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हालांकि अब तक मुक्तदा अल सद्र पर शक है, लेकिन इराकियों को ये लगता है कि इस वक़्त सद्र का समर्थन करने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है।
इस्लामिक स्टेट की हार के बाद से पहली बार इराकियों ने १३ मई को वोट डाला। मतदान पिछले चुनाव से कम था, उम्मीद से कम। फिर भी नाउम्मीदी को अपने वोट से हराने की कोशिश में सुरक्षा की चुनौतियों का सामना करते हुए जो इराकी बाहर निकले उन्होंने साफ़ लफ़्ज़ों में अपना इरादा ज़ाहिर किया — उन्हें सांप्रदायिक गुटों में बंटा हुआ इराक नहीं एकजुट और आज़ाद इराक चाहिए था।
और वो चाहते है कि ऐसा इराक एक गठबंधन की मदद से बने। कम्युनिस्ट और शिया धर्मगुरु मुक्तदा अल सद्र के सहयोगियों के बीच गठबंधन। मुक्तदा अल सद्र एक आज़ाद ख्याल धर्मगुरु हैं लेकिन सत्ता के करीब, वो एक किंगमेकर है। वो बेहद धार्मिक हैं लेकिन साथ ही एक धर्मनिरपेक्ष इराक की बात करते हैं। पहले यही अल सद्र सांप्रदायिक गुटों के बीच खुनी दंगों के लिए ज़िम्मेदार रहे लेकिन अब वो खुद को इस इलाके में शान्ति दूत के तौर पर पेश करते हैं। उनके लोगों को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं क्यूंकि उन्होंने लोगों को एक ऐसे इराक का सपना दिखाया है जो सांप्रदायिक गुटों में नहीं बंटा है, जहाँ भ्रष्टाचार नहीं है और जहाँ किसी विदेशी ताक़त की दखलंदाज़ी नहीं है। मुक्तदा अल सद्र के पक्ष में वोट दिखाता है कि इराक के लोगों कि अपने लीडरों से उम्मीदें बदली हैं। अब तक शिया सुन्नी खेमे में बंटा हुआ ईरान अब इन लकीरों से ऊपर उठ रहा है। लेकिन इस बड़े बदलाव की क्या वजह है। क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों का अखाडा बना इराक क्या दशकों के खून खराबे की बेड़ियों से बाहर आ रहा है।और ईरान चुनाव के नतीजे इराक़ के लिए क्या मायने रखते हैं।
क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों का अखाडा बना इराक क्या दशकों के खून खराबे की बेड़ियों से बाहर आ रहा है।
कुछ महीने पहले मैं अमीरा से मिली। वो बगदाद यूनिवर्सिटी में प्रोफस्रर हैं। एक रेस्तरां पर वो अपने आर्डर के लिए इंतज़ार कर रही थीं। एक छोटा सा परिचय हुआ और फिर हमारी बातचीत होने लगी और वो बताने लगीं अपनी उस त्रासदी के बारे में जिसके साथ वो बरसों से जी रही हैं। जो बात उनके ज़ेहन में थी वो फ़ौरन होठों पर आ गयी। वो बोली सद्दाम ने मेरे भाई को उठा लिया और उसका कीमा बना डाला। अमीरा को लगा कि उनकी बात पर मैं यकीन नहीं कर पा रही, तो उन्हों ने अपनी बात जोर देकर दोहराई और कहा: “नहीं सच में, सद्दाम शियाओं के साथ यही करते थे। उनके सिपाही शिया लड़कों को यूँ ही उठा ले जाते थे, उन्हें कसाई के पास ले जाकर उनके जिस्म को काट कर उसका कीमा बना डालते थे।”
अमीरा की कहानी उस शक को सामने लाती है जो शिया और सुन्नी कौम के बीच है और किस तरह बहुसंख्यक शिया खुद को एक सुन्नी तानाशाह सद्दाम हुसैन के हाथों प्रताड़ित महसूस करते थे। पश्चिमी एशिया में शिया इस एहसास के साथ रहे हैं कि उनके साथ भेदभाव हुआ है और इसकी जड़ है सातवीं सदी के उस हादसे में जहाँ इमाम हुसैन का उमय्यद वंश के सुन्नी धर्मगुरु के हाथों इराक के कर्बला में क़त्ल किया गया था।सद्दाम हुसैन के हटाये जाने के बाद शिया अपने साथ हुए नाइंसाफी को दुरुस्त कर पाए और फिर ऊँचे ओहदों पर भी काबिज़ हुए।
अनजाने में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने २००३ में इराक पर हमला कर के शियाओं को राजनीतिक ताक़त का तोहफा दे दिया। शिया लीडर नूरी अल मलिकी देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन उनके सत्ता में आने से सांप्रदायिक हिंसा बंद नहीं हुई, बल्कि हिंसा जारी रही लेकिन उसकी दिशा बदल गई।
अनजाने में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने २००३ में इराक पर हमला कर के शियाओं को राजनीतिक ताक़त का तोहफा दे दिया। शिया लीडर नूरी अल मलिकी देश के प्रधानमंत्री बने।
शुरुआत में शिया और सुन्नी लड़ाकों ने मिल कर अमेरिकी सेना का सामना किया लेकिन जल्दी ही वो एक दुसरे के खिलाफ लड़ने लगे और मासूमों का खून बहने लगा।सत्ता के समीकरण बदल गए थे, अब सत्ता के केंद्र में शिया थे और सुन्नी खुद को हाशिये पर महसूस कर रहे थे। बस इसी को मंत्र बना कर जिहादी सुन्नियों ने लोगों का समर्थन जुटाना शुरू किया और अल कायदा ने इस का फायदा उठा कर इराक में आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट बनाया।
फिर तो IS ने इराक में ऐसी लूटपाट मचाई की इराक के बड़े इलाके उनके कब्जे में आ गए। पहले स्थानीय सुन्नी क़बीलों ने इन लड़ाकों को स्वीकार किया और उन्हें धार्मिक मुसलमानों के रूप में देखा जो शक्ति संतुलन को फिर से सुन्नाह कि तरफ मोड़ सकते हैं। लेकिन समय के साथ साथ IS की मौजूदगी का नुकसान उन्हें खुद उठाना पड़ा और उनसे छुटकारा पाने के लिए वो शिया लड़ाकों के साथ साथ उन सबका स्वागत करने लगे जो उन्हे IS से छुटकारा दिला सकता था। इस्लामिक स्टेट के कब्जे से मोसुल को २०१६ में छुड़ाया गया और तब तक इराक सांप्रदायिक तनाव से तंग आ चुका था। इराक की आम जनता का मूड था कि इस बर्बादी के झगडे से निकल कर अपनी ज़िन्दगी जीएं।
इसी पृष्ठभूमि में एक नौजवान शिया धर्मगुरु एक राजनेता के तौर पर उभरा जो राष्ट्रवाद की बात कर रहा था और सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ था।
मुक्तदा के पिता अयातुल्ला सादिक अल सद्र थे जो गरीबों के मसीहा के तौर पर देखे जाते थे। और सद्दाम हुसैन के हुक्म पर उनके क़त्ल के बाद उन्हें शहीद का दर्जा मिला। उनके पिता वो शिया धर्मगुरु थे जिनमें सैकड़ों इराकी शिया की आस्था थी। जब तक मुक्तदा के वालिद जिंदा थे, मुक्तदा को उनका वारिस नहीं माना गया। लेकिन खानदान की विरासत की ज़िम्मेदारी उन्ही के कन्धों पर आयी। पिता और दो भाइयों के मारे जाने के बाद मुक्तदा चर्चा में आए। पिता ने जो दान का काम शुरू किया था उन्हों ने उसे जारी रखा और उस पर अपनी मोहर लगाने के लिए ईरान के पैसे से प्रायोजक लड़ाकों को अमेरिका के खिलाफ लड़ने के लिए स्थापित किया। २००५ तक उनके लड़ाकों की ये फ़ौज जो महदी सेना के नाम से जानी जाती थी, खून-खराबे पर उतर गई थी, निशाने पर थे सुन्नी जिहादी और आम इराकी। दो फांक बंटे मुल्क पर अपना क़ब्ज़ा ज़माने की होड़ थी।
ये खून खराबा काबू से बाहर हो गया और मुक्तदा खुद ईरान भाग गए, खुद को ही देश से निर्वासित कर दिया।
जब वो वहां से लौटे तो एक बदले हुए इंसान थे।
जब तक मुक्तदा के वालिद जिंदा थे, मुक्तदा क उनका वारिस नहीं माना गया। लेकिन खानदान की विरासत की ज़िम्मेदारी उन्ही के कन्धों पर आयी। पिता और दो भाइयों के मारे जाने के बाद मुक्तदा चर्चा में आए।
कुछ लड़ाकों को छोड़ कर जिन्हों ने अपना अलग ग्रुप बना लिया था, महदी सेना को नया रंगरूप दिया गया और इसे अमन की कंपनी के तौर पर पेश किया गया, उन्हें हिदायत दी गई कि वो अपने हथियार छोड़ दें। मुक्तदा अल सद्र के लाखों भक्त थे लेकिन उन्हें इस से तसल्ली नहीं हुई। और ज्यादा समर्थक जुटाने के लिए एक ऐसा क़दम उठाया जो दूसरे राजनीतिक गुट नहीं कर पा रहे थे। वो अपनी दूसरी पारी में एक शातिर नेता के तौर पर सामने आये। लोगों को किन चीज़ों से परेशानी हो रही है उसका पता लगाया और खुद को एक वाजिब विपक्ष के तौर पर पेश किया।
बगदाद में तहरीर चौक अनाधिकारिक तौर पर विरोध प्रदर्शन की जगह है जैसे कि यहाँ हिंदुस्तान में जंतर मंतर या इंडिया गेट। २०१५ से धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी इराकी यहाँ इकठ्ठा होकर बदलाव और सुधार की मांग करने लगे। जो यथास्थिति बनी हुई थी उसनें बदलाव की मांग जोर पकड़ने लगी। वो एक सांप्रदायिक कोटा व्यवस्था — “मुहस्सा” — को हटाना चाहते थे जिसके तहत अलग-अलग राजनीतिक गुट अलग विभाग को काबू करते थे और जो अपने ओहदे को पैसे के हेरफेर के लिए इस्तेमाल करते थे। वो अपने-अपने वोट बैंक तक ये फण्ड पहुंचाते थे। प्रदर्शनकारी न्यायपालिका को भी इतना मज़बूत बनाने की मांग कर रहे थे कि वो बिना किसी राजनीतिक दबाव के काम कर सके और भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाई कर सके। बदलाव कि ये मांग लोगों के रोजाना के जद्दोजेहद से निकली जहाँ वो बिजली और पानी की किल्लत से लड़ रहे थे, जहाँ रोज़गार के कोई मौके नहीं थे। उन्होंने ये तय कर लिया था कि अगर तेल से आने वाले पैसे के बावजूद उनकी आर्थिक स्थति इतनी बुरी है और उनके यहाँ इतनी बेरोज़गारी है तो इसकी वजह सिर्फ भ्रष्टाचार ही हो सकता है। ये धोखा-धडी और भ्रष्टाचार स्थानीय और साथ साथ बड़े विदेशी खिलाडियों की वजह से था और इराक की हालत बदतर होती जा रही थी। सांप्रदायिक तनाव बनाए रखने में भी इन्ही स्थानीय और वैश्विक शक्तियों का फायदा था जिसकी वजह से ये तनाव ख़त्म नहीं होने देते थे।
बदलाव कि मांग लोगों के रोजाना के जद्दोजेहद से निकली जहाँ वो बिजली और पानी की किल्लत से लड़ रहे थे, जहाँ रोज़गार के कोई मौके नहीं थे।
मुक्तदा अल सद्र ने लोगों का ये एहसास भांप लिया और विरोध प्रदर्शन को अपने हाथों में ले लिया। वो प्रदर्शनकारियों की आवाज़ बन गए। रणनीति और चालाकी से अपने समर्थकों का बेस और बढाया, सद्र के समर्थक नौजवान काली टीशर्ट पहने तहरीर स्क्वायर पर नज़र आने लगे और वो पूरे विद्रोह पर हावी हो गए। जब भी कोई विरोध प्रदर्शन होता सद्र के नौजवान समर्थक उसके इर्द गिर्द घेरा बना कर उसकी हिफाज़त करते ताकि उसमें कोई रुकावट न आए। मुक्तदा के ये समर्थक मुक्तदा की ताक़त बने कम्युनिस्ट और उदारवादी लोगों के लिए इराक पर अमेरिकी हमला एक कडवी सच्चाई थी जो उनके गले नहीं उतर रही थी। मुक्तदा का इतिहास शक से भरा था लेकिन इस दौर में वो सारी सही बातें कर रहे थे। और जैसे जैसे वक़्त गुज़रा अलग अलग विचारधारा जो साथ नहीं थीं वो साथ आने लगीं, लक्ष्य था इराक की तरक्की। धर्मगुरु मुक्तदा को पूरे इराक में ज़मीनी समर्थन हासिल था। सिविल सोसाइटी को ये लगा कि इसका इस्तेमाल इराक में सुधार लाने के लिए किया जा सकता है। लोकप्रिय सद्र के साथ हाथ मिलाना अपनी राजनैतिक सार्थकता खोते जा रहे कम्युनिस्ट के लिए भी एक नई ज़िन्दगी ले कर आया।
सद्र ने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ एक गठबंधन बनाया, इराक की भलाई को अपनी प्राथमिकता बनाया, सुन्नियों की समस्याओं को हल किया और इसका इनाम उन्हें चुनाव में मिला। ये कामयाबी उनके करिश्मे की वजह से तो थी ही लेकिन साथ ही उनकी कुशाग्रता का भी इसमें बड़ा हाथ था। अपनी विचारधारा को उनहोंने लोगों की चाह के मुताबिक ढाला। यहाँ इस बात पर गौर करना ज़रूरी है किएक विवादित धर्मगुरु जिन पर सांप्रदायिक तबाही मचाने का इलज़ाम था वो भी एक दूसरा राग गाने को मजबूर हो गए क्यूंकि इराक में हवा का रुख बदल गया था। दशकों से चले आ रहे सांप्रदायिक खून खराबे ने इराक को तबाह कर दिया था इसलिए अब इराक से राष्ट्रवाद की आवाज़ आ रही थी, लोग अब एक राष्ट्र की बात कर रहे थे। एक आम भावना ये बन गई थी कि अपने मनमुटावों और झगड़ों को भुला कर एक साथ एक सुरक्षित देश बनाने की तरफ बढे। और मुक्तदा को मिल रहा समर्थन भी इसी वजह से है। शिया वोट भी उन्हें मिले और सुन्नियों ने भी उनको समर्थन दिया।
दशकों से चले आ रहे सांप्रदायिक खून राबे ने इराक को तबाह कर दिया था इसलिए अब इराक से राष्ट्रवाद की आवाज़ आ रही थी, लोग अब एक राष्ट्र की बात कर रहे थे। एक आम भावना ये बन गई थी कि अपने मनमुटावों और झगड़ों को भुला कर एक साथ एक सुरक्षित देश बनाने की तरफ बढे।
संक्षेप में ये कहा जा सकता है कि हालांकि अब तक मुक्तदा अल सद्र पर शक है, लेकिन इराकियों को ये लगता है कि इस वक़्त सद्र का समर्थन करने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है।
इराक, ईरान के उस बड़े खेल का हिस्सा था जिसके तहत ईरान इस इलाके में अपनी सामरिक शक्ति और बढ़ाना चाहता था जिस से वो यहाँ सऊदी अरब से मुकाबला कर सके। तेहरान ने शिया लड़ाकों को ट्रेनिंग दी ताकि वो इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ सकें और ईरान इस देश में और मजबूती से अपनी पकड़ बना सके और ईरान के प्रभाव का घेरा लेबनान से होते हुए इराक और सीरिया तक फैल जाए। इस से ईरान को खोमैनी के इस्लामिक क्रांति के विचार को फैलाने में, इजराइल को चुनौती देने में और आर्थिक फायदा उठाने में मदद मिलती। ईरान और इराक के रिश्ते सद्दाम के शासन काल में हुए ईरान इराक युध्ह की वजह से काफी ख़राब हो गए अमेरिकी घुसपैठ के बाद ईरान ने शिया लड़ाकों को अमेरिका और बाद में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ खड़ा कर के अपनी मौजूदगी को और आक्रामक तरीके से दर्ज कराया।।एक तरफ ये उथलपुथल पक रही थी दूसरी तरफ इराक के समाज में भी मंथन चल रहा था।
सद्दाम के आतंक से तंग आ चुके इराकियों को लगता था कि इराक में अमेरिकी सेना की मौजूदगी इसका हल नहीं है। न ही वो ईरान के समर्थन वाले लड़ाकों को इस्लामिक स्टेट के ख़त्म होने के बाद हर समस्या का रामबाण मानते हुए पूरा कण्ट्रोल देना चाहते थे। इराकी ये नहीं चाहते थे की वो इस क्षेत्र के बड़े देशों या फिर विदेशी शक्तियों के हाथ का मोहरा बन कर रह जाएँ। सद्र को ये बात समझ में आ गई और वो अमेरिका और ईरान दोनों का ही विरोध करने लगे। बहुत सावधानी से खाड़ी के देशों से संपर्क साधा और एक संतुलित विदेश नीति की ज़रूरत बताई जो ज़्यादातर इराकियों की चाह थी। हालाँकि ऐसा करना कहने से ज्यादा मुश्किल है। सद्र के सामने कई चुनौतियाँ हैं और ईरान की वजह से उनके हाथ भी बंधे हुए हैं क्यूंकि चुनाव में दुसरे नंबर पर आने वाला शख्स हादी अल अमेरि ईरान का आदमी है। वो बद्र ब्रिगेड का नेतृत्व करता था, जिसने इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपने कई लड़ाकों को खोया। इसी दौरान अमेरि का एक बड़ा समर्थक बेस बन गया जिन्हों ने बड़ी तादाद में उसके लिए वोट किया इसलिए नयी सरकार बनने के बाद वो भी सत्ता में एक बड़ा हिस्सा चाहते हैं। फिलहाल सद्र और अमेरि के बीच लेन देन की बातचीत चल रही है अमेरि चाहते हैं की वो कम से कम शिया लड़ाकों के गुट हश अल शाबी पर अपना क़ब्ज़ा रखें या फिर जो लोकप्रिय लामबंदी गुट हैं जो हैं तो सरकार के अंतर्गत लेकिन सीधे प्रधानमंत्री को जवाबदेह हैं। ज्यादतर वो अपनी मर्ज़ी और कानून से चलते हैं। शिया गुट हश अल शाबी का अक्सर सरकार से टकराव होता है क्यूंकि वो अमेरि से आदेश लेते हैं, जो ईरान के बताए रास्ते पर चलता है। सद्र इन लड़ाकों को सुरक्षा बलों के साथ मिला देना चाहते हैं ताकि इन पर संसद का नियंत्रण रह सके और ईरान की पकड़ कमज़ोर हो सके। सवाल है कि सद्र अब अमेरि को ऐसा क्या प्रस्ताव देंगे जिस से इराक में ईरान की महत्वाकांक्षा और इराक की तरक्की के बीच बैलंस बना रहे।
हशद के लड़ाकों ने ईरान और उसके करीबी हेज्बोल्लाह के साथ मिल कर काम किया है। उन्हें ये सिखाया गया है कि वो कभी भी इजराइल के खिलाफ ईरान का साथ देने के लिए तैयार रहे।
इराक में सद्र की जीत के बावजूद ईरान के पास अभी भी कई कण्ट्रोल है जिनमें सबसे ऊपर है अमेरि के ज़रिये अपना प्रभाव डालना।
ईरान अभी अमेरिका के साथ परमाणु डील ख़त्म होने की वजह से सख्त नाराज़ है, साथ ही सीरिया में उसके ठिकानो पर इजराइल की तरफ से लगातार हमले भी हो रहे हैं। पिछले कुछ हफ़्तों में दोनो देशों के बीच अगली जंग की सुगबुगाहट थी। इराक में सद्र की जीत के बावजूद ईरान के पास अभी भी कई कण्ट्रोल है जिनमें सबसे ऊपर है अमेरि के ज़रिये अपना प्रभाव डालना।
रियाध के लिए सद्र का सत्ता में आना अच्छी खबर है। पिछली जुलाई में सद्र रियाध गए थे और उनके मेज़बान थे राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान। ऐसा कर के सद्र ने ईरान को ये दिखाया कि उनके पास एक से ज्यादा विकल्प हैं, खुद को एक ऐसे राजनेता के तौर पर पेश किया जो साम्प्रदायिकता और नस्लवाद के ऊपर है और ऐसा कर के अपने लिए एक ऐसा सियासी दाँव जीता जिसका फल उन्हें चुनाव में मिला। सऊदी अरब उन्हें अपने खेमे में रख कर खुश था क्यूंकि अब तक वहाबी शासन ने जिन लोगों और गुटों का समर्थन किया था वो इस क्षेत्र में नतीजे नहीं दे पाए थे। इसलिए उन्हें ये साफ़ हो गया था की अगर वो अपनी उम्मीदों में कुछ फेरबदल को तैयार हों तो सद्र ईरान के मुकाबिल खड़ा करने के लिए बिलकुल सही नेता होंगे। वो हो सकता है कि सऊदी अरब के सामने झुके नहीं लेकिन वो ईरान के लिए हालात मुश्किल ज़रूर करेंगे।
सद्र के उभार के साथ सऊदी भी शियाओं में अंदरूनी बंटवारे की उम्मीद लगाए बैठे हैं। इराक के शिया, अली अल सिस्तानी को अपना रूहानी गुरु मानते हैं और बाक़ी दुनिया भर में शिया ईरान के अयातुल्ला खमेनि को अपना गुरु मानते हैं। सद्र दुसरे नंबर पर नहीं रहना चाहते है। सियासत में जो ताक़तवर हैं उनकी डोर खुद के हाथों में रखा है। आधिकारिक पोजीशन को छोड़ते हुए भी सत्ता की डोर अपने हाथों में रख कर सद्र ने एक तरीका ढूंडा है जिस से उनकी अहमियत अयातुल्ला जितनी न सही पर उनसे बहुत कम भी नहीं है। इराकी शिअवाद और ईरानी शिअवाद के नाम पर सद्र अब तक माने जाने वाले धर्मगुरूओ की पकड़ को कमज़ोर कर रहे हैं। अगर इसे ठीक तरह से संभाला गया तो शिया बंट सकते हैं और ये चाल किसी एक धर्मगुरु के प्रभुत्व को कमज़ोर कर सकता है। जहाँ तक नेताओं का सवाल है, सद्र ईरान के समर्थन वाले नूरी अल मलिकी से टकराव में रहे और दिलचस्प है कि वो अमेरिकी समर्थन वाले प्रधान मंत्री हैदर अल अबादी को ज्यादा समर्थन देते हैं।
सद्र का अबादी की तरफ झुकाव, ईरान पर शक और सऊदी अरब के साथ मेल मिलाप अमेरिका के लिए राहत की खबर तो है लेकिन काफी नहीं है। अमेरिका के लिए ये भूलना मुश्किल है कि किस तरह सद्र के लड़ाको ने हजारों अमेरिकी सैनिकों को मार डाला था। सद्र इराक में अमेरिकी हितों के लिए सबसे बड़ा खतरा बना रहा। फिलहाल वाशिंगटन खुश है लेकिन अभी वो सद्र को खुश करने कि कोई जल्दबाजी नहीं कर रहा।
इराकियों ने साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार और क्षेत्रीय शक्तियों के खेल के खिलाफ वोट किया है। एक स्थाई इराक सब के हित में हैं और सद्र की तरक्की इसी नज़रिए से देखी जानी चाहिए। जो भी शक्तियां इस क्षेत्र में होंगी उन्हें ध्यान रखना होगा कि एक लोकप्रिय लेकिन आज़ाद ख्याल धर्मगुरु से किस तरह संभल कर रिश्ता बनाए रखें और सद्र को बदले में कई लोगों के हित का ध्यान रखना होगा। एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क की स्थापना वो भी एक धर्मगुरु के ज़रिये, ये लोकतंत्र है पश्चिमी एशिया अंदाज़ में। इस में शक नहीं कि भ्रष्टाचार और सियासी संरक्षण जारी रहेगा लेकिन कम से कम एक उम्मीद है कि सरकार के एजेंडे पर अब सांप्रदायिक बंटवारे को कम करने के अलावा अब शासन भी शामिल होगा।
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Anchal Vohra was a Fellow at ORF. She writes on contemporary developments in West Asia and on foreign policy.
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