भारत, जहां सितंबर 2020 में हर दिन कोविड-19 के एक लाख़ से ज़्यादा नए केस सामने आ रहे थे, वहां अब ऐसा लग रहा है कि प्रतिदिन नए केस का औसत 45 हज़ार के आस-पास स्थिर हो गया है. भारत में इस वक़्त एक्टिव केस की संख्या 5 लाख से कम हो गई (ग्राफ 1) है, जो जुलाई महीने के स्तर के बराबर ही है. ये आंकड़ा देश में अब तक कोविड-19 से संक्रमित लोगों की कुल संख्य़ा का छह प्रतिशत है. जब देश में हर दिन लगभग दस लाख लोगों का कोरोना टेस्ट किया जा रहा है, फिर भी भारत में टेस्ट से सामने आ रहे नए संक्रमण की साप्ताहिक संख्य़ा पांच प्रतिशत से कम रह रही है. ये सीमा यह बताती है कि इस स्तर पर भारत को लॉकडाउन के दौर से बाहर आ जाना चाहिए. साफ़ है कि भारत में कोविड-19 के नए केस की लगातार घटती संख्य़ा अब केवल टेस्टिंग की कमी का नतीजा नहीं है.
केरल में नए संक्रमण की लगातार बढ़ी संख्या के बावजूद, केंद्र सरकार ने केरल की इस बात के लिए तारीफ़ की थी कि वो अपने यहां इस महामारी से मौत की दर अन्य राज्यों की तुलना में कम रखने में सफल रहा है.
लेकिन, अभी भी कुछ राज्य और इलाक़े ऐसे हैं, जहां हर दिन कोविड-19 के नए केस भारी संख्य़ा में सामने आ रहे हैं. जैसे कि केरल, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक और हरियाणा. त्यौहारों के सीज़न और शादी-ब्याह के चलते तेज़ी से कोविड संक्रमण वाले राज्यों की इस सूची में इज़ाफ़ा होने की ही आशंका है.
केरल में नए संक्रमण की लगातार बढ़ी संख्या के बावजूद, केंद्र सरकार ने केरल की इस बात के लिए तारीफ़ की थी कि वो अपने यहां इस महामारी से मौत की दर अन्य राज्यों की तुलना में कम रखने में सफल रहा है. लेकिन, अनाधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि केरल में कोविड से मरने वालों में से आधे लोगों की संख्या तो सरकारी आंकड़ों के दायरे से संस्थागत तरीक़े से अलग रखी जा रही है.
पुराना ‘केरल मॉडल’
अब जबकि पूरे देश में कोविड के केस की संख्य़ा घट रही है, और नए संक्रमण की तुलना में, रिकवर हुए लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है. लेकिन, केरल में नए संक्रमण की लगातार बढ़ती संख्य़ा ने इसे नए चलन का अपवाद बना दिया है. केरल इस समय देश का सबसे बड़ा कोविड हॉटस्पॉट है- राज्य में इस समय लगभग एक लाख एक्टिव केस हैं (ग्राफ 2). जबकि केरल से लगभग चार गुना अधिक आबादी वाले महाराष्ट्र में क़रीब 90 हज़ार ही एक्टिव केस हैं. केरल में नए संक्रमण की अचानक आई बाढ़, इसकी उस कामयाबी के क़रीब हैं, जो उसने कोविड महामारी के शुरुआती दौर में हासिल की थी. जबकि तब केरल की इस सफलता का लोहा पूरी दुनिया ने माना था. केरल में टेस्टिंग की पॉज़िटिविटी लगभग दस प्रतिशत बनी हुई है, जो देश में सबसे अधिक है. ज़ाहिर है कि लगातार बढ़ते नए संक्रमण ये बताते हैं कि केरल को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है.
केरल में नए संक्रमण की अचानक आई बाढ़, इसकी उस कामयाबी के क़रीब हैं, जो उसने कोविड महामारी के शुरुआती दौर में हासिल की थी. जबकि तब केरल की इस सफलता का लोहा पूरी दुनिया ने माना था.
पिछले कुछ महीनों के दौरान राज्य में लगातार बढ़ते कोविड संक्रमण के कारण अब कहा जाने लगा है कि केरल, इस महामारी का मुक़ाबला कर पाने में असफल रहा है. पर ऐसा कहना केरल के साथ नाइंसाफी होगी. पर, इसके लिए ‘केरल मॉडल’ की सफ़लता का शुरुआत में ही मनाया गया जश्न भी है, जिसे कोविड-19 के प्रबंधन के किसी जादुई फॉर्मूले सरीखा प्रचारित किया गया था. इसके लिए वो टिप्पणीकार अधिक ज़िम्मेदार हैं, जिन्होंने शुरुआती दौर में कोरोना वायरस से निपटने के केरल के सफल अभियान की कुछ ज़्यादा ही तारीफ़ कर दी थी. तब ऐसा लग रहा था कि केरल ने ये रेस जीत ली है. जबकि सच्चाई ये थी कि वो तो महामारी से मुक़ाबले के मैराथन का पहला दौर ही था. आज जो लोग ये कहकर कि केरल महामारी को रोक पाने में नाकाम रहा है, उसकी शुरुआती सफलता को ख़ारिज कर रहे हैं, वो भी वैसी ही ग़लती दोहरा रहे हैं.
कम मौतों का रहस्य
देश में कोविड-19 के मरीज़ की पुष्टि करने वाला केरल पहला राज्य था. वहां जनवरी में पहला संक्रमित व्यक्ति मिला था. जबकि बाक़ी राज्यों में कोविड-19 के मामले मार्च महीने में आने शुरू हुए थे. कोरोना वायरस से भी घातक निपाह वायरस से निपटने के अनुभव का लाभ उठाते हुए, केरल की स्वास्थ्य व्यवस्था ने कोविड-19 के लिए असरदार प्रोटोकॉल लागू किए और महामारियों से निपटने के प्रामाणिक तरीक़े यानी जल्दी टेस्टिंग, केस आइसोलेशन और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के साथ साथ बेहद सजग सामुदायिक निगरानी सिस्टम को लागू किया. इसके साथ साथ राज्य की पुलिस ने बेहद सख़्ती से लॉकडाउन को लागू किया. हज़ारों लोगों को घर में क्वारंटीन कर दिया गया. राज्य सरकार द्वारा लगाई गई अन्य पाबंदियों का सरकार की ओर से सख़्ती से पालन कराया गया. इसके अलावा फ़ोन से निगरानी और पास-पड़ोस के लोगों की चौकसी ने भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान दिया.
केरल की स्वास्थ्य व्यवस्था ने कोविड-19 के लिए असरदार प्रोटोकॉल लागू किए और महामारियों से निपटने के प्रामाणिक तरीक़े यानी जल्दी टेस्टिंग, केस आइसोलेशन और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के साथ साथ बेहद सजग सामुदायिक निगरानी सिस्टम को लागू किया.
इन उपायों के ज़रिए, केरल ने अगस्त महीने की शुरुआत तक संक्रमण की चेन तोड़ने में ज़बरदस्त सफलता प्राप्त कर ली थी. उस समय केरल में प्रति दिन लगभग एक हज़ार नए केस सामने आ रहे थे, जिसने निपटना तुलनात्मक रूप से आसान था. उस समय राज्य में कुल एक हज़ार एक्टिव केस ही थे. शुरुआत से ही अति सक्रियता दिखाकर, केरल ने इस महामारी से मरने वालों की तादाद बहुत सीमित रख पाने में कामयाबी प्राप्त की थी. अगस्त की शुरुआत तक, केरल में कोविड-19 से केवल 80 लोगों की जान गई थी. लेकिन, ऐसा लगता है कि लगभग छह महीने तक बेहद सख़्त लॉकडाउन में रहने के कारण, राज्य के लोग बहुत उकता गए. फिर अगस्त महीने में पड़े ओणम के त्यौहार के दौरान लोग घरों से बाहर निकले, जिससे कि वो अपने दोस्तों और परिजनों से मिल सकें और ख़रीदारी कर सकें. इसके साथ ही साथ, भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर उठे राजनीतिक विवादों के चलते, बहुत से लोगों ने सड़क पर उतरकर विरोध प्रदर्शन भी किए. इस सभी कारणों से केरल में अचानक से कोविड संक्रमण मामलों की बाढ़ सी आ गई.
मीडिया में इस महामारी से निपटने में केरल की सफलता का कुछ ज़्यादा ही ढोल पीटा गया. शायद इस कारण से भी केरल की जनता वायरस को लेकर लापरवाह हो गई. इसके बाद तो केरल में कोविड-19 के संक्रमण के मामलों का तूफ़ान सा आ गया. हर रोज़ नए केस के मामलों ने दस हज़ार का भी आंकड़ा पार कर लिया. इसके बावजूद, केरल में इस महामारी से मरने वालों की संख्य़ा को सीमित रखा जा सका. केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नियमित रूप से प्रेस को दी जाने वाली जानकारी में केरल की इस कामयाबी का ख़ास ज़िक्र ये कहकर किया जाता था कि किस तरह केरल ने मरीज़ों की तादाद बढ़ने के बावजूद, वायरस से मृत्यु की दर को क़ाबू में रखा है.
शुरुआती सफ़लता का शिकार बना केरल
वायरस की रोकथाम के लिए केरल द्वारा शुरुआत में ही बेहद सख़्त क़दम उठाए गए थे. ये उपाय कई महीनों तक बेहद प्रभावी और सफल रहे; लेकिन, इसका अर्थ ये भी हुआ कि संक्रमण से पैदा होने वाली इम्युनिटी या रोग प्रतिरोधक क्षमता भी केरल में बहुत कम रह गई. ये तर्क इस तथ्य पर आधारित है कि अगस्त महीने के आख़िर में हुए सर्वे के मुताबिक़, केरल की आबादी के बीच इस महामारी से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता (seroprevalance) महज़ 0.8 प्रतिशत थी, जो बाक़ी देश के औसत से आठ गुना कम थी. इसके समानांतर, केरल मॉडल की सफलता के बखान और कोविड-19 से निपटने के कुशल तरीक़ों की वैश्विक स्तर पर सराहना के चलते, केरल के अधिकारी इस महामारी से निपटने के अपने तरीक़ों को लेकर अति आत्मविश्वास के शिकार हो गए. इसके साथ साथ, अधिक लोगों की मदद से होने वाले कामों यानी कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग-जिसे अक्सर पुलिस कर्मियों की मदद से अंजाम दिया गया-का काम कई महीनों के सघन प्रयास के चलते आगे चलाते रहना भी मुश्किल हो गया.
केरल में हर दिन हज़ारों अप्रवासी मज़दूर उन देशों से लौट कर आ रहे थे, जहां पर कोविड ने क़हर बरपाया हुआ था. ऐसे में अगस्त महीने में केरल का माहौल महामारी के विस्फोट के लिए बिल्कुल मुफ़ीद था.
सच तो ये है कि सख़्त उपायों के कारण, केरल में अन्य राज्यों के मुक़ाबले इस महामारी ने असली रंग, बाक़ी राज्यों की तुलना में पांच महीनों बाद दिखाना शुरू किया. महामारी का सामुदायिक संक्रमण, सख़्त उपायों के बाद केरल में देर से शुरू हुआ. इसकी बड़ी वजह शुरुआत से ही सख़्ती लागू करना रही, जिसके कारण अन्य राज्यों की तुलना में केरल में कोविड-19 की भयावाहता वाला दौर भी बाद में आया. जैसे कि, दिल्ली में ये महामारी तीसरे पीक दौर से गुज़र चुकी है. वहीं, केरल में इस महामारी ने पहली पार शीर्ष पर पहुंचने की दुख़द उपलब्धि हाल ही में हासिल की. केरल में हर दिन हज़ारों अप्रवासी मज़दूर उन देशों से लौट कर आ रहे थे, जहां पर कोविड ने क़हर बरपाया हुआ था. ऐसे में अगस्त महीने में केरल का माहौल महामारी के विस्फोट के लिए बिल्कुल मुफ़ीद था. कोविड-19 का संक्रमण बढ़ाने में ओणम के त्यौहार की गतिविधियों ने आग में घी का काम किया.
लेकिन, राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों पर शुरुआत में बनी अपनी उस इमेज को बरक़रार रखने का बहुत अधिक दबाव था कि इस महामारी को रोकने का मॉडल दुनिया को केरल ने ही दिखाया. इस बार केरल ने अपनी सफ़लता का नया पैमाना गढ़ने की कोशिश की, जो महामारी का संक्रमण रोकने के बजाय मौत की दर सीमित रखने पर आधारित था. केरल की स्वास्थ्य मंत्री सुश्री के.के. शैलजा ने मीडिया से कहा कि, ‘अंत में जो बात सबसे अहम है वो ये है कि हम किस तरह मृत्य दर को सीमित रख पाते हैं; हम कितने लोगों की जान बचा पाते हैं. यही हमारा लक्ष्य है. हमारे राज्य में मृत्यु दर अभी 0.4 प्रतिशत से कम है. 0.36 प्रतिशत की मृत्यु दर दुनिया में सबसे कम है.’
कोविड से होने वाली मौतों का ग़लत वर्गीकरण
यही वो कारण है कि केरल द्वारा संस्थागत तरीक़े से कोविड-19 की मौतों की कम जानकारी का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है. जहां राज्य सरकार के अधिकारी ये दावा करते हैं कि राज्य की कम मृत्यु दर महामारी के सटीक प्रबंधन का नतीजा है. वहीं, उपलब्ध आंकड़े बिल्कुल अलग ही कहानी बयां करते हैं. कुछ स्वयंसेवी लोग, केरल के ज़िला स्तरीय मौत के अनाधिकारिक डेटा जैसे कि अख़बारों से शुरुआत से ही कोविड-19 से मौत के आंकड़े जुटा रहे हैं. जैसा कि हम सारणी 1 से देख सकते हैं कि 11 नवंबर तक केरल में सरकार ने केवल 57 प्रतिशत मौतो को कोविड-19 के कारण हुई मौत माना है. बाक़ी मौतों को वो अन्य बीमारियों से जान जाने का मामला मानती है.
केरल और कोविड-19 के हॉटस्पॉट वाले राज्यों में अंतर ये है कि केरल में मौत के आंकड़ों की कम गिनती जान-बूझकर बिल्कुल संस्थागत तरीक़े से की जा रही है, इसमें व्यवस्था की कमज़ोरी की कोई भूमिका नहीं है. केरल में तो शायद निगरानी की सबसे मज़बूत व्यवस्था है और यहां तो सरकार की नियुक्त की हुई समिति भी है, जो स्वास्थ्य विभाग को ये बताने का हक़ रखती है कि वो मौत के आंकड़ों का ग़लत वर्गीकरण कर रही है. लेकिन, अब तक मौत के वास्तविक आंकड़ों और सरकारी आंकड़ों के बीच का फ़र्क़ पाटने की कोई कोशिश नहीं की गई है. ऐसा लगता है कि अधिकारी इस बात को मान कर बैठे हैं कि उन्हें किसी भी क़ीमत पर अपनी कोविड-19 से सफल मुक़ाबले की कहानी में दाग़ लगने से रोकना है. विडंबना तो ये है कि अगर केरल में कोविड-19 से मौत के सभी आंकड़ों को जोड़ लिया जाए, तो भी मृत्यु दर के मामले में केरल की अब तक की उपलब्धि असाधारण ही कही जाएगी.
मीडिया सफलता और असफ़लता के जिस पैमाने को बढ़ावा दे रहा है, उसमें संक्रमण या मौत की अधिक संख्य़ा को असफ़लता का पैमाना बना दिया गया है. इससे बात और बिगड़ रही है. महामारी से निपटने में सफ़लता के इस वर्गीकरण को केंद्र की सरकार भी मान चुकी है.
राज्य स्तर के स्वास्थ्य अधिकारी, बड़ी सक्रियता से मौत के आंकड़े छुपा रहे हैं, जबकि ज़िला स्तर के अधिकारी कोविड-19 से मौत के वास्तविक आंकड़ों की जानकारी दे रहे हैं. लेकिन, मौत को अन्य बीमारियों से हुई मृत्यु कहकर, कोविड-19 से मौत के असली आंकड़ों पर पर्दा डाला जा रहा है. उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि मीडिया से छुपाने के लिए, आंकड़ों की ये हेरा-फेरी राज्य की राजधानी तिरुवनंतपुरम से दूर के ज़िलों में की जा रही है, जबकि तिरुवनंतपुरम केरल का सबसे बड़ा कोविड हॉटस्पॉट है. इसकी एक मिसाल है, पथानमथिट्टा ज़िला, जहां ज़िला अधिकारी के मुताबिक़, 11 नवंबर तक कोविड से ज़िले में 101 लोगों की जान जा चुकी है. लेकिन, राज्य स्तर के अधिकारियों ने ये जानकारी, केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को देने से इनकार किया है. राज्य के अधिकारी इन मौतों को अन्य बीमारियों से हुई मौत कहते हैं. केरल के स्वास्थ्य सेवाओं के निदेशालय के मुताबिक़ तो, पथानमथिट्टा में कोविड-19 से केवल 16 लोगों की जान गई है.
राज्य स्तर के स्वास्थ्य अधिकारी, बड़ी सक्रियता से मौत के आंकड़े छुपा रहे हैं, जबकि ज़िला स्तर के अधिकारी कोविड-19 से मौत के वास्तविक आंकड़ों की जानकारी दे रहे हैं. लेकिन, मौत को अन्य बीमारियों से हुई मृत्यु कहकर, कोविड-19 से मौत के असली आंकड़ों पर पर्दा डाला जा रहा है.
राज्य के सियासी तौर पर गर्म माहौल में पिनारायी विजयन की सरकार पूरी ताक़त से इस बात में जुटी है कि किसी भी तरह जनता का ध्यान भ्रष्टाचार के मामलों की जांच से हटाया जा सके. इसके लिए कोविड महामारी से मुक़ाबले में केरल की जीत का ढोल ऐसे बजाया जा रहा है, जैसे केरल ने कोई ओलंपिक मेडल जीत लिया हो. मीडिया सफलता और असफ़लता के जिस पैमाने को बढ़ावा दे रहा है, उसमें संक्रमण या मौत की अधिक संख्य़ा को असफ़लता का पैमाना बना दिया गया है. इससे बात और बिगड़ रही है. महामारी से निपटने में सफ़लता के इस वर्गीकरण को केंद्र की सरकार भी मान चुकी है. ये बात केंद्र सरकार की नियमित प्रेस ब्रीफिंग से ज़ाहिर होती है. जहां कुछ (गिने-चुने मामलों) के वैश्विक मानक का हवाला देकर, जनता को ये भरोसा दिलाने की कोशिश की जाती है कि हम इस महामारी से कितनी कुशलता से निपट रहे हैं, जबकि बाक़ी दुनिया ऐसा कर पाने में नाकाम रही है. केरल के अनुभव से साफ़ है कि इस फ़रेब से जनसेवकों की जवाबदेही पर सबसे बुरा असर पड़ा है. मृत्यु के झूठे आंकड़ों की रिपोर्टिंग से लापरवाही का भाव पैदा हो रहा है. लंबी अवधि में इससे महामारी से मुक़ाबले की केरल के स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमता पर बहुत विपरीत असर पड़ेगा.
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