लंदन में भारतीय उच्चायोग पर खालिस्तान समर्थकों का हंगामा चिंतनीय है. उच्चायोग और वहां के कर्मचारियों की सुरक्षा में सेंध तब दिखी, जब खालिस्तान समर्थकों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी. उनका कोई बड़ा प्रदर्शन भी नहीं था. फिर भी, वहां भारतीय ध्वज का अपमान हुआ. साफ है, खालिस्तान आंदोलन, जो एक समय खत्म-सा हो गया था, फिर से सिर उठाता दिख रहा है. मगर इस पूरे घटनाक्रम में ब्रिटिश सरकार कहीं ज्यादा कठघरे में दिख रही है. ऐसे प्रदर्शन की आशंका भारत सरकार पूर्व में ही ब्रिटेन से जता दी थी. यह कहा गया था कि भारत में खालिस्तान समर्थकों पर हो रही कार्रवाई के विरोध में लंदन में उबाल दिख सकता है. इसके बावजूद, ब्रिटिश एजेंसियां प्रदर्शनकारियों को काबू में नहीं कर सकीं या यूं कहें कि यह सब कुछ होने दिया गया. आखिर क्यों?
यह कहा गया था कि भारत में खालिस्तान समर्थकों पर हो रही कार्रवाई के विरोध में लंदन में उबाल दिख सकता है. इसके बावजूद, ब्रिटिश एजेंसियां प्रदर्शनकारियों को काबू में नहीं कर सकीं या यूं कहें कि यह सब कुछ होने दिया गया. आखिर क्यों?
यह पहला मौका नहीं है, जब लंदन में वियना कन्वेंशन का उल्लंघन हुआ और उच्चायोग को पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी जा सकी. साल 2019 में सीएए-विरोधी प्रदर्शन में भी कुछ ऐसी ही नौबत आई थी. तब भी केंद्र सरकार ने कहा था कि भारत के हितों की बात जैसे ही सामने आती है, ब्रिटेन की सुरक्षा एजेंसियां शिथिल पड़ जाती हैं. हालांकि, उस वक्त जैसी अब भी ब्रिटेन में घटना के विरोध में प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं, लेकिन प्रश्न है कि आखिर इनको होने क्यों दिया जा रहा? ब्रिटेन अभिव्यक्ति की आजादी की वकालत करता है. कहा जाता है कि यह लोकतंत्र का एक अंतर्निहित अधिकार है, पर यह तर्क उसके लिए तभी बचाव का हथियार बनता, जब ऐसे प्रदर्शन किसी तीसरे स्थान पर होते. एमआई-5 और लंदन मेट्रोपोलिटन पुलिस दुनिया की बेहतरीन संस्थाओं में गिनी जाती हैं. ऐसे में, यह समझना कि उनके पास पूर्व से कोई सूचना नहीं थी, समझ से परे है.
यह बताता है कि भारतीय उच्चायोग को बुनियादी सुरक्षा भी नहीं दी जा रही है. पूर्व सूचना होने पर या तो उच्चायोग की सुरक्षा बढ़ाई जानी चाहिए थी या प्रदर्शनकारियों की धर-पकड़ होनी चाहिए थी. इनमें से कुछ नहीं हुआ.
मोदी समर्थकों को हालिया घटनाक्रमों में एक पैटर्न दिख सकता है. बीबीसी विवाद, खालिस्तानियों का मुखर होना और अब ब्रिटिश सुरक्षा एजेंसियों की शिथिलता- इन सबको एक अलग चश्मे से देखा जाना चाहिए. नियम यही कहता है कि उच्चायोग के आस-पास इस तरह के प्रदर्शनों को रोकने की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस-प्रशासन की है. अगर अचानक आंदोलनकारियों की भारी भीड़ जुट जाए और वे सुरक्षा उपायों को भेदने लगें, तो मुमकिन है कि उनको संभालने में वहां नियुक्त पुलिसकर्मियों को दिक्कतें पेश आएंगी, क्योंकि उनकी संख्या बहुत सीमित होती है, मगर लंदन जैसी घटना, जिसमें चंद प्रदर्शनकारी थे, उन्हें भी स्थानीय पुलिस न रोक पाए, तो उसकी मंशा पर सवाल उठते हैं. यह बताता है कि भारतीय उच्चायोग को बुनियादी सुरक्षा भी नहीं दी जा रही है. पूर्व सूचना होने पर या तो उच्चायोग की सुरक्षा बढ़ाई जानी चाहिए थी या प्रदर्शनकारियों की धर-पकड़ होनी चाहिए थी. इनमें से कुछ नहीं हुआ. यह स्थिति तब है, जब भारत व ब्रिटेन मित्र देश हैं और दोनों में किसी तरह की कूटनीतिक कटुता नहीं है.
सच यह भी है कि हाल के महीनों में दुनिया में कुछ जगहों पर खालिस्तान समर्थकों की गतिविधियां बढ़ी हैं. कनाडा तो उनका ‘हॉटस्पॉट’ बन गया है. ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी वे भारतीय प्रतिष्ठानों को घेरने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि, सच यह भी है कि हाल के महीनों में दुनिया में कुछ जगहों पर खालिस्तान समर्थकों की गतिविधियां बढ़ी हैं. कनाडा तो उनका ‘हॉटस्पॉट’ बन गया है. ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी वे भारतीय प्रतिष्ठानों को घेरने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं. दरअसल, भारत में जब कभी खालिस्तान समर्थक सक्रिय होते हैं, दुनिया भर में उनकी सक्रियता बढ़ने लगती है. अगर भारत में उनको नियंत्रित रखा जाता है, तो बाहर भी वे ज्यादा सुर्खियां नहीं बटोर पाते. ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद पूरी दुनिया में खालिस्तान समर्थक शिथिल पड़ गए थे. मगर अब उनकी फिर से सक्रियता बढ़ने का अर्थ है, सरकार को सख्ती बरतनी होगी. भारत में खालिस्तानियों पर कार्रवाई करने के साथ-साथ मोदी सरकार उन देशों से भी बात-विमर्श कर रही है, जहां खालिस्तानी झंडे देखे जा रहे हैं. उम्मीद है, इसके सकारात्मक नतीजे सामने आएंगे. रही बात लंदन जैसी घटना की, तो इसका एक पहलू यह भी है कि ब्रिटिश सुरक्षा एजेंसियां अपने पूर्वाग्रहों से नहीं उबर सकी हैं. भारत के साथ भू-राजनीतिक संबंधों की जो ऐतिहासिकता है, उस कारण वहां की नौकरशाही हिन्दुस्तान को लेकर उतना उत्साह नहीं दिखाती, जितना दिखाना चाहिए. आशा है, यह तस्वीर भी जल्दी बदलेगी.
यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित हो चुका है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.