Published on Dec 30, 2017 Updated 0 Hours ago

विजय दिवस न केवल भारत की पाक पर 1971 में शानदार जीत याद दिलाता है बल्कि यह बांग्लादेश के जन्म की कहानी भी कहता है।

विजय दिवस: 1971 का भारत-पाक युद्ध मानवीय इतिहास में अनोखा क्यों है?

16 दिसंबर 1971 को 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने सफेद झंडा उठा कर भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर  दिया

भारत हरेक साल 16 दिसम्बर को ‘विजय दिवस’ और बांग्लादेश इसको ही उच्चारण के थोड़े अंतर से ‘बिजॉय दिबोस’ मनाता है। यह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए सर्वाधिक भीषण संग्राम की स्मृति में मनाया जाता है।

1971 में इसी दिन पाकिस्तान की सेना ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में भारतीय सेना और बांग्लादेशी स्वतंत्रता सेनानियों-मुक्तिवाहिनी-संयुक्त कमान के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। मुक्ति की इस लड़ाई में भारतीय सेना के जवान और मुक्तिवाहिनी के लड़ाके कंधा से कंधा मिला कर लड़े थे।

भारतीय और बांग्लादेशियों की शहादत से प्रचुर परिमाण में निकला लहू पद्मा और यमुना तथा बांग्लादेश के पार बहने वाली बेशुमार नदियों की माटी-पानी के साथ मिलकर गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी के बेसिन में विसर्जित हो गया था।

मशहूर हस्तियों पैदा हुई

दक्षिण एशिया के साथ-साथ वैश्विक भू-राजनीति के क्षेत्र में 1971 घटनाओं से भरा वर्ष है। इसने तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को देश में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया और इतिहास में उनका नाम एक महान राजनेता के रूप में सुरक्षित कर दिया।

भारतीय सेना के नायक जनरल सैम मानेक शॉ, जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, जनरल जेएफआर जैकब और जनरल सुजान सिंह उबन, जिन्होंने पाकिस्तान के विरुद्ध भारत को शानदार जीत दिलाई, उनके नाम भी इतिहास में सदा के लिए सम्मानपूर्वक अंकित हो गए।

सच में यह रेखांकित करना महत्त्वपूर्ण है कि इन तीन जनरल में एक पारसी, दो सिख और एक यहूदी थे। धर्मनिपरेक्षता के प्रति भारतीय विश्वास का इससे बेहतर और कोई प्रमाण नहीं हो सकता। इनमें जनरल उबन की महती भूमिका बंगाली मुक्ति सिपाहियों के अनियतकालिक गुरिल्ला बल ‘गणो वाहिनी’ बनाने में थी, जिन्होंने जान पर खेल कर अपने दुस्साहस से पाकिस्तानी सेना की टुकड़ियों के हाथ बांध दिये और इस तरह उन्हें अपने सीमित इलाकों में ही सिमटे रहने पर विवश कर दिया। इस तरीके से उन्होंने पाकिस्तानी सेना के मानसिक बल को ध्वस्त करने में महती भूमिका निभाई। ये दिग्गज जनरल भारतीय सैन्य इतिहास में जीवंत कथा-वृत्तांत हो गए हैं।

बांग्लादेशी नेता, शेख मुजीबुर्रहमान, जिन्होंने पाकिस्तानी अत्याचार से बंगाली जनता की मुक्ति का शंखनाद किया था, वह भी इतिहास में अमर हो गए।  उन्हें ‘बंगबंधु’ और ‘बांग्लादेश के राष्ट्रपिता’ जैसे असीम स्नेह व सम्मानसूचक सम्बोधनों से जनता ने सम्मानित किया।

दक्षिण एशिया के साथ-साथ वैश्विक भू-राजनीति के क्षेत्र में 1971 घटनाओं से भरा वर्ष है। इसने तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को देश में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया और इतिहास में उनका नाम एक महान राजनेता के रूप में सुरक्षित कर दिया।

हालांकि इसके पश्चात, दोनों नेताओं ने खुद ही अपनी विरासत को नुकसान भी पहुंचाया-इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर और मुजीबुर्रहमान ने युद्ध से जर्जर अर्थव्यवस्था वाले देश में लुंज-पुंज प्रशासन व एक दलीय व्यवस्था थोप कर। दोनों ही नेताओं को गोलियों का शिकार बनना पड़ा। ‘बंग बंधु’ और उनके परिवार के अधिकतर लोगों की अगस्त 1975 में हत्या कर दी गई तो इंदिरा गांधी को अक्टूबर,1984 में उनके ही सुरक्षाकर्मियों ने गोलियां बरसा कर मार डाला।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व का दायित्व उनके बड़े बेटे राजीव गांधी पर आ गया। वहीं, बांग्लादेश में भी, मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग का सारा दारोमदार उनकी दोनों बेटियां-शेख हसीना (मौजूदा प्रधानमंत्री) और शेख रेहाना पर आन पड़ा, जो उस समय विदेश प्रवास में रहने के कारण संयोगवश ही जिंदा रह गई थीं।

व्यापक प्रभाव

वैसे अविभाजित पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में झंझट मार्च, 1971 से ही शुरू हो गया था। दरअसल, बंगाली अस्मिता व उसकी पहचान और इस नाते उस क्षेत्र की स्वायत्तता को लेकर जातीय संघर्ष तो उसके और काफी पहले भारत-पाकिस्तान विभाजन के तत्काल बाद से ही प्रारम्भ हो गया था। इसके बीज तभी पड़ गए थे, जब बांग्ला भाषा को उचित प्रोत्साहन देने की मांग को लेकर बंगालियों ने पांचवें दशक (1950) में आंदोलन किया था। बाद में, अवामी लीग के तत्वावधान में समय-समय पर की गई अन्य विविध राजनीतिक मांगों के साथ वह परवान चढ़ता गया। इनमें लीग की वे प्रसिद्ध छह सूत्री मांगें भी शामिल थीं, जिनके तहत संघीय राजनीति के एक भाग के रूप में पूर्वी पाकिस्तान के लिए राजनीतिक-वित्तीय स्वायत्तता सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया था।

इस पृष्ठभूमि में, 1971 में हुए सशस्त्र संघर्ष का क्षेत्रीय और वैश्विक संदर्भ में व्यापक पड़ा, जबकि शीत-युद्ध अपनी चोटी पर था। अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का रिपब्लिकन प्रशासन और उनके कुख्यात सलाहकार हेनरी किसिंजर ने पाकिस्तान की हिमायत में भारत के खिलाफ अमेरिका के कान भर दिये थे। उस समय, पाकिस्तान में बर्बर सैन्य तानाशाह जनरल याह्या खान ने, जो राष्ट्रपति और मॉर्शल लॉ के मुख्य प्रशासक भी थे, अपनी सेना को पूर्वी पाकिस्तान में कत्लेआम का आदेश दे दिया।

इसने मुजीबुर्रहमान को पूर्वी पाकिस्तान की आजादी की घोषणा पर विवश कर दिया। उन्होंने 26 मार्च 1971 को एक नये देश बांग्लादेश बनाने का ऐलान कर दिया। तभी से बांग्लादेश इसी तारीख को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाता है।

भारत ने शीत युद्ध के दौरान वैश्विक भू-राजनीतिक संतुलन के लिए बेहद चुतराई से तत्कालीन सोवियत संघ से मित्रता और सहयोग संधि की। इसी संधि के परिणामस्वरूप भारत को 1971 की जंग में सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त हुआ। बाद में, किसिंजर ने यह कहा कि तब अमेरिका पाकिस्तान के सहयोग से चीन से अपने बिगड़े संबंध सुधारना चाहता था और इसके लिए पाकिस्तान का समर्थन करना उसके लिए लाजिमी था। किसिंजर ने युद्ध के दौरान भारत पर हमले के लिए चीन को उकसा कर भी एक तरह से पाकिस्तान की मदद की कोशिश की ताकि वह दबाव में न आए। लेकिन चीन उनके जाल में नहीं फंसा।

भारत ने शीत युद्ध के दौरान वैश्विक भू-राजनीतिक संतुलन के लिए बेहद चुतराई से तत्कालीन सोवियत संघ से मित्रता और सहयोग संधि की। इसी संधि के परिणामस्वरूप भारत को 1971 की जंग में सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त हुआ। बाद में, किसिंजर ने यह कहा कि तब अमेरिका पाकिस्तान के सहयोग से चीन से अपने बिगड़े संबंध सुधारना चाहता था और इसके लिए पाकिस्तान का समर्थन करना उसके लिए लाजिमी था।

किसिंजर ने पाकिस्तान की नरसंहार से जुड़ी कार्रवाइयों के अमेरिकी समर्थन को जायज़ ठहराने के लिए यह दलील दी कि कि शीत-युद्ध के व्यापक और अधिक वर्चस्ववादी संघर्ष के लिए तब वैसा करना आवश्यक था। हालांकि यह भी भू-राजनीति की एक और विडम्बना ही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के रिपब्लिकन प्रशासन ने ही भारत के साथ परमाणु संधि करना पसंद किया। अंतरराष्ट्रीय राजनीति हमेशा एक जैसी दशा में नहीं रहती और मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में भी हेर-फेर की कोशिश की जा रही है। चीन की क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभुता के प्रति आग्रहों ने विश्व व्यवस्था में नये समीकरण पर जोर दिया है।

बर्बरता की दास्तां

पाकिस्तान सेना की पूर्वी पाकिस्तान में बर्बरतापूर्ण कार्रवाई का नतीजा यह हुआ कि वहां के 10 लाख लोग शरणार्थी होकर भारत आ गए। इन विस्थापितों में 90 फीसद हिंदू थे। पाकिस्तान और उसके खूनी साजिशकर्ताओं ने पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाली हिंदू आबादी को निशाना बनाया था। इस तथ्य को याद रखने के बजाय, पाकिस्तान में बहस आज भी उस कल्पनालोक में की जा रही है, जिसके अनुसार बांग्लादेश के निर्माण को हिंदुओं का रचा षड्यंत्र मानना चाहिए।

पाकिस्तान की अभिजात्य-सामंतवादी मानसिकता आज भी इस मुगालते में रहती है कि वह भारत में मुस्लिम शासन की उत्तराधिकारी है।

उनका अपने बंगाली मुस्लिम भाई-बंधुओं और उनके संगी-साथी नागरिकों के प्रति रवैया हेकड़ी, तिरस्कार और सर्वोच्चता के अहंकार से ग्रस्त बदमिजाज लोगों का था। जब पाकिस्तानी सैनिक और उनके साथी बंगाली महिलाओं की अस्मत लूटते थे तो अपने इस घृणित कर्म को बंगालियों का डीएनए सुधारना बताते थे

पाकिस्तान की अभिजात्य-सामंतवादी मानसिकता आज भी इस मुगालते में रहती है कि वह भारत में मुस्लिम शासन की उत्तराधिकारी है।

पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण के दो दिन पहले, 14 दिसम्बर 1971 को जब बांग्लादेश की आजादी प्राय: निश्चित हो गई थी, ढाका में प्रमुख बुद्धिजीवियों को घेर लिया और उन्हें घोर अमानवीय यातनाएं दीं। फिर उनके शवों को ढाका के समीप के रायरबाजार और मीरपुर में फेंक दिया। रायरबाजार में जिस जगह पर बड़ी संख्या में शवों को फेंका गया था, वहां उनकी स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है और बांग्लादेशी उस तिथि पर वहां अपने इन शहीद बुद्धिजीवियों की स्मृति में हरेक साल ‘शहादत दिवस’ मनाते हैं। अपने देश के बंगाली मुसलमान भाइयों के प्रति पाकिस्तान का ऐसा दुष्टतापूर्ण और घृणित व्यवहार था।

पाकिस्तानी सेना और उसके स्थानीय सहयोगी, इनमें बिहारी मुस्लिम शरणार्थी से लेकर और जमायत-ए-इस्लामी के कट्टर बंगाली इस्लामिक सदस्यों तक ने ‘रजाकार’ नाम से स्थानीय लड़ाकू सेना बनाई थी। यह नाम भारत से हैदराबाद की आजादी के लिए उसके निजाम द्वारा अपने मुस्लिम बाशिंदों को लेकर बनाई गई सशस्त्र सेना ‘रजाकार’ के नाम पर रखा गया था। ये रजाकार भारत के साथ मिलकर रहने के मजबूत विचारवाले लोगों की आकांक्षाओं को बर्बरता से रौंदने के चलते कुख्यात थे। स्थानीय लोगों-खासकर हिंदुओं को दबाने के लिए ये रजाकार उन्हें भीषण यातनाएं देते, उन्हें लूट लेते, उनकी हत्या कर देते और उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार करते थे। ऐसे में शक की कोई गुंजाइश नहीं कि पाकिस्तानी सेना को उसी उदाहरण से प्रेरणा मिली हो। रजाकार की तर्ज पर उसने मुक्ति की चाह रखने वाली बंगाली आबादी को शारीरिक-मानसिक यातनाएं देने, उन्हें लूटने, उन्हें जान से मारने और उनकी महिलाओं तक से दुराचार करने के लिए स्थानीय बाशिंदों  ने‘अल-बदर’ और ‘अस-शम्स’ जैसे सशस्त्र दल बनाए थे। लूटमार करने वाले इन समूहों के नाम इस्लामिक इतिहास से लिये थे ताकि मुस्लिमों में जेहादी भावनाएं भरने के लिए आसानी से वह काम आ सके।

अनोखी कहानी

ब्रिटिशकालीन भारत में हैदराबाद सबसे बड़ा रजवाड़ा था और यह निजाम द्वारा शासित होता था। अंग्रेजों ने जब भारत का बंटवारा किया तो उस समय के अविभाजित देश में एक छोर से दूसरे छोर तक यहां-वहां छोटे-बड़े लगभग 565 रजवाड़े थे। इन रजवाड़ों को यह विकल्प दिया गया था कि वह भारत या पाकिस्तान में जिसके साथ भी रहना चाहें, रह सकते हैं। इन राज्यों में अधिकतर हिंदू राजाओं ने भारत के साथ रहना पसंद किया। लेकिन निजाम जैसे कुछ मुस्लिम शासकों ने इस्लामिक उत्साह-उमंग में बहक कर पाकिस्तान को चुना। ऐसा विरले ही घटित होता रहा है और हालिया इतिहास में ऐसी निरी भू-राजनीतिक मूर्खता के कम उदाहरण मिलते हैं। तो यह कुचेष्टा भी अपने अवश्यम्भावी परिणाम को प्राप्त भी हुई, जब भारतीय सेना के हस्तक्षेप ने हैदराबाद को भारतीय राष्ट्र राज्य में रहना सुनिश्चित कर दिया।

आखिरकार नौ महीने तक चले खूनी सैन्य संघर्ष और इसी बीच भारतीय सेना के निर्णयकारी दखल से बांग्लादेश के रूप में एक नये देश का जन्म हुआ। यहां यह भी अवश्य याद रखा जाना चाहिए कि पूर्वी पाकिस्तान के कई मुसलमान ‘उम्मा’ (दुनिया के कोने-कोने में फैली इस्लामिक मुस्लिम बिरादरी) को न तोड़ने की इस्लामिक मर्यादा के निर्वाह के चलते पाकिस्तान से अलग होना नहीं चाहते थे। इन भावनाओं ने ‘बंग बंधु’ शेख मुजीवुर्रहमान की हत्या के बाद बांग्लादेश की खंडित राजनीति में एक अहम भूमिका निभाई थी, जब देश में कट्टर इस्लामिक समूहों और पाकिस्तान के प्रति समर्थन की जबर्दस्त भावनाएं एकदम से उभर आई थीं। पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठानों में प्रशिक्षण पाए बांग्लादेश के सैन्य तानाशाहों ने उन कट्टर व नृशंस भावनाओं को भड़काने का काम किया और उन्होंने खुद को सत्ता में बनाये रखने के लिए भी उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल किया, जो पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह एक समय उनके विरुद्ध करते रहे थे।

हमूदुर्रहमान आयोग, जिसको कि 1971 की जंग में पाकिस्तान की शिकस्त की वजहों को जानने का जिम्मा सौंपा गया था, उनकी रिपोर्ट पर पाकिस्तान की तत्कालीन और बाद की सभी सरकारों ने मिट्टी डालने का ही काम किया। किंतु दबी-छिपी जो थोड़ी-बहुत सूचनाएं किसी प्रकार बाहर आई या अन्य स्रेतों से हासिल हुई, उनका मजमून यही था कि आयोग ने पाकिस्तान के आधे हिस्से-पूर्वी पाकिस्तान-को उससे छिन जाने के लिए देश की सेना को ही कसूरवार ठहराया था। मुक्ति संग्राम, जैसा कि बांग्लादेश में कहा जाता है, मानवीय इतिहास में एक  अनोखी घटना के रूप में दर्ज रहेगा। दरअसल, यह इस्लामिक राष्ट्रवाद पर बंगाली राष्ट्रवाद का प्रभुत्व था, जिसने भारत से विभाजन के लिए धार्मिक आधार पर बने ‘दो राष्ट्रों के सिद्धांत’ को सिरे से खारिज कर दिया था।

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