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राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा H-1B वीज़ा शुल्क में बीस गुना की वृद्धि करने से भारत-अमेरिका तकनीकी संबंधों में झटका लगा है. इससे रोज़गार और स्वदेश भेजी जाने वाली रक़म के घटने का ख़तरा तो है ही, अमेरिकी नवाचार को गति देने वाली भारतीय प्रतिभाओं का आना-जाना भी प्रभावित हो सकता है.
सितंबर 2025 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जब यह ऐलान किया कि H-1B वीज़ा का शुल्क 5,000 अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 1,00,000 डॉलर किया जाएगा, तो अमेरिकी उद्योग जगत, भारत और पूरी दुनिया में खलबली मच गई. उन्होंने यह कदम दो महीने पहले दिए गए उस बयान के बाद उठाया, जिसमें उन्होंने कहा था कि गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी अमेरिका की दिग्गज टेक कंपनियों को ‘भारत में नियुक्ति बंद कर देनी चाहिए’ और अमेरिकियों को रोज़गार देना चाहिए. यह उनके ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति की दिशा में उठाया गया एक ठोस कदम था. इसकी तुरंत प्रतिक्रियाएं भी सामने आईं. टेक निवेशकों और अधिकारियों ने चेतावनी दी कि वीज़ा शुल्क में नई बढ़ोतरी से कंपनियों को लाखों का नुक़सान होगा और अमेरिका में स्टार्टअप बुरी तरह प्रभावित होगा. भारतीय अधिकारियों ने भी चिंता जताई क्योंकि यह घोषणा सीधे तौर पर फरवरी, 2025 के उस बयान के ख़िलाफ़ था, जिसमें भारतीय छात्र समुदाय की सराहना की गई थी, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हर साल 8 अरब डॉलर का योगदान देते हैं. इन छात्रों की संख्या 3,00,000 है.
हालांकि, यह नया शुल्क नए H-1B वीज़ा आवेदकों पर लागू होगा, पर इसने अमेरिका में राजनीतिक और जातीय बयानबाजी को हवा दे दी जो खास तौर पर भारतीयों के ख़िलाफ़ है क्योंकि यही समुदाय अमेरिका में इस विशेष वीज़ा श्रेणी का सबसे बड़ा प्राप्तकर्ता है. जैसे-जैसे अमेरिका में मध्यावधि चुनाव के लिए प्रचार ज़ोर पकड़ रहा है, H-1B वीज़ा संकट आर्थिक और चुनावी विवाद का केंद्र बनता जा रहा है. राजनीतिक स्तर पर, यह शुल्क वृद्धि उस ज़ेनोफोबिक सोच (विदेशी या बाहरी लोगों को नकारात्मक रूप में पेश करना) को भी मज़बूत बनाती है, जो ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (MAGA), यानी अमेरिका को फिर से महान बनाने को लेकर चल रहे अभियान की विशेषता है. यह अभियान अमेरिका में भारतीयों के ख़िलाफ़ लगातार चलाया जा रहा है. रही बात आर्थिक प्रभाव की, तो इस फ़ैसले का बड़ा असर आईटी कंपनियों और स्वदेश भेजी जाने वाली रक़म से लेकर अमेरिकी विश्वविद्यालयों में कुशल श्रम के आगमन तक, सब पर पड़ेगा. बदली हुई परिस्थितियां और अमेरिकी आव्रजन नियमों की नई वास्तविकताएं अब नए सवाल खड़े कर रही हैं। सवाल यही कि ये बदलाव दोनों अर्थव्यवस्थाओं को कैसे प्रभावित करेंगे, ख़ासतौर से शैक्षिक क्षेत्र और संभवतः रिवर्स माइग्रेशन (प्रवासियों की स्वदेश वापसी) के मामले में?
यह घोषणा सीधे तौर पर फरवरी, 2025 के उस बयान के ख़िलाफ़ था, जिसमें भारतीय छात्र समुदाय की सराहना की गई थी, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हर साल 8 अरब डॉलर का योगदान देते हैं. इन छात्रों की संख्या 3,00,000 है.
भारतीय प्रतिभाएं अमेरिका में तकनीकी संबल का एक मुख्य स्तंभ हैं। वे यहां के रोज़गार में सीधे तौर पर शामिल होती हैं या फिर किसी दूसरे देश से अपनी पेशेवर सेवाएं देती हैं। अकेले साल 2024 में, भारतीय नागरिकों को 2,07,000 से अधिक वीज़ा मिले, और अमेरिका ने जितने H-1B वीज़ा स्वीकृत किए, उनका 20 प्रतिशत हिस्सा भारतीय कंपनियों के खाते में आया. यह बताता है कि इस वीज़ा पर भारतीयों का किस हद तक दबदबा है. भारतीय छात्रों की बढ़ती संख्या इसे बढ़ाने का ही काम करती है, जिनकी हिस्सेदारी अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे कुल अंतरराष्ट्रीय छात्रों में 25 प्रतिशत तक है. कई छात्र स्नातक करने के तुरंत बाद काम करने के लिए वैकल्पिक व्यावहारिक प्रशिक्षण (OPT) कार्यक्रम का लाभ उठाते हैं और फिर पूर्णकालिक तकनीकी काम करने लगते हैं. समय के साथ कई लोग टेक कंपनियों का नेतृत्व भी करते हैं, जिसे गूगल, आईबीएम, एडोब और माइक्रोसॉफ्ट सहित फॉर्च्यून 500 कंपनियों में भारतीय मूल के CEO की संख्या को देखकर समझा जा सकता है.
ऑफशोरिंग (कुछ पेशेवर सेवाओं को विदेशों में स्थापित करना) के नज़रिये से देखे, तो भारत का तकनीकी क्षेत्र अमेरिकी उद्योग जगत के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है. वित्त वर्ष 2024-25 में यह अनुमान लगाया गया था कि ग्राहक सेवा, बाज़ार अनुसंधान, आईटी सेवाओं, इंजीनियर और अन्य पेशेवर सेवाओं में भारत का आउटसोर्सिंग निर्यात 210 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा. इन क्षेत्रों में करीब 58 लाख पेशेवरों को रोज़गार मिलने की उम्मीद थी, जिसमें अकेले अमेरिका इसका 60-65 प्रतिशत हिस्सा पूरा करता. यूएस-इंडिया इनिशिएटिव ऑन क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (ICET) और टेक्नोलॉजी रेजिलिएंस ऐंड यूएस-ट्रस्टेड पार्टनर्स (TRUST) जैसे कार्यक्रमों से अमेरिकी कंपनियों ने पूरे भारत में लगभग 1,800 वैश्विक क्षमता केंद्र स्थापित किए हैं, जिनमें 19 लाख लोगों को रोज़गार मिलता है. इनमें जेपी मॉर्गेन चेज़ और माइक्रोसॉफ्ट जैसे बड़े नाम भी हैं, जिनके भारत में कर्मचारियों की तादाद क्रमशः 55,000 और 18,000 है. इनका हैदराबाद में सबसे बड़ा अनुसंधान और विकास केंद्र (R&D) भी है। इस तरह के संबंध का अर्थ यही है कि यदि तुरंत बड़े पैमाने पर इन कंपनियों को स्वदेश बुलाया जाता है, तो इन केंद्रों पर होने वाले उनके रोज़ाना के काम प्रभावित होंगे.
हालांकि, ट्रंप का तकनीकी क्षेत्र की नौकरियों को वापस अमेरिका में लाने का वायदा अमेरिकी नज़रिये से आकर्षक जान पड़ता है, पर इसमें कई गंभीर समस्याएं भी हैं. पहली, अमेरिका के पास इन भारतीय कामगारों का स्थान लेने के लिए पर्याप्त योग्य कर्मचारी नहीं हैं. श्रम विभाग की स्थायी श्रम प्रमाणन (PREM) प्रक्रिया बताती है कि यदि नियोक्ता किसी विदेशी कामगार को ग्रीन कार्ड के लिए आर्थिक सहायता देगा, तो पहले उसे उस पद का विज्ञापन जारी करना होगा और यह साबित करना होगा कि कोई भी अमेरिकी नागरिक या स्थायी निवासी उस पद के योग्य नहीं है. इन सुरक्षा उपायों के बावजूद, यहां कई कारणों से भारतीय प्रतिभाओं की मांग अधिक बनी हुई है. दरअसल, किसी कारोबारी क्षेत्र में यदि H-1B की हिस्सेदारी एक प्रतिशत बढ़ती है, तो उस क्षेत्र में अमेरिकी कामगारों की बेरोजगारी में 0.2 प्रतिशत अंकों की गिरावट होती है और उनकी आमदनी 0.1 से 0.26 प्रतिशत तक बढ़ जाती है.
अकेले साल 2024 में, भारतीय नागरिकों को 2,07,000 से अधिक वीज़ा मिले, और अमेरिका ने जितने H-1B वीज़ा स्वीकृत किए, उनका 20 प्रतिशत हिस्सा भारतीय कंपनियों के खाते में आया.
इसके अलावा, अमेरिका के निजी क्षेत्र ने व्यावहारिक कारणों से स्वदेश वापसी के प्रस्तावों का विरोध किया है. दरअसल, श्रम लागत में भारी अंतर है, क्योंकि भारतीय आईटी पेशेवरों का वेतन अक्सर सिलिकॉन वैली के कर्मचारियों की तुलना में बहुत कम होता है. इसका मतलब है कि अमेरिका में काम करने के लिए मजबूर करने से इन कंपनियों की लागत बढ़ जाएगी, मार्जिन कम हो जाएगा और अंततः नवाचार में बाधा आएगी. इतिहास यह भी बताता है कि इस तरह के उपाय अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारने जैसे होते हैं. 2020 में ही, जब ट्रंप ने कई कार्य वीज़ा पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी थी, तब कई कंपनियों ने सुदूर देशों में अपना कामकाज स्थानांतरित करना शुरू कर दिया था, जिससे ऐसे फ़ैसलों की सीमाएं पता चली थी.
अमेरिका द्वारा नियुक्ति पर रोक या वीज़ा पर शिकंजा कसना भारत के लिए अच्छा नहीं होगा. वित्त वर्ष 2024 में, भारत के आईटी क्षेत्र ने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में लगभग 7 प्रतिशत का योगदान दिया था और उसे इस निर्यात से काफी फ़ायदा मिला था. आईटी सेवा से भारत को जितनी कमाई होती है, उसका करीब 79 प्रतिशत हिस्सा विदेशों से आता है, जिसमें अमेरिका अब तक का सबसे बड़ा बाज़ार रहा है. हमारी तकनीकी निर्यात की 60 प्रतिशत मांग वही पूरी करता है, यानी 135 अरब डॉलर सालाना वहीं से आता है. इसका मतलब यह भी है कि इसमें किसी तरह की रोक से भारत की GDP वृद्धि और व्यापार संतुलन प्रभावित होगा. अमेरिकी तकनीकी क्षेत्र में मामूली गिरावट होते ही ये आईटी कंपनियां भर्ती घटाने लगती हैं, जिसका अर्थ है कि नई राजनीतिक रोक से हजारों भारतीय नौकरियां ख़तरे में पड़ जाएंगी और कंपनियां कहीं अधिक छंटनी करने लगेगी. यहां सिर्फ़ निर्यात और रोज़गार ही मुद्दे नहीं हैं. वास्तव में, विदेश में काम करने वाले कामगारों से धन पाने के मामले में भारत दुनिया में सबसे आगे है. साल 2024 में रिकॉर्ड 129.4 अरब डॉलर पैसे भारत भेजे गए थे, जिनमें से 27.7 प्रतिशत अमेरिका से आए थे. अमेरिकी कंपनियों द्वारा कार्य वीज़ा या रोज़गार पर रोक लगाने से इन पैसों की आमद प्रभावित हो सकती है, जिससे रुपया कमज़ोर हो सकता है और भारतीय परिवारों पर दबाव बढ़ सकता है.
अमेरिकी कार्य वीज़ा पर रोक लगने पर भारतीय प्रतिभाएं किसी अन्य देश में जाने को उत्सुक हो सकती हैं. कनाडा की आव्रजन-समर्थक नीतियों के कारण वहां पिछले एक दशक में भारतीय प्रवासियों की संख्या 326 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है और यह देश अंतरराष्ट्रीय छात्रों, अस्थायी कर्मचारियों और स्थायी नागरिकता की मांग करने वालों में शीर्ष पर पहुंच गया है. ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी ने भी STEM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित) क्षेत्र के लिए अपने प्रवासन कार्यक्रमों का विस्तार किया है, जबकि यूरोपीय विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों का नामांकन 2015 और 2023 के बीच 45 प्रतिशत बढ़ा है. नीतिगत पहलों के कारण प्रवासन में यह बदलाव कोई आश्चर्य की बात नहीं है- विप्रो जैसी कंपनियों ने ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान ही जर्मनी में डिजिटल नवाचार केंद्र खोल लिए थे, ताकि अमेरिका की नीतिगत उलझन से वह कुछ हद तक बच सके.
जैसे-जैसे अन्य देशों में प्रवासन अधिक सुलभ होता जा रहा है, अमेरिकी तकनीकी कंपनियों के सामने अच्छी प्रतिभाओं को खोने का ख़तरा बढ़ता जा रहा है. इसका सिलिकॉन वैली की नवाचार क्षमता पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि 55 प्रतिशत अमेरिकी यूनिकॉर्न के संस्थापक अप्रवासी हैं और उनमें से 40 प्रतिशत संस्थापक भारतीय या भारतीय मूल के हैं. अगर इन पर दबाव बनाया जाता है, तो गूगल या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की अगली सफलता टोरंटो या बर्लिन में देखने को मिल सकती है.
साल 2024 में रिकॉर्ड 129.4 अरब डॉलर पैसे भारत भेजे गए थे, जिनमें से 27.7 प्रतिशत अमेरिका से आए थे. अमेरिकी कंपनियों द्वारा कार्य वीज़ा या रोज़गार पर रोक लगाने से इन पैसों की आमद प्रभावित हो सकती है, जिससे रुपया कमज़ोर हो सकता है और भारतीय परिवारों पर दबाव बढ़ सकता है.
नई अमेरिकी नीति से प्रतिभाएं वापस अपने देश में लौट सकती हैं. भारतीय पेशेवरों के भी स्वदेश लौटने का ख़तरा होगा. अभी लगभग 18 लाख भारतीय छात्र विदेश में हैं, और कुछ ने वापस आकर ओला व फ्लिपकार्ट जैसी कंपनियां भी खोली हैं. स्टार्टअप इंडिया और रामालिंगास्वामी फ़ेलोशिप जैसे कदमों से भारत अपनी प्रतिभाओं को अपने तकनीकी व स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र में शामिल कर रहा है, जो लगातार मज़बूत भी हो रहा है. भारत के आत्मनिर्भर बनने के हालिया प्रयासों को भी इस प्रतिभा से फ़ायदा मिलेगा. बेशक, इनका व्यापक असर दिखने में कुछ वर्ष लग सकते हैं, लेकिन इस बीच, अमेरिका में अवसरों के सिमटने से विकास धीमा होगा और भारत-अमेरिका साझेदारी पर दबाव पड़ेगा.
भारत और अमेरिका के बीच प्रतिभाओं के आवागमन को यदि रोका जाता है, तो उसका भी बड़ा प्रभाव पड़ सकता है. TRUST जैसी साझा पहलें महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारत-अमेरिका सहयोग की अद्वितीय संभावनाओं को बढ़ाती हैं. सरकारी समर्थन का अभाव या बनावटी शत्रुता रखने से निश्चय ही वे कार्यक्रम रुक जाएंगे या उनकी गति धीमी हो जाएगी, जो विचारों के आदान-प्रदान, संयुक्त अनुसंधान और सह-नवाचार पर निर्भर हैं. अगर यह स्थिति लगातार बनी रही, तो भारतीयों के लिए अमेरिकी दरवाज़े बंद होने और प्रवासी-विरोधी भावनाओं के रूप में राजनीतिक प्रतिरोध के कारण भारतीय प्रतिभाओं का प्रवाह उन देशों की ओर हो सकता है, जो उनके लिए अधिक अनुकूल है. ट्रंप प्रशासन की नीतियों के कारण अमेरिका से प्रतिभाओं के पलायन का लाभ उठाने के लिए जर्मनी ने भारतीय कामगारों को लुभाना शुरू भी कर दिया है.
वीज़ा शुल्क को बीस गुना बढ़ाने की ट्रंप की नीति का मूल मक़सद विदेशी प्रतिभाओं की नियुक्ति को सीमित करना है, लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर भारत पर पड़ेगा. इससे न सिर्फ़ दुनिया भर में अमेरिकी नवाचार को मिली बढ़त प्रभावित होगी, बल्कि उसके सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक संबंधों में एक पर नकारात्मक असर पड़ेगा. भारत के तकनीकी क्षेत्र और स्वदेश धन प्रवाह को तत्काल झटका लग सकता है. हालांकि, प्रतिभाओं के उन देशों में स्थानांतरण होने से, जो अमेरिका के विरोधी हैं और भारत में प्रतिभाओं की वापसी से अमेरिका की चुनौतियां लंबे समय तक बनी रह सकती हैं. जैसे-जैसे भारत अन्य साझेदारों के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने पर विचार कर रहा है, लोगों की आवाजाही की दशकों पुरानी श्रृंखला और वाशिंगटन की तरह निर्भरता को विकसित करना उसके लिए मुश्किल होगा. बहरहाल, दुनिया AI, क्वांटम कंप्यूटिंग और रोबोटिक्स के माध्यम से एक और तकनीकी क्रांति के मुहाने पर खड़ी है, ऐसे में, प्रतिभा उतनी ही महत्वपूर्ण हो सकती है, जितना कि भौगोलिक क्षेत्र. इसलिए, प्रवासन में अमेरिकी नीति से पैदा हुए संकट में छिपे लाभों का फ़ायदा उठाने के लिए भारत को प्रयास करना होगा.
(विवेक मिश्र ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम के उप-निदेशक हैं)
(योगेश महापात्रा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक शोध प्रशिक्षु थे)
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Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation. His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...
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Yogesh Mohapatra is a Research Intern with the Observer Research Foundation ...
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