यह लेख रायसीना फाइल्स 2022 नामक सीरिज़ का हिस्सा है.
यूरोपीय यूनियन और भारत “स्वाभाविक सहयोगी” हैं.[i] दोनों 2004 से रणनीतिक साझेदार रहे हैं और दोनों प्रतिबद्ध लोकतंत्र हैं. मई 2021 में पोर्टा में हुई ईयू-भारत के नेताओं की शिखर वार्ता ने न सिर्फ़ साझा हितों बल्कि साझेदारी को सहारा देने के लिए साझा “लोकतंत्र के सिद्धांतों एवं मूल्यों, स्वतंत्रता, क़ानून के शासन और मानवाधिकार के लिए सम्मान”[ii] की पुष्टि की. इन दीर्घकालीन समानताओं, कूटनीतिक ब्योरों और वैश्विक शिखर वार्ता की मीठी-मीठी बातों के अलावा बेहद ज़रूरी और नई अनिवार्यताएं भी बढ़ रही हैं जिनको लेकर इन दोनों बड़े भागीदारों के साझा ध्यान देने की आवश्यकता है. एक प्रमुख ख़तरा शक्तिशाली और तानाशाही देशों की बढ़ती हठधर्मिता है.
तानाशाही – ईयू और भारत की सीमा पर दस्तक दे रही
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के ज़रिए चीन का वैश्विक विस्तार, एशिया में सैन्य दुस्साहस, बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली का दुरुपयोग (जैसे सब्सिडी और ज़बरन तकनीकी ट्रांसफर के ज़रिए), और शिनजियांग में मानवाधिकारों का पूरी तरह से उल्लंघन पिछले कुछ समय से यूरोप को अच्छी तरह मालूम है. लेकिन ये सभी परेशान करने वाले रुझान शायद अभी तक काफ़ी दूर की चीज़ के तौर पर देखे गए थे; इसकी वजह से 2019 में एक सोच बनी कि चीन यूरोप का “साझेदार, प्रतिस्पर्धी और विरोधी”[iii] है, यूरोप ने कोशिश की है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटने पाए. आज ईयू के पास चिंता के बहुत सारे कारण हैं. यूक्रेन पर रूस के हमले ने ख़तरे को सीधे यूरोप की सीमा तक ला दिया है. चीन के अगले क़दम (इस तरह संभवत: रूस के ख़िलाफ़ ईयू के आर्थिक प्रतिबंधों के असर को कमजोर करने या नहीं[iv]) को लेकर काफ़ी अटकलों के बावजूद यूरोप के राजनेता और टेक्नोक्रेट्स इस साल की शुरुआत में चीन और रूस के बीच घोषित “असीमित” साझेदारी को याद रखेंगे तो अच्छा होगा. चीन अब यूरोप के लिए दूर का ख़तरा नहीं है, चाहे बात जर्मनी[v] के ट्रांसपोर्ट और टेक्नोलॉजी सेक्टर में काफ़ी ज़्यादा निवेश की परियोजनाओं के ज़रिए हो या रूस के साथ उसकी साझेदारी के ज़रिए हो.
चीन अब यूरोप के लिए दूर का ख़तरा नहीं है, चाहे बात जर्मनी के ट्रांसपोर्ट और टेक्नोलॉजी सेक्टर में काफ़ी ज़्यादा निवेश की परियोजनाओं के ज़रिए हो या रूस के साथ उसकी साझेदारी के ज़रिए हो.
भारत भी ख़ुद को मुश्किल हालत में देख रहा है. पिछले कुछ वर्षों से भारत ने कई मामलों में चीन की बढ़ती चालाकी का अनुभव किया है, जिनमें सीमा पर सैन्य संघर्ष (जिसमें जान भी गई थी) भी शामिल है. चीन को लेकर भारत की चिंता इतनी गंभीर है कि भारत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) को स्वीकार नहीं करने वाला इकलौता देश बन गया और बीआरआई में शामिल होने से भी भारत ने इनकार कर दिया.
तानाशाही शक्तियों- वैश्विक स्तर के साथ-साथ अपनी सीमा पर भी- का सामना होने की वजह से “विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्रों”[vi] को और भी ज़्यादा सहयोग करना चाहिए. लेकिन इसके बावजूद कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में ईयू-भारत की साझेदारी में नज़दीकी के बदले इसकी मजबूरी दिखती है.
ईयू-भारत साझेदारी की सीमाएं
व्यापार, जलवायु परिवर्तन या फिर भू-राजनीति को लेकर बातचीत को देखिए और हम पाते हैं कि ईयू और भारत अक्सर विरोधी खेमे में खड़े हो जाते हैं.
ईयू-भारत मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बातचीत 2007 में शुरू हुई थी लेकिन इसे 2013 में रोक दिया गया. 7 साल के बाद 2021[vii] में फिर से इस बातचीत की शुरुआत हुई. दोनों पक्षों के बीच सभी तरह की सद्भावना और इस क़दम को लेकर लोगों के उत्साह को खींचने की कोशिश के बावजूद ये बातचीत अभी भी आसान नहीं होगी. इस बीच दोनों पक्षों के बीच व्यापार के आंकड़े निराशाजनक बने हुए हैं. भारत ईयू का 10वां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और सामानों के मामले में ईयू के व्यापार में उसका हिस्सा 1.8 प्रतिशत है. ये चीन के आंकड़े 16.1 प्रतिशत से काफ़ी कम है.[viii]
दोनों पक्षों के बीच सभी तरह की सद्भावना और इस क़दम को लेकर लोगों के उत्साह को खींचने की कोशिश के बावजूद ये बातचीत अभी भी आसान नहीं होगी. इस बीच दोनों पक्षों के बीच व्यापार के आंकड़े निराशाजनक बने हुए हैं.
इस साझेदारी की मजबूरियां शुद्ध रूप से व्यावसायिक हितों के अधिकार क्षेत्र तक सीमित नहीं है. उदाहरण के लिए, श्रम और पर्यावरणीय मानक ईयू के व्यापार समझौतों में बड़ी रुकावट बने रहे हैं. ये बात न सिर्फ़ भारत बल्कि कुछ बड़े विकासशील देशों पर भी लागू होती है (उदाहरण के लिए, ईयू और दक्षिण अमेरिका के व्यापार गुट मर्कोसुर के बीच समझौते में जो दिक़्क़त आई है).[ix] नवंबर 2021 में ग्लासगो में आयोजित कॉप26 (जलवायु परिवर्तन सम्मेलन) के दौरान भारत और चीन को इस बात के लिए काफ़ी आलोचना का सामना करना पड़ा कि उन्होंने कोयले के इस्तेमाल पर “ख़त्म करने” के बदले “कम करने” की भाषा की ज़िद की थी.[x]
ईयू और भारत के बीच मूलभूत असहमति भू-रणनीति और राजनीति के सवाल पर भी दिखती है. इसका उदाहरण रूस और यूक्रेन को लेकर दोनों पक्षों के द्वारा अपनाए गए रवैये में भी मिलता है. ईयू ने भारत से अनुरोध किया कि वो रूस के हमले[xi] की निंदा करने में सख़्त रुख़ अपनाए. लेकिन इसके बावजूद भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में वोटिंग के दौरान अनुपस्थित रहा.[xii] यूएनजीए में अनुपस्थित रहते वक़्त भारत एक बार फिर चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के साथ ग़ैर-हाज़िर देशों के एक अलग कोने में नज़र आया. कुछ विश्लेषकों ने इस वोटिंग को पश्चिमी देशों के द्वारा “सर्वसम्मति के लिए अपनी एकता को ग़लत समझने”[xiii] के सूचक के तौर पर व्याख्या की है लेकिन ये बहुत ज़्यादा एकतरफ़ा विश्लेषण है. जिन 141 सदस्य देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग की, उनमें विकासशील देशों से बड़े और छोटे देश भी शामिल हैं.[xiv] अलग-अलग उद्देश्यों ने इस अल्पसंख्यक समूह के सदस्यों का मार्गदर्शन किया. इस लेख के उद्देश्य के हिसाब से रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर लोकतांत्रिक भारत की अनुपस्थिति भारत और ईयू के बीच विचारों की असहमति का एक और चिंताजनक उदाहरण है.
इस लेख के उद्देश्य के हिसाब से रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर लोकतांत्रिक भारत की अनुपस्थिति भारत और ईयू के बीच विचारों की असहमति का एक और चिंताजनक उदाहरण है.
भद्दे गठजोड़ को समझिए
भारत और ईयू के बीच साझेदारी की अधूरी संभावना के लिए दोनों पक्षों की समान ज़िम्मेदारी है.
ईयू के द्वारा ग़लत अनुमान के मामले में तीन बिंदु महत्वपूर्ण हैं.[xv] पहला, भारत के साथ कारोबारी रिश्तों पर ईयू बहुत ज़्यादा ज़ोर देता है. ये एक ऐसा मुद्दा है जिसको बढ़ावा देने में भारत भी दिलचस्पी रखता है, ख़ास तौर पर कारोबार केंद्रित मोदी सरकार के दौरान जिसने विकास को प्राथमिकता दी है. लेकिन फिर जब भी व्यापार समझौतों की चर्चा होती है, तब ईयू सामाजिक और पर्यावरणीय मानकों के मूल्य की संकीर्ण परिभाषा की तरफ़ चला जाता है. इससे भी बढ़कर ये कि इस तरह की चर्चाओं का लहजा ऐसा होता है मानो यूरोप भारत को उदारवादी मूल्यों के महत्व को लेकर उपदेश दे रहा है.[xvi] भरोसा जीतने के लिए इस तरह की चर्चाओं का न तो विषय, न ही लहजा उपयोगी है, ख़ास तौर पर तब जब यूरोप भारत जैसी एक प्राचीन सभ्यता के साथ बातचीत कर रहा है.[xvii] दूसरा, अगर इस तरह की बातचीत की तुलना चीन के साथ ईयू की बातचीत की रणनीति से की जाए तो पाखंड के आरोपों से परहेज करना मुश्किल है. चीन के द्वारा शिनजियांग में मानवाधिकारों की घोर अवहेलना के बावजूद यूरोप की तरफ़ से कभी-कभार की नाराज़गी के अलावा कुछ ख़ास नहीं किया जाता है, चीन के साथ उसका कारोबार पहले की तरह चल रहा है. इस तरह का दोहरा मानदंड यूरोप के ज़्यादातर हिस्सों में मीडिया की ख़बरों और विश्लेषण में भी दिखता है. भारतीय लोकतंत्र की अक्सर पड़ताल होती है और उसे फटकारा जाता है. वहीं दूसरी तरफ़ घरेलू, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर चीन की ज़्यादतियों की तरफ़ से मुंह फेर लिया जाता है. तीसरा, अब जब यूरोप धीरे-धीरे मौजूदा विश्व व्यवस्था को लेकर चीन के द्वारा पैदा किए गए ख़तरों के बारे में समझ रहा है तो चीन से जुड़ी रिसर्च विशेषज्ञता की मांग बढ़ रही है. लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि भारत या एशिया के दूसरे देशों के बारे में गहराई से जानकारी की मांग उस तरह से नहीं बढ़ रही है.[xviii] कुछ हद तक इसे समझा जा सकता है. इसकी वजह ये हो सकती है कि हम समस्या पर ध्यान देने की कोशिश करते हैं और बाक़ी चीज़ों को भूल जाते हैं. लेकिन इसका नतीजा ये निकला है कि यूरोप में भारत को लेकर जानकारी बहुत कम है और सामान्य घिसी-पिटी बातों के अलावा वहां लोगों की भी दिलचस्पी नहीं है. इस अपेक्षाकृत आलोचनात्मकता और वास्तविक दिलचस्पी में कमी के “विशेष” मेलजोल के बीच ईयू-भारत संबंधों को एक सार्थक और प्रभावशाली साझेदारी में विकसित करने के अवसरों का पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है.
नतीजा ये निकला है कि यूरोप में भारत को लेकर जानकारी बहुत कम है और सामान्य घिसी-पिटी बातों के अलावा वहां लोगों की भी दिलचस्पी नहीं है. इस अपेक्षाकृत आलोचनात्मकता और वास्तविक दिलचस्पी में कमी के “विशेष” मेलजोल के बीच ईयू-भारत संबंधों को एक सार्थक और प्रभावशाली साझेदारी में विकसित करने के अवसरों का पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है.
भारतीय पक्ष भी ग़लत अनुमान लगा रहा है. तीन बातें ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण हैं. पहली बात ये कि “एशियाई मूल्यों” के एक कोने में रखे जाने का विरोध करने और सर्वव्यापी उदारवाद[xix] के अपने रूप के बारे में ज़ोर देकर कहने के बदले भारत का झुकाव विदेश नीति में “व्यावहारिकता” की भाषा के इस्तेमाल की तरफ़ रहा है. 2019 में एजेंडा तय करने वाले एक भाषण में भारत के विदेश मंत्री जयशंकर ने “मज़बूत और व्यावहारिक नीति के दृष्टिकोण” के हिस्से के तौर पर “एक से ज़्यादा गठबंधन”, “इंडिया फर्स्ट” और “बचाव व्यवस्था (हेजिंग)” के बारे में बताया. इस भाषण में कुछ सुंदर मुहावरों का इस्केमाल किया गया, जैसे: “हेजिंग एक संवेदनशील कवायद है, चाहे ये पहले के समय की गुटनिरपेक्षता और सामरिक स्वायत्तता हो या भविष्य की एक से ज़्यादा हिस्सेदारी हो…जवाब रूढ़ि से आगे बढ़कर देखने की इच्छा और मेल-जोल के वास्तविक विश्व में शामिल होने में है. इसके बारे में सिर्फ़ अंकगणित नहीं बल्कि कैलकुलस के तौर पर भी सोचिए.”[xx] मूल्यों के ऊपर व्यावहारिकता की इस प्राथमिकता के साथ समस्या ये है कि इससे भारत के विशाल सॉफ्ट पावर का संभावित इस्तेमाल कम होता है जबकि इसके ज़रिए भारत, ईयू के साथ अपने संबंधों को बढ़ा सकता है. दूसरी बात जो व्यावहारिक तौर पर एक से ज़्यादा गठबंधन में भी देखा गया है, वो ये है कि किसी गठजोड़ में शामिल होने को लेकर भारत की झिझक बनी हुई है. विदेश मंत्री ने इसे इस रूप में परिभाषित किया: “मैं समझता हूं कि हमें एक पक्ष चुनना चाहिए और वो पक्ष हमारा पक्ष है.”[xxi] ऊपरी तौर पर तो ये विशाल पेड़ या एंट[xxii] जैसा सिद्धांत आकर्षक लगता है. लेकिन वास्तव में भारत को आने वाले समय में इससे फ़ायदा नहीं मिलेगा, ख़ास तौर पर तब जब इस क्षेत्र में चीन की तानाशाही में बढ़ोतरी लगातार बनी रहती है. अपना ख़ुद का पक्ष चुनने के लिए कई बार गठबंधनों और गठजोड़ों के साथ नज़दीकी तौर पर काम करने की ज़रूरत पड़ती है.[xxiii] तीसरी बात ये है कि ऊपर के दो मुद्दों के नतीजे की वजह से भारत को अक्सर चीन के कोने में जाना पड़ता है. इस तरह के क़दम सुनियोजित और ख़ास मुद्दे पर आधारित हो सकते हैं- उदाहरण के लिए, विश्व व्यापार संगठन में विशेष और अलग बर्ताव को लेकर बहस के दौरान- लेकिन ये बार-बार के विरोधी चीन के ख़िलाफ़ भारत के और भी ज़्यादा “संयोजन”[xxiv] की तरफ़ ले जाते हैं. लोकतांत्रिक ताक़त और ईयू के लिए एक विश्वसनीय साझेदार के तौर पर भारत की विश्वसनीयता को इससे मदद नहीं मिलती है.[xxv]
ईयू को ऐसा करने के लिए अपनी सोच और नीति में कई बदलाव करने की ज़रूरत पड़ेगी. इन बदलावों में श्रम और पर्यावरणीय मानकों से जुड़े संकीर्ण सवालों से आगे बढ़कर ध्यान देने और लोकतंत्र एवं उदारवाद के व्यापक सवालों को शामिल करना शामिल है.
क्या किया जाना चाहिए
ईयू और भारत को वास्तविक रूप में एक साथ लाने के लिए क्या किया जा सकता है और तब साथ मिलकर एक भविष्य लिखने की भी शुरुआत कैसे हो सकती है? इस तरह की किसी भी कोशिश के लिए तीन क़दम महत्वपूर्ण होंगे.
पहला क़दम ये होगा कि ईयू और भारत- दोनों पक्ष मूल्यों के सवाल पर ज़्यादा खुले ढंग से बातचीत कर अच्छा करेंगे. ईयू को ऐसा करने के लिए अपनी सोच और नीति में कई बदलाव करने की ज़रूरत पड़ेगी. इन बदलावों में श्रम और पर्यावरणीय मानकों से जुड़े संकीर्ण सवालों से आगे बढ़कर ध्यान देने और लोकतंत्र एवं उदारवाद के व्यापक सवालों को शामिल करना शामिल है. ईयू को इस तथ्य को भी मान्यता देनी होगी कि पश्चिमी देश उदारवादी मूल्यों के अकेले अभिभावक नहीं हैं. ये वास्तविक रूप से हो सकता है कि विकासशील देशों में कुछ ताक़तवर, देसी और यहां तक कि उदारवाद की प्राचीन परंपराएं भी शामिल हैं. इसके बदले भारत को उदारवादी परंपराओं को “अपनाने” में और ज़्यादा सुनिश्चित होने की ज़रूरत पड़ेगी. साथ ही भारत को अपनी विदेश नीति की सोच के साथ-साथ गठबंधन राजनीति में इन्हें संस्थागत रूप से बनाने की ज़रूरत पड़ेगी.
ईयू और भारत- दोनों अगर भविष्य में विरोधी ताक़तों के द्वारा बंधक बनाए जाने से बचना चाहते हैं तो उन्हें फ़ौरन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपनी सप्लाई चेन को फिर से संगठित करने की ज़रूरत है.
दूसरा क़दम है कि नैतिक मूल्यों के महत्व को मान्यता देना तो महत्वपूर्ण है लेकिन सिर्फ़ सॉफ्ट पावर के साझा इस्तेमाल के ज़रिए ईयू-भारत संबंधों को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है. सैन्य आपूर्ति के लिए रूस पर भारत की निर्भरता की वजह से यूक्रेन का पक्ष भारत ने नहीं लिया. इसी तरह ऊर्जा के लिए रूस पर यूरोप की निर्भरता का नतीजा आर्थिक प्रतिबंधों को लगाने में देरी के रूप में सामने आया (इसकी वजह से अभी भी कुछ विकृत और प्रतिकूल नीतियां बन रही हैं).[xxvi] ईयू और भारत- दोनों अगर भविष्य में विरोधी ताक़तों के द्वारा बंधक बनाए जाने से बचना चाहते हैं तो उन्हें फ़ौरन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपनी सप्लाई चेन को फिर से संगठित करने की ज़रूरत है. इससे उनके और दूसरे समान विचार वाले देशों के लिए मिलकर काम करने के नये अवसर का निर्माण होता है.
तीसरा क़दम यूरोप में भारत को लेकर और भारत में यूरोप को लेकर बेहतर समझ को बढ़ावा देने में ज़्यादा कोशिश और निवेश करने की ज़रूरत है. इसे आसान बनाने के लिए रिसर्च और शिक्षा पर खर्च में बढ़ोतरी अनिवार्य होगी. डुअल यूज़ टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में अनुकूल और नवीनतम विकास के लिए नेचुरल और अप्लाइड साइंस में सहयोग बेहद महत्वपूर्ण होगा. लेकिन इसके साथ-साथ सामाजिक विज्ञान और मानविकी में रिसर्च की पहल की अहमियत को कमज़ोर नहीं किया जाना चाहिए, ख़ास तौर पर एक-दूसरे के समाज, राजनीति और संस्कृति को बेहतर ढंग से समझने में. चीन के कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट ने चीन की कूटनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इसी तरह पश्चिमी देशों में अध्ययन के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में रूस की फंडिंग का अभी भी प्रमुख स्थान है (उदाहरण के लिए, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ब्लावत्निक स्कूल ऑफ गवर्नमेंट के ज़रिए). ये सही समय है जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र- ईयू और भारत- भी ज़्यादा व्यवस्थित तरीक़े से और साफ़ तौर पर एक-दूसरे के थिंक-टैंक, रिसर्च संस्थानों और विश्वविद्यालयों में निवेश करना शुरू कर दें.
[i] While this term has entered modern parlance in politics, it is worth mentioning that we find references to this concept in the ancient text of Indian fables, the Panchatantra.
[ii] EU-India Leaders’ Meeting, Investing in EU-India Strategic Partnership, 2021, https://www.consilium.europa.eu/media/49516/eu-india-connectivity-partnership-8-may-2.pdf.
[iii] European Commission, EU-China: A Strategic Outlook, Strasbourg, European Union, 2019, https://ec.europa.eu/info/sites/default/files/communication-eu-china-a-strategic-outlook.pdf.
[iv] European Council, European Union, https://www.consilium.europa.eu/en/press/press-releases/2022/04/01/remarks-by-president-charles-michel-after-the-eu-china-summit-via-videoconference/.
[v] Xinming Xia and Wan-Hsin Liu, “China’s Investments in Germany and the Impact of the COVID-19 Pandemic,” Intereconomics 56, no. 2 (2021), pp. 113–119, https://www.intereconomics.eu/contents/year/2021/number/2/article/china-s-investments-in-germany-and-the-impact-of-the-covid-19-pandemic-6523.html.
[vi] “Investing in EU-India Strategic Partnership, 2021”
[vii] European Commission, Overview of FTA and other Trade Negotiations, European Union, 2022, https://trade.ec.europa.eu/doclib/docs/2006/december/tradoc_118238.pdf.
[viii] “Countries and regions- India,” European Commission, https://ec.europa.eu/trade/policy/countries-and-regions/countries/india/#:~:text=Trade%20picture&text=India%20is%20the%20EU’s%2010th,12.5%25%20in%20the%20last%20decade.
[ix] “Stop the EU-Mercosur trade deal and make all trade agreements work for sustainable development,” European Greens, https://europeangreens.eu/content/stop-eu-mercosur-trade-deal-and-make-all-trade-agreements-work-sustainable-development.
[x] Malo Cursino and Doug Falkner, “COP26: China and India must explain themselves, says Sharma,” BBC, November 14, 2021, https://www.bbc.com/news/uk-59280241.
[xi] Dipanjan Roy Chaudhury, “EU Demarche to India, urges firm position on Ukraine issue,” The Economic Times, February 27, 2022, https://economictimes.indiatimes.com/news/international/world-news/eu-demarche-to-india-urges-firm-position-on-ukraine-issue/articleshow/89862476.cms.
[xii] United Nations Security Council, United Nations, https://www.un.org/press/en/2022/sc14808.doc.htm; United Nations General Assembly, https://www.un.org/press/en/2022/ga12407.doc.htm.
[xiii] Edward Luce, “The west is rash to assume the world is on its side over Ukraine,” Financial Times, March 24, 2022, https://www.ft.com/content/d7baedc7-c3b2-4fa4-b8fc-6a634bea7f4d.
[xiv] General Assembly, United Nations, https://www.un.org/press/en/2022/ga12407.doc.htm.
[xv] It is worth noting that there also some interesting differences among EU member states in their bilateral dealings with India and its region, exemplified by the strategy papers of France versus Germany on the Indo-Pacific (France’s Indo-Pacific Strategy, 2018, https://www.diplomatie.gouv.fr/IMG/pdf/en_dcp_a4_indopacifique_022022_v1-4_web_cle878143.pdf; The Federal Government, Policy Guidelines for the Indo-Pacific, Government of Germany, 2020, https://rangun.diplo.de/blob/2380824/a27b62057f2d2675ce2bbfc5be01099a/policy-guidelines-summary-data.pdf). The French approach shows greater willingness to recognise security threats, call them out, and engage with India on defence issues; Germany, in contrast, has taken a softer and wide-ranging approach, steering clear of military cooperation thus far. It remains to be seen whether the Zeitenwende currently underway will translate into a more hard power outreach towards India; on this, Amrita Narlikar and Samir Saran, “Walking the walk of values-based diplomacy,” Observer Research Foundation, February 28, 2022, https://www.orfonline.org/expert-speak/walking-the-walk-of-values-based-diplomacy/.
[xvi] An example of this patronising approach can be found in the speech of the then-Federal President of Germany, Joachim Gauck’s speech, made during his state visit to India in February 2014: Joachim Gauck (speech, New Delhi, February 6, 2014), https://www.bundespraesident.de/SharedDocs/Downloads/EN/CV/140206-Staatsbesuch-Indien-Uni-Rede-Neu-Delhi.pdf?__blob=publicationFile. In contrast, President Frank-Walter Steinmeier’s speech, delivered during his state visit to India in March 2018, took more of an eye-to-eye approach: Frank-Walter Steinmeier (speech, New Delhi, March 23, 2018), https://www.bundespraesident.de/SharedDocs/Reden/EN/Frank-Walter-Steinmeier/Reden/2018/03/180323-India-university.html.
[xvii] Amrita Narlikar and Aruna Narlikar, Bargaining with a Rising India: Lessons from the Mahabharata, (Oxford: Oxford University Press, 2014).
[xviii] Amrita Narlikar, “Rebooting Germany’s Foreign Policy Towards China,” Observer Research Foundation, March 25, 2022, https://www.orfonline.org/expert-speak/rebooting-germanys-foreign-policy-towards-china/.
[xix] Raimundo Panikkar, “Is the Notion of Human Rights a western concept?” Diogenes 30, no. 120 (1982), pp. 75- 102, https://journals.sagepub.com/doi/10.1177/039219218203012005; Amartya Sen, The Argumentative Indian (UK: Penguin 2006); Amrita Narlikar, “Multilateralism, liberal values, and the Global South,” in Essays on a 21st Century Multilateralism that Works for All, ed. Brahima S. Coulibaly and Kemal Dervis, (Washington DC: Brookings 2022), https://www.brookings.edu/wp-content/uploads/2022/02/21st-Century-Multilateralism.pdf#page=69.
[xx] S. Jaishankar, speech, New Delhi, November 14, 2019, https://www.mea.gov.in/Speeches-Statements.htm?dtl/32038.
[xxi] ORF, “I think we should choose a side, and that’s our side | S Jaishankar, Raisina Dialogue 2019,” YouTube video, 11:34 min, March 19, 2022, https://youtu.be/peTPFan8l-U.
[xxii] Ents are the shepherds of the forests in Middle-earth – the fantasy world constructed by J.R.R. Tolkein – and exhibit similar caution on taking sides.
[xxiii] Given the EU’s own emphasis on “strategic autonomy” in recent years – a reaction, in good measure, to the difficult Transatlantic relationship during the Trump Presidency – the EU and India could now be especially well-suited to lead geopolitical and geoeconomic coalitions together.
[xxiv] I am thankful to Samir Saran for a stimulating exchange on this in 2019.
[xxv] Especially when posited against India’s non-alignment/ multi-alignment strategy, it is ironic to note that the EU’s foreign policy chief, Josep Borrell, while stating that neither the EU nor the US could mediate the Russia-Ukraine conflict, declaimed China to be well-suited for this role, “Russia’s war on Ukraine: ‘It has to be China’ as mediator, EU foreign policy chief says,” South China Morning Post, March 5, 2022, https://www.scmp.com/news/china/diplomacy/article/3169407/russias-war-ukraine-it-has-be-china-mediator-eu-foreign-policy.
[xxvi] Narlikar, “Rebooting Germany’s Foreign Policy towards China”
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