Author : Mandeep Rai

Expert Speak Space Tracker
Published on Apr 29, 2025 Updated 0 Hours ago

तकनीक की विकसित होती दुनिया में, भारत और अमेरिका अंतरिक्ष-सहयोग में मज़बूती से आगे बढ़ रहे हैं. यह संबंध कूटनीति, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और अंतरिक्ष नवाचार का मिश्रण है.

अमेरिका-भारत अंतरिक्ष सहयोग – इस उभरते क्षेत्र की एक तस्वीर

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अंतरिक्ष विज्ञान के अगुआ देशों के रूप में, भारत और अमेरिका 1962 में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (INCOSPAR) की स्थापना के बाद से ही अंतरिक्ष-सहयोग की एक विरासत साझा करते हैं. उस वक्त भारत ने अमेरिकी मदद से थुंबा में अपना पहला साउंडिंग रॉकेट लॉन्च किया था. नासा के ATS-6 का इस्तेमाल करके शुरू की गई सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरिमेंट (SITE) जैसी ऐतिहासिक परियोजनाओं के माध्यम से यह स्थायी साझेदारी आगे बढ़ी, जिसके बाद भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली (INSAT) विकसित हुई. हालांकि, भारत की गुटनिरपेक्ष नीति और उस समय के सोवियत संघ (अब रूस) के प्रति झुकाव ने कुछ समय के लिए इस आपसी सहयोग में रुकावट पैदा की, लेकिन शीत युद्ध के बाद संबंधों में तेज़ी से सुधार हुआ है.

भारत के लिए साल 2004 ‘अंतरिक्ष में एक नए युग के आरंभ’ का वर्ष बना, जब दोनों पेशेवर देश अंतरिक्ष के क्षेत्र में नए तरीके से रणनीतिक साझेदारी शुरू करने को तैयार हुए. साल 2005 में सिविल स्पेस ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप (CSJWG) की स्थापना के राजनीतिक फ़ैसले ने आने वाले वर्षों में साझा प्रयास की नई ज़मीन तैयार की. इसके बाद चांद पर खोज, सैटेलाइट नेविगेशन और पृथ्वी की जांच-पड़ताल जैसे कामों पर ध्यान दिया गया, जिसमें चंद्रयान-1, NISAR (NASA- ISRO सिंथेटिक एपर्चर रडार), मंगल ग्रह खोज और आर्टेमिस समझौते में भारत की भागीदारी महत्वपूर्ण पड़ाव हैं.

अंतरिक्ष-सहयोग को आगे बढ़ाते हुए अब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के दो अंतरिक्ष यात्री ‘नेशनल एरोनॉटिक्स ऐंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन’ (NASA) में प्रशिक्षण लेने जा रहे हैं, जो इस साल में प्रस्तावित एक्सिओम-4 मिशन द्वारा अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (IAS) जाएंगे और अमेरिका-भारत संयुक्त अभियान की शुरुआत करेंगे. 

नए अंतरिक्ष युग में दोनों देश प्रमुख खिलाड़ी हैं और वेमहत्वपूर्ण और उभरती हुई प्रौद्योगिकियों पर पहल (iCET) के माध्यम से नई मंज़िल हासिल कर रहे हैं. नागरिक, सुरक्षा व व्यावसायिक क्षेत्रों में भी आपसी सहयोग को मज़बूत बनाया जा रहा है. फरवरी 2025 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा के दौरान, रक्षा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेजिलेंस, यानी AI), सेमीकंडक्टर और जैव प्रौद्योगिकी के अलावा अंतरिक्ष में सहयोग को आगे बढ़ाने के लिए iCET को नया रूप देते हुए उसे ट्रांसफॉर्मिंग रिलेशंस यूटिलाइजिंग स्ट्रैटेजिक टेक्नोलॉजी (TRUST) बना दिया गया है. अंतरिक्ष-सहयोग को आगे बढ़ाते हुए अब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के दो अंतरिक्ष यात्री नेशनल एरोनॉटिक्स ऐंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) में प्रशिक्षण लेने जा रहे हैं, जो इस साल में प्रस्तावित एक्सिओम-4 मिशन द्वारा अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (IAS) जाएंगे और अमेरिका-भारत संयुक्त अभियान की शुरुआत करेंगे. इसी साल नासा-इसरो सिंथेटिक एपर्चर रडार (NISAR) का भी प्रक्षेपण होना है, जो दुनिया भर में आपदा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन की निगरानी और बुनियादी ढांचे को जांचने की क्षमताएं बढ़ा देगा. भारत-अमेरिका रक्षा त्वरित पारिस्थितिकी तंत्र (INDUS-X) के तहत ‘स्पेस इनोवेशन ब्रिज’ (अंतरिक्ष क्षेत्र में आपस में नवाचार, यानी इनोवेशन का संबंध बनाना) की भी योजना है, जिसका मक़सद सैटेलाइट प्रौद्योगिकी और अंतरिक्ष पर्यावरण की समझ बढ़ाने की दिशा में अमेरिका और भारत के बीच स्टार्टअप साझेदारी को बढ़ावा देना है. रक्षा क्षेत्र में बढ़ता आपसी अंतरिक्ष सहयोग दो वज़हों से मज़बूत हो रहा है- पहली, अमेरिकी अंतरिक्ष कमान के ग्लोबल सेंटिनल अभ्यास में भारत की भागीदारी और दूसरी, व्यावसायिक उपग्रह प्रक्षेपणों को आगे बढ़ाने के लिए चल रही मिसाइल प्रौद्योगिकी निर्यात समीक्षाएं, जिनसे बढ़ती अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में प्रमुख खिलाड़ियों के रूप में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण बन जाती है.

 

अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था पर एक नज़र

अंतरिक्ष रिपोर्ट के नए अनुमानों के मुताबिक, वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था 570 अरब अमेरिकी डॉलर की है. साल 2023 में अमेरिका ने अब तक का अपना सबसे बड़ा अंतरिक्ष बजट बनाया, पर वैश्विक अंतरिक्ष बजट में उसकी हिस्सेदारी 2000 में 75 प्रतिशत से घटकर 2023 में 60 प्रतिशत थी. इधर, भारतीय अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था अभी करीब 8.4 अरब डॉलर की है और वैश्विक अंतरिक्ष बाजार में यह 2 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है. भारत 2033 तक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था को बढ़ाकर 44 अरब डॉलर करना चाहता है, जिसमें 11 अरब डॉलर की कमाई निर्यात से होने की उम्मीद है. यह वैश्विक हिस्सेदारी का 7 से 8 प्रतिशत होगा. बजट की कमी के बावजूद, नासा की तुलना में 15 गुना छोटे बजट के साथ इसरो ने कुछ ख़ास उपलब्धियां की ओर कदम बढ़ाए हैं, जैसे- चंद्रयान 3 मिशन और स्पैडेक्स.

साल 2040 तक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था को लेकर आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) मानता है कि अंतरिक्ष क्षेत्र में बदलाव के लिए देशों के बीच भागीदारी बढ़ाने (ताकि आपसी चुनौतियों से निपटा जा सके) और व्यावसायिक व सार्वजनिक अभियानों के लिए समझौते करने (ताकि सुरक्षित अंतरिक्ष माहौल बन सके) की ज़रूरत है. इसीलिए, भारत और अमेरिका, दोनों देशों के लिए अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था महत्वपूर्ण है, जो आपसी सहयोग, नवाचार और साझा सोच पर निर्भर करती है. उभर रही व्यापारिक चुनौतियों को देखते हुए, अमेरिका और भारत के बीच सामंजस्य और सहयोग की नीति कहीं अधिक महत्वपूर्ण बन जाती है.

 

टैरिफ का प्रभाव

भारतीय आयात पर टैरिफ-वृद्धि के मंडराते ख़तरे से यह सवाल पैदा होता है कि क्या अंतरिक्ष क्षेत्र इसे झेल पाएगा? भारत के 2025-26 के केंद्रीय बजट में ज़मीनी ढांचे और उपग्रह प्रक्षेपणों के साथ-साथ प्रक्षेपणों वाहनों के निर्माण के लिए ज़रूरी वस्तुओं पर सीमा शुल्क कम किया गया है, जिससे लागत कम हुई और विनिर्माण व निर्यात में तेज़ी आई है. IN-SPACe के अध्यक्ष पवन कुमार गोयनका के मुताबिक, भारत ने अपने अंतरिक्ष क्षेत्र को टैरिफ से होने वाले संभावित नुक़सान से रणनीतिक रूप से बचा लिया है, जिससे वैश्विक व्यापार में तनाव बढ़ने के बावजूद लचीलापन बना हुआ है. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि उपग्रह प्रक्षेपण, ज़मीनी बुनियादी ढांचे और प्रक्षेपण वाहनों के उपकरणों पर कम टैरिफ से भारत के अंतरिक्ष उद्योग को वैश्विक सोर्सिंग (कुशलता हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से वस्तुओं और सेवाओं की ख़रीद की नीति, ताकि कम लागत में बेहतर गुणवत्ता पाई जा सके) में फ़ायदा मिला है और उसकी एक अलग हैसियत बनी है. यह सही है कि कुछ उपकरणों के आयात को लेकर मामूली चुनौतियां बनी हुई हैं, पर गोयनका का मानना है कि भारत का अंतरिक्ष क्षेत्र अन्य उद्योगों को प्रभावित करने वाले टैरिफ-युद्ध से काफ़ी हद तक दूर रहेगा. अंतरिक्ष तकनीक के जानकारों ने इस नीति की सराहना की है और इसे रणनीतिक सोर्सिंग, मज़बूत नीति, समर्थन और बढ़ती वैश्विक साझेदारी का नतीजा माना है.

भारत ने अपने अंतरिक्ष क्षेत्र को टैरिफ से होने वाले संभावित नुक़सान से रणनीतिक रूप से बचा लिया है, जिससे वैश्विक व्यापार में तनाव बढ़ने के बावजूद लचीलापन बना हुआ है.

एक-दूसरे पर निर्भर किसी भी दूसरे क्षेत्र की तरह, अंतरिक्ष क्षेत्र भी अपनी मूल्य शृंखला पर वैश्विक प्रभावों के कारण संवेदनशील माना जाता है, जिसमें कच्चे माल की ख़रीद से लेकर विकिरण से बचाने वाले उपकरणों का निर्माण तक सब कुछ शामिल है. यह राष्ट्रीय अंतरिक्ष एजेंसियों और निजी कंपनियों, दोनों पर विपरीत प्रभाव डालता है. मंगल मिशन और NISAR जैसी सरकारी अभियानों में बढ़ती लागतों के कारण परियोजनाओं में देरी होने का ख़तरा है, जिससे चुनौतियां और बढ़ गई हैं. इसके साथ ही, आर्थिक दबावों के कारण स्टार्टअप में प्रतिस्पर्धा कम होने, पूंजी के घटने और वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने वाले नवाचार के सुस्त पड़ने के ख़तरे हैं. हालांकि, यह देखकर कि दोनों देश भविष्य के लिहाज़ से अंतरिक्ष साझेदारी का महत्व समझते हैं, इस संबंध को सुगमता से आगे बढ़ाने के लिए कूटनीतिक रिश्ते का लाभ उठाकर, विशेष छूट हासिल करके, व्यापार को अनुकूल बनाकर और तकनीकी ढांचों के माध्यम से किसी भी परोक्ष टैरिफ झटके से बचाने की ज़रूरत है. 

 

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और अंतरिक्ष- छूटे हुए अवसर

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के सहज मिलन का एक गवाह अंतरिक्ष क्षेत्र रहा है, जिससे अंतरिक्ष अभियानों की योजना बनाने, स्वायत्त नेविगेशन, खगोलीय डेटा विश्लेषण, रोबोटिक्स और पृथ्वी की जांच-पड़ताल में अभूतपूर्व प्रगति हो रही है. हालांकि, दोनों देशों के सामने अंतरिक्ष में ऐसे कई छूटे हुए अवसर हैं, जहां एआई का लाभ उठाया जा सकता है, विशेष रूप से अंतरिक्ष मिशनों और अंतरिक्ष खनन प्रौद्योगिकियों के लिए ऊर्जा संकट दूर करने के कामों में.

उपग्रहों की मौजूदा प्रणालियों के अलावा, भविष्य के उपग्रहों को बेहतर कंप्यूटिंग और एआई से लैस किया जाएगा- जैसे ग्राफिक्स प्रोसेसिंग यूनिट्स (GPU) और एल्गोरिदम द्वारा, ताकि ज़रूरी एज इंटेलिजेंस (एआई से सजे उपकरणों का डेटा का विश्लेषण कर माहौल के मुताबिक खुद फ़ैसले लेना) पाई जा सके. ऊर्जा से ही यह संभव हो सकता है. ट्रिटियम और निकल 63 जैसे समस्थानिकों (ऐसे रासायनिक तत्व, जिनके भौतिक लक्षण दूसरों से अलग होते हैं, लेकिन रासायनिक लक्षण समान होते हैं) से निकलने वाले बीटा विकिरण एआई से सजे सैटेलाइट में बिजली की समस्या का समाधान निकाल सकते हैं. नासा ने भविष्य के अभियानों के लिए अल्ट्रा-हाई एनर्जी डेंसिटी बैटरी में इसके उपयोग की योजना बनाई है, जैसे- डीप-स्पेस मिशन में, क्यूबसैट में, अंतरिक्ष यानों की स्वायत्त बिजली प्रणाली में और SATCOM (सैटेलाइट कम्युनिकेशन) नेटवर्क में. अंतरिक्ष में ऊर्जा सुरक्षा को मज़बूत करने के साथ-साथ आपसी सहयोग की उम्मीद भरी एक राह एआई से सजे डीप स्पेस मिशनों के लिए बीटा-वोल्टाइक बैटरी तकनीक का विकास मिलकर करने और इसे एक-दूसरे से बांटने से बनती है. इस बैटरी का जीवन 20 साल का होता है और पारंपरिक लिथियम-आयरन बैटरी से इसकी तुलना करें, तो यह लगभग 100 गुना अधिक ऊर्जा देती है.

जैसे-जैसे क्षुद्रग्रह खनन में दुनिया भर के देशों की रुचि बढ़ रही है, भारत और अमेरिका चाहें, तो एआई वाले अंतरिक्ष अन्वेषण के इस दौर में प्रमुख खिलाड़ियों के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए रणनीतिक रूप से आगे बढ़ सकते हैं.

अंतरिक्ष खनन के महत्वाकांक्षी क्षेत्र में AI एक प्रमुख तकनीक बनकर उभरी है. भले ही इसरो का ध्यान अभी चंद्रमा और मंगल की खोज पर है, लेकिन आर्टेमिस समझौते पर हस्ताक्षर करने के कारण भारत का AI तंत्र मज़बूत है और इसकी मदद से क्षुद्रग्रह खनन के उभरते क्षेत्र में हम अच्छी स्थिति में हैं. भारत ने कम खर्च वाली अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियां (जैसे- स्पाडेक्स मिशन और आदित्य एल1 अभियानों द्वारा) विकसित करने में, अंतरिक्ष खोज में नवाचार बढ़ाने में, पदार्थ विज्ञान और रोबोटिक्स में खुद को पूरी दुनिया में स्थापित किया है. एक मज़बूत अंतरिक्ष अनुसंधान पुल और एआई प्रतिभा के साथ, हमारी ये उपलब्धियां अंतरिक्ष खनन क्षमता में हमारा आधार मज़बूत बनाती हैं. चंद्रयान और नासा के OSIRIS-Rex डेटासेट को मिलाते हुए मौजूदा हाइपरस्पेक्ट्रल और टेलीमेट्री डेटा के आधार पर उन्नत एल्गोरिदम विकसित करना, क्षुद्रग्रहों की खोज के लिए एआई मॉडल बनाने का एक अनूठा अवसर है. दोनों देश इंटेलिजेंट माइनिंग सॉल्यूशन (खनन के कामों में दक्षता और सुधार के लिए AI, IOT और स्वचालन जैसी प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाना) और इन-सीटू रिसोर्स यूटिलाइजेशन (चंद्रमा, मंगल जैसे किसी खगोलीय पिंड के पर्यावरण से संसाधनों को निकालना और उनका उपयोग करना, ताकि अंतरिक्ष अभियानों को मदद मिल सके और मानव बस्तियां बसाना संभव हो सके) में साथ-साथ आगे बढ़ सकते हैं, ताकि अगली पीढ़ी के रेडियो आइसोटोप थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर बनाकर, जो ऊर्जा-स्रोत के रूप में गर्मी का इस्तेमाल करते हैं, खनन व शुद्धिकरण की विभिन्न प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाया जा सके. जैसे-जैसे क्षुद्रग्रह खनन में दुनिया भर के देशों की रुचि बढ़ रही है, भारत और अमेरिका चाहें, तो एआई वाले अंतरिक्ष अन्वेषण के इस दौर में प्रमुख खिलाड़ियों के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए रणनीतिक रूप से आगे बढ़ सकते हैं. दुर्लभ खनिजों में मिलकर किए गए काम इसमें प्रेरक साबित हो सकते हैं.

 

निष्कर्ष

भारत और अमेरिका का आपसी सहयोग मौजूदा वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में काफ़ी ज़्यादा रणनीतिक और तकनीकी महत्व रखता है. एक जीवंत अंतरिक्ष पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देना, जो कि नवाचार को आगे बढ़ाए, आपसी सहयोग को गहरा करे और एक स्थायी मूल्य श्रृंखला बनाए, अब वैकल्पिक नहीं, बल्कि अनिवार्य हो गया है. चूंकि, ‘अंतरिक्ष 2.0 अभूतपूर्व तकनीकी समस्याओं और AI के बढ़ते प्रसार के बीच तेज़ी से गति पकड़ रहा है, इसलिए भारत और अमेरिका, दोनों को ऐसा नज़रिया अपनाना होगा, जो साहसी, अनुकूल और भविष्य को ध्यान में रखकर बना हो. चूंकि नए अंतरिक्ष युग की एक चौथाई सदी पूरी हो चुकी है, इसलिए दूरदर्शी बयानों से अब आगे बढ़ने की ज़रूरत है. इसके लिए दोनों देशों को एक खुली और समावेशी हिंद-प्रशांत अर्थव्यवस्था बनाना होगा, जिसके लिए कार्रवाई योग्य रणनीतियां बनानी होंगी, उन पर काम करना होगा और सार्थक साझेदारी आगे बढ़ानी होगी. अंतरिक्ष विज्ञान में अगुआ बने रहने के लिए, दोनों देशों को कूटनीतिक रुख से अलग नज़रिया अपनाकर आगे बढ़ना होगा, इसके हितधारकों को एक करना होगा और अपनी महत्वाकांक्षा को सच्चाई में बदलना होगा. दोनों को अंतरिक्ष में उन्नति के लिए अब ऐसी विरासत तैयार करनी चाहिए, जो AI को लेकर एकसमान सोच पर टिकी हो.  


(मनदीप राय भारत सरकार के रक्षा उपग्रह नियंत्रण केंद्र DSCC के निदेशक हैं)

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