यूक्रेन के लिए पिछला हफ़्ता प्रतीकात्मक साबित हुआ जब उसने अपना 31वां स्वतंत्रता दिवस मनाया, वो भी उस वक़्त जब यूक्रेन में रूस के ‘विशेष सैन्य अभियान’ के छह महीने पूरे हो रहे थे. पूर्व सोवियत संघ पर निर्भरता के शिकंजे से आज़ादी को लेकर यूक्रेन में उत्साह तो था. लेकिन, उसके सामने ये बर्बर हक़ीक़त भी दरपेश थी कि वो बेवजह की जंग का शिकार है- यूक्रेन के नागरिकों ने इन विरोधाभासी बातों का तजुर्बा अपनी आज़ादी के जश्न के कुछ घंटों के भीतर ही कर लिया था. यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर ज़ेलेंस्की ने अपने साथी देशवासियों को आगाह किया था कि उनके देश की आज़ादी के जश्न में खलल डालने के लिए रूस नागरिक ठिकानों को निशाना बनाकर हमले कर सकता था. रूस ने ज़ेलेंस्की को निराश नहीं किया और मध्य यूक्रेन के एक क़स्बे चैपलिन के रेलवे स्टेशन पर रॉकेट से हमला किया, जिसमें कम से कम 25 लोगों की जान चली गई. रूस ने अपने इस हमले को ये कहकर वाजिब ठहराने की कोशिश की रेलवे स्टेशन पर उसके इस हमले में 200 से ज़्यादा सैनिक वो और फौजी साज़-ओ-सामान तबाह हो गए, जो उसके क़ब्ज़े वाले डोनबास क्षेत्र की ओर रवाना किए जा रहे थे.
हाल के वर्षों में युद्ध का केंद्र यूरोप के सबसे बड़े परमाणु ऊर्जा प्लांट पर सिमट गया है, जो ज़पोरीशिया में है. इस परमाणु ऊर्जा केंद्र के इर्द-गिर्द दोनों पक्षों द्वारा की जा रही बमबारी ने एक परमाणु तबाही के ख़तरे को बहुत बढ़ा दिया है.
परमाणु तबाही का खतरा बढ़ा
यूक्रेन युद्ध खींचता ही जा रहा है और दोनों तरफ़ से कोई मुरव्वत नहीं बरती जा रही है. दोनों ही पक्ष इस युद्ध के उस निर्णायक मोड़ की तलाश में है, जिससे जंग का पलड़ा उनकी तरफ़ झुक जाए, मगर वो अब तक किसी को भी हासिल नहीं हो सका है. हाल के वर्षों में युद्ध का केंद्र यूरोप के सबसे बड़े परमाणु ऊर्जा प्लांट पर सिमट गया है, जो ज़पोरीशिया में है. इस परमाणु ऊर्जा केंद्र के इर्द-गिर्द दोनों पक्षों द्वारा की जा रही बमबारी ने एक परमाणु तबाही के ख़तरे को बहुत बढ़ा दिया है.
जब रूस के रक्षा प्रमुख ने ये स्वीकार किया कि यूक्रेन में रूस का सैन्य अभियान अटक गया है, उसके एक दिन बाद ही रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अपने देश की सेना में 137,000 नए सैनिक भर्ती करने के आदेश पर दस्तख़त किए. इस भर्ती के बाद रूस की सेना की कुल तादाद 20.4 लाख पहुंच जाएगी.
कम से कम अब तक तो पुतिन, रूस के सभी सैनिकों को यूक्रेन में तैनात करने से बचते रहे हैं. वो इसके लिए वैगनर नाम के निजी सुरक्षा संगठन के भाड़े के सैनिकों पर ज़्यादा निर्भर रहे हैं. इसके अलावा वो उन गणराज्यों और यहां तक की जेलों में क़ैद उन लोगों को जंग का बोझ उठाने के लिए यूक्रेन भेजते रहे हैं, जो रूसी नस्ल के नहीं हैं. पुतिन को युद्ध के प्रति रूसी जनता का सहयोग बनाए रखना है, तो ऐसा करना बहुत अहम है. उन्हें ऊर्जा की बढ़ती क़ीमतों से भी काफ़ी मदद मिली है.
सर्दियों की आमद का मतलब है कि जंग का दायरा बसंत तक जाएगा, क्योंकि इस दौरान रूसी सेना युद्ध के शुरुआती महीनों में थकान और हताशा से जूझने के बाद अब नई भर्ती करने और ख़ुद को ताज़ा-दम करने की कोशिश कर रही है.
हालांकि, पुतिन का ये ताज़ा आदेश इस बात को स्वीकार करने जैसा है कि यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस का युद्ध उस दिशा में नहीं बढ़ पा रहा है, जिसकी रूस ने योजना बनाई थी. ऐसे में रूसी समाज के ऊपर ये ज़िम्मेदारी आ गई है कि वो इस जंग का बोझ अपने कंधों पर भी ले. कुछ आकलनों के मुताबिक़, यूक्रेन युद्ध के छह महीनों के दौरान जितने रूसी सैनिक मारे जा चुके हैं उतने तो अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ ने पूरे दस साल में भी नहीं गंवाए थे. वैसे तो जंग में अपेक्षित नतीजे हासिल न कर पाने से भी पुतिन की लोकप्रियता पर फिलहाल कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है, लेकिन, उनके लिए अब चुनौती ज़रूर बढ़ेगी क्योंकि अब रूसी जनता को उनके फ़ैसलों की क़ीमत चुकानी पड़ेगी. सर्दियों की आमद का मतलब है कि जंग का दायरा बसंत तक जाएगा, क्योंकि इस दौरान रूसी सेना युद्ध के शुरुआती महीनों में थकान और हताशा से जूझने के बाद अब नई भर्ती करने और ख़ुद को ताज़ा-दम करने की कोशिश कर रही है. इसके चलते रूस को युद्ध के लिए अपनी शुरुआती रणनीति में भी इंक़लाबी तरीक़े से बदलाव करना पड़ा है.
पूरी तरह से अड़े हुए हैं ज़ेलेंस्की
वहीं दूसरी तरफ़, ज़ेलेंस्की पूरी तरह से अड़े हुए हैं. उन्होंने यूक्रेन की जनता से वादा किया है कि, ‘हम इस युद्ध में जीत के मकाम तक ज़रूर पहुंचेंगे’. वैसे ज़ेलेंस्की को भी इस बात के लिए आलोचना का सामना करना पड़ रहा है कि उन्होंने अमेरिका की चेतावनी की अनदेखी की और अपने देश को आने वाले दौर के लिए ठीक से तैयार नहीं किया. हालांकि, अभी आलोचना के ये सुर मद्धम ही हैं. फिलहाल तो यूक्रेन को जंग की ज़रूरतों के लिए एकजुट और तैयार करने के लिए ज़ेलेंस्की के नेतृत्व की ज़रूरत बहुत अहम मानी जा रही है. यूक्रेन के सैनिकों ने रूस की सेना को कई बार अपनी छोटी छोटी रणनीतियों से हैरान किया है. इस काम में उन्हें पश्चिमी देशों से मिले घातक हथियारों ने भी काफ़ी मदद दी है. यूक्रेन को अमेरिका का सैन्य सहयोग लगातार जारी है. राष्ट्रपति जो बाइडेन की अगुवाई में अमेरिका अब तक यूक्रेन को 10 अरब डॉलर की मदद दे चुका है. अभी पिछले हफ़्ते ही अमेरिका ने यूक्रेन के लिए 3 अरब डॉलर के सैन्य मदद के पैकेज का एलान किया है, जिससे वो हवाई रक्षा का सिस्टम, तोपखाने, गोला-बारूद, रडार और मानव रहित जवाबी हमले वाले विमान ख़रीद सकेगा.
फिर भी अभी ये साफ़ नहीं है कि यूक्रेन कितने लंबे समय तक रूस के सत्ता हासिल करने की आकांक्षा के प्रति ख़ुद को एकजुट कर सकेगा, और ये भी साफ़ नहीं है कि यूक्रेन के नागरिकों की रूसी सेना को पीछे धकेलने की मज़बूत इच्छाशक्ति क्या इस जंग का रुख़ बदल पाने के लिए पर्याप्त है.
फिर भी अभी ये साफ़ नहीं है कि यूक्रेन कितने लंबे समय तक रूस के सत्ता हासिल करने की आकांक्षा के प्रति ख़ुद को एकजुट कर सकेगा, और ये भी साफ़ नहीं है कि यूक्रेन के नागरिकों की रूसी सेना को पीछे धकेलने की मज़बूत इच्छाशक्ति क्या इस जंग का रुख़ बदल पाने के लिए पर्याप्त है. ये बात काफ़ी हद तक यूरोप से यूक्रेन को मिल रही मदद पर भी निर्भर है. कम से कम अब तक तो यूरोप ने रूस का मुक़ाबला करने के लिए अभूतपूर्व इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है. लेकिन अब जबकि सर्दियां आने वाली हैं, तो यूरोप की सरकारों के लिए चुनौती इसलिए और भी बढ़ती जा रही है क्योंकि महंगाई इस वक़्त रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है. युद्ध को लेकर यूरोप में थकन और हताशा का एहसास यूक्रेन के लिए काफ़ी नाटकीय साबित हो सकता है.
नई विश्व व्यवस्था के मूल तत्वों का विश्लेषण
फरवरी में रूस द्वारा बनाई गई योजना के तहत एक छोटा और निर्णायक सैन्य अभियान, यूक्रेन के कड़े विरोध के चलते अब एक लंबे और थकाऊ संघर्ष में तब्दील हो गया है. लेकिन आज जब ये जंग खिंचती ही जा रही है, तो हम नई विश्व व्यवस्था के मूल तत्वों का विश्लेषण कर सकने की स्थिति में पहुंच गए हैं. इस संघर्ष के चलते यूरेशिया में मौजूदा चुनौतियों के बावुजूद दुनिया की बड़ी ताक़तें अभी भी अपना अधिकतर ध्यान हिंद प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित किए हुए हैं, जहां चीन के उभार ने इतनी बड़ी चुनौतियां पैदा कर दी हैं, जैसी हमने पिछली सदी के दौरान शीत युद्ध के शुरुआती दिनों के बाद कभी नहीं देखी थीं. अपनी ताक़त के लंबे चौड़े दावे के बाद भी रूस एक दूसरे दर्जे की सैन्य ताक़त ही साबित हुआ है, जिसके पास लंबे समय तक युद्ध लड़ने के लिए वो आर्थिक बुनियाद तक नहीं है, जो एक कमज़ोर से देश यूक्रेन से मुक़ाबले के लिए चाहिए थी. हो सकता है कि जंग से यूक्रेन तबाह हो जाए. लेकिन उसकी जगह कोई नया ढांचा खड़ा कर पाने की रूस की क्षमता को लेकर गंभीर शंकाएं पैदा हो गई हैं. तो आज जब अमेरिका और चीन के बीच शीत युद्ध नए नए चेहरे अख़्तियार कर रहा है, तो रूस की भूमिका महज़ इतनी ही होगी कि वो चीन की दरियादिली पर आधारित रहे.
आज जब यूक्रेन का संकट खिंचता ही जा रहा है, तो बड़ी ताक़तों की सियासी खींचतान से दुनिया का सामरिक नक्शा फिर बदल रहा है. ऐसे में अगर भारत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में एक बड़ी ताक़त के रूप में उभरना चाहता है तो, पुरानी, थकाऊ और घिसी-पिटी नीतियों पर चलने से भारत का कोई भी मक़सद हल नहीं होगा.
भारत की एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनाने की ख़्वाहिश
और इससे भारत की विदेश नीति की लंबे समय से चली आ रही कुछ धारणाओं को चुनौती मिलती दिख रही है. भारत की एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था बनाने की ख़्वाहिश और तमाम देशों से समान स्तर पर संबंध बनाने के उसके कूटनीतिक प्रयास इस बात पर निर्भर रहे हैं कि रूस इस विश्व व्यवस्था में अपनी आज़ाद भूमिका निभाएगा. रूस एक वैश्विक खिलाड़ी के तौर पर अपने लिए कोई स्वतंत्र भूमिका रच पाएगा, इसे लेकर आशंकाएं आज पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई हैं. निश्चित रूप से ये भारत के लिए नुक़सान वाली बात है. लेकिन भारत इस चुनौती से बस उम्मीदों के सहारे टिककर पार नहीं पा सकता है. इसी वजह से भारत के कुछ हलकों में गुटनिरपेक्षता को ही इकलौता मौजूं विकल्प बताकर दोबारा ज़िंदा किया जा रहा है. लेकिन, जब भारत के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के दौरान कारगर साबित नहीं हुई, तो आज कैसे उपयोगी हो सकती है, जब अमेरिका के प्रभुत्व को चीन लगातार चुनौती दे रहा है और भारत के साथ चीन के मतभेद भी सबसे ज़्यादा बढ़ गए हैं.
आज जब यूक्रेन का संकट खिंचता ही जा रहा है, तो बड़ी ताक़तों की सियासी खींचतान से दुनिया का सामरिक नक्शा फिर बदल रहा है. ऐसे में अगर भारत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में एक बड़ी ताक़त के रूप में उभरना चाहता है तो, पुरानी, थकाऊ और घिसी-पिटी नीतियों पर चलने से भारत का कोई भी मक़सद हल नहीं होगा.
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ये लेख मूल रूप से हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ था.
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