Author : Ramanath Jha

Expert Speak Urban Futures
Published on May 14, 2025 Updated 0 Hours ago

वैसे तो भारतीय संविधान ने शहरी स्थानीय निकायों (अर्बन लोकल बॉडी या ULBs) को सुरक्षा प्रदान की है लेकिन फिर भी पूरे भारत में केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों के कारण ये निकाय कमजोर होते जा रहे हैं, जिससे लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की भावना को गहरा आघात पहुंच रहा है.

शहरी स्थानीय सरकारें: केंद्रीकरण की ओर बढ़ता कदम

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पूरे भारत में कई राज्यों की कार्रवाई से अच्छी तरह से साफ़ हो रहा है कि स्थानीय लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के खिलाफ़ केंद्रीकरण की एक बड़ी लहर चल रही है जिसकी वजह से शहरी स्थानीय निकायें कमज़ोर होते जा रहे हैं. इस तरह 74वीं संशोधन के जो उद्देश्य थे वो बेहद कमज़ोर पड़ गए हैं औऱ सिर्फ़ कागज़ों पर मौजूद नज़र आ रहे हैं. 

वर्ष 2021 में कोविड-19 महामारी के कारण महाराष्ट्र के कई नगर परिषदों और नगर पंचायतों में समय पर चुनाव नहीं हो सके. इसके बाद राज्य सरकार ने तुरंत तहसीलदारों और उप-मंडल अधिकारियों को प्रशासक के रूप में तैनात कर दिया ताकि वे इन शहरी स्थानीय निकायों का संचालन कर सकें. इसी तरह जब राज्य के 27 नगर निगमों के निर्वाचित निकायों का कार्यकाल 2022 और 2023 के दौरान खत्म हो गया, तो इन्हें भी राज्य के द्वारा नियुक्त प्रशासकों के नियंत्रण में दे दिया गया, जो अभी भी उनके ही हाथों में हैं. राज्य के अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की वैधता फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिसकी वजह से स्थानीय चुनाव भी स्थगित हैं, और ये साफ़ नहीं है कि ये चुनाव कब होंगे.

शहरी स्थानीय निकाय

ऐसे हालात तब हैं जब 74वें संशोधन में साफ लिखा है कि किसी नगर पालिका के भंग होने पर छह महीने के भीतर उसका चुनाव करना आवश्यक है. लेकिन अगर किसी खास वजह से, जिसमें पालिका की कोई बड़ी गलती शामिल है, किसी नगरपालिका को पांच साल पूरे होने से पहले ही से भंग किया जाता है, तो उसे अपनी सफाई देने का पूरा मौका देना चाहिए.पहले भी देखा गया है कि जब राज्यों ने नगरपालिकाओं को भंग करने या उनकी चुनाव प्रक्रिया में बेवजह दखल देने की कोशिश की, तो अदालतों ने ऐसी कोशिशों को गलत कहा और अक्सर शहरी स्थानीय निकायों का ही पक्ष लिया. लेकिन, मौजूदा मामले में देखा जा रहा है कि 74वें संशोधन के नियमों का उल्लंघन हुआ है और वहां कई वर्षों से निर्वाचित निकाय काम नहीं कर रहा है, फिर भी शहरी स्थानीय निकायों में चुनाव की प्रक्रिया को दोबारा लागू करने की कोई जल्दी नज़र नहीं आ रही है.

पहले भी देखा गया है कि जब राज्यों ने नगरपालिकाओं को भंग करने या उनकी चुनाव प्रक्रिया में बेवजह दखल देने की कोशिश की, तो अदालतों ने ऐसी कोशिशों को गलत कहा और अक्सर शहरी स्थानीय निकायों का ही पक्ष लिया.

इससे पहले, स्थानीय निकायों की शक्ति को कम करने के लिए उनके राजस्व पर असर डाला गया. भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम (RFTCTLARR), 2013, और केंद्रीय माल और सेवा कर अधिनियम (CGST), 2017 ने नगरपालिकाओं की वित्तीय सेहत पर गंभीर चोट पहुंचाई. पहले कानून ने भूमि खरीदने के लिए शहरी स्थानीय निकायों के अधिनियम में बदलाव किया. वहीं दूसरे कानून से स्थानीय स्तर पर राजस्व वसूलने के अधिकार छीन लिए गए. RFCTLARR अधिनियम ने यह ज़रूरी कर दिया कि शहरी स्थानीय निकायों को शहरी जमीन के लिए वार्षिक रेडी रेकनर (ARR) या सर्किल रेट के  मूल्य का दोगुना भुगतान करना होगा.ARR या सर्किल रेट, राज्य सरकारों द्वारा संपत्ति के लेन-देन के लिए निर्धारित ज़मीन की कीमत है, जो किसी विशेष क्षेत्र में पंजीकृत भूमि के पिछले लेन-देन पर आधारित होता है. इसे आमतौर पर हर साल बढ़ाया जाता है. क्योंकि शहरी स्थानीय निकायों को बढ़ती आबादी को नागरिक सुविधाएं मुहैया कराने के लिए भूमि का अधिग्रहण करना पड़ता रहता है, RFCTLARR के कारण, अब भूमि अधिग्रहण की क्षमता भी गंभीर रूप से कमजोर हो गई दिखती है.

जीएसटी अधिनियम ने एक तरह से नगर पालिका के सभी राजस्व के स्रोत जैसे स्थानीय निकाय कर, मनोरंजन पर कर, होर्डिंग्स और बोर्ड के ज़रिए विज्ञापन पर कर, चुंगी कर आदि को समाहित कर लिया. सिर्फ़ संपत्ति कर, या प्रोपर्टी टैक्स बचा रहा लेकिन उसकी वसूली भी अब राजनीतिक कारणों से प्रभावित हुई है. इसका एक उदाहरण मुंबई से मिलता है. साल 2019 के चुनावों से पहले एक जन-लुभावन फैसले में राज्य में सभी 500 वर्ग फुट से कम के निवासीय संपत्तियों पर से संपत्ति कर हटा दिया गया. मुंबई जैसे शहर में 64 प्रतिशत घर 500 वर्ग फुट से कम में बने हुए हैं, और इस नए फैसले के कारण बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) के द्वारा संपत्ति कर से कमाए जा रहे राजस्व का दो-तिहाई हिस्सा खत्म हो गया. संपत्ति कर में कमज़ोरी ज़मीन के मूल्यांकन और वसूली के पुराने तरीकों के कारण भी आई है. भारतीय रिजर्व बैंक ने नवंबर 2024  में नगरपालिका वित्त पर एक रिपोर्ट जारी किया जिससे ये पता चलता है कि वैसे तो 96.2 प्रतिशत शहर संपत्ति रजिस्टर बनाए रखते हैं लेकिन उनमें से 55 प्रतिशत को अभी भी जीआईएस पर आधारित सर्वेक्षणों में परिवर्तित होना बाकी है. ये अभी भी संपत्ति के भौतिक मूल्यांकन पर निर्भर हैं जबकि 25.5 प्रतिशत शहर त्रुटियों से प्रभावित होने वाले मैनुअल रिकॉर्ड का उपयोग करते हैं.

केंद्रीकरण का बढ़ता दायरा

चुंगी कर से नगरपालिका के वार्षिक राजस्व का आधा हिस्सा वसूला जाता था लेकिन अब ये पूरी तरह से खत्म हो गया है. उपर बताए गए दो अधिनियमों के लागू होने के बाद हमारे देश के शहरी स्थानीय निकायें आर्थिक रूप से दुनिया में सबसे कमज़ोरों में एक हो गई है. वे अब केंद्रीय औऱ राज्य सरकार की आर्थिक मदद के बिना ज़िंदा नहीं रह सकते. इस संदर्भ में ज़रूरी है कि शहरी स्थानीय निकायों  के लिए केंद्र सरकार की योजनाओं का अध्ययन किया जाए. साल 2005 में शुरू की गई जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनर्नवीकरण मिशन (JNNURM)के बाद भारत सरकार की शहरी सेवाओं से जुड़ी योजनाएं केंद्र सरकार की धनराशि के वितरण और उसके उपयोग की निगरानी के लिए स्पेशल पर्पस व्हिकिल (SPV) मॉडल को प्राथमिकता देती रही हैं. पिछले दो दशकों से ऐसा ही रुझान बना हुआ है. जैसे साल 2015 में शुरू की गई स्मार्ट सिटीज़ मिशन (SCM), जिसे 100 शहरों में लागू किया गया और हर शहर में इसे एक SPV के माध्यम से ही लागू किया गया. स्पेशल पर्पस व्हीकल खास तौर से इस योजना के क्रियान्वयन के लिए बनाया गया था. हरेक SPV में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के प्रतिनिधि शामिल थे और इसका नेतृत्व एक सीईओ द्वारा किया गया. इस तरह SPV की संरचना अधिकतर प्रशासनिक ही रही है और इसमें जनप्रतिनिधित्व कम रहा है. यह साफ करती है कि लोकप्रिय रूप से निर्वाचित स्थानीय निकायों पर योजनाओं को लागू करने के मामले में विश्वास की कमी आई है.

दो अधिनियमों के लागू होने के बाद हमारे देश के शहरी स्थानीय निकायें आर्थिक रूप से दुनिया में सबसे कमज़ोरों में एक हो गई है. वे अब केंद्रीय औऱ राज्य सरकार की आर्थिक मदद के बिना ज़िंदा नहीं रह सकते.

असल में SPV की अवधारणा स्थानीय निकायों की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को किनारे करने की है. इसके अलावा, क्योंकि स्मार्ट सिटीज़ मिशन मार्च में समाप्त हो रहा है, SPV का भविष्य भी अंधकार में आ गया है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य कर्मचारियों की छंटनी पर विचार कर रहे हैं, जबकि दूसरे राज्य इसका इंतज़ार कर रहे हैं कि 31 मार्च 2025 के बाद इनकी परिस्थिति को लेकर क्या दिशा-निर्देश मिलते हैं. लेकिन स्मार्ट सिटीज़ मिशन ने जो कुछ प्रशासनिक कौशल और दक्षता हासिल की थी, वे शायद खत्म हो जाएं, क्योंकि ज़्यादातर स्थानीय निकायों के पास ऐसे लोग या वित्तीय क्षमता और तकनीकी समझ उस स्तर पर मौजूद नहीं है, जो SPV के ज़रिये चलाई गई पहलों को आगे ले जा सके. 

नगर पालिका की कुछ खास जिम्मेदारियों को संभालने के लिए परास्टटेल या अर्ध-सरकारी संस्थाओं द्वारा नियंत्रण स्थापित करना कई वर्षों से चल रहा है. बेंगलुरु शहर इसका एक मुख्य उदाहरण सामने रखता है. बेंगलुरु की न सिर्फ़ शहर की खंडित नगरपालिका सेवा की व्यवस्था विशेष है, बल्कि यह कई अन्य राज्यों में प्रचलित इस प्रवृत्ति का सबसे सटीक चित्रण भी करता है.बेंगलुरु में पानी की आपूर्ति, गंदे पानी का निपटारा और शुद्धिकरण, एक अर्ध-सरकारी संस्था ‘बेंगलुरु जलापूर्ति एवं सीवरेज बोर्ड’ (BWSSB) करती है. वहीं सार्वजनिक बस सेवाएं ‘बेंगलुरु मेट्रोपॉलिटन ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन’ (BMTC) के अधीन हैं. इसी तरह ‘बेंगलुरु मेट्रो रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड’ (BMRCL) एक नई परास्टेटल संस्था है, जो रेल आधारित सार्वजनिक परिवहन की सेवाएं मुहैया कराती है. 

इसी तरह अर्बन प्लानिंग या शहरी नियोजन के क्षेत्र में बेंगलुरु डेवलपमेंट अथॉरिटी (BDA) और बेंगलुरु मेट्रोपॉलिटन रीजनल डेवलपमेंट अथॉरिटी (BMRDA) का रोल होता है. ये संस्थाएं मास्टर प्लान तैयार करते हैं जिसमें लैंड ज़ोन बनाना, भूमि उपयोग की योजना बनाना और नियमन का काम देखना शामिल है. वहीं झीलों की रक्षा और विकास की जिम्मेदारी लेक डेवलपमेंट अथॉरिटी (LDA) के पास है. झुग्गी निवासियों को बुनियादी सुविधाएं और घर उपलब्ध कराने के साथ-साथ उनकी आय बढ़ाने की ज़िम्मेदारी कर्नाटक स्लम क्लीयरेंस बोर्ड (KSCB) के पास है. इनके अलावा कर्नाटक अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट एंड फाइनेंस कॉरपोरेशन (KUIDFC) बाहर से वित्तीय मदद हासिल करने वाली परियोजनाओं की नोडल एजेंसी है, जो दूसरी शहरी एजेंसियों को योजना बनाने, वित्त जुटाने और तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान करने में सहायता करती है.

आगे की राह 

ध्यान देने की बात है कि ये सभी परास्टेटल यानी अर्ध-सरकारी संस्थाएं हैं. सामने से ऐसा नज़र आता है कि ये संस्थाएं औपचारिक तौप पर बृहत्तर बेंगलुरु महानगर पालिका (BBMP) की सहायता के लिए बनाई गई हैं, लेकिन असल में देखा जाए, तो इन्होंने नगरपालिका के लगभग सभी कार्य अपने हाथ में ले लिए हैं, जिसके चलते BBMP केवल नाम मात्र की संस्था बनकर रह गई है.पिछले कुछ समय से ऐसे उदाहण देखने को मिले हैं जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों ने नगरपालिका की भौगोलिक सीमा के साथ छेड़छाड़ की है. इसका एक उदाहरण दिल्ली से मिलता है जब साल 2011 में दिल्ली नगर निगम का विभाजन किया गया और फिर 2022 में इन निकायों को दुबारा एकीकृत किया गया. इसका सबसे नया उदाहरण ग्रेटर बेंगलुरु गवर्नेंस बिल 2024 है. इस अधिनियम का लक्ष्य ग्रेटर बेंगलुरु अथॉरिटी (GBA) की स्थापना करना है जो ग्रेटर बेंगलुरु क्षेत्र का विकास करेगी.इस अधिनियम के तहत, BBMP के आयुक्त, GBA के मुख्य आयुक्त के नीचे काम करेंगे और GBA को ज्यादा से ज्यादा 10 नगर निगमों में बांटा जाएगा जिससे प्रभावी, सहभागी और जवाबदेह प्रशासन तय किया जा सकेगा.यह विधेयक स्पष्ट रूप से GBA क्षेत्र के अंदर आने वाले नगर निकायों की सीमाएं बदलने, या किसी क्षेत्र को नगर निगम की सीमा से बाहर करने का अधिकार देता है. राज्य के मुख्यमंत्री GBA के एक्स-ऑफिसियो चेयरमैन होंगे जबकि एक सीनियर राज्य प्रशासनिक अधिकारी (जो कम से कम अपर मुख्य सचिव स्तर का हो) उसे मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया जाएगा.इस तरह लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की जो मामूली सी झलक भी अब तक बची थी वो भी इस प्रस्तावित ढांचे में खत्म हो जाएगी और GBA अधीन क्षेत्र के स्थानीय निकायों का शासन सीधे तौर पर राज्य सरकार के हाथ में आ जाएगा.

बताए गए सभी उदाहरण साफ़ तौर पर दर्शाते हैं कि स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा गंभीर रूप से कमजोर होती जा रही है.

उपर बताए गए सभी उदाहरण साफ़ तौर पर दर्शाते हैं कि स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा गंभीर रूप से कमजोर होती जा रही है. ये उदाहरण जताते हैं कि किस तरह निचले स्तर पर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधित्व को किन्हीं ऐसी वजहों से नज़रअंदाज किया जा सकता है जिन्हें निर्वाचित संस्थाओं से भी अधिक अहम माना लिया जाए.अब नगरपालिकाओं को अपने कई अधिकारों को या तो राज्य सरकार को, या फिर उनके द्वारा संचालित संस्थाओं और अधिकारियों को सौंपने के लिए मजबूर किया जा रहा है. योजना बनाने जैसी अहम जिम्मेदारी पहले ही राज्य के नियंत्रण में है, और अब नगर पालिका की भौगोलिक सीमाएं को भी राज्य की मनमानी पर बदले जाने का खतरा है.इन सभी कदमों का मिलाजुला असर ये है कि शहरी स्थानीय निकायों की स्वायत्तता खत्म होती जा रही है. उन्हें अब केवल राज्य सरकार के एजेंट का दर्जा दिया जा रहा है. इस तरह संविधान का 74वां संशोधन एक जरूरी संवैधानिक प्रावधान के बजाए एक वैकल्पिक परामर्श दस्तावेज मात्र बनकर रह गया है. 


रामानाथ झा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फ़ेलो हैं.

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