जनवरी से मार्च 2023 के बीच भारत की GDP 6.1 प्रतिशत और पूरे वित्त वर्ष (2022-23) में 7.1 फ़ीसद की रफ़्तार से बढ़ी. मगर इस अच्छी ख़बर को उतनी तवज्जो नहीं दी गई, जितने की ये हक़दार थी. इससे पहले का वित्त वर्ष (2021-22) कोविड महामारी के बाद का पहला सामान्य साल था. किसी सामान्य वर्ष के आधार पर 7.1 प्रतिशत की विकास दर हासिल करना उम्मीदों भरा संकेत देता है. दूसरा, इस प्रगति ने 2018-19 से दिखाई दे रहे उस दु:खद चलन को पलटा है, जब आख़िरी तिमाही में विकास दर में गिरावट देखी जा रही थी और जो उसके बाद के वर्ष के लिए बुरी ख़बर लेकर आने वाली थी. अब ये अपशकुन पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में हासिल हुई विकास दर से टूट गया है, जो पिछले छह वित्तीय वर्षों में दर्ज हुई सबसे ज़्यादा तेज़ विकास दर है और ये उस साल की दूसरी तिमाही के लगभग बराबर है (Table 1 देखें).
Table 1: भारत की GDP विकास दर का सफर
2022-23 में विकास दर में अचानक आए इस बदलाव को समझा पाना मुश्किल है. इसकी एक वजह तो शायद ये हो सकती है कि चौथी तिमाही में तेल के आयात की लागत काफ़ी कम हो गई थी. जनवरी से मार्च 2023 के बीच तेल की औसत क़ीमतें, पिछले साल इसी दौरान रही क़ीमतों से लगभग 17 प्रतिशत कम थीं भारत की GDP, आयातित तेल की क़ीमत से बहुत प्रभावित होती है. तेल के दाम में 17 प्रतिशत की गिरावट ने निश्चित रूप से विकास दर को आगे बढ़ाया होगा.
भारत ने पश्चिमी देशों के ऐतराज़ के बावजूद रूस से सस्ते दाम पर तेल आयात करना जारी रखा. इस तरह भारत ने अपने सबसे बड़े आर्थिक हित को, यूक्रेन में शांति बहाल करने के लिए उठाए जा रहे बहुपक्षीय क़दमों की वैश्विक प्रतिबद्धता से अलग करके रखा.
हालांकि, हम इसे सिर्फ़ क़िस्मत का फ़ैसला नहीं मान सकते. ये भारत के व्यवहारिक कूटनीतिक रवैये का भी नतीजा है. क्योंकि, जब यूक्रेन पर हमले की वजह से पश्चिमी देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, और आपूर्ति श्रृंखलाओं में ख़लल पड़ा, तो तेल के दाम बड़ी तेज़ी से बढ़े. लेकिन, भारत ने पश्चिमी देशों के ऐतराज़ के बावजूद रूस से सस्ते दाम पर तेल आयात करना जारी रखा. इस तरह भारत ने अपने सबसे बड़े आर्थिक हित को, यूक्रेन में शांति बहाल करने के लिए उठाए जा रहे बहुपक्षीय क़दमों की वैश्विक प्रतिबद्धता से अलग करके रखा.
सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश पर आधारित प्रगति
निजी क्षेत्र की खपत- GDP विकास का एक बड़ा कारण होता है. लेकिन, वो अभी भी बहुत कमज़ोर स्थिति में है. पर, विकास को आगे बढ़ाने का एक और बड़ा कारण यानी निवेश बढ़ा है. हालांकि, इसमें सबसे बड़ा योगदान ख़ुद सरकार की तरफ़ से पूंजीगत व्यय का रहा है. इस रणनीति का मक़सद निवेशक का भरोसा बढ़ाने और अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को जोखिम से अलग करना है. Table 2 में देखा जा सकता है कि 2019-20 में कोविड महामारी से ठीक पहले सरकार का पूंजी निवेश जहां GDP का 26.9 प्रतिशत था, वहीं 2022-23 में ये निवेश बढ़कर GDP के 29.2 प्रतिशत तक पहुंच गया था.
Table 2: GDP में भारत के अलग अलग मदों में ख़र्च की हिस्सेदारी
सरकार द्वारा लिए जा सकने वाले क़र्ज़ की सीमा और 2003 के वित्तीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन क़ानून के अंतर्गत वित्तीय घाटे के नियमों जैसी वित्तीय लक्ष्मण रेखा की वजह से सरकार के अर्थव्यवस्था में निवेश करने की एक सीमा तय है. फिर भी कोविड-19 महामारी के दौरान सरकार ने अपने ख़र्चे बढ़ाने में कोई कोताही नहीं की. वित्त वर्ष 2020-21 में देश का वित्तीय घाटा (FD) GDP के 9.2 प्रतिशत तक पहुंच गया था. ये 2023-24 में भी काफ़ी ज़्यादा यानी GDP के 5.9 फ़ीसद रहने का अनुमान है.
सरकार ने शायद वित्तीय सहायता को जारी रखने की ज़रूरत को समझते हुए, 2025-26 तक वित्तीय घाटा कम करने के दबाव को ताक पर रख दिया है. उस साल तक वित्तीय घाटे को घटाकर GDP के 4.5 प्रतिशत लाने का अंदाज़ा लगाया गया है, जबकि नियमों के मुताबिक़ इसे GDP का 4 प्रतिशत होना चाहिए. ये चिंता की बात हो सकती है. GDP विकास दर को सात प्रतिशत या उससे ऊपर बनाए रखना इस बात पर बहुत अधिक निर्भर है कि कितनी जल्दी निजी निवेश फिर से बढ़ता है. वित्तीय घाटे को बढ़ाकर विकास दर हासिल करना, अर्थव्यवस्था की झटके बर्दाश्त करने की क्षमता ख़त्म कर देता है. क्योंकि तब आर्थिक विकास में गिरावट से उबरने के लिए कभी कभार सरकार द्वारा अपना ख़र्च बढ़ाने की क्षमता ख़त्म हो जाती है.
निर्यात में बढ़ोतरी
2022-23 में GDP विकास की तेज़ दर होने की एक और प्रमुख वजह निर्यात में बढ़ोतरी रही है. GDP में निर्यात की 22.8 फ़ीसद की हिस्सेदारी पिछले छह वर्षों में सबसे अधिक है. ये क़िस्मत में आया एक स्वागत योग्य बदलाव है, क्योंकि निर्यात में गिरावट से भारत के नीति निर्माताओं में बहुत जल्द निराशा का भाव आ जाता है. इन बातों के बावजूद, दुनिया में आई आर्थिक सुस्ती और बढ़ती भू-राजनीतिक अनिश्चितता, निर्यात को और अधिक बढ़ाने की राह में कई चुनौतियां खड़ी करने वाली है. 13 औद्योगिक क्षेत्रों में निर्यात में वृद्धि लक्ष्य हासिल करने के आधार पर सरकार द्वारा दिए जाने वाले प्रोत्साहन यानी प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) की नीति का मक़सद, ख़राब वैश्विक माहौल की भरपाई करना है. निर्यात के लक्ष्य, दुनिया की बड़ी कंपनियों को भारत में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाएं स्थापित करने के प्रोत्साहन को बढ़ावा देते हैं.
आज की तारीख़ में वैश्विक निर्माताओं को भारत में ही निर्माण करने के लिए प्रेरित करने और इसके लिए निजी क्षेत्र को भी बढ़ावा देना और भी बुनियादी ज़रूरत बन गया है. कुशलता पर आधारित रोज़गार की उपलब्धता में नई जान डालना एक स्वागत योग्य क़दम हो सकता है
हालांकि, ये सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि प्रोत्साहन देने के लिए किन परियोजनाओं का चुनाव किया जाता है. इसी से जुड़ा एक मुद्दा ये भी है कि अगर चीन से आयात को सामरिक रूप से प्रतिबंधित किया जाता है, तो फिर कच्चे माल को ऊंची क़ीमतों पर आयात करने का जोखिम बढ़ने की आशंका है. 2022-23 में आयात की GDP में हिस्सेदारी 26.4 प्रतिशत थी जो पिछले वित्त वर्ष के 24.2 प्रतिशत की तुलना में बहुत अधिक थी और इसमें पिछले साल की तुलना में नौ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी. जबकि, इसी दौरान GDP में निर्यात की हिस्सेदारी केवल छह प्रतिशत बढ़ी थी. हमें ये देखना होगा कि PLI योजना के ज़रिए कुल निर्यात में कितना इज़ाफ़ा होता है. शुरुआती आंकड़ों के आधार पर किसी नतीजे पर पहुंचना ग़लतफ़हमी में डाल सकता है.
दूसरे स्तर का स्वदेशीकरण
अगर हम आत्मनिर्भर भारत की भावना के आधार पर देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो कच्चे माल की घरेलू आपूर्ति को दोस्ताना देशों और कंपनियों से कम क़ीमत पर हासिल करने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए ज़रूरी कच्चा माल हासिल करने के लिए अकेले ही प्रयास करने के बजाय हमें वैश्विक स्तर पर गठबंधनों पर ज़ोर देना चाहिए. इनमें तीसरे देशों के साथ सहयोग को भी शामिल किया जाना चाहिए. इससे घरेलू इकोसिस्टम को गहरा और मूल्यवर्धक बनाया जा सकेगा.
राष्ट्रीय स्तर पर मैन्युफैक्चरिंग की क्षमता का निर्माण करना कभी सस्ता नहीं होता. हम ये तजुर्बा आज़ादी के बाद के चार दशकों में कर चुके हैं, जब सार्वजनिक क्षेत्र के ज़रिए औद्योगीकरण पर ज़ोर दिया गया था. उस समय मूलभूत ढांचे के विकास और धातुओं के सेक्टर में निवेश पर ज़ोर दिया गया था. आज की तारीख़ में वैश्विक निर्माताओं को भारत में ही निर्माण करने के लिए प्रेरित करने और इसके लिए निजी क्षेत्र को भी बढ़ावा देना और भी बुनियादी ज़रूरत बन गया है. कुशलता पर आधारित रोज़गार की उपलब्धता में नई जान डालना एक स्वागत योग्य क़दम हो सकता है, क्योंकि इसके लिए मानवीय पूंजी पहले ही उपलब्ध है.
घरेलू मांग को बढ़ाना
आमदनी बढ़ाने में मदद के व्यापक कार्यक्रमों के बावजूद, निजी क्षेत्र की खपत अभी कमज़ोर बनी हुई है. 2017-18 में इस मद में GDP का 59 प्रतिशत व्यय किया जा रहा था, तो, नोटबंदी के आधार पर अर्थव्यवस्था में आए बदलाव के बाद इस वित्त वर्ष में GDP का 60.6 फ़ीसद व्यय किया जा रहा है. खपत और निवेश को तेज़ करने का एक अधिक टिकाऊ रास्ता ये हो सकता है कि जैसे ही महंगाई की दर सामान्य यानी 4 प्रतिशत से कम हो, तो नीतिगत ब्याज दरों में कटौती की जाए.
महंगाई कम हुई है, लेकिन ये अभी भी ज़्यादा है
मार्च में 5.66 प्रतिशत की तुलना में अप्रैल में ग्राहकों के लिए महंगाई दर घटकर 4.7 प्रतिशत रह गई थी. इसकी एक बड़ी वजह खाने-पीने के सामान की क़ीमतों में आई गिरावट रही है, जो मार्च में 5.11 फ़ीसद की तुलना में अप्रैल में घटकर 4.2 प्रतिशत रह गई थी. खाने के तेल और फैट, मांस और सब्ज़ियों के दामों में भारी कमी दर्ज की गई है. लेकिन, अनाज, दूध और दुग्ध उत्पाद के दाम अभी भी चढ़े हुए हैं. ईंधन की वजह से होने वाली महंगाई भी मार्च में 8.91 प्रतिशत से घटकर अप्रैल में 5.52 फ़ीसद रह गई है. लेकिन, मुख्य महंगाई दर अभी भी ऊंचे स्तर पर बनी हुई है.
GDP में टैक्स से आमदनी की सीमा तय करने की ज़रूरत है
एक दूसरा विकल्प टैक्स की दरों में कटौती करने का भी हो सकता है. क्योंकि टैक्स की दरें और महंगाई की बढ़ी हुई दर और टैक्स का भारी बोझ, ईमानदार करदाताओं को सज़ा देने जैसा है. टैक्स दरों में कटौती करने से सरकार को टैक्स से होने वाली आमदनी में कमी आने का डर है. ये एक ऐसा संसाधन है, जिसका इस्तेमाल सरकार ने निवेश को बढ़ावा देने और वित्तीय घाटे और अपने क़र्ज़ को सीमित करने के लिए किया है. अब चूंकि आम चुनाव होने वाले हैं, तो टैक्स की दरों में कटौती करना, राष्ट्र निर्माण के प्रयासों में ईमानदार व्यक्तिगत करदाताओं के योगदान का सम्मान करना है. अगर सरकार ईमानदारी और पारदर्शिता से GDP में टैक्स से होने वाली आमदनी के हिस्से की एक सीमा तय कर दे तो, सरकार के लिए बजट का हिसाब-किताब गड़बड़ा सकता है. इससे उस व्यापक पूंजीगत व्यय पर विपरीत असर पड़ सकता है, जो वित्तीय प्राथमिकताओं से अलग है.
तार्किक ढंग से टैक्स लगाना
सार्वजनिक क्षेत्र के सेवा प्रदाताओं को पूंजी उपलब्ध करना के लिए ग़लत तरीक़े से परिभाषित और अकुशल सामाजिक संरक्षण के उपायों और सब्सिडी देने का बोझ पूरी तरह से 8 करोड़ निजी इनकम टैक्स देने वालों पर नहीं डाला जा सकता है. यही करदाता, अर्थव्यवस्था में खपत के एक बड़े हिस्से के भागीदार हैं और औद्योगिक निवेश और रोज़गार बढ़ाने के लिए खपत ही सबसे टिकाऊ तरीक़ा है. ऐसे में बेहतर तो यही होगा कि उनसे टैक्स वसूल कर दूसरों में बांटने के बजाय, पैसे उनकी जेब में ही रहने दिए जाएं, जो वो ख़र्च करें तो पूरी अर्थव्यवस्था का भला हो.
इस समय सरकार, अपनी मुख्य ज़िम्मेदारी के बजाय छोटी छोटी समस्याओं को सुलझाने में उलझी हुई है. सरकार द्वारा बाज़ार को नाकाम होने से रोकने के उपाय करने पर ध्यान देना चाहिए, इससे सरकार का अपना ख़र्च भी कम होगा. इससे नेतृत्व को अपनी प्राथमिक ज़िम्मेदारी पर ध्यान देने का समय मिलेगा.
मोटे तौर पर सरकार को चाहिए कि निवेश के सूक्ष्म प्रबंधन या फिर सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाएं सीधे तौर पर मुहैया कराने के बजाय अपना हुनर बाज़ार के नियमन पर केंद्रित करे. इस समय सरकार, अपनी मुख्य ज़िम्मेदारी के बजाय छोटी छोटी समस्याओं को सुलझाने में उलझी हुई है. सरकार द्वारा बाज़ार को नाकाम होने से रोकने के उपाय करने पर ध्यान देना चाहिए, इससे सरकार का अपना ख़र्च भी कम होगा. इससे नेतृत्व को अपनी प्राथमिक ज़िम्मेदारी पर ध्यान देने का समय मिलेगा. इसके अलावा सरकार सहयोगी क्षेत्रों से दूरी बना सकेगी, जिनका प्रबंधन सरकार के निचले स्तर के अधिकारी या फिर हल्के फुल्के नियमन के साथ निजी क्षेत्र या सामुदायिक साझेदारी के हवाले छोड़ दिया जाना चाहिए. टैक्स और सरकारी क़र्ज़ में वृद्धि पर आधारित सक्रिय औद्योगिक नीति के मॉडल पर बहुत अधिक ज़ोर देने के बजाय इन विकल्पों को अपनाने से निजी स्तर पर मांग और खपत को बढ़ावा दिया जा सकता है. फिर उससे निजी निवेश पर आधारित विकास का लक्ष्य हासिल हो सकता है.
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