Author : Ramanath Jha

Expert Speak Urban Futures
Published on Oct 22, 2025 Updated 0 Hours ago

1950 में भारत ने शहरी विकास की दौड़ चीन से आगे शुरू की थी लेकिन 1980 के बाद चीन ने तेज़ी से बढ़त बना ली. भारत जहां शहरों को उनके हाल पर छोड़ता रहा, वहीं चीन ने उन्हें राष्ट्रीय विकास की रीढ़ बना दिया. यही नीति आज दोनों देशों की शहरी तस्वीर में ज़मीन-आसमान का फर्क पैदा करती है.

भारत बनाम चीन: शहरीकरण की दौड़ में कौन आगे?

Image Source: Getty Images

यह ‘चाइना क्रॉनिकल्स’ शृंखला का 183वां आलेख है.


आज़ादी के तुरंत बाद 1950 में भारत में शहरीकरण की दर (17 प्रतिशत) चीन (13 प्रतिशत) से अधिक थी. जहां भारत ने 1950 के बाद कई दशकों तक अपने शहरों के प्रति उदासीन रवैया अपनाया और उसे खुद आगे बढ़ने के लिए छोड़ दिया, वहीं चीन लगभग 1980 तक तुलनात्मक रूप से अधिक आक्रामक शहर-विरोधी बना रहा और अपनी ‘हुकोउ प्रणाली’ के माध्यम से ग्रामीण आबादी को शहरों में आने से रोकता रहा. हुकोऊ वास्तव में चीन की आबादी को शहरी व ग्रामीण निवासियों में बांटती थी और उन तक ज़रूरी सेवाओं को पहुंचने से रोकती थी.  

2005 में, भारत ने शहरीकरण को राष्ट्रीय आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना. उसके बाद, भारत सरकार ने दो तरीके से शहरों पर ध्यान देना शुरू किया.

भारत की ग्रामीण मानसिकता 21वीं सदी के शुरुआती सालों तक बनी रही. 2005 में, भारत ने शहरीकरण को राष्ट्रीय आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण स्तंभ माना. उसके बाद, भारत सरकार ने दो तरीके से शहरों पर ध्यान देना शुरू किया. पहला, उसने ऐसे सुधार संबंधी कानूनों की सिफ़ारिश की, जिसे राज्य आसानी से अपना सकें. दुर्भाग्य से, इनको आमतौर पर नज़रंदाज़ ही किया गया है. दूसरा, उसने राज्यों व शहरों को केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित बुनियादी ढांचा निर्माण संबंधी कार्यक्रमों का सहभागी बनने व साझेदारी करने के लिए अधिक केंद्रीय अनुदानों की पेशकश की.

  • 1950 के बाद भारत ने शहरों की उपेक्षा की जबकि चीन 1980 तक शहर-विरोधी रहा और हुकोऊ प्रणाली से ग्रामीणों को शहर में आने से रोका. 
  • चीन ने शहरी नियोजन को राष्ट्रीय विकास का अहम उपकरण बनाया जबकि भारत में यह राज्य-नियंत्रित है और कोई राष्ट्रीय दृष्टिकोण नहीं बन पाया.

जैसा कि ऊपर बताया गया है, अपनी शहर-विरोधी नीति पर चीन के केंद्रीय नेतृत्व ने गंभीरता से सवाल उठाए. यह महसूस किया गया कि एक बड़ी आर्थिक ताक़त बनने की उसकी महत्वाकांक्षा शहरीकरण के प्रति उसकी दुर्भाग्यपूर्ण दूरी के कारण बाधित हो रही है. यह समझा गया कि अगर चीन अपनी आर्थिक उन्नति चाहता है तो उस हुकोऊ प्रणाली को ख़त्म करना होगा और ग्रामीण आबादी को बड़े पैमाने पर विनिर्माण व उद्योगों में हिस्सेदारी निभाने के लिए शहरों में आने की अनुमति देनी होगी. शहरी नीति में इस सुधार से अधिक शहरों का निर्माण करने, एक बड़ा शहरी कार्यबल बनाने और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में शहरी भागीदारी को बढ़ाने की कल्पना की गई थी. ‘वेल्टनशाउंग’ (विश्व-दृष्टि) में इस बुनियादी बदलाव से चीन अपने अतीत से उल्लेखनीय रूप से ऊपर उठा, जिसके आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए.

भारत और चीन की शहरी तस्वीर

1980 के बाद, दोनों देशों की शहरी-विकास नीति में बड़े बदलाव दिखते हैं. जहां भारत अब भी शहरीकरण को लेकर झिझक रहा था, वहीं चीन के नेतृत्व ने अपने देश को शहरीकरण की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ाया. विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, 2024 में भारत की शहरी जनसंख्या 53.491 करोड़ या 37 प्रतिशत थी, वहीं चीन की 92.349 करोड़ या 66 प्रतिशत. इस प्रकार, भारत में जहां प्रति दशक 2.70 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर से शहरीकरण हुआ, वहीं चीन में 7.29 प्रतिशत की औसत वृद्धि दर दर्ज़ की गई, जो कमोबेश दुनिया में अब तक का सबसे तेज़ शहरीकरण है. इस कारण जहां चीन में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 160 है और 1,00,000 से 10,00,000 लाख की जनसंख्या वाले शहरों की संख्या 360, वहीं भारत में दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 40 तक होने का अनुमान है.

दोनों देशों की शहरी-विकास नीति में बड़े बदलाव दिखते हैं. जहां भारत अब भी शहरीकरण को लेकर झिझक रहा था, वहीं चीन के नेतृत्व ने अपने देश को शहरीकरण की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ाया. 

भारत में शहरीकरण की राह में एक बड़ी रुकावट भारतीय संविधान में विषयों का किया गया आवंटन है, जिसके अनुसार शहरों का विकास राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है. ऐसा लगता है कि इसी आवंटन के कारण समस्याएं पैदा होती हैं. दरअसल, इससे शहरों में केंद्र सरकार की भूमिका सिमट गई है. चूंकि कुछ शहरों में बड़ी इकाइयों के रूप में विकसित होने और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने की क्षमता होती है, इसलिए यह कहीं ज्यादा अच्छा होता, यदि भारतीय संविधान में शहरों को उनके जनसांख्यिकीय आकार के आधार पर बांटा जाता और 50 लाख से अधिक आबादी वाले सभी महानगरों को केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आने दिया गया होता. हालांकि, ऐसा नहीं लगता है कि संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़े शहरों के राष्ट्रीय महत्व की कल्पना नहीं की थी.

शासन के स्तर पर, चीन ने एक अत्यधिक केंद्रीकृत और एक ऐसा मॉडल अपनाया, जिसमें विकास ऊपर से नीचे की ओर जाता है. इसमें दिशा और लक्ष्यों को लेकर कड़े राष्ट्रीय निर्देश दिए जाते हैं, जिनका पालन शहरों को करना ही पड़ता है. स्थानीय सरकारों को काम करने की आज़ादी दी गई है, लेकिन स्थानीय अधिकारियों के प्रदर्शन की निगरानी केंद्र के स्तर पर की जाती है, जिसके आधार पर उनको पुरस्कार अथवा दंड भी दिया जाता है.

कई अर्द्ध-सरकारी संस्थाएं (स्थानीय प्रशासन के कामों को संभालने और चलाने के लिए केंद्र द्वारा गठित संस्थाएं), जिनको आमतौर पर चीन में राज्य के स्वामित्व वाले उद्यम (SOE) कहते हैं, शहरी शासन, बुनियादी ढांचे और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाती हैं. SOE को जल-आपूर्ति, बिजली, सार्वजनिक परिवहन, अपशिष्ट प्रबंधन और बुनियादी ढांचों को बनाने का काम सौंपा गया है. हालांकि कई मामलों में, स्थानीय प्रशासन अपने क्षेत्र में अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं के कामकाज की निगरानी भी करते हैं.

वहीं दूसरी ओर, भारत में शहरी शासन लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत किए जाते हैं, जिसमें विकास के काम निचले तबके से ऊपरी तबके की ओर इस उद्देश्य से आगे बढ़ाए जाते हैं कि शहर आत्मनिर्भर बन सकें. हालांकि देखा जाए, तो यह दिखावे के लिए ही है. मुख्य रूप से, शहरों पर राज्यों का कड़ा नियंत्रण होता है. शहर के प्रमुख पदाधिकारी, यानी नगर आयुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार करती है और वही शहर की विकास योजनाओं को मंजूर करती है. चीन की तरह, कई अर्द्ध-सरकारी संस्थाएं यहां भी शहरों में काम करती हैं, लेकिन उनका कामकाज, चीन के विपरीत नगर निकायों से जुड़ा नहीं होता और आमतौर पर अलग-थलग ही दिखता है.

चीन की बढ़त 

शहरी नियोजन की बात करें, तो चीन ने इसको राष्ट्रीय विकास के एक सुनियोजित उपकरण के रूप में स्थापित करने की रणनीति अपनाई है. सरकार शहरी विकास, बुनियादी ढांचे और औद्योगीकरण को आगे बढ़ाने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाती है. भारत का शहरी नियोजन भी राज्य द्वारा नियंत्रित है. इस कारण इसको लेकर कोई राष्ट्रीय नज़रिया विकसित नहीं हो पाता. कई राज्यों के बड़े शहर नियोजन प्रक्रियाओं की शुरुआत ज़रूर करते हैं, हालांकि, उन पर अंतिम मुहर राज्य सरकारें ही लगाती हैं. इस नीतिगत असमानता ने हमेशा शहरी नियोजन में मुश्किलें पैदा की हैं.

शहरी नियोजन की बात करें, तो चीन ने इसको राष्ट्रीय विकास के एक सुनियोजित उपकरण के रूप में स्थापित करने की रणनीति अपनाई है. सरकार शहरी विकास, बुनियादी ढांचे और औद्योगीकरण को आगे बढ़ाने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाती है.

शहरी बुनियादी ढांचे में चीन ने अभूतपूर्व निवेश किया है. जल-आपूर्ति के मामले में चीन के अधिकांश शहरों में चौबीसों घंटे अच्छी गुणवत्ता वाला पानी उपलब्ध रहता है. इसके प्रमुख शहरों में सीवरेज की ऐसी केंद्रीय व्यवस्था है, जो बड़े पैमाने पर भूमिगत है और उपचार संयंत्र पर्याप्त संख्या में हैं. उसका शहरी सार्वजनिक परिवहन फैला हुआ है. आज चीन में 54 शहरों में मेट्रो है और कुल मेट्रो लाइन 11,000 किलोमीटर से अधिक लंबी है. इसके 600 से अधिक शहरों में बस सेवाएं हैं और उनके बेड़े में बसों की संख्या लगभग 6,80,000 है. सार्वजनिक खुले स्थानों की बात करें, तो इस मामले में चीन प्रति व्यक्ति उपलब्धता के लिहाज़ से भारतीय शहरों से काफ़ी आगे है.

भारत में सुधार की दरकार

इन सबकी तुलना यदि भारत से करें, तो भारतीय शहरों में चौबीसों घंटे जल की आपूर्ति दुर्लभ जान पड़ती है. केवल यहां के महानगरों में ही केंद्रीकृत सीवरेज प्रणालियां हैं, जबकि अधिकांश शहर अपने सभी अपशिष्टों का उपाचर नहीं करते. इसके अलावा, भारत का शहरी सार्वजनिक परिवहन भी अधूरा है. बहुत सीमित जगहों पर अभी मेट्रो है और 23 शहरों में कुल 1,000 किलोमीटर का ही मेट्रो नेटवर्क यहां काम कर रहा है. सिर्फ़ 127 शहरों में सीमित बस सेवा उपलब्ध है और यहां बेड़े में बसों की कुल संख्या करीब 46,000 है.

बीते दो दशकों में शहरी बुनियादी ढांचों पर भारत सरकार ने पर्याप्त ध्यान दिया है, फिर भी यहां निवेश की राह बहुत कठिन है. यहां 2.4 ट्रिलियन डॉलर निवेश की ज़रूरत है. इसके अलावा, खंडित शहरी शासन और नगर नियोजन के कारण रुकावटें पैदा होती हैं. साफ़ है, इस क्षेत्र में आमूल-चूल सुधारों का अभी इंतज़ार है तभी भारतीय शहर वर्तमान में जो सुविधाएं उपलब्ध करा रहे हैं, उनसे बेहतर जीवन स्तर अपने नागरिकों को मुहैया करा सकेंगे.


(रमानाथ झा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो हैं)

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