वैश्विक स्तर पर तमाम चुनौतियों से निपटने और सभी के लिए अधिक न्यायसंगत एवं टिकाऊ भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए सतत विकास हेतु 2030 का एजेंडा (2030 Agenda for Sustainable Development) एक व्यापक फ्रेमवर्क उपलब्ध कराता है. इस एजेंडे के 17 सतत विकास लक्ष्य (SDGs) न केवल पृथ्वी के लिए, बल्कि यहां निवास करने वालों के लिए शांति एवं समृद्धि हासिल करने का एक ब्लूप्रिंट हैं, साथ ही संयुक्त राष्ट्र (UN) के सदस्य देशों के बीच वैश्विक स्तर पर पारस्परिक सहयोग के लिए एक ज़ोरदार आह्वान भी हैं. ये सतत विकास लक्ष्य "कोई भी पीछे न छूटे" (Leaving no one behind - LNOB) की थीम के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास को हासिल करना चाहते हैं. इन सतत विकास लक्ष्यों की थीम सिर्फ़ दुनिया के सबसे अधिक निर्धन और साधन विहीन लोगों की सहायाता करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इन SDGs का लक्ष्य इससे भी कहीं आगे, यानी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के फ्रेमवर्क के मुताबिक़ वैश्विक स्तर पर भेदभाव को समाप्त करना और असमानताओं को कम करना है.
इस ब्रीफ़ में भारत में ट्रांसजेंडरों के अधिकारों का विश्लेषण करते हुए यह बताया गया है कि SDGs ऐसे वातावरण को बढ़ावा देने में किस प्रकार से मदद कर सकते हैं, जो ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के लिए समावेशन, समानता और सामाजिक न्याय की गारंटी देने वाला और विश्वास बढ़ाने वाला हो.
इस आर्टिकल में भारत की सतत विकास यात्रा में ट्रांसजेंडर समुदाय की वास्तविकता का पता लगाने की कोशिश की गई है. इस ब्रीफ़ में भारत में ट्रांसजेंडरों के अधिकारों का विश्लेषण करते हुए यह बताया गया है कि SDGs ऐसे वातावरण को बढ़ावा देने में किस प्रकार से मदद कर सकते हैं, जो ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के लिए समावेशन, समानता और सामाजिक न्याय की गारंटी देने वाला और विश्वास बढ़ाने वाला हो.
ट्रांसजेंडर एक ऐसा शब्द है जिसका इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जा सकता है, जिनकी लैंगिक पहचान जन्म के वक़्त उनके लिंग से भिन्न होती है. दक्षिण एशिया के सामाजिक और सांस्कृतिक आलोक में देखा जाए तो भारत 'हिजड़ों' या किन्नरों का सबसे समृद्ध इतिहास समेटे हुए है. हालांकि, किन्नर लिंग से जुड़ी दूसरी अस्पष्ट पहचानों के बीच ट्रांसजेंडर समुदाय के केवल एक हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. इस समुदाय के साक्ष्य विभिन्न मंदिरों में की गई नक्काशी और धार्मिक ग्रंथों में भी मिलते हैं. मुगल काल के दौरान भी किन्नरों को शाही दरबार में प्रतिष्ठित पदों पर बैठाया जाता था. हालांकि, लैंगिक रूप से अलग इस समुदाय को पश्चिमी देशों में कोई ख़ास जगह नहीं मिली और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा 1871 के क्रिमनल ट्राइबल एक्ट के अंतर्गत इन्हें "अपराधियों" के रूप में वर्गीकृत किया गया था. इस क़ानून ने सरकारी स्तर पर एक हिसाब से ट्रांसजेंडरों को हाशिए पर धकेलने का काम किया और आज भी इस समुदाय को ऐसे ही हालातों से दो चार होना पड़ता है.
हाशिये पर ट्रांसजेंडर समाज
ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को समाज की मुख्यधारा से अलग रखने का ही नतीज़ा है कि इस कम्युनिटी के लोगों को स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, आवास और रोज़गार तक अपनी पहुंच सुनिश्चित करने में तमाम रुकावटों का सामना करना पड़ रहा है. ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को रोज़मर्रा के जीवन में तमाम परेशानियों से रूबरू होना पड़ता है, जैसे उन्हें एक कलंक की तरह माना जाता है, उनके साथ भेदभाव किया जाता और हिंसा की जाती है. इनके साथ ऐसा व्यवहार समाज में गहरी जड़ें जमा चुके सामाजिक पूर्वाग्रहों और संस्थागत असमानताओं की वजह से आज भी होता है. ट्रांसजेंडरों के प्रति इन पूर्वाग्रहों एवं असमानताओं को समाप्त नहीं किया गया, नतीज़तन इस समुदाय के लोग सामाजिक रूप से हाशिए पर चले गए हैं.
जनगणना में इस 'अन्य' श्रेणी में 4,87,803 लोग शामिल हैं और ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए विभिन्न कल्याणकारी उपाय उनकी इसी संख्या पर आधारित हैं. देखा जाए तो यह ट्रांसजेंडरों की सही संख्या नहीं है.
वर्ष 2011 में हुई जनगणना में पहली बार लिंग की पहचान के लिए पुरुष और महिला के साथ 'अन्य' श्रेणी की शुरुआत हुई थी. हालांकि, यह बताना बेहद अहम है कि जनगणना ने 'ट्रांसजेंडर' लोगों को लेकर अलग से आंकड़े नहीं जुटाए गए थे. जनगणना में इस 'अन्य' श्रेणी में 4,87,803 लोग शामिल हैं और ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए विभिन्न कल्याणकारी उपाय उनकी इसी संख्या पर आधारित हैं. देखा जाए तो यह ट्रांसजेंडरों की सही संख्या नहीं है.
पिछले एक दशक की बात करें तो भारत ने ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को लेकर एवं उनके सामाजिक-आर्थिक समावेशन को आगे बढ़ाने के लिए काफ़ी कुछ किया है. भारत के सुप्रीम कोर्ट का वर्ष 2014 का ऐतिहासिक NALSA निर्णय (NALSA judgment) ट्रांसजेंडरों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. इस फैसले में ट्रांसजेंडरों के लिए लिंग के स्व-पहचान (self-identification) के अधिकार को क़ानूनी घोषित किया गया था, हालांकि इसमें अपनी तरह की कई चुनौतियां शामिल हैं. इसके अलावा वर्ष 2018 में धारा 377 को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया और ऐसा करके सहमति से बनाए गए समलैंगिक वयस्क संबंधों को क़ानूनी जामा पहना दिया गया. इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए ट्रांसजेंडर पर्सन (अधिकारों का संरक्षण) एक्ट, 2019 लाया गया. इस एक्ट ने वर्ष 2020 में लाए गए नियमों के साथ मिलकर शिक्षा, हेल्थकेयर और कार्यस्थल सहित विभिन्न क्षेत्रों में ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को स्पष्ट और सुरक्षित किया, साथ ही उनके सर्वांगीण विकास में सुधार पर ध्यान दिया. आगे भी इसी क्रम को बढ़ाते हुए ट्रांसजेंडरों के लिए राष्ट्रीय पोर्टल को लॉन्च किया गया, साथ ही उनके लिए कई कल्याणकारी उपायों को भी शुरू किया गया. हालांकि देखा जाए तो ट्रांसजेंडरों के अधिकारों से जुड़े इस अधिनियम का खूब विरोध किया गया. साथ ही इसको लागू करने में जटिल सरकारी प्रक्रियाओं एवं ट्रांसजेंडरों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त नज़रिए ने उन तक इन उपायों के फायदों को पहुंचाना और भी मुश्किल बना दिया है.
भारत सतत विकास लक्ष्यों के साथ क़दमताल कर लैंगिक समानता, समावेशिता और मानवाधिकारों से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं एवं सर्वोत्तम प्रथाओं का फायदा उठा सकता है. वैश्विक स्तर पर हर व्यक्ति की समानता और गरिमा को रेखांकित करने वाली मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (Universal Declaration of Human Rights) के प्रस्तावों का योग्यकार्ता सिद्धांतों (Yogyakarta Principles) में विस्तार से उल्लेख किया गया है. ज़ाहिर है कि ये सारे फ्रेमवर्क सामूहिक रूप से वैश्विक स्तर पर ट्रांसजेंडरों के अधिकारों एवं सुख-समृद्धि को सुनिश्चित करने की ज़रूरत पर बल देते हैं. इस सबसे कुल मिलाकर हम समझ सकते हैं कि SDGs के भीतर ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के अधिकारों के समावेशन की बुनियाद सतत विकास लक्ष्यों एवं तमाम अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में खुद ब खुद शामिल है.
उदाहरण के तौर पर SDG1 की बात करें, तो इसका प्रमुख उद्देश्य व्यापक स्तर पर ग़रीबी को समाप्त करना है. जिस प्रकार से ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को आर्थिक, आवास एवं रोज़गार से जुड़ी गतिविधियों से दूर रखा जाता है, या फिर इन तक उनकी पहुंच नहीं होती है, उससे इनके ग़रीबी के दुष्चक्र में फंसने का ख़तरा सबसे अधिक है. जिस प्रकार से ट्रांसजेंडरों को परिवार और समाज से बेदखल कर दिया जाता है और कोई सहयोग नहीं किया जाता है, उससे भी इनके ग़रीबी के दुष्चक्र में फंसने का ख़तरा बढ़ गया है.
इसी प्रकार से SDG 4 की बात करते हैं. इसका प्रमुख फोकस शिक्षा पर है. ज़ाहिर है कि ट्रांसजेंडरों में शिक्षा की कमी, उनकी आर्थिक अवसरों तक पहुंच में एक बहुत बड़ी रुकावट है. भारत में वर्ष 2018 के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सर्वेक्षण के मुताबिक़ 96 प्रतिशत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को रोज़गार में भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इतना ही नहीं उन्हें अक्सर या तो कम वेतन वाली नौकरी मिलती है, या फिर उन्हें शोषण वाले धंधों, जैसे कि सेक्स वर्क और भीख मांगने जैसे कार्यों में धकेल दिया जाता है. इसके अलावा 92 प्रतिशत ट्रांसजेंडरों को रोज़गार के अवसरों से ही वंचित कर दिया जाता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि लैंगिक रूप से असमान बच्चों को ज़्यादातर स्कूलों द्वारा दाखिला नहीं दिया जाता है. उल्लेखनीय है कि "अन्य" श्रेणी के बच्चों की पढ़ाई छोड़ने की दर सबसे अधिक होती है, साथ ही इनके परीक्षा में पास होने की दर सबसे कम होती है. इससे ज़ाहिर होता है कि ट्रांसजेंडर बच्चों के साथ शिक्षा के दौरान ज़बरदस्त भेदभाव किया जाता है. यही वजह है कि ट्रांसजेंडर बच्चों की साक्षरता दर 56.1 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत 74.04 प्रतिशत से बेहद कम है.
भारत में वर्ष 2018 के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सर्वेक्षण के मुताबिक़ 96 प्रतिशत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को रोज़गार में भेदभाव का सामना करना पड़ता है. इतना ही नहीं उन्हें अक्सर या तो कम वेतन वाली नौकरी मिलती है, या फिर उन्हें शोषण वाले धंधों, जैसे कि सेक्स वर्क और भीख मांगने जैसे कार्यों में धकेल दिया जाता है .
SDG 5 में प्रमुख रूप से लैंगिक समानता पर फोकस किया गया है, लेकिन यह बेहद ही हैरान करने वाली बात है कि इसमें लैंगिक रूप से अस्पष्ट पहचान वाले ट्रांसजेंडर समुदाय को सीधे तौर पर शामिल नहीं किया गया है. हालांकि, SDG 8 का प्रमुख उद्देश्य समावेशी आर्थिक विकास, गुणवत्तापूर्ण रोज़गार के अवसरों और सुरक्षित रोज़गार को बढ़ावा देना है. ट्रांसजेंडर समुदाय जैसे हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिए यह बहुत अहम है.
इसी प्रकार से SDG 10 का फोकस असमानताओं को कम करने पर है. इसके साथ ही इसमें भेदभाव के बगैर सभी वर्ग और समुदायों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समावेशन को महत्व दिया गया है. इसलिए, इस सतत विकास लक्ष्य को ऐसा माना जा सकता है कि इसमें ख़ास तौर पर ट्रांसजेंडर समुदाय जैसे अस्पष्ट लैंगिक पहचान वाले व्यक्तियों को शामिल करने और उनकी सुख-समृद्धि के लिए पूरी व्यवस्था है.
ट्रांसजेंडर पॉलिसी
भारत के कई राज्य ऐसे हैं, जो ट्रांसजेंडरों के अधिकारों के संरक्षण में बढ़चढ़ कर भूमिका निभा रहे हैं. ख़ास तौर पर ओडिशा की बात करें तो, वहां ट्रांसजेंडर समुदाय की सामाजिक और आर्थिक समृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए एक समर्पित ट्रांसजेंडर पॉलिसी बनाई गई है. इसी प्रकार से कर्नाटक ने वर्ष 2021 में ऐतिहासिक क़दम उठाते हुए ट्रांसजेंडरों के लिए 1 प्रतिशत आरक्षण शुरू करने के लिए भर्ती नियमों में बदलाव किया था. इसके अलावा कर्नाटक में ट्रांसजेंडरों के लिए कई कल्याणकारी उपाय भी शुरू किए गए हैं, जिनमें ट्रांसजेंडर बच्चों के 58 प्रतिशत ड्रॉपआउट रेट जैसे मुद्दों को संबोधित करने के लिए उन्हें छात्रवृत्ति देने का प्रावधान भी शामिल है. इसके अलावा, तमिलनाडु ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को OBC में शामिल करते हुए उन्हें सबसे पिछड़े वर्ग (MCB) श्रेणी का दर्ज़ा देकर एक उल्लेखनीय क़दम उठाया है. ज़ाहिर है कि यह एक ऐसा प्रयास है, जो न केवल ट्रांसजेंडरों की सामाजिक और आर्थिक ज़रूरतों को पहचानने वाला है, बल्कि उनका समुचित समाधान भी करता है.
निश्चित तौर पर ट्रांसजेंडरों के अस्तित्व की अनदेखी करना "कोई भी पीछे न छूटे" के बुनियादी सिद्धांत के उलट है. ऐसे में हमें एक समावेशी वातावरण में सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन की संभावनाओं को तलाशना चाहिए .
ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़े तमाम मुद्दों को संबोधित करने वाले कई क़ानून भारत में मौज़ूद हैं, बावज़ूद इसके ब्रिटिश शासन के दौरान ट्रांसजेंडरों के साथ जैसा बर्ताव किया गया और उन्हें सामाजिक कलंक माना गया, उसकी वजह से कई चुनौतियां आज भी बनी हुई हैं और कहीं न कहीं ये चुनौतियां हमारे संविधान में भी पहुंच चुकी हैं. इसलिए, ब्रिटिश काल के दौरान ट्रांसजेंडरों को लेकर संस्थागत रूप ले चुके भेदभाव को दूर करने के लिए सतत विकास लक्ष्यों के मुताबिक़ समावेशी नीतियों का कार्यान्वयन बेहद महत्वपूर्ण है.
निसंदेह तौर पर SDGs टिकाऊ विकास के लिए एक वैश्विक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते हुए, समावेशी नीतियों को बनाने एवं उन्हें लागू करने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाते हैं. हालांकि, यह ज़रूर है कि SDG 5 में लैंगिक समानता पर फोकस किए जाने के बावज़ूद ट्रांसजेंडर समुदाय का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है. निश्चित तौर पर ट्रांसजेंडरों के अस्तित्व की अनदेखी करना "कोई भी पीछे न छूटे" के बुनियादी सिद्धांत के उलट है. ऐसे में हमें एक समावेशी वातावरण में सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन की संभावनाओं को तलाशना चाहिए, साथ ही इस बात पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए कि इन लक्ष्यों को ट्रांसजेंडर समुदाय के हित के लिए भारत के विकास एजेंडे में किस प्रकार से शामिल किया जा सकता है.
शैरोन सारा थावानी, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक (कोलकाता) की एक्जिक्यूटिव असिस्टेंट हैं.
ये लेखक की निजी राय है.
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