”शरम नहीं आती है,- किस मुंह से मुख़ालफत करते हो, – कोई शरम और हया नामकी चीज़ नहीं रह गयी। बसपा की हिमायत करोगे। भूल गये वे नारे ‘जो आज़म का सर लायेगा, वो राम भक्त कहलायेगा’। क्या जुल्म नहीं सहे हैं हमने आप सबके लिए। बसपा को वोट कर रहे हो। चांदी के वर्क में लिपटी हुई गंदगी खाने को तैयार हो गये”। वक्ता सपा के स्टॉर प्रचारक आज़म खान है। प्रचार स्थल–अयोध्या है। कहना न होगा कि श्रोता अधिकांशत: मुस्लिम मतदाता है जिन पर शक है कि वे मायावती के बहकावे में आकर बी0एस0पी0 के उम्मीदवार ब़ज्में सिद्दीकी के पक्ष में वोट डाल सकते हैं। सपा एवं बसपा दोनों ही भाजपा का भय दिखाकर मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर लुभा रहे हैं। अगर आज़म खान की बेचैनी कुछ बंया कर रही है तो वह है मुस्लिम मतदाताओं का विभ्रम।
पांचवा चरण आते-आते चुनावी मुद्दे थक कर हाँफ रहे हैं। नोटबंदी के पक्ष-विपक्ष में दिये जाने वाले तर्क लोगों को जुबानी याद हैं। शिवरात्रि के अवसर पर कस्बाई बाजारों एवं मेलों में ग्रामीणों स्त्रियों-बच्चों की उमड़ी भीड़ निराशावादी अर्थशास्त्रियों की मंदी की भविष्यवाणियों का उपहास सा उड़ा रही हैं। बाजारों एवं ग्रामीण्ा क्षेत्र में बढ़ रहे उपभोक्ता वस्तुएं यथा मोबाईल फोन, दुपहिया/चार पहिया वाहन, कम से कम नोटबंदी के नकारात्मक प्रभाव को तो नहीं दिखा रही है।
सदैव की तरह इस चुनाव में उ0प्र0 की कानून-व्यवस्था, महिलाओं के विरूद्ध अपराध, खराब सड़कें, कभी-कभार आने वाली बिजली, विकास का क्षेत्रीय असंतुलन, नौकरियों की कमी एवं बेरोज़गारी, सेवायोजन में भ्रष्टाचार, एक जाति या समुदाय को नौकरियों/विकास योजनाओं में तबज्ज़ो देने जैसे मुद्दे तो है हीं। किन्तु आम मतदाता इन मुद्दों से उदासीन है। शायद वह यह मान चुका है कि ये मुद्दे तो उसकी नियति बन चुके हैं। सरकारें आती-जाती हैं, पर ये मुद्दे अपनी ज़गह डटे रहते हैं। शायद इसीलिए मतदाताओं एवं नेताओं में मुद्दों को लेकर समान रूप से बेरूखी है।
स्वाभाविक है कि चुनाव प्रचार में मुद्दों की जगह चुटीले संवादों, आकर्षक नारों एवं शब्द संक्षिप्तों एवं जुमलों ने ले ली है। अमुक नेता ने अपने लम्बे भाषण में क्या कहा भले ही लोग भूल गये हों, पर चुटीले संवाद एवं शब्द संक्षिप्तों की नयी परिभाषा लोगों में देर तक चर्चा का विषय बनी रहती है। ऐसा नहीं है कि नेताओं का परिहास बोध खत्म हो गया है। कभी–कभी ऐसे चुटीले व्यंग्य जमीनी हकीकत को भी बंया कर देते हैं। एक ऐसा ही वाकया आगरा के रकाबगंज इलाके में राहुल-अखिलेश के संयुक्त रोड-शो के दौरान देखने को मिला। राहुल-अखिलेश जिस खुले वाहन पर सवार थे उसके सामने सड़क के आर-पार जाते हुए बिजली के नंगे तार आ गये। जहॉ राहुल झुक कर एकदम से बैठ गये, वहीं अखिलेश ने मुस्कराते हुए जरा सी गरदन भर झुकायी। अब सुनिए मोदी ने इस दृश्य का वर्णन कैसे किया ”एक आदमी (राहुल) तो बिजली के तारों से बचने के लिए ‘डक’ (झुक गये) कर गये जैसे कि उनकी आद़त है, दूसरे ने अलबत्ता इसकी जरूरत नहीं समझी क्योंकि उन्हे तो मालूम ही है कि तारों में करंट नहीं है”।
अखिलेश लाख गंगा मईया की कसम की दुहाई दें कि उन्होने वाराणसी में 24 घंटे बिजली की सप्लाई दी है, पर प्रदेश की विद्युत-व्यवस्था पर कसा गया प्रधानमंत्री का तंज सटीक बैठा है। मोदी शब्द संक्षिप्त (एक्रनिम) गढ़ने में माहिर हैं। ‘स्कैम’ (SCAM) इसका ताज़ा तरीन नमूना है। स्कैम की व्याख्या प्रधानमंत्री ने कुछ इस प्रकार से की – ‘एस’ से समाजवादी ‘सी’ से कांग्रेस, ‘ए’ से अखिलेश एवं ‘एम’ से मायावती। फिर क्या था ॽ चुनावों में शब्द संक्षिप्तों, जुमलों एवं व्यंग्यवाणों की मानों बाढ़ सी आ गयी। ‘बसपा’ को ‘बहिनजी संपत्ति पार्टी’ के नाम से नवाज़ा गया। बहिन जी कहॉ चुप बैठने वाली थी। उन्होने तुरंत ही बी0जे0पी0 को ‘भारतीय जुमला पार्टी’ बना दिया एवं नरेन्द्र दामोदर मोदी (NDM) को ‘मिस्टर निगेटिव दलित मैन’ की संज्ञा से सुशोभित किया।
भारत में चुनाव हों और सीमा-पार से आतंकवाद का जिक्र भला न हो ॽ अब बारी थी ‘कसाब’ की । भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने नई व्याख्या दी तथा उम्मीद जताई कि इस चुनाव में उ0प्र0 की जनता ‘कसाब’ से मुक्ति पा लेगी। फिर उन्होने ‘कसाब’ शब्द संक्षिप्त का विस्तार किया ‘ ‘क’ से कांग्रेस, ‘सा’ से समाजवादी पार्टी एवं ‘ब’ से बहुजन समाज पार्टी। जैसाकि अपेक्षित था, मायावती ने अपने ही अंदाज में तुरंत अमित शाह को ही सबसे बड़ा आतंकवादी बता डाला। सपा की नेत्री मुख्यमंत्री की सांसद पत्नी डिम्पल यादव ने कसाब को समाजवादी विकास एजेंडे से जोड़कर नई व्यवस्था की – ‘क’ से कम्प्यूटर, ‘सा’ से स्मार्टफोन एवं ‘ब’ से बच्चे। यानी की बच्चों के हाथ में कम्प्यूटर एवं स्मार्टफोन हो।
शब्दवाण यहीं नही थमें। प्रधानमंत्री ने श्मसान एवं कब्रिस्तान, दीवाली एवं रमज़ान, ईद और होली का मुद्दा डालकर जहॉ अखिलेश की सरकार के अल्पसंख्यक तुष्टिकरण पर प्रहार किया, वहीं बहुसंख्यक ध्रुवीकरण को भी हवा दी। लेकिन सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी अखिलेश के ‘गुज़राती गधे’ के व्यक्तव्य ने। अखिलेश के निशाने पर स्वाभाविक रूप से मोदी–शाह एवं गुज़रात की प्रचार टीम थी। शायद वे इस तरह से उ0प्र0 के चुनाव में स्थानीय एवं बाहरी का मुद्दा भी लाने का प्रयास कर रहे थे। पर असर कुछ उल्टा ही हुआ। गोंडा की चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल गुज़रात का बचाव किया, वरन गधे को भी महिमामंडित करते हुए उसे अपनी प्रेरणा का श्रोत बता डाला। बाकी अखिलेश की लानत-मलानत भाजपा की साध्वियों उमा भारती एवं निरंजन ने कर डाली। ”जो अपने बाप का सगा नहीं हुआ, वो जनता का क्या होगा” – यह तो एक दृष्टांत भर ही है।
मायावती अपना मुस्लिम कार्ड सावधानी से खेल रहीं है। आज़म खान के अयोध्या में दिए गए बयान कि ‘बसपा चांदी की तश्तरी में चॉदी के वर्क से ढ़का हुआ मैला है’ पर उनका बयान संयमित रहा। आज़म खान के बेहद भड़काऊ भाषण पर बस इतना भर कहा कि आज़म खान बबुआ (अखिलेश) की चापलूसी करने के लिए मुसलमानों को बरगलाए नहीं। शायद मुलसमानों में बसपा की बढ़ती पैठ का उन्हें भरपूर अहसास रहा होगा।
उ0प्र0 विधान सभा चुनाव प्रचार कई मायनों में यादगार रहेगा। जहां तक सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का सवाल है, प्रचार से समाजवादी महारथियों, मुलायम सिंह, शिवपाल एवं यहां तक की प्रो0 रामगोपाल यादव की गैरहाजिरी तथा पूरा प्रचार अखिलेश एवं डिम्पल यादव के इर्द-गिर्द सीमित रहना, समाजवादी पार्टी के आने वाले स्वरूप को रेखांकित करता है। इसे ‘अपर्णा यादव की प्रेरणा कहें या मुकाबला’ संसद में बेजुबान गुडि़या बनी डिम्पल ने अकेले दम पर अनेकों जन-सभाओं को सम्बोधित किया है। पुरूष-प्रधान सैफई – राजनीतिक परिवार के लिए यह किसी क्रांति से कम नहीं है। चुनाव परिणाम जो भी हो, समाजवादी पाटी के कलेवर में आगामी दिनों में सकारात्मक परिवर्तन की आस जगती है।
अगर किसी वजह से मायावती का मुस्लिम दांव खाली जाता है तो राजनीति में बने रहने के लिए उन्हें भी बी0एस0पी0 में आमूल-चूल परिवर्तन करने पड़ेगें। कानून-व्यवस्था का अच्छा ट्रैक रिकार्ड का मुद्दा एवं भाजपा का हौव्वा दिखाकर अल्संख्यकों का भय-दोहन दिन-ब-दिन अपनी धार खोते जा रहे हैं। बी0एम0सी0 (मुम्बई) नगर निकाय चुनाव में भाजपा-शिवसेना का एक दूसरे के प्रबल विरोध के बावजूद भी सबसे आगे रहना एवं महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरों में भाजपा की बढ़त अल्पसंख्यकवाद के हथियार के चुनाव में अंधाधुंध प्रयोग की सीमा रेखांकित करती है। यह सत्य है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव अब चन्द जुमलों एवं नारों तक सिमट कर रह गये है, पर यह समझना भूल होगी कि जनता भी मुद्दे भूल चुकी है। मतदाता मन बना चुका है। यह पब्लिक है, यह सब जानती है।
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