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हाल के हफ़्तों में ईरान के इस्लामिक गणराज्य के नेतृत्व को एक साथ मोर्चों पर बढ़ती चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, और आदत के मुताबिक़ ईरान ने इन सभी चुनौतियों का जवाब उन्हीं बहुआयामी शतरंजी चालों वाली रणनीति से देने की कोशिश की है, जो उन्हें बहुत पसंद है. ये दांव काग़ज़ पर तो बहुत अच्छे दिखते हैं, मगर इनको असल में लागू करना मुश्किल होता है. एक के बाद एक दौरों और संपर्क बढ़ाने की कोशिशों के तहत ईरान के अधिकारी पूरे इलाक़े की राजधानियों का दौरा कर रहे हैं. इसके साथ साथ एक्स (पहले ट्विटर) समेत तमाम सोशल मीडिया पर बहुत सावधानी से तैयार किए गए संदेश भी प्रचारित किए जा रहे हैं.
ईरान इन दोनों ही रास्तों पर एक साथ चल रहा है और तमाम चुनौतियों का जवाब बड़बोलेपन के साथ साथ सीधे सीधे कोई बात कहने से बचने वाले अंदाज़ में दे रहा है. हालांकि, ईरान की तरफ़ से कूटनीतिक अभियानों में आई ये तेज़ी असल में देश के शीर्ष नेतृत्व की बढ़ती हुई चिंताओं पर पर्दा डालने की कोशिश है. ईरान के नेता अपने देश की बेहद गंभीर मगर जनता की नज़र से छुपी हुई कमज़ोरियों से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं, और अब ईरान की ये कमज़ोरियां खुलकर दुनिया के सामने आ गई हैं.
ईरान की फ़िक्र
ईरान की पहली और सबसे अहम चिंता तो डोनाल्ड ट्रंप का दोबारा चुनाव जीतना है. निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप के चुनाव जीतने के तमाम कारणों में जो प्रमुख थे, वो ये कि उन्होंने अपनी विदेश नीति का ऐलान प्रचार अभियान के दौरान ही कर दिया था. इससे पता चलता है कि अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप की नीतिगत प्राथमिकताएं क्या होंगी और वो किस दिशा में चलने वाले हैं. सारे संकेत इसी बात के हैं कि ट्रंप पूरी मज़बूती से इज़राइल के साथ उसी तरह खड़े रहेंगे, जैसा उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में किया था. निश्चित रूप से ट्रंप इस बार भी ईरान को लेकर बेहद सख़्त रवैया अपनाने जा रहे हैं. ट्रंप की हत्या की साज़िश रचने का जो इल्ज़ाम अमेरिका ने ईरान पर लगाया है, उससे मसला और भी पेचीदा हो जाना है.
ट्रंप के दोबारा चुनाव जीतने के तुरंत बाद ईरान की तरफ़ से जो बयान आए हैं, उनमें बहुत सावधानी से अब तक टकराव की आक्रामक मुद्रा को तब्दील करके संतुलन बनाने की कोशिशें की जा रही हैं.
ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि ट्रंप के दोबारा चुनाव जीतने के तुरंत बाद ईरान की तरफ़ से जो बयान आए हैं, उनमें बहुत सावधानी से अब तक टकराव की आक्रामक मुद्रा को तब्दील करके संतुलन बनाने की कोशिशें की जा रही हैं. विदेश मंत्री अब्बास अरागची ने ट्रंप की हत्या की साज़िश रचने के FBI के आरोपों को ख़ारिज करते हुए एक्स पर अमेरिका को सलाह देते हुए लिखा कि, ‘रास्ता भी एक चुनाव होता है. इसका आग़ाज़ सम्मान से होता है.’ अपनी उसी पोस्ट में अब्बास अरागची ने साफ़ तौर पर भरोसा दिलाया कि, ‘ईरान परमाणु हथियार बनाने की कोशिश नहीं कर रहा है, बात ख़त्म.’
पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप की कैबिनेट से मंत्रियों को बर्ख़ास्त करने और इस्तीफ़ों की वजह से जो उथल-पुथल मची थी, उसको देखते हुए इस बार ट्रंप की नियुक्तियों को बहुत सतर्कता से देखना होगा. मतलब ये कि वो मंत्री कितने दिनों तक अपने ओहदों पर रहते हैं और नीतियों में कितनी निरंतरता बनी रहेगी, ये कहना मुश्किल है. हालांकि, ये बात भी याद रखनी चाहिए कि ट्रंप अचानक ही फ़ैसले लेने के लिए जाने जाते हैं.
ईरान की दूसरी चिंता ये है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में उनकी विदेश नीति को लेकर जो व्यापक आकलन लगाए जा रहे हैं, उनमें से एक ये भी है कि वो यूक्रेन में युद्ध रोकने की पुरज़ोर कोशिश करेंगे और साथ ही साथ पहले कार्यकाल की तरह ईरान पर ज़्यादा से ज़्यादा दबाव डालेंगे. हाल के वर्षों में ईरान और रूस ने जिस तरह से लेन-देन के रिश्ते बढ़ाए हैं, उनको देखकर लगता है कि अगर यूक्रेन में ट्रंप की नीति सफ़ल रहती है, तो इसका असर ईरान के ऊपर भी पड़ेगा. यूक्रेन में युद्ध रुकने से अमेरिका के लिए एक बार फिर से रूस के साथ संपर्क करने का मौक़ा मिल जाएगा और फिर अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) में ईरान के मसले पर फिर से रूस का समर्थन हासिल कर सकता है.
तीसरा, हाल के महीनों में ईरान को अपनी ही ग़लतियों की वजह से कई झटके लग चुके हैं. इज़राइल ने ग़ज़ा, लेबनान और सीरिया में ईरान की प्रतिरोध की धुरी को भारी नुक़सान पहुंचाते हुए अपना दबदबा क़ायम कर लिया है. हमास और हिज़्बुल्लाह के बड़े कमांडरों को चुन चुनकर निशाना बनाने और उनके हथियारों और मिसाइलों के भंडारों को तबाह करने के साथ साथ इज़राइल ने सीरिया के ज़मीनी रास्ते से इन संगठनों को मदद पहुंचाने की ईरान की क्षमता को बहुत सीमित कर दिया है. जिससे ये प्रतिरोध की धुरी कमज़ोर हो गई है. इसके नतीजे में ईरान द्वारा ‘आग के गोले’ की रणनीति के तहत इज़राइल को चारों तरफ़ से घेरने और अपने समर्थन वाले हथियारबंद संगठनों के ज़रिए कोने में धकेलने की आक्रामक रक्षात्मक नीति भी कमज़ोर पड़ गई है और शायद अब उसे वापस पुरानी स्थिति में लौटाया नहीं जा सकेगा.
इसके साथ साथ, ईरान के लिए चिंता की एक बात और है कि इज़राइल के ख़ुफ़िया तंत्र ने इन संगठनों में बहुत भीतर तक पैठ जमा ली है. इज़राइल के मानवीय गुप्तचर तंत्र ने बेरूत में हिज़्बुल्लाह के मुखिया हसन नसरल्लाह और तेहरान के एक सुरक्षित ठिकाने में हमास के प्रमुख इस्माइल हानिया की हत्या में अहम भूमिका निभाई थी. जबकि तेहरान के सेफ हाउस की निगरानी तो ईरान के मशहूर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर (IRGC) के हाथ में थी. ईरान के सुरक्षा तंत्र में इतने बड़े पैमाने पर सेंध लग चुकी है कि इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर को अपने कई कमांडर्स के मारे जाने के बाद, मोर्चे पर तैनात कई बड़े अधिकारियों को वापस बुलाना पड़ा था. IRGC के एक बड़े कमांडर मुहम्मद रज़ा ज़ाहिदी तो दमिश्क में ईरान के कॉन्सुलेट की एक इमारत में थे, जब उन्हें इज़राइल ने एक हमले में मार गिराया था.
पूरे मध्य पूर्व में जहां भी संघर्ष हो रहा है, वहां पर ईरान की छाप साफ़ दिखती है. इसका एक सबूत ये भी है कि ईरान ने यमन में हूतियों की शक्ल में प्रतिरोध के एक और मोर्चे को उभरने में मदद की है. हूतियों की मिसाइलें लगातार इज़राइल के भीतर तक हमले कर रही हैं. यही नहीं, उनके हमलों की वजह से लाल सागर और स्वेज़ नहर के अहम व्यापारिक रास्तों पर जहाज़ों की आवाजाही भी बाधित हुई है. इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ा है. इससे आपूर्ति श्रृंखलाएं बाधित हुई हैं और इसके साथ साथ बीमा और जहाज़ों के सामान ढुलाई की लागत भी बढ़ गई है.
चौथी बात ये है कि इज़राइल और ईरान के बीच लंबे समय से चला आ रहा टकराव अब ख़तरनाक रूप से खुलकर सामने आ गया है. दोनों ही देशों ने दशकों से चले आ रहे छद्म युद्ध को पीछे छोड़कर दो बार एक दूसरे पर सीधे हमले किए हैं. आख़िरी हमला 26 अक्टूबर को इज़राइल ने किया था, जब उसने ईरान के कई ठिकानों को निशाना बनाया था. ईरान से इस हमले को लेकर जो ख़बरें आईं, उनसे सटीक जानकारी हासिल करना तो बहुत मुश्किल है. पर, इज़राइल ने दावा किया है कि उसने ईरान के हवाई रक्षा तंत्र के ज़्यादातर हिस्से को तबाह कर दिया है, जिसके बाद वो ईरान के भीतर कहीं भी अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ हमले कर सकता है.
आख़िरी बात ये है कि ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम में ज़बरदस्त तेज़ी के साथ प्रगति की है. संवर्धित यूरेनियम के उसके भंडार, अमेरिका और यूरोप के साथ हुए समझौते (JCPOA) के तहत तय की गई सीमा से कहीं ज़्यादा हैं. इनमें 164 किलो यूरेनियम U-235 शामिल है, जो 60 प्रतिशत तक संवर्धित है (ये आंकड़ा अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की अगस्त 2024 की तिमाही रिपोर्ट का है). ये स्तर परमाणु हथियार बनाने के लिए ज़रूरी 90 प्रतिशत संवर्धित U-235 यूरेनियम के स्तर के बेहद क़रीब है. इन क्षमताओं ने ईरान को दुनिया की ऐसी ग़ैर एटमी ताक़त बना दिया है, जिसके पास शांतिपूर्ण मक़सदों के लिए संवर्धित यूरेनियम पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है.
पश्चिमी एशिया का बदला हुआ मंज़र
ईरान के साथ निपटने में ट्रंप के आगामी प्रशासन को, पिछले चार सालों के दौरान पश्चिम एशिया के बेहद चुनौतीपूर्ण हालात में आए अभूतपूर्व बदलावों की हक़ीक़त का भी सामना करना होगा. ट्रंप को ऐसी कई नई चुनौतियों को देखते हुए उनके हिसाब से अपनी नीति बनानी होगी, जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान पैदा हुई हैं और अब इलाक़े के समीकरणों में उनकी बड़ी भूमिका हो गई है.
ईरान के लिए चिंता की एक बात और है कि इज़राइल के ख़ुफ़िया तंत्र ने इन संगठनों में बहुत भीतर तक पैठ जमा ली है. इज़राइल के मानवीय गुप्तचर तंत्र ने बेरूत में हिज़्बुल्लाह के मुखिया हसन नसरल्लाह और तेहरान के एक सुरक्षित ठिकाने में हमास के प्रमुख इस्माइल हानिया की हत्या में अहम भूमिका निभाई थी.
इनमें से जो सबसे अहम बुनियादी बदलाव आया है, वो ईरान और उसके पड़ोसी देशों द्वारा एक दूसरे से रिश्ते सुधारने की कोशिश का है. ईरान के दिवंगत राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी जो अगस्त 2021 में सबको हैरान करते हुए राष्ट्रपति बन गए थे, उन्होंने अपने देश की विदेश नीति में दो प्रमुख स्तंभ स्थापित किए थे. इनमें से पहला तो ईरान द्वारा अपने पड़ोसियों के साथ रिश्ते सुधारने का था और दूसरा लुक ईस्ट नीति के तहत कट्टर पश्चिम विरोध की नीति पर चलने का था. इसलिए, ईरान द्वारा नेबरहुड फर्स्ट की जो नीति लागू की जा रही है, उसे शुरुआत में तो खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) ने आशंका भरी नज़र से देखा था. हालांकि, ईरान के लगातार कोशिशें करते रहने पर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे देश भी अंत में ईरान के साथ संवाद के लिए तैयार हो गए.
यहां आपस में जुड़े दो समीकरण हैं, जो एक साथ काम कर रहे हैं. ईरान के नज़रिए से देखें, तो खाड़ी सहयोग परिषद के साथ रिश्ते सामान्य करने से उसे अब्राहम समझौतों के भीतर छुपी क्षेत्रीय आकांक्षाओं से पैदा हुए ख़तरों से निपटने में मदद मिलती है. वहीं, खाड़ी सहयोग परिषद के दृष्टिकोण से देखें, तो ईरान के साथ संवाद बढ़ाने से गहरे ऐतिहासिक और सांप्रदायिक मतभेदों को दूर होते हैं और इससे इन देशों को ईरान की तरफ़ से किए जा सकने वाले बेहद नुक़सानदेह हमलों से बचने का मौक़ा मिलता है. ईरान ने इससे पहले दिखा दिया था कि वो इन देशों को कितना नुक़सान पहुंचा सकता है. 2019 में ईरान पर आरोप लगा था कि उसने होर्मुज की जलसंधि में जहाज़ों की आवाजाही को बाधित किया था, जब उसने अमेरिका के RQ-4 ग्लोबल हॉक ड्रोन को मार गिराया था. वहीं, सऊदी अरब के अबक़ियाक़ और ख़ुरैस में उसकी कंपनी अरामको के तेल के ठिकानों पर सटीक ड्रोन हमले करके भारी नुक़सान पहुंचाया था.
खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) का व्यापक आकलन अपने पड़ोसी देशों के साथ संघर्ष की आशंका ख़त्म करना है. ख़ास तौर से ऐसे टकराव से बचना जिनसे भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़े और सऊदी अरब के युवराज प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और संयुक्त अरब अमीरात के शासक मुहम्मद बिन ज़ायद द्वारा लागू किए जा रहे सुधार के महत्वाकांक्षी एजेंडे को लागू करने में बाधाएं खड़ी हों. जैसा कि राजनीति वैज्ञानिक एवरॉन ओश्तावर कहते हैं कि, ‘इस इलाक़े और विशेष रूप से सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात के साथ ईरान के सुधरे हुए संबंध, ट्रंप प्रशासन के लिए ईरान के प्रति अपनी पुरानी नीति को लागू करना मुश्किल बनाएंगे. हो सकता है कि अमेरिका इसकी कोशिश करे. पर अब ईरान को आसानी से हाशिए पर नहीं धकेला जा सकता है, और अमेरिका के अरब साझीदार देश उसे ईरान पर मौजूदा प्रतिबंधों की सख़्ती बढ़ाने में मदद नहीं करेंगे.’
जहां तक ईरान के परमाणु कार्यक्रम की बात है, तो ट्रंप को मई 2018 में उठाए गए अपने तबाही वाले उस क़दम के नतीजों को भुगतना होगा, जब उन्होंने ईरान के साथ परमाणु समझौते (JCPOA) से अमेरिका को अलग कर लिया था. इस बार ट्रंप, परिस्थितियों में आए कुछ बदलावों का लाभ उठा सकते हैं. पहला तो ये कि इज़राइल के हालिया हमलों की वजह से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को तगड़े झटके लगे हैं. ख़बरों में तो दावा ये भी किया गया है कि अक्टूबर के आख़िर में इज़राइल ने जो हमले किए थे, उसमें उसने ईरान के परचिन (तेहरान के क़रीब) में बेहद खुफिया परमाणु रिसर्च केंद्र को भी तबाह कर दिया था.
शायद इन ख़बरों की वजह से ही ईरान के विदेश मंत्री ने दो टूक लफ़्ज़ों में कहा कि उनका देश परमाणु हथियार हासिल करने की कोशिश नहीं कर रहा है. ईरान की एक साथ आक्रामक और भुलावे में रखने वाली नीति से परे हटकर देखें, तो ये सभी पक्षों के लिए अच्छा मौक़ा है जब वो ईरान के परमाणु मसले से निपट सकें. ईरान ने जिस तरह अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के महानिदेशक रफाल ग्रॉसी के दौरे को लंबे इंतज़ार के बाद अचानक से हरी झंडी दिखाई, उससे भी संकेत मिलता है कि ईरान इस मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार है. ये इत्तिफ़ाक़ ही नहीं है कि रफाल ग्रासी का दौरा, ट्रंप के चुनाव जीतने और इज़राइल द्वारा परचिन में परमाणु रिसर्च केंद्र पर हमला करने के दो हफ़्तों के भीतर ही हो गया था. सच तो ये है कि तेहरान के अपने दौरे के दौरान रफाल ग्रॉसी ने कहा कि, ‘मैंने ईरान से बोला कि वो 60 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम का भंडार न करें, और उन्होंने मेरी गुज़ारिश मान ली है. हम इसी बात पर पहले सहमत हुए थे और मुझे उम्मीद है कि वो इस पर क़ायम रहेंगे. हम आगे देखेंगे.’
क़ानूनी तौर पर ईरान का अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ परमाणु समझौता (JCPOA) अगले साल अक्टूबर में ख़त्म हो रहा है. विदेश मंत्री अब्बास अरागची और ईरान के दूसरे नेताओं ने संकेत दिए हैं कि वो इसके आधार पर एक नया समझौता करने के लिए तैयार हैं. लेकिन इसमें नई परिस्थितियों का भी ख़याल रखना होगा. सौदेबाज़ी के उस्ताद ट्रंप, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में अपने अनूठे पारंपरिक तौर तरीक़े का इस्तेमाल करके ईरानियों की ‘बाज़ारी’ ख़ूबी को उभार सकते हैं और किसी सौदे पर राज़ी होने के लिए तैयार कर सकते हैं.
हमारे सामने कई दिलचस्प मंज़र खड़े हैं. सच्चाई तो ये है कि 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से आज ईरान अपनी सबसे कमज़ोर स्थिति में है. अंदरूनी तौर पर भले ही ईरान के शासकों ने विरोध के सुरों को बर्बरता से कुचल दिया हो. लेकिन, अपनी धुरी वाले हथियारबंद समूहों के ज़रिए ईरान जो विदेश नीति चला रहा था, वो उसके लिए महंगा सौदा साबित हुई है. निश्चित रूप से हाल के महीनों में ईरान को इज़राइल ने कई झटके देकर ज़ख़्मी कर दिया है. ऐसे में ये मौक़ा मुफ़ीद है, जब सभी पक्ष इस अवसर को लपक लें.
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