Author : Prateek Tripathi

Expert Speak Space Tracker
Published on Nov 04, 2025 Updated 4 Days ago

अमेरिकी स्पेस फोर्स के एक्स-37बी कार्यक्रम से भारत को भी काफ़ी कुछ सीखने की ज़रूरत है. अमेरिका की ये पहल भारत की रक्षा अनुसंधान और विकास क्षमताओं को बढ़ाने में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है. भारत को समझना होगा कि 'मेक इन इंडिया' को सफल बनाने के लिए नवाचार पर ध्यान देना ज़रूरी है.

टेक्नोलॉजी की रेस में कौन आगे? अमेरिका, चीन या अब भारत!

नई तकनीक बनाना और उसे इस्तेमाल करना हमेशा से किसी देश की सैन्य ताकत मापने का अहम तरीका रहा है. ज़्यादातर नई खोजें पहले सेना में काम आती हैं फिर आम लोगों तक पहुंचती हैं. अमेरिकी स्पेस फोर्स का X-37B प्रोग्राम इसका अच्छा उदाहरण है. अपने खास अंतरिक्ष मिशनों और नई खोजों के ज़रिए अमेरिका दिखाता है कि वो हमेशा आगे क्यों रहता है. भारत इस प्रोग्राम से सीख सकता है कि बदलते वक्त में अपनी सैन्य ताकत और नई तकनीकों को कैसे मजबूत किया जाए — खासकर तब, जब पड़ोसी देशों से रिश्ते चुनौतीपूर्ण हों.

  • ओटीवी-7 भविष्य में अंतरिक्ष क्षेत्र जागरूकता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.

  • भविष्य के युद्धों का झुकाव धीरे-धीरे अंतरिक्ष क्षेत्र की ओर बढ़ रहा है, ऐसे में समन्वय की इस कमी को जल्द से जल्द ठीक करने की ज़रूरत है.

एक्स-37B स्पेस प्रोग्राम की ज़रूरत क्यों पड़ी?

नासा के एक्स-37 कार्यक्रम (1999-2004) के आधार पर, एक्स-37बी प्रोजेक्ट को बोइंग कंपनी द्वारा विकसित किया जा रहा है. बोइंग के मुताबिक "ये एक मानवरहित स्वायत्त अंतरिक्ष विमान है. इसे उन्नत प्रयोगों और प्रौद्योगिकी परीक्षण के लिए डिज़ाइन किया गया है." हालांकि शुरू में यानी 2010 से इसे सिर्फ एयर फोर्स रैपिड कैपेबिलिटीज़ ऑफिस (डीएएफ-आरसीओ) द्वारा संचालित किया गया था. अब इसे डीएएफ-आरसीओ और अमेरिकी स्पेस फोर्स की डेल्टा-9 यूनिट द्वारा संयुक्त रूप से चलाया जाता है. डेल्टा-9 यूनिट कक्षीय (ऑर्बिटल) युद्ध के लिए जिम्मेदार है. 2010 से लेकर मार्च 2025 तक, एक्स-37बी कार्यक्रम ने सात ऑर्बिटल टेस्ट व्हीकल (ओटीवी) लॉन्च किए हैं.

चित्र 1: एक्स-37बी ओटीवी

Why The Us Leads In Military Innovation The Case Of X 37b

स्रोत: सिक्योर वर्ल्ड फाउंडेशन

अंतरिक्ष युद्ध कार्यक्रम के अपने पूरे इतिहास में, इस पहल का महत्वपूर्ण स्थान रहा है. इसने कई नए और अनूठे तरीकों के लिए एक परीक्षण स्थल के रूप में काम किया है. ओटीवी-4 के पेलोड में प्रयोग के लिए एक हॉल-इफेक्ट थ्रस्टर शामिल था, जिसे बाद में एडवांस एक्स्ट्रीमली हाई फ्रीक्वेंसी (एईएचएफ) सैन्य उपग्रह संचार कार्यक्रम में एकीकृत कर दिया गया. ये नासा का अंतरिक्ष में मैटेरियल एक्सपोज़र और टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन (एमईटीआईएस) कार्यक्रम का एक हिस्सा था. इसमें अंतरिक्ष वातावरण में परीक्षण के लिए लगभग 100 विभिन्न प्रकार की सामग्रियां शामिल थीं. ओटीवी-5 में 780 दिनों तक चलने वाले दीर्घकालिक अंतरिक्ष वातावरण में प्रयोगात्मक इलेक्ट्रॉनिक्स और हीट पाइप तकनीकों का परीक्षण करने के लिए एक पेलोड शामिल था. इसके अलावा, ओटीवी-6 ने कक्षा में ऊर्जा प्रेषण प्रणाली का भी परीक्षण किया. ये एक नई तकनीक है जो सौर ऊर्जा को एकत्र करती है और फिर उसे माइक्रोवेव बीम में बदलती है.

अपोजी का अर्थ ऑर्बिट की उस जगह से है, जहां किसी उपग्रह को भेजा जा सकता है. ये आखिरी केंद्र होता है. अमेरिका की ये पहल कितनी दूरदर्शी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने चीन को भी शेनलॉन्ग नाम से ऐसा ही अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू करने के लिए प्रेरित किया.

ओटीवी-7 ने नए कक्षीय क्षेत्रों का परीक्षण करने का नया रास्ता खोला है. ये पहला एक्स-37बी मिशन था जिसने लो अर्थ ऑर्बिट (एलईओ) के बजाय हाई इसेंट्रिक ऑर्बिट (एचईओ) में काम किया. इसने नए एरोब्रेकिंग संचालन का भी परीक्षण किया जो मूल रूप से पृथ्वी के वायुमंडलीय खिंचाव का उपयोग करता है. ये विभिन्न कक्षीय क्षेत्रों के बीच परिवर्तन करने के लिए ईंधन जलाने के बजाए उसके संक्रमण का काम करता है. इसका फायदा ये होगा कि ओटीवी-7 भविष्य में अंतरिक्ष क्षेत्र जागरूकता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.

अमेरिका का क्वांटम नेविगेशन मिशन

एक्स-37बी ओटीवी-8 को 21 अगस्त 2025 को कैनेडी स्पेस सेंटर से लॉन्च किया गया था. इसमें स्पेसएक्स के फाल्कन-9 रॉकेट का इस्तेमाल किया गया था. ओटीवी-8  जिन महत्वपूर्ण तकनीकों का परीक्षण कर रहा है, उसमें से एक है में से एक क्वांटम इनर्शल सेंसर. इसे विक्टर एटॉमिक नामक स्टार्टअप ने विकसित किया है. ये स्टार्टअप अमेरिका रक्षा विभाग, पेंटागन, की रक्षा नवाचार इकाई (डीआईयू) के अनुबंध के तहत काम कर रहा है. यह कार्यक्रम भविष्य की सैन्य और अंतरिक्ष क्षमताओं के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो सकता है. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि क्वांटम सेंसिंग में उन मौजूदा पोजिशनिंग, टाइमिंग, और नेविगेशन (पीएनटी) प्रणालियों में सुधार करने या उन्हें बदलने की क्षमता है. वर्तमान में ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) इसी प्रणाली के आधार पर काम करता है. हालिया संघर्षों में जीपीएस-जैमिंग और स्पूफिंग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए, क्वांटम सेंसिंग-आधारित पीएनटी सिस्टम और जीपीएस की मंजूरी नहीं देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. जीपीएस की अनुमति नहीं मिलने का अर्थ ये है कि सेटेलाइट से तो जीपीएस सिग्नल भेजे जाएंगे, लेकिन धरती पर जीपीएस रिसीवर को ये सिग्नल नहीं मिलेंगे. 

इस कार्यक्रम के तहत किया जा रहा एक और महत्वपूर्ण परीक्षण लेज़र संचार से जुड़ा है. ये तकनीक अंतरिक्ष-आधारित लेज़र संचार परीक्षण में उपग्रह से उपग्रह तक और उपग्रह से पृथ्वी तक के संचार शामिल हैं. फिलहाल ये तकनीक रेडियो-फ्रीक्वेंसी डेटा लिंक पर आधारित हैं. लेज़र-आधारित लिंक भविष्य में और ज़्यादा सुरक्षित संचार की अनुमति दे सकते हैं. इसके साथ ही, ये बैंडविड्थ और डेटा ले जाने की क्षमता को भी बढ़ा सकते हैं. ये प्रोजेक्ट शायद अंतरिक्ष विकास एजेंसी और डीआईयू की भविष्य की पहलों से जुड़ा है. इसका लक्ष्य “हैक-प्रूफ” ऑप्टिकल संचार पर आधारित उपग्रह स्थापित करने का है.

हालांकि, ओटीवी-8 पर ऑर्बिट वॉरफेयर टेस्टिंग को लेकर कुछ अटकलें भी हैं, खासकर डेल्टा 9 की निगरानी के कारण. फिलहाल आधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं की गई है.

विकास के लिए सबक

एक्स-37बी जैसे परिष्कृत अंतरिक्ष कार्यक्रम के मात्रात्मक पहलुओं का अनंत तक विश्लेषण किया जा सकता है, लेकिन इसके कुछ गुणात्मक परिणाम स्पष्ट हैं. अगर इन बातों को भारत की दीर्घकालिक सैन्य अनुसंधान रणनीति में शामिल किया जाए, तो वो काफ़ी महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं. 

  • अनसुलझे क्षेत्रों की पहचान करना और भविष्य की संभावनाओं पर पहले ही काम शुरू करना

एक्स-37बी कार्यक्रम अपने समय से आगे था. 2010 में जब इसे शुरू किया गया, तब इसे असंभव माना जाता था. ये कहा जाता था कि इसकी ज़रूरत नहीं है, लेकिन इसने उन्नत अंतरिक्ष क्षमताओं के महत्व को पहचाना. वर्तमान में अंतरिक्ष क्षमताओं पर ज़्यादातर चर्चाएं लो अर्थ ऑर्बिट के इर्द-गिर्द होती हैं, जबकि एक्स-37बी हाई इसेंट्रिक ऑर्बिट की बात करता है. ये ऐसे अंतरिक्ष यानों की बात करता है, जो उन्नत कक्षीय गतिशीलता पर ध्यान केंद्रित करता है, जिसकी अपोजी 35,000 किमी तक पहुंच सकती है, जबकि एलईओ के मामले में ये सिर्फ 2,000 किमी है. अपोजी का अर्थ ऑर्बिट की उस जगह से है, जहां किसी उपग्रह को भेजा जा सकता है. ये आखिरी केंद्र होता है. अमेरिका की ये पहल कितनी दूरदर्शी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने चीन को भी शेनलॉन्ग नाम से ऐसा ही अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू करने के लिए प्रेरित किया. सितंबर 2024 में इसने अपनी तीसरी परीक्षण उड़ान पूरी की, और लगभग एक्स-37बी ओटीवी जैसे ही परीक्षणों का संचालन किया.

अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान इस पूरे एक्स37-बी कार्यक्रम की विस्तृत जानकारी देने से बच रहा है. वो, उतनी ही जानकारी दे रहे हैं, जो मौजूदा भू-राजनीतिक परिस्थितियां के हिसाब से दी जा सकती है. अंतरिक्ष यान की ज़्यादातर विध्वंसक और आक्रामक क्षमताओं के बारे में खुलासा नहीं किया जा रहा है. भारत को भी अपनी सैन्य क्षमताओं और अनुसंधान के मामले में इसी तरह सतर्क रहना चाहिए.

हालांकि,  नए विचारों में एक महत्वपूर्ण तत्व ज़ोखिम उठाना भी शामिल होता है. नए और अनजाने क्षेत्रों में शोध के लिए विशेष रूप से सरकारी फंडिंग की ज़रूरत होती है. इसके साथ ही इस तरह का अनुसंधान और विकास करने की इच्छाशक्ति भी चाहिए. इसलिए ऐसे काम करने के लिए नवाचार को प्रोत्साहित करने वाली संस्कृति विकसित करना भी ज़रूरी है.

  • नागरिक-सैन्य एकीकरण

दुनियाभर में नागरिक-सैन्य एकीकरण सिद्धांत पर काफ़ी चर्चा की जाती रही है, लेकिन एक्स37-बी कार्यक्रम ने इसे व्यावहारिक आधार पर सफलतापूर्वक लागू किया है. ये दिखाता है कि सरकार, सेना, निजी क्षेत्र और अकादमिक जगत कैसे प्रभावी ढंग से सहयोग कर सकते हैं. मिलकर काम करने से व्यक्तिगत क्षमताओं को जोड़कर नई सैन्य प्रौद्योगिकियों का विकास कर सकते हैं. मौलिक सैन्य अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) को मज़बूत करने के लिए ऐसा किया जाना बहुत ज़रूरी है. इस कार्यक्रम में नेशनल एयरोनॉटिक्स और स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा), डीएएफ-आरसीओ, स्पेस फोर्स, डीआईयू, बोइंग, स्पेसएक्स, वेक्टर एटॉमिक और अन्य विभिन्न हितधारकों की सक्रिय भागीदारी में सैन्य-नागरिक एकीकरण स्पष्ट है. शैक्षणिक मोर्चे पर, ओटीवी-6 ने एक प्रयोगात्मक उपग्रह फाल्कॉन एसएटी-8 को तैनात किया. इसे अमेरिकी वायुसेना अकादमी के छात्रों द्वारा विकसित किया गया था. हालांकि, इस तरह के विविध हितधारकों में समन्वय और सामंजस्य बिठाना बहुत मुश्किल है, लेकिन नागरिक-सैन्य एकीकरण के लिए ऐसा किया जाना आवश्यक है.

  • तकनीकी संपर्क को सक्षम बनाना

एक्स37-बी पहल ने ज़मीनी जंग और नौसैनिक क्षमताओं को बढ़ाने में अंतरिक्ष आधारित प्रयोगों के महत्व को पहचाना. ये अन्य उभरती तकनीकों जैसे क्वांटम सेंसिंग और लेजर आधारित ऑप्टिकल संचार के लिए परीक्षण स्थलों के रूप में काम कर सकते हैं. नई प्रौद्योगिकी को पहचानना और उस पर काम करना किसी भी देश को सैन्य क्षमताओं के मामले में दूसरे देशों पर बढ़त दिलाने के लिए महत्वपूर्ण है.

  • रणनीतिक संचार और उसकी पहुंच

हालांकि, अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान इस पूरे एक्स37-बी कार्यक्रम की विस्तृत जानकारी देने से बच रहा है. वो, उतनी ही जानकारी दे रहे हैं, जो मौजूदा भू-राजनीतिक परिस्थितियां के हिसाब से दी जा सकती है. अंतरिक्ष यान की ज़्यादातर विध्वंसक और आक्रामक क्षमताओं के बारे में खुलासा नहीं किया जा रहा है. भारत को भी अपनी सैन्य क्षमताओं और अनुसंधान के मामले में इसी तरह सतर्क रहना चाहिए. उतनी ही जानकारी दी जानी चाहिए, जितनी ज़रूरी है.

  • एकीकृत अंतरिक्ष कमांड की आवश्यकता

हालांकि, भारत ने समर्पित अंतरिक्ष कमांड विकसित करने की दिशा में कई कदम उठाए हैं, फिर भी इसमें कई कमियां हैं. ये कमियां मुख्य रूप से भारतीय अंतरिक्ष आयोग में सैन्य भागीदारी की उचित भागीदारी नहीं होने से पैदा होती हैं. अब तक, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्पेस रिसर्च में अग्रणी भूमिका निभाई है. हालांकि, ये बात भी ध्यान देने योग्य है कि अनुसंधान और विकास की कई सफल पहलों के बावजूद, इसरो मुख्य रूप से एक नागरिक संगठन है, ना कि सैन्य संगठन. इसरो पर बहुत ज़्यादा निर्भरता ने अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत की सैन्य महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने में नकारात्मक प्रभाव डाला है. उदाहरण के लिए,  इसरो ने स्वायत्त अंतरिक्ष यान जैसे रीयूज़ेबल लॉन्च व्हीकल ऑटोनॉमस लैंडिंग मिशन (आरएलवी-एलईएक्स) का परीक्षण किया है, लेकिन इसकी क्षमताएं अपने समकक्षों की तुलना में सीमित हैं. इसकी एक वजह इसमें सैन्य भागीदारी और निगरानी की कमी है. भविष्य के युद्धों का झुकाव धीरे-धीरे अंतरिक्ष क्षेत्र की ओर बढ़ रहा है, ऐसे में समन्वय की इस कमी को जल्द से जल्द ठीक करने की ज़रूरत है. मौजूदा परिस्थितियां एक समग्र भारतीय सैन्य अंतरिक्ष कमान की स्थापना की मांग करती हैं. ये कमांड अमेरिकी स्पेस फोर्स के जैसी हो सकती है, जो अंतरिक्ष क्षेत्र पर केंद्रित सैन्य अनुसंधान और विकास की सुविधा प्रदान करे. इसरो जैसी वैज्ञानिक संस्थाओं और देश के बढ़ते अंतरिक्ष स्टार्टअप इकोसिस्टम के बीच भी समन्वय को आसान करने और बढ़ाने की ज़रूरत है.

तकनीकी रेस में भारत की अगली चाल क्या होगी?

हाल की राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल के बावजूद, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका खुद को एक प्रमुख वैश्विक सैन्य शक्ति के रूप में कायम करने में सफल रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह अमेरिका में नवाचार की संस्कृति है, जैसा कि एक्स-37बी कार्यक्रम में भी दिखता है. रक्षा क्षेत्र में 'मेक इन इंडिया' के अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, भारत को सैन्य अनुसंधान और विकास में अग्रणी भूमिका निभानी होगी. अमेरिका द्वारा इस क्षेत्र में स्थापित मिसालों का विश्लेषण करके उससे जुड़ी केस स्टडीज़ की पहचान करनी होगी. इससे हासिल निष्कर्षों को तुरंत अपनी सैन्य रणनीति में शामिल करके भारत इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति कर सकता है. शेनलॉन्ग जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए चीन भी अपनी सैन्य और अंतरिक्ष क्षमताओं को बढ़ा रहा है. ऑपरेशन सिंदूर के दौरान ये देखा गया था कि चीन इस तकनीकी का फायदा पाकिस्तान को भी देना चाहता है. ऐसे में भारत को भी अंतरिक्ष क्षेत्र में अपनी सैन्य क्षमताओं को बढ़ाने पर तुरंत काम शुरू करना चाहिए.


प्रतीक त्रिपाठी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रैटजी एंड टेक्नोलॉजी (सीएसएसटी) में जूनियर फेलो हैं.

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