Published on Apr 15, 2020 Updated 0 Hours ago

कोरोना की दस्तक के साथ नई विश्व व्यवस्था का समय तो अवश्य आ गया है, लेकिन जरूरी है कि इस व्यवस्था के नियम बीजिंग या वॉशिंगटन में न लिखी जाए — अन्य देशों की राजधानियों में लिखी जाए, उनकी सहभागिता के साथ लिखी जाए, और उनकी अपनी ज़रूरतों पर खरे उतरें. आज बीजिंग और वॉशिंगटन की आवश्यकताएँ हमारी आवश्यकता नहीं है.

कोविड-19 के बाद विश्व व्यवस्था पर वर्चस्व किसका?

कोविड-19 ने जिस कदर दुनिया को हिला के रख दिया है, उम्मीद की जा रही है कि इसके बाद एक नई विश्व व्यवस्था उभरकर सामने आनी चाहिए. मौजूदा विश्व व्यवस्था की ख़ामियां इस महामारी के चलते और उजागर हुई हैं. मसलन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की कमजोरियों के बारे में कई सारी चर्चाएं हो रही हैं. कहा जा रहा है कि वैश्वीकरण के एक नए फ्रेमवर्क की ज़रूरत है. ऐसे में यह प्रश्न उभरकर सामने आता है कि दुनिया में अमेरिका का जो रुतबा बना हुआ था क्या वह बरकरार रहेगा? क्या अमेरिका अपनी मौजूदा स्थिति से नीचे गिरेगा और उसकी जगह चीन ले लेगा? या महामारी के फलस्वरूप दुनिया के अन्य देश चीन से सोशल डिस्टेंसिंग शुरू कर देंगे क्योंकि चीन के साथ जुड़े रहने से उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता हैं.

विश्व व्यवस्था की ढहती संरचना

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्थापित विश्व व्यवस्था (जिसे उदारवादी विश्व व्यवस्था कहा जाता है) की नियमावली विजेता पश्चिमी देशों की राजधानियों में लिखी गई थी. यह व्यवस्था अब बिखराव की ओर है. बिखराव एक तरह से 2001 से ही 9/11 के आतंकी हमले के बाद से ही शुरू हो गया था. 9/11 की दहशत के बाद अमरीका द्वारा प्रारम्भ किए गए वार ऑन टेरर के चलते संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, जिनकी नीव पश्चिमी देशों ने ही रखी थी, उन्हीं की जड़ें खोदने में अमेरिका के साथ वे खुद लग गए. 2008 के आर्थिक संकट के आते-आते अमेरिकी नेतृत्व निरंतर कमजोर होता गया और इसके समानांतर चीन अपनी दस्तक वैश्विक पटल पर जमाता चला गया. देखिये युग की विडम्बना — 1970 के दशक में हेनरी किसिंजर और निक्सन चले थे लाल कमुनिस्ट चीन की लाली को अपने रंग में रंग उसे प्रजातन्त्र बना विश्व व्यवस्था का हिस्सा बनाने के जुगाड़ में. प्रयास था कि कैसे भी चीन को नोर्मालाइज किया जाए.

आज जब दुनिया कोविड-19 के खिलाफ जंग लड़ रही है तो लगता है कि पासा उल्टा हो गया. कबीर के दोहे — लाली देखन मैं चलामैं भी हो गया लाल — की भांति चीन को अपने रंग में रंगने चले आज खुद ही लाल हो गए. आज अमेरिकी राष्ट्रपति चीन को कितना भी बुरा-भला कहे, बार-बार दोहराएँ कि वह महामारी का स्रोत है — पर सच तो यह है की कोरोनासंकट से लड़ने के लिए अपनाए गए सारे के सारे हथकंडे दुनिया ने चीन से ही आयात किए हैं.

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कबीर के दोहे — लाली देखन मैं चला, मैं भी हो गया लाल — की भांति चीन को अपने रंग में रंगने चले आज खुद ही लाल हो गए. © Flickr user rosaluxemburg

लॉकडाउन को ही देखये. ये चीन के वुहान शहर से शुरू हुआ. शहर की पूरी आबादी को उनके घरों में जबर्दस्ती तालाबंद कर दिया गया. आवागमन के सब प्रबन्धों पर रोक लगा पूरा शहर ही अपने अपने घरों में कैद कर दिया गया. देखते देखते चीनी शैली से कोरोना के खिलाफ लड़ी जंग पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपना ठप्पा लगा उसकी तारीफ़ों के पुल बांधने शुरू कर दिये. और अंततः कमो-पेशी यही शैली दुनिया के अन्य देशों में भी अनुसरण की जाने लगी. भारत ने भी जब इसी तर्ज पर लॉकडाउन किया तो वह भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रशंसा का पात्र बन गया.

मेरे विचार में आज इस शैली पर ही प्रश्न उठाने का वक्त आ गया है क्योंकि इस शैली के मूल में ही नई उभरती विश्व-व्यवस्था को लेकर वह सब से बड़ा वैचारिक द्वंद निहित है जिसका समाधान सभी समाजों और देशों को आने वाले समय में करना पड़ेगा. अंततः यह चीन और अमेरिका की लड़ाई नहीं है. यह ट्रंप और प्रेसिडेंट शी के बीच की लड़ाई नहीं है. यह विचार व्यवस्थाओं की लड़ाई है जिसके बारे में नए विश्व को नए ढंग से सोचना पड़ेगा और यह निर्धारित करना पड़ेगा कि इस नई विश्व व्यवस्था में किस तरफ हम जाना चाहते हैं.

वैकल्पिक सप्लाई चैन की रूरत

राष्ट्रपति ट्रम्प और चीन के बीच काफी समय से चले आ रहे व्यापार युद्ध के चलते हाल के दिनों में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को धमकी दी कि अगर उनकी शर्तों को चीन पूरा नहीं करता है तो वे ट्रेड डील से अपने हाथ वापस खींच लेंगे. अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वार पुराना है पर क्या अब एक नया ट्रेड वार दिखाई दे रहा है? क्या होगा इसका स्वरूप?

अमेरिका अपने विश्वसनीय साथियों के साथ एलाइंस — इकोनामिक प्रोस्पेरिटी नेटवर्क — बनाने कि बात करता है और इसमें जापान, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम और भारत का नाम अहम रूप से लिया जाता है. भारत सरीके दुनिया के कई देश आस में हैं कि अमेरिका और चीन की रस्सा-कशी के चलते जो विश्व सप्लाई चैन चीन पर निर्भर है वे अब छिन्न भिन्न हो दूसरे देशों में बिखर उन्हें भी इनका हिस्सा बनने का मौका देंगी.

वास्तव में कोरोना संकट के बाद इनमें कुछ ना कुछ बिखराव तो अवश्य आएगा. सभी देश महसूस करने लगे हैं कि किसी एक देश पर पूरी तरह से सप्लाई चैन के लिए निर्भर रहना घातक हो सकता है. इस सोच के चलते सप्लाई चैन में ज़रूर डायवर्सिफिकेशन आएगा. प्रयास होगा कि आवश्यक वस्तुओं के लिए कई स्रोतों का विकास हो. पर यह काम रातों रात नहीं हो सकता. सप्लाई चैन आपस में इतनी बुरी तरह से उलझी हुई हैं कि इन्हें तोड़ने में और इनका बिखराव होने में समय लगेगा — मूल्यांकन है कम से काम 3 से 8 वर्ष. उस बीच कौन राजा का कहाँ राज होता है? कौन सी अर्थव्यवस्था आगे ज्यादा तेजी से बढ़ बाकी के लिए चुंबक का काम करती है — यह प्रश्न अधिक सर्वोपरि हो जाते हैं.

जो प्रोटोकॉल अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए चीन अपनाएगा वही प्रोटोकॉल पूरी दुनिया अपनाने लगेगी? यानि कि कोरोना युग तथा उसके पश्चात, दोनों की नियमावली का निर्माण सम्पूर्ण विश्व के लिए अब बीजिंग करेगा? मेरे मत में यही वह दुविधा है जिसका उत्तर पूरी दुनिया को अपने भविष्य के ख़ातिर ढूंढना होगा.

ध्यान रहे कि कोविड-19 ने सबसे पहले दस्तक नवंबर में चीन में दी. और वुहान में अपनाई गई चीनी पद्धिती सभी देशों के लिए देखते देखते मिसाल बन गयी. यहाँ तक कि चीन कि आलोचना करने वाले देशों, जैसे कि अमेरिका, को भी अंततः काही रास्ता चुनना पड़ा. और अब जब कहा जा रहा है कि वुहान कोरोना मुक्त हो अपनी अर्थव्यवस्था खोलने जा रहा हैं क्या विश्व भर में कोरोना संकट से बाहर निकल अर्थव्यवस्था पुनः चालू करने के लिए भी एक बार पुनः चीन द्वारा दिखाये गए मार्ग पर पूरा विश्व दौड़ेगा. गौर करें कि वुहान शहर इन समस्त उत्पादन शृंखलाओं का केंद्र रहा है. तो ऐसे में मूलभूत प्रश्न यह है कि जैसे कोरोना युग में प्रवेश करते हुए चीन ने जो शैली अपनाई थीं बाहर निकालने के लिए भी चीनी शैली पूरे विश्व के लिए अनुसरणीय बन जाएगी. जो प्रोटोकॉल अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए चीन अपनाएगा वही प्रोटोकॉल पूरी दुनिया अपनाने लगेगी? यानि कि कोरोना युग तथा उसके पश्चात, दोनों की नियमावली का निर्माण सम्पूर्ण विश्व के लिए अब बीजिंग करेगा? मेरे मत में यही वह दुविधा है जिसका उत्तर पूरी दुनिया को अपने भविष्य के ख़ातिर ढूंढना होगा.

क्या हम चीन के हाथ यह नेतृत्व सौंपने के लिए तैयार हैं? वास्तव में भारत सरीके विश्व में कई देश हैं जिनमें अफ्रीकी, दक्षिण-पूर्व एशिया, लैटिन अमेरिका के देश शामिल हैं. इन्हीं देशों में विश्व के साढ़े तीन अरब लोग निवास करते हैं. दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाली ये देशों की परिस्थितियाँ अमेरिका, चीन और अन्य यूरोपीय देशों की परिस्थितियां से बिलकुल अलग हैं. कोविड-19 से लड़ने के लिए और इससे बाहर निकलने के लिए ये समस्त देश वे मार्ग नहीं चुन सकते जो चीन ने अख्तियार किया है. चीन ने वुहान में तालाबंदी के चलते बहुत बड़े पैमाने पर कोरोना के लिए परीक्षण शुरू किए. आज स्पष्ट है की कई देशों में टेस्टिंग करने की वह कैपेसिटी है ही नहीं. भारत ने कर कर के भी कठिन प्रयास के बाद आज प्रति दस लाख की आबादी पर एक हजार लोगों का परीक्षण करने में सफलता हासिल की है. यही स्थिति अफ्रीका लैटिन अमेरिका और एशिया के कई देशों की है. इन देशों में कोरोना के खिलाफ और उससे बाहर निकालने के लिए कोई और मार्ग अपनाना पड़ेगा.

प्रश्न उठता है कि यह नया मार्ग निकालने में कौन आगे आता है? अमरीका इसकी लीडरशिप नहीं ले सकता. और न ही चीन क्योंकि दोनों देशों की परिस्थितियां भिन्न है, समाज भिन्न है, सरकार भिन्न है. ऐसे में भारत के पास मौका है की वह ये नेतृत्व ले क्योंकि दुनिया के कई देश आज भारत की तरफ देख रहें हैं.

चीनी शैली में किए लॉकडाउन के चलते हमने देखा कि कैसे बेतहाशा प्रवासी मज़दूर देश भर के शहरों में बेबस सड़कों पर आ गए. ऐसी विकराल मानवीय समस्या और देशों में भी खड़ी होंगे जहां सघन आबादी के साथ सुचारु व्यवस्थाओं का अभाव है. प्रश्न खड़ा होता है कि कैसे ईन देशों में कोरोना का सामना करते हुए जीवन यापन कि समस्याओं का हल ढूंढा जाए?

यह नया मार्ग निकालने में कौन आगे आता है? अमरीका इसकी लीडरशिप नहीं ले सकता. और न ही चीन क्योंकि दोनों देशों की परिस्थितियां भिन्न है, समाज भिन्न है, सरकार भिन्न है. ऐसे में भारत के पास मौका है की वह ये नेतृत्व ले क्योंकि दुनिया के कई देश आज भारत की तरफ देख रहें हैं.

प्रश्न उठता है कि यह नया मार्ग निकालने में कौन आगे आता है? अमरीका इसकी लीडरशिप नहीं ले सकता. और न ही चीन क्योंकि दोनों देशों की परिस्थितियां भिन्न है, समाज भिन्न है, सरकार भिन्न है. ऐसे में भारत के पास मौका है की वह ये नेतृत्व ले क्योंकि दुनिया के कई देश आज भारत की तरफ देख रहें हैं.

अपने में लीन अमेरिका

नेतृत्व की दौड़ और तेज इसलिए हो जाती है क्योंकि नवंबर माह में अमेरिका में चुनाव होने को हैं. ट्रंप इस वक्त उनके प्रशासन द्वारा कोरोना संक्रमण का सामना करने में हुई कमियों पर पर्दा डालने में व्यस्त रहेंगे. अमरीका में साढ़े तीन करोड़ लोग अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे हैं, ट्रंप की पापुलैरिटी रेटिंग निरंतर गिर रही है, 75,000 से ऊपर लोगों की जाने वहां जा चुकी हैं. अमेरिका में रोष है. ऐसे में जन आक्रोश को बाहरी दुशमन चीन की ओर मोड़ वे अपने नागरिकों का ध्यान केन्द्रित करने में लगे हैं. अमेरिका पहले ही विश्व पटल पर से अपने पैर समेटने की कोशिश में लगा है इसलिए इस वक्त उससे किसी भी प्रकार के नेतृत्व की अपेक्षा रखने का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता. चुनावों में अमेरिकी जनता जो भी निर्णय करेगी, जैसा करेगी, उसके साथ विश्व को जीना होगा. जहां तक भारत का प्रश्न है, ट्रंप का समय भी हमने ठीक-ठाक गुजारा बिना किसी बड़ी तकरार में फंसे.

इन परिस्थितियों में यदि हम नेतृत्व का बीड़ा उठाना चाहे तो यह भारत के लिए सबसे अच्छा मौका है. वास्तव में सच तो ये है की कोविड-19 के बाद दुनिया कैसी होगी यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि कोविड-19 से जूझने वाली दुनिया कैसी होगी?

निस्संदेह ट्रम्प के समय अमेरिका विश्व लीडरशिप से निरंतर पीछे हटता चला गया और अपनी समस्याओं में तल्लीन एक नया अमेरिका ही ट्रंप का सबसे बड़ा योगदान रहा. एक ऐसा अमेरिका जिसने अपने सारे गठबंधन अपने सारे दोस्त किसी विचारधारा को लेकर नहीं, बल्कि बाज़ार और व्यापार कि नोक-झोंक में गंवा दिये. अमेरिका का क्या यह बदला स्वरूप आगे जाकर भी इसी रूप में रहेगा या फिर परिवर्तित होगा, यह देखने की बात है. अपितु इतना अवश्य है की कोरोना संकट के चलते हमें और साथ-साथ बाकी विश्व को अमेरिकी नेतृत्व की इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है. हमें सोचना है कि आगे विश्व व्यवस्था का स्वरूप कैसा हो और हम कैसे एक फिर से बहुपक्षीय व्यवस्था का निर्माण कर सकें. यह इसलिए भी आवश्यक है की कोरोना जैसे महामारी के अलावा और कई मुद्दे जैसे पर्यावरण परिवर्तन की चुनौतियां इत्यादि हैं जिनका सभी को साथ मिल कर सामना करना पड़ेगा. आज एक अवसर है, यह अवसर एक ऐसे समय पर आया है जब विश्व की अर्थव्यवस्था सहम गयी है, ठहर गई है — कैसे इसको नए सिरे से शुरू किया जाए, क्या इसे नया मोड दे पाना संभव होगा जिस से आने वाली व्यवस्था अधिक न्याय-संगत हो.

भारत की चुनौतियां एवं अवसर

इन परिस्थितियों में यदि हम नेतृत्व का बीड़ा उठाना चाहे तो यह भारत के लिए सबसे अच्छा मौका है. वास्तव में सच तो ये है की कोविड-19 के बाद दुनिया कैसी होगी यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि कोविड-19 से जूझने वाली दुनिया कैसी होगी? कौन से देश किस प्रकार से कोविड-19 के साथ जूझेंगे. और आगे आने वाली अर्थ व्यवस्था के लिए किस तरह के नियम चलेंगे? क्या चीन सरीका राष्ट्र की अगुआई में चलने वाला पूंजीवाद इसका स्वरूप होगा? क्या कोरोना ने लोगों पर सम्पूर्ण नियंत्रण (सर्विलेंस एंड कंट्रोल) रखने वाले उस विश्व युग की नींव दाल दी है जो चीन में तो पहले से ही कायम है? क्या प्रजातांत्रिक कहलाए जाने वाले देश भी कोरोना के सहारे लोगों पर लगातार पाबंदियां लगा अपनी अर्थव्यवस्था चलाएंगे? यह कुछ मूल भूत प्रश्न हैं जिनके जवाब हम सभी को ढूँढने होंगे.

चीन और अमेरिका कि खींच तान के चलते दुनिया के कई देश एक तीसरे मार्ग कि तलाश में होंगे, इस इंतज़ार में कि चीन अथवा अम्रीका के अलावा कहां से इस संकट का समाधान, और इस समाधान के साथ-साथ नयी विश्व व्यवस्था के संकेत आते हैं.

यह वक्त चुप बैठ चीन की नकल करने का नहीं है. चीनी मार्ग का अनुसरण तो यही सुनिश्चित करेगा कि आगे आने वाली सारी व्यवस्थाओं के नियम बीजिंग में लिखे जाए. ऐसा भारत को मंज़ूर नहीं है और ना ही विश्व के अधिकांश देशों को मंज़ूर होना चाहिए जहां की व्यवस्थाएँ बिलकुल भिन्न हैं. इसलिए महामारी के दौर में आज बहुत देश भारत की ओर देख रहे हैं की कैसे यह देश इस विपदा का सामना करता है. ये सब वे देश हैं जिनकी समस्याएं ना अमेरिका की समस्या है ना चीन की. विकसित दुनिया बड़े सहज रूप से सोशल डिस्टेंसिंग की बातें कर सकती है — पर सोचिए कि क्या मुंबई के धारावी इलाके में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन संभव है? इसी प्रकार ब्राजील में साओ पोलो या दक्षिण अफ्रीका की झोपड़ बस्तियाँ जहां एक कमरे में 10 से 15 लोग रहते हैं सोशल डिस्टेंसिंग सिर्फ ख़्वाब में ही संभव है.

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विकसित दुनिया बड़े सहज रूप से सोशल डिस्टेंसिंग की बातें कर सकती है, पर ब्राजील में साओ पोलो या दक्षिण अफ्रीका की झोपड़ बस्तियाँ — जहां एक कमरे में 10 से 15 लोग रहते हैं — सोशल डिस्टेंसिंग सिर्फ ख़्वाब में ही संभव है. © Getty

इसी प्रकार कोरोना संकट से उभरने के लिए अनुशंसित कई प्रक्रियाँ जो वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गेनाइजेशन चीन से उठा, उसके बाद अमेरिका, यूरोप के रास्ते हिंदुस्तान लाया उसमें कई ख़ामियां हैं. हमें वास्तव में स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप लोगों के सहयोग से ना की शाही फरमान के माध्यम से समाधान करना होगा. यह महामारी अभी जाने वाली नहीं है. यह कुछ समय हमारे बीच रहेगी और इसके साथ रहकर हमें जानें भी बचानी होंगी और अपनी अर्थव्यवस्था भी चलानी होगी, लोगों को जीवनयापन भी देना होगा.

नई विश्व व्यवस्था

अंततः नयी व्यवस्था ना तो अमेरिकी रहेगी और ना ही चीनी रहेगी. व्यवस्था बहु-आयामी रहेगी, बहु-पक्षीय रहेगी. और आज हम जिस अमेरिकी विश्व व्यवस्था की बात करते हैं, अमेरिका ने तो ख़ुद ही उसकी जड़े खोद डाली है.

कोरोना की दस्तक के साथ नई विश्व व्यवस्था का समय तो अवश्य आ गया है, लेकिन जरूरी है कि इस व्यवस्था के नियम है बीजिंग या वॉशिंगटन में न लिख अन्य देशों की राजधानियों में लिखी जाए, उनकी सहभागिता के साथ लिखी जाए और उनकी अपनी ज़रूरतों पर खरे उतरें. आज बीजिंग और वॉशिंगटन की आवश्यकताएँ हमारी आवश्यकता नहीं है. आज के समय में नई नियमावली लिखने की आवश्यकता है और नई नियमावली को निर्धारित करना है की कैसे लोगों को साथ ले कर उनके साथ आगे बढ़ कोरोना संकट का समाधान निकले. ज्यादा से ज्यादा लोगों को हम सुरक्षित कर सकें. ना सिर्फ इस महामारी से बल्कि हमारे देशों में व्याप्त अन्य महामारियाँ जैसे की कुपोषण, अस्वछ्ता उन सभी पर विजय पा सकें. ऐसा ना हो कि हम इस महामारी से लड़ते-लड़ते हमारी बाकी लड़ाइयां पीछे छूट जाए और परिणाम कोविड-19 से भी भयंकर हो.

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