भारत और अमेरिका के बीच रक्षा क्षेत्र में मजबूत साझेदारी बनी हुई है, लेकिन कुछ जानकारों का कहना है कि अगर व्यापार मतभेदों को नहीं सुलझाया गया तो इस पार्टनरशिप पर उसका असर पड़ सकता है. व्यापार विवाद की असल वजहों और भारत-अमेरिका के रिश्ते पर लंबी अवधि में उसके संभावित असर के साथ भारत की बदलती भू-राजनैतिक रणनीति पर ओआरएफ के प्रेसिडेंट समीर सरन ने वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम (WEF) को दिए इंटरव्यू में अपनी बात रखी.
WEF: भारत और अमेरिका के बीच जो व्यापारिक मतभेद हैं, उनका दोनों देशों के रिश्तों पर लंबी अवधि में क्या असर हो सकता है?
समीर सरनः वैश्विक व्यवस्था में आज एक दूसरे से जुड़े हुए कई ढांचागत (स्ट्रक्चरल) बदलाव एक मुकाम तक पहुंच रहे हैं. भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक मतभेद इसी का नतीजा है. इस संदर्भ में ख़सतौर पर एक दूसरे से जुड़े दो बदलावों का ज़िक्र करना ज़रूरी है. पहला, वैश्विक अर्थव्यवस्था का डिजिटल होना और दूसरा, टेक्नो-नेशनलिज़्म की राजनीति. टेक्नो-नेशनलिज़्म से पता चलता है कि तकनीक किसी देश के समाज और संस्कृति को कैसे प्रभावित कर रही है. दुनिया में डेटा यानी आंकड़ों की देखरेख और विकास व सुरक्षा में तकनीक की भूमिका पर मतभेद हैं. पहले व्यापार और प्रवास संबंधी मामलों में ऐसा देखा जा चुका है कि देश दशकों में जाकर रियायत देने को तैयार हुए. वह भी लंबे समय तक मोलभाव के बाद.
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का जिस तेज़ी से दायरा बढ़ा है, उससे सरकार के पांव तले की ज़मीन खिसक गई है. इससे उनका अपनी आबादी और अपने यहां के बिज़नेस पर रातोंरात नियंत्रण कमजोर हुआ है.
इस मामले में भारत भी अलग नहीं है. 1947 के बाद से भारत ने उदार अंतरराष्ट्रीयवाद (लिबरल इंटरनेशनलिज्म) को धीमे-धीमे अपनाया, उससे यह बात साबित होती है. डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का जिस तेज़ी से दायरा बढ़ा है, उससे सरकार के पांव तले की ज़मीन खिसक गई है. इससे उनका अपनी आबादी और अपने यहां के बिज़नेस पर रातोंरात नियंत्रण कमजोर हुआ है. यह सोचना नादानी होगी कि एक अरब से अधिक आबादी की सरकार लोकतंत्र और बेहद अहम सर्विसेज सेक्टर का नियंत्रण दुनिया के दूसरे छोड़ की टेक्नोलॉजी कंपनियों को दे देगी. इसलिए भारत और अमेरिका के बीच डेटा लोकलाइजेशन, ई-कॉमर्स, म्यूचुअल लीगल असिस्टेंस और डेटा प्रोटेक्शन को लेकर इस कदर मतभेद हैं.
दोनों देश एक दूसरे को ‘स्वाभाविक साझेदार’ कहते हैं, लेकिन इसका तथ्य को बहुत कम लोग समझते हैं कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की परिपक्वता और उसकी अर्थव्यवस्था का विकास उस तरह से नहीं होगा, जैसे अमेरिका में हुआ था. दोनों देशों को मौजूदा बातचीत को इस सच्चाई तक पहुंचने की प्रक्रिया और अपने हितों की रक्षा की कोशिश के तौर पर लेना चाहिए. इसके बजाय भारत और अमेरिका का रक्षा और बिज़नेस समुदाय अलग-अलग सुर आलाप रहे हैं. असल मुद्दा तो यह है कि तकनीक हमारे समाज की शक्ल किस तरह से बदलेगी. अमेरिका में लोग मानते हैं कि मानवाधिकारों की रक्षा और साईबर सिक्योरिटी के साथ सिलिकॉन वैली भारत जैसे विकासशील देशों की तरक्की में बड़ी भूमिका निभा सकती है.
इस मामले में भारत की सोच बिल्कुल अलग है. यहां की सरकार और इंडस्ट्री का मानना है कि उभरती हुई तकनीक को मैनेज, उन्हें डेवेलप करने और इस्तेमाल का अधिकार उनके हाथों में होना चाहिए. यह सोच कि अमेरिकी कंपनियां भारतीय यूज़र्स के आर्थिक हितों और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा बेहतर ढंग से कर पाएंगी, कुछ हालिया घटनाओं से गलत साबित हुई हैं.
अभी तक भारत और अमेरिका ने इन मतभेदों का असर व्यापक द्विपक्षीय रिश्तों पर नहीं पड़ने दिया है, लेकिन डिजिटल इकनॉमी का सवाल और बड़ा और निर्णायक होता जाएगा. अमेरिका को यह मानना होगा कि देश की सीमा से बाहर डेटा ले जाने का मामला बिल्कुल अलग नहीं है. देश की ग्रोथ और चौथी औद्योगिक क्रांति के संदर्भ में इसकी चर्चा होनी चाहिए. इस बीच, भारत को अपनी नीति जल्द और स्पष्ट तरीके से अमेरिका के सामने रखनी चाहिए. इसकी शुरुआत डिजिटल इकॉनमी के उन क्षेत्रों की पहचान के साथ की जा सकती है, जिन पर मनमानी नीतियां नहीं थोपी जाएंगी. इससे ये क्षेत्र बेफिक्र होकर कामकाज कर सकेंगे. अभी भारत के डिजिटल रूल्स को लेकर अमेरिकी नीति निर्माताओं और कंपनियों के साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय में कन्फ्यूजन है. भारत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ), जी20 और रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकॉनमिक पार्टनरशिप जैसे मंचों पर व्यापार वार्ता में डेटा गवर्नेंस के सवाल से बचता आया है. अगर भारत इस गलती को जल्द दूर नहीं करता है तो वह ग्लोबल डिजिटल इकनॉमी में पीछे छूट जाएगा और वह उसके बगैर आगे बढ़ती रहेगी.
अमेरिका को यह मानना होगा कि देश की सीमा से बाहर डेटा ले जाने का मामला बिल्कुल अलग नहीं है. देश की ग्रोथ और चौथी औद्योगिक क्रांति के संदर्भ में इसकी चर्चा होनी चाहिए.
WEF: अमेरिका, ईरान पर और सख्त पाबंदियां लगाने जा रहा है. इसका भारत पर क्या असर होगा क्योंकि वह ईरान के तेल का दूसरा सबसे बड़ा ग्राहक है?
समीर सरनः अमेरिका ने इस मामले में भारत को छूट नहीं दी है. बदकिस्मती से वह अस्थायी हितों की ख़ातिर लंबी अवधि के फ़ायदों की अनदेखी कर रहा है. भारत और ईरान के बीच कच्चे तेल का व्यापार एक कहीं बड़े ट्रेंड का पहलू है. यह ट्रेंड एशिया और यूरोप का और करीब आना है और इसका काफी हद तक श्रेय चीन को जाता है. अभी यूरेशिया (यूरोप और एशिया) पर चीन के भू-राजनैतिक और आर्थिक हितों का प्रभाव दिख रहा है. वह अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के ज़रिये यह काम कर रहा है. उसकी राजनीति भी इसी के इर्द-गिर्द केंद्रित है. यूरेशियाई सुपरकॉन्टिनेंट और हिन्द-प्रशांत सामुद्रिक व्यवस्था का आज वैश्विक व्यवस्था पर असर हो रहा है. व्यापार, इंफ्रास्ट्रक्चर, तेल, प्रवास और सुरक्षा हित…सब इनसे जुड़े हुए हैं. इन्हें लेकर जो नियम बनाए जा रहे हैं, उनका ग्लोबल सिस्टम पर असर होगा. भारत इस मामले में अपने हितों की अनदेखी नहीं कर सकता. ईरान, रूस और अन्य देशों के साथ उसकी साझेदारी इस लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है.
डिजिटल इकॉनमी को लेकर अलग-अलग अप्रोच आने वाले समय में बढ़ेगी और इसकी अहमियत और भी ज्यादा होगी.
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