Raisina Dialogue 2019 के रन-अप में, ORF एक नई श्रृंखला प्रकाशित कर रहा है। यह इस श्रृंखला का दूसरा हिस्सा है।
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साल 2050 तक अफ़्रीका सबसे ज़्यादा श्रमिकों वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश होगा। तब, दुनिया का हर चार में से एक शख़्स अफ़्रीका का होगा। इसकी आबादी भारत और चीन की आबादी को पीछे छोड़ देगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था-उत्पादन और खपत दोनों ही मायनों में बड़ी भूमिका निभाएगा। सीधे शब्दों में कह सकते हैं कि अफ़्रीका इतना बड़ा हो जाएगा कि इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
हालांकि अभी इस महाद्वीप का औद्योगिकीकरण नहीं हुआ है। यहां की आबादी का विस्तार या तो एक बड़ी उछाल हो सकती है या फिर एक आपदा, ये तय करने के लिए अपने-अपने अलग-अलग नज़रिए हैं। आकार और पैमाने के बावजूद अफ़्रीका अपने विशाल कार्यक्षमता के लिए जाना जाता है। हालांकि वैश्विक मामलों के ऊपर होनेवाली सार्थक बहस और चर्चा से इसे दूर रखा जाता है। बावजूद इसके सही नीतियों के साथ इसे फिर से बदलने का एक मौक़ा है।
अगर अफ़्रीका महाद्वीप को फलना-फूलना है, आगे बढ़ना है तो तीन बड़ी नीतियों पर काम करने की ज़रूरत होगी: लोकतंत्र और विकास के बीच तनाव, वैश्विकरण बनाम संरक्षणवाद, और क्या तकनीक अफ़्रीका के आगे बढ़ने में मददगार होगा। अफ़्रीका की सबसे ज़रूरी प्राथमिकता है — समावेशी विकास — महाद्वीप का भविष्य इस बात पर तय करेगा कि समावेशी विकास किस तरह इन तनावों के बीच सामंजस्य बिठाता है।
अपने आकार और पैमाने के बावजूद अफ़्रीका अपनी विशाल क्षमता के लिए जाना जाता है, बावजूद इसके वैश्विक मामलों के ऊपर होनेवाली सार्थक बहस और चर्चा से इसे दूर रखा जाता है। अफ़्रीका की सबसे ज़रूरी प्राथमिकता है — समावेशी विकास — महाद्वीप का भविष्य तय करने में ये महत्वपूर्ण होगा कि समावेशी विकास किस तरह इन तनावों के बीच सामंजस्य बिठाता है।
लोकतंत्र या विकास?
जो व्यवस्था भूख की राजनीति का बेहतरीन हल खोज पाएगी, उसको लेकर बहुत सारी धारणाएं हैं। आलोचक बताते हैं कि लोकतंत्र की पश्चिमी अवधारणा अफ़्रीका के लिए सही नहीं बैठती है — ख़ास कर तब से जब से अफ़्रीकी देशों को वो करने के लिए कहा जा रहा है जो अब तक किसी महाद्वीप ने नहीं किया है, औद्योगिकीकरण और लोकतंत्रीकरण साथ-साथ।
इसलिए विकासवादी अधिकारिता मॉडल की वकालत की गई है। आलोचक ये भी कहते हैं कि पिछले दो दशक से भी ज़्यादा समय से बढ़ती राजनीतिक स्थिरता, नियमित और शांतिपूर्ण चुनाव और राजनीतिक जीवन में सेना के दख़ल में कमी के बावजूद भी अफ़्रीका के लोकतांत्रिक फ़ायदे का हिस्सा आर्थिक लाभ में परिवर्तित नहीं हुआ है। बजाय इसके कहा जाता है कि लोकतंत्र और विकास साथ-साथ असंगत हैं- ख़ास कर रवांडा और इथोपिया की सफलता को देखते हुए — जिन्होंने लोकतांत्रिक ढांचे के बाहर अपने लोगों की ज़िंदगी में सार्थक सुधार लाया है।
विशेषज्ञ सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, चीन, इंडोनेशिया और ताइवान जैसे देशों को मिसाल के तौर पर पेश करते हैं जिन्होंने कठोर राजनीतिक नियंत्रण के साये में आधुनिकता का लिबास पहना है। मशहूर अर्थशास्त्री अर्मत्य सेन ने इसे ली थीसिस का नाम दिया है। ली थीसिस कहता है कि लोकतंत्र और मानवाधिकार विलासिता की चीज़ें हैं जिसे तभी हासिल करना चाहिए जब विकास एक तय पैमाने तक पहुंच जाए। इस विचारधारा के समर्थक कहते हैं कि वोट, चुनाव या अभिव्यक्ति की आज़ादी से पेट नहीं भरता है। अगर जीवन-यापन की गुणवत्ता में सुधार हुआ तो लोग राजनीतिक बहुलतावाद को आसानी से त्याग देंगे।
हालांकि इस तरह की व्यवस्था के सुचारू तरीक़े से काम करने में सबसे बड़ी बाधा नेतृत्व की गुणवत्ता है। निरंतर विकास सुनिश्चित करना पूरी तरह से उदार और प्रबुद्ध तानाशाह पर निर्भर करता है। हालांकि, चूंकि ऐसी व्यवस्था संस्थाओं की ताक़त और राजनीतिक असंतोष को कम करने पर निर्भर करती है, इसलिए आर्थिक मॉडल की स्थिरता और इसके कमज़ोर फ़ायदे का ख़तरा इसमें छुपा होता है। यदि बेहद कुशल, उदार तानाशाह की बजाय कम कुशल, भ्रष्ट निरंकुश शासक सत्ता में आए तो जो देश सवालों में हैं उन पर आसानी से नाकाम राज्यों की श्रेणी में आने का ख़तरा बढ़ जाएगा। ये साफ़ हो गया है कि एक देश के लिए व्यवस्था या राजनीतिक संरचना से ज़्यादा ज़रूरी है-प्रभावी शासन।
ये साफ़ हो गया है कि एक देश जो व्यवस्था या राजनीतिक संरचना अपनाता है, उसकी परवाह किए बिना जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो है प्रभावी शासन।
अफ़्रीका में ट्रेंड बदल रहा है। जहां पूर्वी अफ़्रीका सत्तावाद और असंतोष के दमन के बढ़ते संकेत दे रहा है, वहीं दक्षिणी अफ़्रीका में — दक्षिण अफ़्रीका, बोत्सवाना, अंगोला और ज़िम्बाब्वे जैसे देशों में लिबरेशन मूवमेंट ने सुधार के एजेंडे को बल दिया है। इस बीच पश्चिमी अफ़्रीका में गाम्बिया, सिएरा लियोन और लाइबेरिया जैसे देशों में लगातार सत्ता परिवर्तन, न्यायिक आज़ादी और राष्ट्रपति पद की सीमाओं के सम्मान के साथ लोकतांत्रिक ढांचे को मज़बूत कर रहा है।
इस सर्कल को कैसे बढ़ाया जा सकता है?
ये साफ़ हो गया है कि- एक देश जो व्यवस्था या राजनीतिक संरचना अपनाता है, उसकी परवाह किए बिना जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो है प्रभावी शासन। जिस तरह से इन मुद्दों का सामना किया जाता है वो आख़िरी नतीजे से कम महत्वपूर्ण होता है। नेतृत्व इस समीकरण का महत्वूर्ण घटक है।
वैश्विकरण या संरक्षणवाद?
हाल के वर्षों में पारंपरिक आर्थिक नीतियों का स्वरूप बदलते वैश्विक राजनीति के साथ बदला है। वर्तमान में ‘संरक्षणवाद बनाम वैश्विकरण’’ की बहस अफ़्रीकी नीति के टॉप एजेंडे पर है। क्या अफ़्रीका महाद्वीप अमेरिका या चीन की तरह एक बाहरी दिखनेवाले एजेंडे को अपनाएगा? क्या युआन या डॉलर में फ़ंडिंग और निवेश सुरक्षित होगा? शुरुआती संकेत बताते हैं कि अफ़्रीका के नीति निर्माता दोनों ही रास्तों को कई अलग-अलग रूपों में चुनेंगे। ऐसा लगता है कि नीति निर्धारण में विचारधारा नहीं, व्यावहारिकता मार्गदर्शक की भूमिका के तौर पर उभर रहा है।
बड़े पैमाने पर जब दुनिया का बाक़ी हिस्सा अपने आप को देख रहा है, तब अफ़्रीका क्षेत्रीय एकीकरण और बढ़ते आपसी सहयोग के माध्यम से इस अलगाववादी प्रवृत्ति को कम करने की ओर बढ़ रहा है। वास्तव में अफ़्रीका ऐसी स्थिति में है कि इसके पास नए बाज़ार यानी ख़ुद के साथ कारोबार का मौक़ा है। यहां क्षेत्रीय व्यापार महज़ 12 फ़ीसदी है। किगाली में अडॉप्शन ऑफ़ कॉन्टिनेन्टल फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट (AFCFTA) को लागू करने का फ़ैसला सही दिशा में एक उत्साहजनक क़दम था। इस क़दम से अफ़्रीकी समस्याओं के लिए अफ़्रीकी समाधान निकालने की नेताओं की इच्छा झलकी। अफ़्रीकन यूनियन एजेंडा 2063 (2063 तक अफ़्रीका के एकीकरण और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए साझा रोडमैप)), अफ़्रीकन यूनियन पासपोर्ट का वादा, न्यू सिंगल अफ़्रीकन एयर ट्रांसपोर्ट मार्केट जैसे दूसरे कई पहल इस ओर इशारा करते हैं कि अफ्ऱीकी नेताओं ने किस तरह अपने भविष्य को अपने हाथों बदलने का बीड़ा उठाया। न कि वो अतीत की तरह तमाशबीन बने रहे जब विदेशी शक्तियों ने यहां अपना प्रभाव जमाया था। हालांकि इसकी संभावना को लेकर संशय है। ब्रुकिंग इंस्टीट्यूशन में अफ़्रीका ग्रोथ इनिशिएटिव के प्रोफ़सर लैंड्री साइन के मुताबिक़ इन बदलावों के परिमाण और गति उपहास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
वर्तमान में ‘संरक्षणवाद बनाम वैश्विकरण’ की बहस अफ़्रीकी नीति के टॉप एजेंडे पर है। क्या अफ़्रीका महाद्वीप अमेरिका या चीन की तरह एक बाहरी दिखनेवाले एजेंडे को अपनाएगा? क्या युआन या डॉलर में फ़ंडिंग और निवेश सुरक्षित होगा? शुरुआती संकेत बताते हैं कि अफ़्रीका के नीति निर्माता दोनों ही रास्तों को अलग-अलग रूपों में चुनेंगे।
हालांकि पूरे अफ़्रीका में तेज़ी से उभरते उदारवादी नीति के बावजूद संरक्षणवाद की मांग भी ज़ोर पकड़ रही है। कुछ प्रमुख सेक्टरों को बढ़ावा देने के लिए “अत्यधिक चुनिंदा” व्यापार नीतियों की धारणा को विकास के औज़ार के तौर पर आगे रखा गया है। कच्चे/कमज़ोर संरक्षणवाद की बजाय ये चुनिंदा, स्मार्ट और टारगेटेड होगा — राष्ट्रीय विकास के लक्ष्य को आगे ले जाने की सभी ज़रूरतों को पूरा करनेवाला। यूएन इकोनॉमिक कमीशन फ़ॉर अफ़्रीका के प्रमुख कार्लोस लोपस इस तरह के “स्मार्ट संरक्षणवाद” की वकालत करते हैं, जहां सरकारी औद्योगिक नीति मार्केट फ़ोर्सेज़ के विस्थापन की बजाय मध्यस्थता पर केंद्रित हो। लक्ष्य उन सेक्टरों को टारगेट करना होगा जो देश के तुलनात्मक फ़ायदे के आधार पर विकास और रोज़गार को बढ़ावा दे सकते हैं। इन सेक्टरों में कृषि सबसे महत्वपूर्ण सेक्टर होगा, जो तब देशों के विकास में अहम साबित होगा, वैसे नए उद्योगों को संगठित करेगा जिनके पास अर्थव्यवस्था को बदलने की क्षमता है। ऐसा करने में, विदेशी बाज़ारों से आयात पर निर्भरता कम हो सकती है।
लीपफ़्रॉग या लैग?
अफ्ऱीका विकास के रास्ते में कई बाधाएं झेल रहा है। डिजिटलाइजेश और टेक्नोलॉजी ऐसी कई परंपरागत बाधाओं को पार करने का मौक़ा देती हैं। ज़रूरी सेवाएं मुहैया कराने की कई सरकारों की अपनी सीमाएं होती हैं, जिसमें युवा आबादी के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाएं भी हैं। एम-पैसा का उदाहरण ले लीजिए जिसने केन्या को ज़ीरो मोबाइल टेलीफ़ोनी से मोबाइल बैंकिंग का ग्लोबल लीडर बना दिया, ये इस तरह के तकनीक की बदलाव क्षमता को दर्शाता है। लेकिन जबकि आर्टिफ़िशयल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स और मशीन लर्निंग में अफ़्रीका के लिए गेम चेंजर होने की क्षमता है तो इसे सही जगह और सही दिशा देने की ज़रूरत है। अफ़्रीका के कई देश अब भी गलियों के नाम रखने, गड्ढों को भरने, वाई-फ़ाई की सुविधा मुहैया कराने और बुनियादी स्वच्छता ज़रूरतों को हल करने में संघर्ष कर रहे हैं।
इन सकारात्मक चीज़ों के बावजूद, नई तकनीकों के निश्चित जोख़िम भी हैं। वैश्विक स्तर पर इनकी वजह से कई कम कुशल नियमित कामगारों की नौकरियां ख़त्म हो गईं, इनका एक बड़ा हिस्सा अफ़्रीका में भी है। एक अनुमान के मुताबिक़ विकासशील देशों में 66 फ़ीसदी नौकरियां ख़तरे में हैं। इसके अलावा, 4IR के नतीजतन उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में विनिर्माण का पुनर्वसन हो रहा है। यह अफ़्रीकी देशों के लिए एक पहेली बन गया है कि किसी को बिना पीछे छोड़े औद्योगिकीकरण कैसे किया जाए।
जीत की रणनीति?
इन चुनौतियों के बीच, नीति निर्माताओं को तेज़ी से एकीकृत लेकिन हाशिए पर चल रही अर्थव्यवस्था में जीत की रणनीति भरने की कोशिश ज़रूर करनी चाहिए। इसलिए उन मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है जो उनके नियंत्रण में हो, न कि उन मुद्दों पर जो नियंत्रण में ही नहीं हैं। इसलिए, प्राथमिकता क्या होनी चाहिए?
अफ़्रीका महाद्वीप के नीति निर्माताओं को अतीत के मुक़ाबले ज़्यादा रचनात्मक और प्रगतिशील नीतियों के साथ बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की ज़रूरत होगी।
पहला, नेतृत्व। हम एक भूगर्भीय मंदी के बीच हैं जहां वैश्विक शासन का पतन हो रहा है। लेकिन बाक़ी दुनिया से अफ़्रीका जितना पीछे है वैसे में सिर्फ़ इस ट्रेंड के पीछे भागना विकल्प नहीं है। वास्तव में अफ़्रीकी नेताओं के पास अब वैश्विक शासन के पुनर्गठन का फ़ायदा उठाने का मौक़ा है, बशर्ते वो ये सुनिश्चित कर लें कि उनके बीच परस्पर सहयोग और तालमेल के साथ सब कुछ स्थिर हो। अफ़्रीकी नेतृत्व को ये समझना होगा कि सामूहिक तौर पर ही प्रासंगिकता हासिल की जा सकती है। सामूहिकता की ताक़त से अफ़्रीका की वैश्विक आवाज़ को वज़न और गंभीरता दोनों मिलती है और अफ़्रीका को अंतरराष्ट्रीय मामलों में ज़्यादा मज़बूत रवैया अपनाने की इजाज़त। जब महाद्वीपीय स्तर पर देखें तो इसकी आबादी और बाज़ार का आकार, अनुकूल जनसांख्यिकी, तेज़ी से बढ़ता शहरीकरण, बढ़ता मिडिल क्लास और तकनीकि विकास जैसी सुविधाओं को अनदेखा करना काफ़ी मुश्किल है।
दूसरा, बढ़ता एकीकरण महाद्वीप को बड़े क्षेत्रीय बाज़ारों को विकसित करने और अफ़्रीका की आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं के लिए अफ़्रीकी समाधान शुरू करने में सक्षम बनाने में मददगार होगा। लेकिन ऐसा हो, इसके लिए राजनीतिक आडंबर से आगे जाना होगा। पॉलिसी को ऐक्शन में बदलने के लिए व्यावहारिक क़दम और राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत होगी। तीसरा, आर्थिक कूटनीति को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। पूर्व और पश्चिम में प्रतिद्वंदियों के बीच रणनीतिक प्रतिस्पर्धा का इस्तेमाल आर्थिक कूटनीति के वैचारिक बोझ की बजाय व्यावहारिकता से देश के आर्थिक हितों को अधिकतम करने के लिए होना चाहिए। कूटनीतिक सहयोगियों के लिए दृष्टिकोण अपनाने या एक के ऊपर दूसरे को चुनने की बजाय अफ़्रीकी नीति निर्माताओं को अपने आर्थिक मूल्य के आधार पर सभी हितों का फ़ायदा उठाना चाहिए।
एक बात साफ़ है कि अफ़्रीका महाद्वीप के नीति निर्माताओं को अतीत के मुक़ाबले ज़्यादा रचनात्मक और प्रगतिशील नीतियों के साथ बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की ज़रूरत होगी। इस अनबुझी पहेली को सुलझाने के लिए दक्षता, निपुणता और व्यावहारिकता की ज़रूरत होगी। ये काफ़ी मुश्किल होगा, लेकिन अफ़्रीका महाद्वीप के भविष्य को सफलतापूर्वक दोबारा बदलने के लिए और इसे वैश्विक एजेंडा के पिछले सीट से सबसे आगे लाने के लिए ये बेहद ज़रूरी है।
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