Author : Tanvi Barua

Published on Apr 01, 2021 Updated 0 Hours ago

लैंगिक आधार पर होने वाले भेदभाव से निपटने के लिए परिवर्तनकारी समाधान की ज़रूरत है. यह तभी संभव है जब विकास की प्रक्रिया में महिलाओं को निष्क्रिय लाभार्थी के बजाय बराबर का भागीदार माना जाए. 

दो स्तर पर हाशिये पर डाली जा रहीं हैं पूर्वोत्तर की महिलाएं: बदलाव का ये दशक क्या उनके जीवन को भी बदल पायेगा?

‘कार्रवाई के दशक’ का पहला साल ख़तरनाक कोविड-19 महामारी की भेंट चढ़ गया है. दरअसल, दुनिया भर के नेताओं ने साल 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने के लिए प्रयासों को तेज करने के प्रयोजन से ‘कार्रवाई के दशक’ (Decade of Action) का आह्वान किया था. अभी तक दुनिया भर में फैली कोरोना वायरस की महामारी के कारण 25 लाख से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. इस महामारी का बेहद नकारात्मक और दीर्घकाल तक सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ने की संभावना है. ऐसे में यह और भी अधिक आवश्यक हो जाता है कि साल 2030 के एजेंडा को दुनिया के तमाम देश प्राथमिकता दें. सतत विकास लक्ष्य, सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (Millennium Development Goal) यानी एमडीजी का एक व्यापक और अधिक परिवर्तनकारी रूप है. एसडीजी को 2015 में स्वीकार किया गया था. इसका मक़सद विकास के तीनों आयामों: आर्थिक विकास, सामाजिक विकास और पर्यावरण संबंधी स्थिरता से जुड़े मुद्दों का समाधान करना है. इस के तहत 17 वैश्विक लक्ष्यों को समग्र रूप से समावेशी, सशक्त और लिंग-संवेदनशील बनाने के लिए चुना गया था. जो बात एसडीजी को उसके पूर्ववर्ती अवतार से अलग बनाती है, वह है स्पष्ट रूप से लैंगिक समानता के प्रति वैश्विक प्रतिबद्धता. यानी सभी लक्ष्यों में इस लक्ष्य को आत्मसात, एकीकृत और समाहित करना न कि इसे केवल एक पांचवें लक्ष्य के रूप में देखना. दुनिया भर में इस बात को स्वीकार किया गया कि एक टिकाऊ व सतत भविष्य तभी संभव है जब महिलाओं को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त किया जाए.   

जो बात एसडीजी को उसके पूर्ववर्ती अवतार से अलग बनाती है, वह है स्पष्ट रूप से लैंगिक समानता के प्रति वैश्विक प्रतिबद्धता. यानी सभी लक्ष्यों में इस लक्ष्य को आत्मसात, एकीकृत और समाहित करना न कि इसे केवल एक पांचवें लक्ष्य के रूप में देखना.

कोविड-19 महामारी के फैलने से पहले ही इन लक्ष्यों को लेकर प्रगति धीमी थी. लक्ष्य पांच विशेष तौर पर महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता से जुड़ा है. इसे हासिल करना भारत सहित कई देशों के लिए चुनौती भरा साबित हुआ है. कुछ मानकों पर अहम सफलता प्राप्त हुई है जैसे कि लिंग अनुपात में सुधार, पहले की तुलना में अधिक लड़कियों तक शिक्षा की पहुंच और नेतृत्व की भूमिका में पहले की तुलना में अधिक महिलाओं की नियुक्ति. हालांकि, यह बदलाव या सुधार पूर्वोत्तर क्षेत्र में आदिवासी और अन्य वंचित वर्ग की महिलाओं की स्थिति में नहीं दिखता. ये महिलाएं भारत में सबसे अधिक कष्ट झेलने वाले समूह और वंचित वर्ग के रूप में शामिल हैं. इन्हें कई स्तरों पर भेदभाव और शोषण का शिकार होना पड़ता है. ये गंभीर ग़रीबी, यौन शोषण और आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव झेलती हैं. ये अपने परिवार और समुदाय का देखभाल करने वाली पहली कड़ी हैं. ये महिलाएं जलवायु परिवर्तन और ख़राब होते पर्यावरण की मार सीधे झेलती हैं, क्योंकि इस से वह प्राकृतिक संसाधन चौपट या ख़त्म हो रहे हैं, जिन पर वह भोजन और पानी की व्यवस्था के लिए निर्भर हैं.

पारंपरिक काम से बढ़ रही है दूरी

पारंपरिक रूप से इस क्षेत्र की महिलाएं स्थानीय संसाधनों का पालन और प्रबंधन अपने ज्ञान के जरिए करती हैं. यह ज्ञान पीढ़ियों के अनुकूलन और अनुभव से प्राप्त हुआ है. सामूहिक संपत्ति व संसाधनों के स्वाभाविक संरक्षक होने के नाते उनमें संसाधनों के संरक्षण या उन्हें बनाए रखने का एक ज़बरदस्त जज़्बा होता है. हालांकि, पारंपरिक रूप से जीविकोपार्जन करने के ये तौर तरीक़े अब ख़तरे में हैं, क्योंकि पर्यावरण की स्थिति लगातार ख़राब हो रही है. पानी, भोजन और ईंधन की तलाश में ये महिलाएं अब दूर-दूर तक भटकने को मजबूर हैं. ऐसे में उनपर घरेलू काम का बोझ और बढ़ गया है. कई बार तो वे अपने परिवार के लिए अकेले मज़दूरी करने वाली होती हैं, क्योंकि उनके पति शराब की लत से पीड़ित होते हैं. यह एक आम समस्या है. ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र की महिलाएं पलायन करने को मजबूर हो जाती हैं. वे उस क्षेत्र से बाहर आर्थिक अवसर की तलाश करती हैं, जिससे कि वे अपने परिवार की सहायता कर सकें. 

असम से महिलाओं के अपहरण के अधिक मामले आते हैं. ये महिलाएं अपहरण के बाद देह व्यापार में धकेल दी जाती हैं.

मणिपुर की तंखुल (Tankhul) और कुकी (Kuki) जनजाति की महिलाएं अच्छी-खासी संख्या में दिल्ली और गुड़गांव के मॉल और चाइनीज रेस्टोरेंट्स में वर्कर के रूप में काम करती हैं. इसी तरह निचले असम के चाय बगानों में काम कर चुकीं और यहां के मुस्लिम समुदाय की महिलाएं घरेलू नौकरानी के रूप में काम करती हैं. वैसे तो पूर्वोत्तर के क्षेत्र कई अहम मानकों पर देश के अन्य इलाक़ों से बेहतर हैं, जैसे- साक्षरता दर में निम्न लैंगिक अंतर और कामकाज में भागीदार की दर. फिर भी, कुछ विरोधाभासों के कारण लैंगिक हिंसा होती है और इसकी शिकार खासतौर पर वंचित समुदाय से आने वाली महिलाएं होती हैं. उदाहरण के लिए ‘भारत में अपराध’ पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट से पता चलता है कि असम से महिलाओं के अपहरण के अधिक मामले आते हैं. ये महिलाएं अपहरण के बाद देह व्यापार में धकेल दी जाती हैं. असम में ही जादू-टोना के नाम पर कई आदिवासी महिलाओं को मारने की घटनाएं भी सामने आती रही हैं. राज्य के चार इलाक़ों की मुस्लिम महिलाओं की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है. उनके साथ भी ऐसा ही होता है. वे अनपढ़ और राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं हैं. उनकी दुनिया घर की चारदीवारी तक सीमित है. उनको सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सशक्तिकरण हासिल करने के लिए बाहर निकलने की मनाही है. इस कारण उनके संबंधित समुदाय में और उस से बाहर उनका महत्व नहीं रहता व अपने लिए बेहतर समाज की मांग को लेकर वह व्यापक स्तर पर दबाव नहीं बना पाती हैं.

परिवर्तनकारी समाधान की ज़रूरत

महामारी के इस दौर में जब हर चीज़ अस्त व्यस्त हो गई है, हमारे पास एक अवसर भी है कि हम अपनी विकास की अवधारणा को लेकर जिस रास्ते पर चल रहे हैं उसके बारे में नए सिरे से सोचें. लैंगिक आधारित भेदभाव से निपटने के लिए परिवर्तनकारी समाधान चाहिए और यह तभी संभव है जब महिलाओं को निष्क्रिय लाभार्थी की जगह विकास की प्रक्रिया में बराबर का भागीदार समझा जाए. महिलाओं खासकर आदिवासी और अन्य वंचित वर्ग से आने वाली महिलाओं के अनुभवों के ज़रिए सतत विकास के लक्ष्य को हासिल करने के लिए खास समाधान ढूंढे जा सकते हैं. जलवायु परिवर्तन को कम (mitigation) भी किया जा सकता है, क्योंकि इन महिलाओं का प्रकृति के साथ सहजीवी (symbiotic) का रिश्ता है. इस के अलावा, एक ऐसी दुनिया, जहां तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक और परंपरागत रीति-रिवाज़ हैं, जो महिलाओं से भेदभाव और उन्हें कमतर बताने वाले हैं, उस दुनिया में महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक सबसे अहम क़दम वित्तीय आज़ादी हो सकता है.

शासन और हित धारकों के सभी स्तरों पर सम्मिलित कार्रवाई की ज़रूरत है तभी लैंगिक रूप से प्रतिक्रियात्मक उपाय खोजे व लागू किए जा सकते हैं.

स्थानीय महिला उद्यमियों को धन और तकनीकी सहायता उपलब्ध करवाकर उनको आर्थिक सामाजिक रूप से सशक्त बनाया जा सकता है. इससे वे अपनी पारंपरिक जानकारियों के लिए सही बाज़ार खोज सकेंगी और वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में शामिल होने में सक्षम हो सकेंगी. शासन और हित धारकों के सभी स्तरों पर सम्मिलित कार्रवाई की ज़रूरत है तभी लैंगिक रूप से प्रतिक्रियात्मक उपाय खोजे व लागू किए जा सकते हैं. ये उपाय खासतौर पर वंचित महिलाओं के उत्थान की ओर लक्षित होने चाहिए. इन महिलाओं को शिक्षित व सशक्त बनाने और लैंगिक समानता लाने के उद्देश्य से चलायी जा रही मौजूदा योजनाओं की निगरानी भी बेहद अहम है, तभी लैंगिक समानता हासिल की जा सकती है. साल 2030 के एजेंडा के पीछे मौजूद केंद्रीय सिद्धांत ‘कोई पीछे न छूटे’ का पालन करने से ही, भारत और विश्व के अन्य देश, वास्तव में सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की उम्मीद कर सकते हैं.

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