Author : Nilanjan Ghosh

Expert Speak Raisina Debates
Published on Nov 03, 2025 Updated 0 Hours ago

दुनिया की दो सबसे बड़ी आबादियों वाले देश—भारत और चीन—आज दो बिल्कुल अलग आर्थिक रास्तों पर चल रहे हैं. एक ओर है भारत, जो उपभोग और युवा आबादी के दम पर तेज़ी से बढ़ रहा है; दूसरी ओर चीन, जिसकी विकास यात्रा निवेश और निर्यात पर टिकी रही है. लेकिन अब जनसंख्या और मांग की चुनौतियों से जूझ रही है. सवाल है—भविष्य की अर्थव्यवस्था का असली इंजन कौन बनेगा?

भारत के युवा उपभोक्ता, चीन की बूढ़ी अर्थव्यवस्था!

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अक्टूबर 2025 में जारी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक’ रिपोर्ट में भारत की आर्थिक तरक्क़ी को साल 2025-26 में दुनिया में सबसे तेज़ 6.6 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है. यह चीन की 4.8 प्रतिशत विकास दर से कहीं ज़्यादा है. भारत के आर्थिक विकास का महत्व इस बात में है कि यह उभरते बाज़ार और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE) में सबसे ज़्यादा तरक्क़ी करने वाला देश बनने वाला है. ये वही अर्थव्यवस्थाएं हैं, जिनको दुनिया के विकास का इंजन माना जाता है.

हालांकि, आमतौर पर चीन और भारत के विकास की तुलना बुनियादी कारणों से सही नहीं है, क्योंकि साल 2025 तक चीन का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 19.33 ट्रिलियन डॉलर होने का अनुमान है और भारत का 4.19 ट्रिलियन डॉलर. इसके बावजूद, दोनों देशों के विकास की तुलना उचित जान पड़ती है, क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इनका महत्व बढ़ रहा है, जिस कारण ‘ग्लोबल साउथ’ (वैश्विक दक्षिण) का जन्म हुआ है और जिसमें ये दोनों अर्थव्यवस्थाएं नेतृत्व की भूमिका निभाती हैं. यहां यह भी समझना सही होगा कि कैसे एक जैसे हालात से अपनी शुरुआत करने वाले बड़ी आबादी वाले ये दोनों देश नीतिगत उपायों, ढांचागत बदलावों और विकास के नतीजों में अलग-अलग पायदान पर खड़े हैं.

  • भारतीय उपभोक्ताओं का उभार वैश्विक रणनीति का आधार है, इसलिए भारत को अपने विकास स्रोतों में विविधता लाने का प्रयास करना चाहिए.

  • चीन में मांग का एक ऐसा दौर आ चुका है, जब उत्पादों की बिक्री धीमी हो जाती है और बाज़ार ठहर से जाते हैं. इसे मांग चक्र का परिपक्व चरण कहते हैं. घरेलू मांग में सुस्ती और बढ़ते कर्ज़ (जीडीपी का 60 प्रतिशत) ने भी मांग की संभावनाओं को सीमित कर दिया है.

यदि रणनीतिक तुलना करें, तो दोनों देशों की ढांचागत संरचनाएं बिल्कुल अलग-अलग रास्तों पर आगे बढ़ी हैं. 1970 के दशक के आख़िर से चीन का विकास राज्य-प्रायोजित औद्योगिकीकरण, निर्यात में वृद्धि और बड़े पैमाने पर स्थिर निवेश पर टिका हुआ है. वहीं, भारत का विकास मुख्य रूप से उपभोग के कारण, यानी लोगों द्वारा वस्तुओं एवं सेवाओं पर किए गए ख़र्च की वज़ह से हुआ है. ऐसा ख़ासकर 1990 के दशक के उदारीकरण के बाद हुआ है और पिछले दशक में तो साफ़-साफ़ दिखा है.

 साल 2025 तक चीन का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 19.33 ट्रिलियन डॉलर होने का अनुमान है और भारत का 4.19 ट्रिलियन डॉलर. इसके बावजूद, दोनों देशों के विकास की तुलना उचित जान पड़ती है, क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इनका महत्व बढ़ रहा है, जिस कारण ‘ग्लोबल साउथ’ (वैश्विक दक्षिण) का जन्म हुआ है

आम तौर पर, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में खपत का योगदान 70 प्रतिशत है, जिसमें साल 2024 में घरेलू उपभोग (इसें प्राइवेट फाइनल कंजम्पशन एक्सपेंडिचर, या PFCE के रूप में मापा जाता है) की हिस्सेदारी करीब 61 प्रतिशत रही है, जबकि चीन की 40 प्रतिशत (देखें चित्र-1)

Why India Consumes As China Constructs A Tale Of Two Growth Trajectories

Source: Computed by author from World Bank data

निवेश बनाम उपभोग

भारत और चीन में विकास के दो अलग-अलग मॉडल रहे हैं. भारत में जहां उपभोग-आधारित विकास को बढ़ावा दिया गया, वहीं चीन में निवेश व निर्यात आधारित. चीन में जो तेज़ औद्योगिकीकरण हुआ है, उसके लिए राष्ट्र ने लगातार काम किए. उसने निवेश बढ़ाया, निर्यात पर ज़ोर दिया और बड़े पैमाने पर शहरीकरण किया. वहां बचत का इस्तेमाल सरकारी बैंको व स्थानीय सरकारों के माध्यम से भौतिक पूंजी बनाने में किया गया, ताकि आधुनिक बुनियादी ढांचे को ज़रूरी आर्थिक मदद मिल सके और सार्वजनिक वस्तुएं बड़े पैमाने पर बनाई जा सके, जिससे उसके ख़र्च कम हो गए. हालांकि, जब इसे लागू किया गया, तो शुरुआत में, ख़ास तौर से 1990 के दशक तक, चीन में उत्पादकता की तुलना में कामगारों का वेतन कम बढ़ा, जिस वज़ह से भी वहां बड़े पैमाने पर बचत हुई.

इसके विपरीत, भारत के विकास की कहानी विनिर्माण क्षेत्र से कम और सेवा, व्यापार, आवागमन, डिजिटल मंच और खुदरा क्षेत्र के विस्तार से अधिक आगे बढ़ी है. जनसांख्यिकीय विस्तार और आकांक्षी मध्यम वर्ग की बढ़ती मांग ने इसके उपभोग-आधारित मॉडल में नई जान डाल दी. वित्तीय समावेशन, डिजिटल भुगतान और ई-कॉमर्स ने ख़र्चों व शुरुआती मुश्किलों को कम करके आम लोगों में उपभोग की प्रवृत्ति पैदा की. यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) व इंडिया स्टैक जैसे प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से डिजिटल अर्थव्यवस्था आगे बढ़ी और उन लाखों उपभोक्ताओं की मांग औपचारिक रूप से पूरी होने लगी, जो पहले संगठित बाज़ार का हिस्सा नहीं थे.

भारत की हिस्सेदारी हमेशा 58 प्रतिशत से ऊपर रही. यह ढांचागत अंतर दोनों विकास मॉडलों के बीच के अंतर को दिखाता है. इस प्रकार, जहां चीन की विकास-प्रक्रिया अपनी औद्योगिक नीति के कारण वैश्विक आपूर्ति शृंखला के निर्माण के साथ अधिक विविधतापूर्ण रही है, वहीं भारत का आर्थिक विस्तार आमतौर पर अंतर्मुखी है और बढ़ती खपत पर आधारित है.

बुनियादी तौर पर, भारत का विकास मॉडल लोगों की ख़रीदारी क्षमता पर निर्भर है. महामारी के कारण आई आर्थिक सुस्ती के बावजूद, भारतीय अर्थव्यवस्था का PFCE साल 2024 में 2.4 ट्रिलियन डॉलर था, जबकि 2010 का सिर्फ़ 1.18 ट्रिलियन डॉलर. चीन में घरेलू खपत, जो निश्चय ही भारत से अधिक है, इसी अवधि के दौरान 4 ट्रिलियन डॉलर से बढ़कर लगभग 7.5 ट्रिलियन डॉलर हो गया, लेकिन यह उसके सकल घरेलू उत्पाद का छोटा हिस्सा ही है. जैसा कि चित्र-1 में देखा जा सकता है, सकल घरेलू उत्पाद में चीन के उपभोग की हिस्सेदारी एक दशक से अधिक समय से 37 प्रतिशत से 40 प्रतिशत के बीच ही रही है. इस तरह, वह एक ऐसी अर्थव्यवस्था बन जाती है, जो ढांचागत रूप से भारत की तुलना में काफ़ी अलग है और जिसमें निवेश व शुद्ध निर्यात, दोनों विकास के अन्य प्रमुख वाहक हैं. इसी दौरान, भारत की हिस्सेदारी हमेशा 58 प्रतिशत से ऊपर रही. यह ढांचागत अंतर दोनों विकास मॉडलों के बीच के अंतर को दिखाता है. इस प्रकार, जहां चीन की विकास-प्रक्रिया अपनी औद्योगिक नीति के कारण वैश्विक आपूर्ति शृंखला के निर्माण के साथ अधिक विविधतापूर्ण रही है, वहीं भारत का आर्थिक विस्तार आमतौर पर अंतर्मुखी है और बढ़ती खपत पर आधारित है.

जनसंख्या ही ताकत है या चुनौती?

इसमें जनसंख्या महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है और निभाती रहेगी. भारत की औसत आयु लगभग 29 वर्ष है, जिस कारण यह दुनिया के सबसे युवा कामगारों और उपभोक्ताओं का देश है. इस जनसांख्यिकीय लाभांश के कारण भारत में बचत योग्य आमदनी बढ़ रही है, शहरीकरण में तेज़ी आई है और ग्रामीण व शहरी, दोनों बाज़ारों में उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. विस्तार लेता मध्यम वर्ग अब सिर्फ़ ज़रूरी वस्तुएं ही नहीं ख़रीदता, बल्कि गैर-ज़रूरी सामान भी ख़रीद रहा है और डिजिटल सेवाओं का उपयोग करने लगा है. गांवों में बिजली की उपलब्धता, कनेक्टिविटी और लक्षित कल्याणकारी योजनाओं के कारण ग्रामीण व शहरी भारत में खपत का अंतर ख़त्म हो रहा है. यह हाल तब है, जब भारत की लगभग दो-तिहाई आबादी की आमदनी अब भी उतनी नहीं है, जो विश्व स्तर पर मध्यम वर्ग के लिए आदर्श मानी गई है. इसका यह भी अर्थ है कि खपत के मामले में भारत में अभी काफ़ी संभावनाएं हैं.

इसके उलट, चीन की जनसांख्यिकीय कहानी बिल्कुल अलग है. दशकों से चली आ रही ‘एक संतान की नीति’ के कारण वहां की आबादी तेज़ी से बुजुर्ग हो रही है और औसत आयु 40 साल से अधिक हो चुकी है. वहां कामकाजी लोगों की संख्या भी घट रही है और निर्भरता अनुपात बढ़ रहा है. स्वास्थ्य व पेंशन ख़र्च के कारण राजकोष पर भी दबाव बढ़ रहा है, जिससे घरेलू खपत ज़्यादा नहीं बढ़ पा रही. उपभोग पर यह दबाव तब है, जब कम्युनिस्ट पार्टी अंतरराष्ट्रीय व्यापार व आपूर्ति श्रृंखलाओं में पैदा होने वाले वैश्विक चुनौतियों से अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए उपभोग-आधारित विकास करना चाहती है. पिछले 15 वर्षों में चीन में वेतन में हुई अप्रत्याशित वृद्धि के बाद भी ख़र्च की प्रवृत्ति नहीं बढ़ सकी है. ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि चीन में मांग का एक ऐसा दौर आ चुका है, जब उत्पादों की बिक्री धीमी हो जाती है और बाज़ार ठहर से जाते हैं. इसे मांग चक्र का परिपक्व चरण कहते हैं. घरेलू मांग में सुस्ती और बढ़ते कर्ज़ (जीडीपी का 60 प्रतिशत) ने भी मांग की संभावनाओं को सीमित कर दिया है.

बाहरी मांग पर निर्भरता

उपभोग में बढ़ती मांग और निर्यात पर नाममात्र की निर्भरता भारत को बाहरी आर्थिक झटकों से बचाने में मदद करती है, जिससे अर्थव्यवस्था मज़बूती से आगे बढ़ती है. यहां तक कि 2008 के आर्थिक संकट, कोविड-19 महामारी और ट्रंप द्वारा दिए गए हालिया टैरिफ़ झटकों से भी यह बची रही. इसके विपरीत, चीन का विकास मॉडल वैश्विक मांग में उतार-चढ़ाव के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील बना हुआ है. चीन के निर्यात वाले क्षेत्र वैश्विक व्यापार तनावों या आपूर्ति शृंखला में आई रुकावटों से तुरंत प्रभावित होते हैं, जैसा कि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध और महामारी के बाद की मंदी के दौरान साफ़-साफ़ दिखा. चित्र-2 में क्रमशः चीन और भारत के सकारात्मक और नकारात्मक व्यापार संतुलन (आयात में निर्यात घटाकर) को दिखाया गया है, जिससे चीन की छवि निर्यात में होड़ लेने वाली और भारत की अधिक उपभोग मांग वाली बनती दिख रही है.

Why India Consumes As China Constructs A Tale Of Two Growth Trajectories

Source: Computed by author from World Bank data

अमीर बढ़े, खर्च भी बढ़ा—पर बराबरी अब भी दूर!

अपनी खूबियों के बावजूद, उपभोग-आधारित विकास में कुछ कमज़ोरियां भी हैं, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. हालांकि, पिछले एक दशक में भारत में असमानता कम हुई है और गरीबी में भी उल्लेखनीय कमी आई है, लेकिन आमदनी में समानता का सपना अब भी दूर है. भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग के हाथों में ज़्यादा पैसे आएं, क्योंकि अमीरों की तुलना में उनमें सीमांत उपभोग की प्रवृत्ति (आमदनी के बढ़ने के साथ ख़र्च बढ़ाना, न कि बचत करना) बहुत अधिक है, जिससे बाज़ार में मांग बराबर बनी रहती है.

भारत में जिस तरह से उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ रही है उससे यह देश वैश्विक मांग का केंद्र बनता जा रहा है, जबकि चीन अपनी अर्थव्यवस्था को विविध व मज़बूत बनाने के लिए अपने मॉडल में बदलाव कर रहा है. इसलिए कहा जाता है कि भारत को अपने भविष्य के प्रति सावधान रहने की ज़रूरत है.

दूसरी चुनौती है, विकास के अलग-अलग स्रोतों का न होना. इस कारण, घरेलू मांग में कोई भी सुस्ती अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकती है. इतना ही नहीं, अगर 2055 तक भारत को अपनी आबादी से मिलने वाला लाभ कम हो जाता है या ख़त्म हो जाता है, तब भी अर्थव्यवस्था को विकास के अन्य स्रोत तलाशने होंगे. इसी तरह, बढ़ती मांग के बीच यदि विनिर्माण, लॉजिस्टिक और बुनियादी ढांचों में पर्याप्त वृद्धि न होने से विकास के बजाय महंगाई बढ़ती है, तब भी अर्थव्यवस्था को नुकसान होने की आशंका होगी. चौथा ख़तरा बाहरी संतुलन से संबंधित है, जहां उपभोग का अधिक होना आयात पर निर्भरता बढ़ा सकती है, ख़ास तौर से ऊर्जा और इलेक्ट्रॉनिक्स में, जिससे चालू खाता घाटा बढ़ सकता है और आर्थिक चुनौतियां पैदा हो सकती हैं.

चीन में ख़तरे अलग तरह के हैं. वहां निवेश-आधारित मॉडल ने रियल एस्टेट और बुनियादी ढांचों पर भार बढ़ा दिया है. इससे स्थानीय सरकारों को कर्ज़ बढ़ा है और पूंजी पर रिटर्न घटा है. वहां खपत बढ़ाने के लिए परिवारों तक पैसे पहुंचाने होंगे, जैसे- वेतन बढ़ाना होगा, सामाजिक कल्याण के काम अधिक करने होंगे और कॉरपोरेट व घरेलू क्षेत्रों के बीच असमानता दूर करनी होगी. हालांकि, चीन की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में ढांचागत कमज़ोरियां इतनी हैं कि इन कामों को करने में काफ़ी मुश्किलें पैदा हो सकती हैं.

बदलती वैश्विक व्यवस्था

महामारी के बाद दुनिया ने देखा है कि ‘ग्लोबल साउथ’ की अर्थव्यवस्थाओं में घरेलू खपत से वैश्विक विकास को ज़्यादा मदद मिल रही है, जबकि ‘ग्लोबल नॉर्थ’ में ठहराव व बुजुर्ग होती आबादी जैसी परेशानियां बढ़ रही हैं. भारत में जिस तरह से उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ रही है उससे यह देश वैश्विक मांग का केंद्र बनता जा रहा है, जबकि चीन अपनी अर्थव्यवस्था को विविध व मज़बूत बनाने के लिए अपने मॉडल में बदलाव कर रहा है. इसलिए कहा जाता है कि भारत को अपने भविष्य के प्रति सावधान रहने की ज़रूरत है. बहुराष्ट्रीय कंपनियां अब भारत को केवल उत्पादन-केंद्र के रूप में नहीं देख रहीं, बल्कि यहां के घरेलू बाज़ार की ज़रूरतों को देखते हुए वे अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं में बदलाव कर रही हैं. हालांकि, उनकी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां अब भी चीन, वियतनाम और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में हैं. चूंकि भारतीय उपभोक्ताओं का उभार वैश्विक रणनीति का आधार है, इसलिए भारत को अपने विकास स्रोतों में विविधता लाने का प्रयास करना चाहिए.

इस बीच, चीन के सामने दोहरी चुनौती है. उसे अपनी आर्थिक मंदी को संभालते हुए भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करनी होंगी. घरेलू मांग में बदलाव आने वाले दशकों में उसके वैश्विक प्रभाव का निर्धारण करेंगे. चीन की नीतिगत चुनौती अस्थिरता पैदा किए बिना खपत को प्रोत्साहित करके विकास को आगे बढ़ाना है. इसके लिए उसे कामगारों के वेतन में बढ़ोतरी करनी होगी, प्रवासी श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए शहरी हुकोऊ व्यवस्था में सुधार लाना होगा और सार्वजनिक सेवाओं को बढ़ावा देना होगा, ताकि बचत की प्रवृत्ति कम हो. ज़ाहिर है, यह समय ही बताएगा कि वैश्विक अस्थिरता और विकास के बदलते प्रतिमानों के दौर में कौन सा मॉडल ज़्यादा उपयोगी साबित होता है?


(नीलांजन घोष ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में डेवलपमेंट स्टडीज के वाइस प्रेसिडेंट हैं)

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