संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs) जैसी बहुपक्षीय रूप-रेखाओं ने आधुनिक समाज की ज़रूरतों को समझते हुए लैंगिक समानता लाने के लिए एक के बाद एक कई वैश्विक प्रयासों को आगे बढ़ाया है. हालांकि, दफ़्तर में लैंगिक समावेश को लेकर जताई जा रही चिंताएं ये इशारा करती हैं कि आज भी महिलाओं को पुरुषों से कमतर माना जाता है. पुरुषवादी समाजों में सांस्कृतिक और लैंगिक पूर्वाग्रहों जैसे कि लड़कियों और महिलाओं को निचले दर्जे की शिक्षा, महिलाओं के लिए तय रूढ़िवादी भूमिका वित्तीय निरक्षरता के मामले में व्यापक लैंगिक असमानता के कारण पैदा हुई सामाजिक सांस्कृतिक असमानताएं, लैंगिक समावेश की रफ़्तार को धीमा कर देती हैं. विकासशील देशों में तो महिलाओं को और भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है. जिससे लैंगिक इंसाफ़ के लिए आंकड़ों और सांख्यिकी से आगे बढ़कर अध्ययन करने की ज़रूरत महसूस की जा रही है. वैसे तो महिलाओं की साक्षरता दर में काफ़ी वृद्धि हो रही है. लेकिन, कामकाजी वर्ग में उसी अनुपात में महिलाओं को जगह मिलती नहीं दिख रही है. महिला साक्षरता दर जिसे आदर्श रूप से कामकाजी तबक़े में महिलाओं की भागीदारी का समानुपाती होना चाहिए, क्योंकि इसका मतलब होता है कि पढ़े लिखे लोग किस तरह कामकाजी वर्ग में योगदान देते हैं.
पुरुषवादी समाजों में सांस्कृतिक और लैंगिक पूर्वाग्रहों जैसे कि लड़कियों और महिलाओं को निचले दर्जे की शिक्षा, महिलाओं के लिए तय रूढ़िवादी भूमिका वित्तीय निरक्षरता के मामले में व्यापक लैंगिक असमानता के कारण पैदा हुई सामाजिक सांस्कृतिक असमानताएं, लैंगिक समावेश की रफ़्तार को धीमा कर देती हैं.
हालांकि, होता इसके उलट देखा जा रहा है. आज भी कामकाजी तबक़े के बीच वेतन का फ़ासला है. जो महिलाएं वरिष्ठ भूमिकाओं में आगे बढ़ाई जाती हैं, उनकी तादाद पुरुषों की तुलना में बहुत कम है. ऐसे में सामाजिक क़ानूनी नज़रिए का इस्तेमाल करने से हमें न्यायिक व्यवस्थाओं से ऐतिहासिक एवं वर्तमान प्रभावों को समझने में मदद मिलेगी. सामाजिक क़ानूनी दृष्टिकोण हमें किस तरह से उन बाधाओं का विश्लेषण करने में मददगार हो सकते हैं, जिससे बढ़ती साक्षरता दर और कामकाजी वर्ग में घटती भागीदारी की असमानता को बढ़ावा मिल रहा है.
सामाजिक आर्थिक चुनौतियों की पहचान करना
2019 में भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़कर 20 प्रतिशत हो गई थी. लेकिन 2020 में ये फिर से घटकर 18 प्रतिशत रह गई. इससे भारत के कामकाजी तबक़े में महिलाओं और पुरुषों के बीच का अंतर और बढ़ गया, जिसके पूरी तरह पाटने में 132 साल लग जाने का अनुमान है. 2022 में ये फ़ासला 68.1 प्रतिशत था, जिससे पता चलता है कि प्रगति तो हो रही है, मगर इसकी रफ़्तार अपर्याप्त है. ये प्रशासकों और नीति निर्माताओं के लिए भी सचेत हो जाने का वक़्त है कि वो तेज़ी से ज़रूरी क़दम उठाएं जिससे आने वाली पीढ़ियां लैंगिक समानता से लाभ उठा सकें.
सामाजिक मान्यताएं और सोच ही उन अदृश्य बाधाओं को आगे बढ़ाते हैं, जो कामकाज की जगह में लैंगिक समावेश को रोकती हैं. मिसाल के तौर पर हो सकता है कि उनकी प्रतिबद्धताओं को लेकर पहले से बना ली गई सोच के कारण महिलाओं को प्रमोशन न दिया जाए या फिर रोज़गार के मौक़े ही उनके हाथ से निकल जाएं. पुरुषों की तुलना में महिलाओं को यौन उत्पीड़न और असमान वेतन जैसी चुनौतियों की सामना अधिक करना पड़ता है. इसी तरह सामाजिक माहौल के कारण महिलाएं इंपोस्टर सिंड्रोम की शिकार हो सकती हैं जिससे महिलाओं को अपनी क़ाबिलियत पर शक होने लगता है और फिर वो नेतृत्व के वरिष्ठ पदों से दूर होकर ‘आसान’ भूमिकाएं स्वीकार कर लेती हैं. जिन महिलाओं को ऊंचे ओहदे पर बैठने का मौक़ा मिल भी जाता है उन्हें ‘महत्वाकांक्षी होने’, बॉस बनने या दबदबा क़ायम करने वाली महिला का खिताब देने जैसे विरोध का सामना करना पड़ता है.
लैंगिक समावेश का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कामकाज के बोझ में हाथ बंटाना काफ़ी महत्वपूर्ण है और इससे महिलाओं को अपने ख़्वाब पूरे करने की राह खुलती है. इससे आने वाली पीढ़ी को पता चलता है कि अकेले पुरुषों के लिए ही रोज़ी रोटी कमाना और औरतों के लिए खाना पकाना ज़रूरी नहीं है.
पुरुषों और औरतों के बीच भेदभाव के कारणों को दूर करने से रोज़गार के अधिक समान अवसर पैदा किए जा सकते हैं. ऐसे क़दम उठाने के लिए क़ानूनी और नीतिगत स्तर पर उपाय करने होंगे ताकि सांस्कृतिक विविधता और समावेश को बढ़ावा दिया जा सके. इसके अतिरिक्त सामाजिक और क़ानूनी व्यवस्थाएं एक दूसरे पर निर्भर होकर काम करती हैं. इससे नीति निर्माताओं और सरकारों को समाज की भलाई के लिए क़ानून लागू करने का मौक़ा मिल जाता है.
लैंगिक समावेश के मुद्दे को समझने के लिए सामाजिक क़ानूनी नज़रिए से देखने पर बिना वेतन के काम करने में ख़र्च हुए समय का विश्लेषण करने में मदद मिलती है. यहां ये पड़ताल करना अहम है कि (a) लैंगिक भेदभाव ख़त्म करने में शिक्षा की ताक़त, और (b) घरेलू कामकाज में शादीशुदा औरतों और पुरुषों का व्यक्तिगत योगदान, जिससे घरेलू स्तर पर लैंगिक समावेश को समझने में सहयोग प्राप्त होगा.
हैरानी की बात ये है कि शिक्षा और बिना मेहनताने के देख-भाल में समय गंवाने के बीच कोई आपसी संबंध नहीं है. पढ़ी लिखी महिलाएं भी घर के काम-काज में उतना ही वक़्त ख़र्च करती हैं, जितना अशिक्षित महिलाएं करती हैं. इसके अतिरिक्त, आंकड़े दिखाते हैं कि शादीशुदा औरतें हर दिन 382 मिनट बिना मेहनताने के काम करने में बिताती हैं. जबकि शादीशुदा पुरुष केवल 44 मिनट ख़र्च करते हैं. इसीलिए घरेलू कामकाज का बोझ बंटाने पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए.
सामाजिक क़ानूनी दृष्टिकोणों की आवश्यकता
2021 में एक ऐतिहासिक फ़ैसले से महिलाओं को NDA (नेशनल डिफेंस अकादेमी) के गठन के 25 साल बाद जाकर इसके इम्तिहान में बैठने का मौक़ा मिला. मील का पत्थर बने इस मामले ने पेशे के ‘मर्दाना’ होने की सोच का उन्मूलन किया. इसी तरह स्वीडन के एक क़ानून ने WBL2022 रिपोर्ट पर असर डाला है.
इसके अलावा WBL2022 के सूचकांक में भारत ने 100 में से 74.4 अंक प्राप्त किया. जबकि स्वीडन को शत प्रतिशत अंक मिले. लैंगिक समानता के कुल स्कोर पर असर डालने वाला एक कारक 2009 का स्वीडिश डिस्क्रिमिनेशन एक्ट था. इस क़ानून में कहा गया है कि ‘अपने लिंग, ट्रांसजेंडर पहचान या अभिव्यक्ति, धर्म या अन्य आस्थाओं, विकलांगता, यौनिक पसंद या उम्र’ से इतर हर व्यक्ति को एक समान अधिकार और अवसर मिलने का हक़ हासिल है. एक और कारण 1923 का एलिजिबिलिटी एक्ट है, जिसमें कहा गया था कि पुरुषों की तरह औरतें भी हर पद पर बैठ सकती हैं.
तरह सामाजिक माहौल के कारण महिलाएं इंपोस्टर सिंड्रोम की शिकार हो सकती हैं जिससे महिलाओं को अपनी क़ाबिलियत पर शक होने लगता है और फिर वो नेतृत्व के वरिष्ठ पदों से दूर होकर ‘आसान’ भूमिकाएं स्वीकार कर लेती हैं.
भारत में टाइटिल VII ऑफ द सिविल राइट्स एक्ट, द प्रेगनेंसी डिस्क्रिमिनेशन एक्ट, द इक्वल पे एक्ट, द कॉन्सॉलिडेटेड ओमनिबस बजट रिकंसिलिएशन एक्ट (COBRA), द फैमिली ऐंड मेडिकल लीव एक्ट (FMLA) और द व्हिसलब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट ने महिलाओं को सशक्त बनाया है. अगर दफ़्तरों में ये क़ानून लागू नहीं होते, तो नौकरी देने वालों की प्रतिष्ठा को बट्टा लगता है और उन्हें महंगी क़ानूनी प्रक्रियाओं का भी सामना करना पड़ता है. इससे पता चलता है कि सज़ा मिलने पर इंसान का बर्ताव किस तरह बदल जाता है. एक डायवर्सिटी, इक्विटी ऐंड इनक्लूज़न कार्यक्रम (DEI)को हर भारतीय दफ़्तर में लागू करने से कामकाज की जगहों में काफ़ी सुधार होगा और वहां समावेशी कॉरपोरेट संस्कृति और बिज़नेस मॉडल को बढ़ावा मिलेगा. ऐसे व्यापाक मॉडल सामाजिक दबाव का मुक़ाबला करते हैं और महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने को लेकर नज़रिए में परिवर्तन लाते हैं और उन्हें कामकाज की जगह पर अपनत्व का एहसास कराते हैं.
आगे की सामाजिक क़ानूनी राह
वैसे तो सारे क़ानून सैद्धांतिक तौर पर लैंगिक समानता की बात करते हैं. लेकिन, लैंगिक समावेश वाले क़ानूनी उपाय लागू करने वाली बात दिखती नहीं. ऐसे में सामाजिक क़ानूनी संदर्भों से कुछ ठोस क़दम उठाने का रास्ता निकल सकता है.
- कुछ दशकों पहले तक हमें ये नहीं मालूम था कि लैंगिक समता, समानता और समावेश आपस में जुड़े हैं. एक सामाजिक क़ानूनी दृष्टिकोण देते हए एक संस्थागत नज़रिया अपनाने से हमें बहुल-भागीदारी और संस्थागत रूप-रेखा से इन मुद्दों पर ग़ौर करने में सहयोग प्राप्त हो सकता है. सामाजिक क़ानूनी दृष्टिकोण नीति निर्माताओं और प्रशासकों को समाज की बारीक़ बातों को समझने का मौक़ा देता है. लैंगिक समता और समावेश को समझने के लिए ये व्यापक नज़रिया समस्या के हिसाब से उचित होगा और इससे नागरिकों की ओर से नीति निर्माताओं को और अधिक विचार और सुझाव प्राप्त हो सकेंगे.
- दफ़्तरों को महिलाओं की ज़िंदगी के तमाम पहलुओं की समझ बनानी होगी और उनसे सम्मान और लचीलेपन वाला व्यवहार करना होगा. महिलाओं को ऊंचे पदों पर प्रमोशन देने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और प्रमोशन के पैमाने को लैंगिक रूप से अधिक निरपेक्ष बनाना चाहिए. इसके लिए सभी कर्मचारियों के लिए समान अवसर और तारीफ़ करने का मंच उपलब्ध कराना चाहिए, फिर चाहे वो किसी भी लिंग से ताल्लुक़ क्यों न रखते हों. कॉरपोरेट संस्कृति के हाइब्रिड मॉडल को लागू किया जाना चाहिए.
- दफ़्तरों में लैंगिक भेदभाव से निपटने के लिए जो सबसे अहम क़दम उठाया जाना चाहिए वो है लैंगिक भेदभाव पर रोक लगाने वाले क़ानून लागू करना. सरकारों और क़ानूनी संस्थाओं को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि जो लोग इन क़ानूनों का उल्लंघन करते हैं, उनकी जवाबदेही सुनिश्चित हो और पीड़ितों को न्याय मिल सके. मिसाल के तौर पर 1963 के समान वेतन क़ानून को अब तक सभी जगहों पर लागू नहीं किया गया है, जिससे पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम कमाती हैं.
- रोज़गार देने वालों को लैंगिक भेदभाव की जानकारी देने और इन शिकायतों से निपटने की स्पष्ट नीतियां लागू करनी चाहिए. इसमें कर्मचारियों को ऐसी घटनाओं की ख़बर देने के लिए सुरक्षित और गोपनीय माध्यम मुहैया कराना, शिकायतों की तुरंत पूरी ईमानदारी से जांच कराना और भविष्य में ऐसी घटनाएं होने से रोकने के लिए उचित क़दम उठाना शामिल है. उदाहरण के लिए 1948 का न्यूनतम वेतन क़ानून शिकायतें दर्ज कराने की रूप-रेखा बताता है. तो अगर किसी महिला को उसके पुरुष सहकर्मी से कम वेतन मिलता है, तो इंसाफ़ करने वाली संस्था दोनों यानी याचिकाकर्ता और रोज़गार देने वाले दोनों को सुने और हो सकता है कि वो पीड़ित महिला के वेतन के अंतर को ख़त्म करने और उसे पर्याप्त मात्रा में मुआवज़ा देने का आदेश दे सकती है.
- नौकरी देने वाले अपने यहां विविधता और समावेश को बढ़ावा देने के लिए सक्रियता से विविधता वाले कर्मचारियों की नियुक्ति और उन्हें नौकरी पर बनाए रख सकते हैं. इसके अलावा वो दफ़्तर में सम्मान और समावेश की संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं और करियर में तरक़्क़ी के लिए समान अवसर प्रदान कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर यूरोपीय संघ ने कामकाजी जगहों पर लैंगिक भेदभाव रोकने के लिए कई निर्देश जारी किए हैं. इनमें समान बर्ताव का निर्देश भी शामिल है, जो रोज़गार में लैंगिक भेदभाव को प्रतिबंधित करता है.
हैरानी की बात ये है कि शिक्षा और बिना मेहनताने के देख-भाल में समय गंवाने के बीच कोई आपसी संबंध नहीं है. पढ़ी लिखी महिलाएं भी घर के काम-काज में उतना ही वक़्त ख़र्च करती हैं, जितना अशिक्षित महिलाएं करती हैं
वैसे तो क़ानून लैंगिक भेदभाव का मुक़ाबला करने की ज़मीन उपलब्ध कराते हैं. लेकिन कंपनियों और संगठनों को चाहिए कि वो ऐसा समावेशी कामकाजी ठिकाना बनाने के लिए सकारात्मक क़दम उठाएं, जहां विविधता को सम्मान दिया जाता है, और कामकाज के हर ठिकाने की आवश्यकता और हालात के अनुसार लैंगिक समानता को बढ़ावा दिया जाता है. कामकाज की जगह पर लैंगिक समावेश की चुनौती का व्यापक रूप से सामना करते हुए, रोज़गार देने वाले, सभी कर्मचारियों के लिए एक अधिक समानता वाले और समावेशी दफ़्तर का निर्माण कर सकते हैं.
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