कड़े मुकाबले के बाद भारतीय जनता पार्टी ने लगातार छठी बार विधानसभा चुनाव जीत कर गुजरात पर फिर से अपना कब्जा बरकरार रखा है। इसके साथ, उसने हिमाचल प्रदेश को भी कांग्रेस से छीन लिया है।
अगर गुजरात के नतीजे पर गहराई से नजर डालें, जिन्हें लेकर कुशल नेतृत्व की सफलता के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं, तो इसके उलट यह शिकस्त खाई भाजपा की छवि ही पेश करता है।
गुजरात ने कांग्रेस को एक मनोवैज्ञानिक विजय दी है, जबकि भाजपा की नैतिक हार हुई है, फिर भी वह सरकार बनाने में सक्षम हो गई है। अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव से पहले के अंतिम दो हफ्ते गुजरात में धुआंधार प्रचार अभियान न करते तो भाजपा की यह मौजूदा स्थिति नहीं रह सकती थी।
गुजरात चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि कांग्रेस मुक्त देश बनाने का भाजपा का वादा केवल लोगों को गुमराह करने के लिए है। कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी ने जताया है कि वह भाजपा से भिड़ने के लिए तैयार हैं।
राहुल गांधी ने देश के पश्चिमी राज्य में अपने लम्बे चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक विमर्श के जरिये घृणा को प्यार से और नकारात्मकता को सकारात्मकता से मुकाबला करने की नई रिवायत दी है। उन्होंने चुनाव परिणाम बाद किये ट्वीट में कहा, ‘कांग्रेस के मेरे भाइयों एवं बहनों! आप सब ने मुझे गौरवान्वित किया है। आप उनसे भिन्न हैं, जिनके साथ आप लड़ रहे हैं; क्योंकि आपने क्रोध के साथ भी मर्यादा से लड़ा है।’
हालांकि यह पहले से तय था कि हिमाचल प्रदेश में भाजपा जीत रही है, इसलिए भी कि प्रत्येक पांच साल पर वहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सत्ता की अदला-बदली होती रही है। भाजपा का गुजरात में प्रदर्शन, जहां उसका 2012 की तुलना में 16 सीटों के नुकसान के साथ 100 सीटों पर ही सिमट जाना सत्ताधारी पार्टी के लिए गहरा आघात है और एक खतरनाक संकेत है।
हिमाचल प्रदेश में तो कांग्रेस की हार एक जानी हुई बात थी, क्योंकि यहां वह न केवल सत्ता-विरोधी (एंटी इन्कम्बेंसी) रुझानों से जूझ रही थी, बल्कि मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के भ्रष्टाचार के चलते भी जनता के बीच पार्टी की छवि को गहरा धक्का लगा था। कांग्रेस में फूट पड़ी थी। इसके अलावा, वीरभद्र सिंह ने खुद के सिवा पार्टी नेतृत्व की दूसरी पंक्ति को उभरने नहीं दिया था और इसके चलते भी पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा है।
अब जरा गुजरात के परिणामों पर करीब से नजर डालें। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 150 सीटों पर जीत का लक्ष्य तय किया था, लेकिन भाजपा को 2012 के विधानसभा चुनाव से भी कम सीटें मिलीं। उस चुनाव में भाजपा को 116 सीटें मिली थीं। अबकी जीत भी तब मिली, जब खुद प्रधानमंत्री मोदी ने 37 रैलियां कीं और शाह ने 43 जन-सभाएं कीं। इनके अलावा, 30 से ज्यादा केंद्रीय मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश के नये चुने गए 14 मेयर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता और उसके सैकड़ों कार्यकर्ताओं को गुजरात में तैनात करना पड़ा। इतनी कवायद के बावजूद विधानसभा में बहुमत के लिए तय अंक से मात्र सात सीटें ही ज्यादा मिल पाई।
वास्तव में, भाजपा का शीर्ष नेतृत्व गुजरात में कोई जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं था और इसलिए उसने पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला का बागी होना सुनिश्चित किया ताकि उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की चुनावी संभावनाएं धूमिल हो जाएं। वाघेला अपने वफादार 14 विधायकों के साथ कांग्रेस से अलग हो गए। इतना ही नहीं, वाघेला ने विपक्षी कांग्रेस का वोट काटने के लिए 105 विधानसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार भी खड़े किये। लेकिन वोटरों ने भाजपा का खेल समय रहते समझ लिया और वाघेला के एक भी प्रत्याशी को जीत नसीब नहीं हुई, यहां तक कि उनकी जमानत जब्त हो गई।
भाजपा नेतृत्व शुरुआत से ही चिंतित था। इसलिए पहले तो इसने चुनाव आयोग के जरिये एक महीने की देरी से चुनाव (हिमाचल प्रदेश के साथ ही गुजरात चुनाव की घोषणा होनी थी) की घोषणा कराई। फिर संसद का शीतकालीन सत्र आगे के लिए टाला गया ताकि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों को गुजरात में चुनाव प्रचार का भरपूर समय मिल सके। आखिरी चरण के प्रचार में तो मोदी यहां तक चले गए कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी, पूर्व सेनाध्यक्ष दीपक कपूर और पाकिस्तान में रहे भारत के तीन पूर्व उच्चायुक्तों पर गुजरात में भाजपा के शासन का अंत कराने के लिए पाकिस्तान से मिल कर साजिश रचने का आरोप लगा बैठे। ऐसे घटिया, विषाक्त और गाली-गलौज के वातावरण के चलते ही गुजरात में राजनीतिक बहस का स्तर निम्न होकर रह गया।
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इतना सब कुछ करने के बावजूद भाजपा की सीटें खिसक गई और लोक सभा चुनाव की तुलना में उसकी वोटों में हिस्सेदारी में भी कमी आई। हालांकि 2012 विधानसभा चुनावों की तुलना में उसके वोट प्रतिशत में मामूली सुधार हुआ। लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली उसकी जीत के हिसाब से आकलन किया जाए तो भाजपा को इस विधानसभा चुनाव में कम से कम 160 सीटों पर जीत दर्ज करानी चाहिए थी।
भाजपा ने यह कह कर कि ‘जीत तो जीत है’ अपनी हार को छिपाने का प्रयास किया है और गुजरात में एक तरहं की पराजय को एक आवरण देने काम किया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात में मिली कम सीटों के लिए कांग्रेस द्वारा राजनीति बहस को निम्न स्तर पर लाने और जाति का सहारा लेने को जिम्मेदार ठहराया है।
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कांग्रेस के बारे में यह दावा कि हार्दिक पटेल, जिग्नेश मवानी और अल्पेश ठाकोर के साथ गठबंधन करने से पार्टी के मौजूदा प्रदर्शन में सुधार आया है, परिणामों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है क्योंकि हरेक विरोधी पार्टी सत्ता पक्ष की खामियों से भरसक फायदा उठाना चाहेगी। इसमें कोई शक नहीं कि ये तीनों युवा नेता सामाजिक असंतोष और प्रदेश में हुए सरकार विरोधी अभियानों को सत्ता पक्ष द्वारा ठीक से न संभाले जाने से उभरे हैं। वास्तव में, इन तीनों युवा नेताओं के आक्रोश को बखूबी संभालने का श्रेय कांग्रेस को जाता है जिससे कि उनकी हताशा सकारात्मक ऊर्जा में और प्रखर होकर लोकतांत्रिक हिस्सेदारी में बदल गई। दरअसल, मेवानी और ठाकोर की जीत ने भाजपा के इस दावे को गलत साबित कर दिया है कि कांग्रेस ने चुनावी फायदे के लिए जाति का इस्तेमाल किया है।
भाजपा ज्यादातर शहरी इलाकों जीती है तो कांग्रेस को ग्रामीण विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बरकरार रही है, यह परिणाम शहरों और गांवों में बढ़ती खाई को दर्शाता है।
भाजपा को अहमदाबाद, सूरत, राजकोट और वडोदरा की 87 फीसद सीटें मिली हैं। वहीं, भाजपा और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में भी सुधार हुआ है। भाजपा को इस बार के चुनाव में पहले के मुकाबले 3.5 प्रतिशत मत तो कांग्रेस को 1.2 प्रतिशत वोट ज्यादा मिले हैं।
यद्यपि कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों राज्य गंवाए हैं, लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी 2014 के लोक सभा चुनाव में सबसे बुरे प्रदर्शन के मुकाबले एक ताकतवर शक्ति के रूप में उभरी है।
दोनों राज्यों में तीसरी पार्टियों का वजूद मिट गया है; इस तरह गैर भाजपा और गैर कांग्रेस पार्टियों के लिए यहां कोई जगह नहीं बची है।
इन विधानसभा चुनावों का अन्य महत्वपूर्ण संदेश कांग्रेस के नये अध्यक्ष राहुल गांधी हैं, जिन्होंने गुजरात में स्फूर्तिमय चुनाव प्रचार का नेतृत्व कर अपने को एक नेता के रूप में स्थापित कर लिया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस अगले वर्ष भाजपा शासित मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ समेत आठ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों और इसके अगले साल 2019 के आम चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर देगी।
राहुल गांधी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए एजेंडा तय करने में सफल हो गए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष ने गुजरात में मंदिरों में दर्शन कर मोदी को रक्षात्मक होने पर मजबूर करते हुए उस राजनीतिक जमीन पर अपना दावा ठोक दिया, जिसे उनकी पार्टी अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन के बाद से भाजपा और आरएसएस के हाथों गंवा चुकी थी।
आरएसएस और भाजपा ने कांग्रेस को हिंदू-विरोधी पार्टी घोषित कर रखा था। लेकिन राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के प्रचार अभियान में आवश्यक बदलाव किया और अपनी लड़ाई को भाजपा के खेमे तक ले गए। उन्होंने यह सफलतापूर्वक साबित किया कि असल मुकाबला सभी धर्मों का समान आदर करने वाले एक अच्छे हिंदू और उस बुरे हिंदू के बीच है, जो केवल अपने धर्म की सोचता है और दूसरे धार्मिक विश्वासों का तिरस्कार करता है।
गुजरात में कांग्रेस के ताजा प्रदर्शन से कांग्रेस पार्टी में नई जान आने की आशा है। गुजरात के चुनावी नतीजों का संदेश यह है कि प्रधानमंत्री की अपराजेय छवि को खुरच दिया गया है, वहीं यह आने वाले चुनावों में विपक्षी पार्टियों को उत्साह से लबरेज करेगा। राष्ट्रीय राजनीति पर इसका व्यापक अर्थों में असर होने जा रहा है।
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