफ़लाइन प्रशिक्षण कार्यक्रमों की समयसीमा भी यही विभाग निर्धारित करेगा. शिक्षकों की योग्यता से जुड़े मापदंड और ट्यूशन फ़ीस के रूप में वसूली जाने वाली रकम के लिए भी यही विभाग नियम क़ायदे बनाएगा. ग़ौरतलब है कि चीन में तमाम तरह के बिज़नेस वेंचरों के ज़रिए अनगिनत उद्यमियों ने ‘bǔkè’ जैसी सामाजिक संस्थाओं में निवेश कर मोटा मुनाफ़ा कमाया है. दरअसल चीन में लंबे समय तक इकलौती संतान वाली नीति अपनाई जाती रही है. इस नीति को हाल में बदला गया है. हालांकि वहां ज़्यादातर माता-पिता के एक ही संतान है. ऐसे अभिभावक अपने बच्चे का स्कूली प्रदर्शन और परीक्षा के अंक सुधारने के लिए उन्हें एक्स्ट्रा स्टडी से जुड़े इन क्लासों में दाखिल कराते हैं. चीन में सीनियर हाई स्कूल और कॉलेजों में दाखिले के लिए होने वाली परीक्षा में प्रतिस्पर्धा बेहद कड़ी है. एक्स्ट्रा क्लास लेने वाली ऐसी कंपनियों के बारे में चीन की सरकारी मीडिया की ख़बरों में भी मोटी फ़ीस वसूले जाने की बात सामने आई है. इस सिलसिले में ज़ुओयेबांग की मिसाल ली जा सकती है. इसका मतलब होता है ‘होमवर्क करने में मदद करना’. ये कंपनी हर महीने अपने 17 करोड़ सब्सक्राइबर्स के लिए ऑनलाइन क्लासों का आयोजन करती है. इस कंपनी से अलीबाबा ग्रुप होल्डिंग एक निवेशक के तौर पर जुड़ा है. चीनी बाज़ार में अपनी कामयाबी से उत्साहित ये कंपनी अमेरिका में 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर का आईपीओ लाने की योजना बना रही थी. चीन के नेता के तौर पर अपने शुरुआती दिनों से ही शी जिनपिंग की नज़र शिक्षा क्षेत्र (ख़ासतौर से ऐसे प्रशिक्षण संगठनों) पर थी. उन्होंने ऐसी गतिविधियों को छात्रों के विकास के लिए ख़तरा बताया था. उनके मुताबिक ऐसे संगठन “स्कूली शिक्षा के रूटीन में रोड़ा डाल सकते हैं” और इनकी वजह से “अभिभावकों पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है.” शी का मानना है कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी निजी कंपनियों से कड़ाई से नियम क़ायदों का पालन करवाया जाना चाहिए. साथ ही उनके हिसाब से इन प्रशिक्षण कंपनियों को कोर्स से इतर या एक्स्ट्रा–करिकुलर गतिविधियों और शौक़िया तौर पर किए जाने वाले क्रियाकलापों में मार्गदर्शन करने से जुड़े प्रयास करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.
हालांकि ये सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि चीन आख़िर सोने के अंडे देने वाली मुर्ग़ी को नुकसान क्यों पहुंचाना चाहता है. ऐसा लगता है कि सीसीपी आर्थिक विकास और अपने सामाजिक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के बीच एक प्रकार का तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही है.
हालांकि ये सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि चीन आख़िर सोने के अंडे देने वाली मुर्ग़ी को नुकसान क्यों पहुंचाना चाहता है. ऐसा लगता है कि सीसीपी आर्थिक विकास और अपने सामाजिक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के बीच एक प्रकार का तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही है.
शिक्षा क्षेत्र पर इस तरह की कड़ाई बरते जाने के पीछे का एक कारण चीन की जनसंख्या से जुड़ा सवाल भी हो सकता है. अपनी विकास यात्रा के शुरुआती दौर में चीन ने पूर्वी एशियाई देशों की तर्ज़ पर निर्यात-आधारित विकास नीति का अनुसरण किया था. निश्चित तौर पर पूर्वी एशियाई देशों ने इस नीति का पालन कर खूब समृद्धि हासिल की. हालांकि महिला शिक्षा पर भारी ज़ोर दिए जाने के कारण वहां परिवारों का आकार छोटा होने लगा. इसने एक “विशेष प्रकार के चक्र” को जन्म दिया. दूसरी तरफ माओत्से तुंग का विचार था कि ज़्यादा से ज़्यादा “लोगों का मतलब ये है कि चीन अधिक मज़बूत होगा”. इस दर्शन ने चीन को ताइवान और दक्षिण कोरिया की तरह स्वैच्छिक परिवार नियोजन योजनाओं का रास्ता अपनाने से रोक रखा था. (चीन और पूर्वी एशिया के बाक़ी हिस्से में ‘जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि दर’ से जुड़ा टेबल नीचे दिया गया है)
1970 के दशक के आख़िर में चीन ने आर्थिक सुधारों का रास्ता अपनाया. तब डेंग शियाओ पिंग ने चीन की तेज़ी से बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने के लिए एक-संतान वाली नीति लागू की थी. अनुमान के मुताबिक उस वक़्त चीन की आबादी क़रीब 97 करोड़ थी. सीसीपी का मानना था कि बढ़ती जनसंख्या के मद्देनज़र एक-संतान वाली नीति सीमित प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी चुनौती को समाप्त कर देगी. साथ ही इससे जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में मदद मिलने का अनुमान लगाया गया था. सीसीपी का ये भी विचार था कि एक संतान वाली नीति लागू हुई तो आर्थिक सुधारों से हासिल मुनाफ़ों का वितरण अपेक्षाकृत सीमित आबादी में होगा. क़रीब तीन दशक बाद चीन ने अपनी एक-संतान वाली नीति को दो-संतानों वाली नीति में बदल दिया. आख़िरकार इस साल चीन ने घोषणा की कि अब किसी भी जोड़े को तीन बच्चे तक पैदा करने की इजाज़त होगी. दरअसल चीन में जनगणना के आंकड़ों से पता चला है कि वहां जन्म दर में गिरावट आती जा रही है. 2020 की जनगणना से पता चला कि चीन की आबादी 2019 में एक अरब 40 करोड़ थी जो 2020 में बढ़कर एक अरब 41 करोड़ 20 लाख हो गई. चीन की प्रजनन दर प्रति महिला 1.3 थी. ग़ौरतलब है कि एक स्थिर जनसंख्या के लिए आवश्यक ‘प्रतिस्थापन दर’ 2.1 होता है. आंकड़ों से ज़ाहिर है कि चीन में प्रजनन दर इससे कहीं नीचे है. सीसीपी को डर है कि घटती श्रम शक्ति से दीर्घकाल में देश के विकास पर विपरीत असर पड़ेगा. बहरहाल किसी जोड़े का परिवार नियोजन से जुड़ा लक्ष्य सदैव सीसीपी के फ़रमानों से मेल नहीं खाता. डेंग ने चीनियों से कहा था कि “अमीर बनना बेहद गर्व की बात है.” जैक मा ने समृद्धि हासिल करने का रहस्य बताते हुए ‘9-9-6’ की संस्कृति अपनाने की वक़ालत की है. इसके तहत पेशेवर लोगों को हफ़्ते में 6 दिन सुबह 9 बजे से रात के 9 बजे तक कड़ी मेहनत करने की सलाह दी गई है. कई युवा पेशेवरों ने इसका अर्थ ये लगाया कि चूंकि ये फ़ॉर्मूला अलीबाबा के संस्थापक के लिए कारगर रहा है, लिहाज़ा उन्हें भी ऐसा ही जीवन सिद्धांत अपनाना चाहिए. हालांकि इस नीति के साथ दिक्कत ये है कि ऐसे जोड़े या तो बच्चे पैदा करने से जुड़ा फ़ैसला टाल देते हैं या फिर बच्चे पैदा ही नहीं करना चाहते. एक ओर चीन जनसंख्या से जुड़ी अपनी नीतियों में ढील दे रहा है तो वहीं चीनी समाज में एक बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा करने में होने वाले खर्चे को लेकर बहस तेज़ हो गई है. मई 2021 में हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि बढ़ते कर्ज़ों और जीवनयापन से संबंधित खर्चों की वजह से ज़्यादा से ज़्यादा चीनी युवा बच्चे पैदा करने से जुड़ा अपना फ़ैसला टालते जा रहे हैं. आर्थिक बोझ तले और अधिक दबने से बचने के लिए उन्होंने यही रास्ता अपनाना बेहतर समझा है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक चीन में एक बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा करने का खर्च तक़रीबन 1.99 मिलियन RMB (लगभग 3 लाख अमेरिकी डॉलर) है. इस समस्या से निपटने के लिए नीतिगत स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं. चीन के सिचुआन प्रांत के शहर पांझिहुआ ने दूसरी या तीसरी संतान वाले परिवारों को ख़ैराती तौर पर आर्थिक मदद देना शुरू कर दिया है. ये अजीब विडंबना है कि इस तरह की मदद देने वाले मुट्ठी भर शहरों में शामिल पांझिहुआ शहर जिस सिचुआन प्रांत में है वो डेंग की जन्मभूमि है. आर्थिक मदद के तौर पर यहां एक परिवार को प्रति संतान 500 RMB की रकम दिए जाने का एलान हुआ है. बच्चे के तीन साल की उम्र पूरी करने तक ये मदद जारी रहेगी. चीन में 15 साल की उम्र तक के बच्चे के लिए शिक्षा मुफ़्त है.
मई 2021 में हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि बढ़ते कर्ज़ों और जीवनयापन से संबंधित खर्चों की वजह से ज़्यादा से ज़्यादा चीनी युवा बच्चे पैदा करने से जुड़ा अपना फ़ैसला टालते जा रहे हैं. आर्थिक बोझ तले और अधिक दबने से बचने के लिए उन्होंने यही रास्ता अपनाना बेहतर समझा है.
शी जिनपिंग के कड़े रुख़ का मकसद
राष्ट्रपति शी जिनपिंग के ताज़ा कड़े रुख़ का मकसद शिक्षा क्षेत्र में अमेरिका की तरह बेहिसाब उपभोक्तावाद के प्रसार की रोकथाम करना है. अमेरिका में शिक्षा की ख़रीद बिक्री का चलन चल पड़ा है. शी चाहते हैं कि कम से कम चीन में शिक्षा मंडी में बिकने वाली चीज़ ना बन जाए. इस कड़ी में वो ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे तकनीकी स्टार्ट अप्स (जो अरबों डॉलर की मिल्कियत होने का दम भरते हैं) बच्चों के भविष्य को लेकर चीनी अभिभावकों की चिंताओं का लाभ उठाकर मुनाफ़ाख़ोरी न करें. दूसरी ओर इससे युवा जोड़ों पर वो बोझ भी कम करने में मदद मिलेगी जिनके चलते वो बच्चे पैदा करने से हिचकते हैं.
शिक्षा क्षेत्र की ओर शी के हालिया झुकाव के पीछे दो और अहम कारकों का योगदान है. दरअसल इन दिनों सीसीपी ने दो वरीयताएं तय कर रखी हैं- ग़रीबी उन्मूलन और राष्ट्रीय सुरक्षा. इस साल सीसीपी अपनी स्थापना का सौवां वर्ष मना रही है. इस मौके पर सीसीपी ने ग़रीबी से “85 करोड़ लोगों को ऊपर उठाने” को अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रदर्शित किया है. बहरहाल आय की विषमता से जुड़ा मुद्दा सीसीपी को परेशान करता रहा है. अक्टूबर 2020 में सीसीपी के अधिवेशन में ये मुद्दा एक बार फिर उभरकर सामने आया. इस सालाना जलसे में सीसीपी के शीर्ष नेता प्रशासन में सुधार के तौर-तरीकों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं. चीन में 1990 के दशक से उच्च शिक्षा का विस्तार किया गया है. वहां हर साल विश्वविद्यालयों में दाखिल किए जाने वाले छात्रों की तादाद करीब 1 करोड़ तक पहुंच गई है. ऑनलाइन एजुकेशन स्टार्ट अप्स की मौजूदा व्यवस्था में उन बच्चों को बढ़त मिल जाती है जिनके मां-बाप अमीर हैं. ये व्यवस्था ग़रीब लोगों पर विपरीत असर डाल रही है. गांवों में रहने वाले वंचित तबकों के छात्र समृद्ध पृष्ठभूमि वाले छात्रों से प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाते हैं. हालात ये हैं कि ग्रामीण छात्रों में से सिर्फ़ 0.3 फ़ीसदी लड़के-लड़कियां ही चीन के टॉप विश्वविद्यालयों के एक प्रतिशत हिस्से से जुड़ पाते हैं. चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौर में शी ने अपनी किशोरावस्था ग्रामीण क्षेत्र में बिताई थी. ज़ाहिर है कि वो देहाती इलाक़ों के छात्र-छात्राओं की दिक्कतों से वाकिफ़ हैं. शायद यही वजह है कि वो शिक्षा को ग़रीबों के लिए हर प्रकार के भेदभाव से मुक्त बनाने के लिए पूरी व्यवस्था को नए सिरे से गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
शी की चाहत है कि देश भर के शिक्षा कैंपस और विश्वविद्यालय उस सिंगहुआ यूनिवर्सिटी के नक्शेक़दम पर चलें जहां से ख़ुद उन्होंने पढ़ाई की थी. वो चाहते हैं कि ये तमाम विश्वविद्यालय सिंगहुआ यूनिवर्सिटी की ही तरह ऐसे छात्र पैदा करें जो ‘साम्यवाद के लाल रंग में रंगे हों और साथ ही अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ’ भी हों.
छात्रों को लाल रंग में रंगने की कोशिश
राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं के मद्देनज़र भी शिक्षा जगत के उद्यमों पर बारीक नज़र रखना ज़रूरी है. शी राष्ट्रीय सुरक्षा को आर्थिक विकास और सामाजिक स्थिरता की बुनियादी ज़रूरत मानते हैं. इन प्रयासों के तहत वो “सीसीपी और देश के क्रियाकलापों के हरेक पहलू” तक विस्तृत रूप से फैला “राष्ट्रीय सुरक्षा ढांचा” खड़ा करना चाहते हैं. शी की चाहत है कि देश भर के शिक्षा कैंपस और विश्वविद्यालय उस सिंगहुआ यूनिवर्सिटी के नक्शेक़दम पर चलें जहां से ख़ुद उन्होंने पढ़ाई की थी. वो चाहते हैं कि ये तमाम विश्वविद्यालय सिंगहुआ यूनिवर्सिटी की ही तरह ऐसे छात्र पैदा करें जो ‘साम्यवाद के लाल रंग में रंगे हों और साथ ही अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ’ भी हों. दरअसल उनकी ख़्वाहिश है कि इन विश्वविद्यालयों से ऐसे लोग बाहर निकलें जो पेशेवर तौर पर काबिल हों और सीसीपी के प्रति व्यक्तिगत आस्था रखते हों. ऐसे में शिक्षा जैसे अहम क्षेत्र में विदेशी पूंजी की मौजूदगी को लेकर सीसीपी की डर की वजहें समझ में आती हैं. सीसीपी को लगता है कि शिक्षा में विदेशी प्रभाव से चीन की अगली पीढ़ी सीसीपी के प्रति शत्रुता रखने वाली ताक़तों के असर में आ जाएगी और युवा पीढ़ी में ऐसी शक्तियों का दबदबा बढ़ जाएगा. सीसीपी का मकसद चाहे जो भी हो, समाज पर लगाम लगाने की उसकी लालसा के अक्सर अप्रत्याशित नतीजे सामने आए हैं. ‘इकलौती संतान’ वाली नीति के परिणामों से ये बात साफ़ हो चुकी है. यहां ये आशंका लाजिमी है कि स्टार्ट-अप्स पर नकेल कसे जाने से क्या सचमुच अभिभावकों को फ़ायदा होगा या इसकी वजह से उनमें अपने बच्चों के लिए निजी तौर पर ट्विटर रखने की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी. अगर ऐसा होता है तो ये उनके लिए और खर्चीला साबित होगा. शिक्षा क्षेत्र में सख्ती पर निवेशकों की विपरीत प्रतिक्रिया देखकर सीसीपी उन्हें फिर से आश्वस्त करने की जुगत में लग गई है. इस सिलसिले में उसने माओ के एक कथन का सहारा लिया है. माओ ने कहा था ‘दूरगामी परिदृश्य पर नज़रें टिकाओ’. दरअसल सीसीपी चाहती है कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोग चीन के बारे में दूरगामी नज़रिया अपनाएं. हालांकि ये बात हमेशा दिमाग़ में रखनी चाहिए कि स्पष्ट नियम-क़ायदों से युक्त और अधिकारों की रक्षा करने वाली ठोस व्यवस्था ही पूंजी को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है. चीन की मौजूदा व्यवस्था में नियम-क़ानून सीसीपी के प्रशासकीय एजेंडे को पूरा करने का महज़ हथकंडा बनकर रह गए हैं. यही तौर-तरीका जारी रहा तो दीर्घकाल में चीन को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा.
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