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Published on Jun 13, 2025 Updated 0 Hours ago

शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर में भारत का सोच-समझकर निवेश उन प्रयासों का प्रतीक है जिनका उद्देश्य बांग्लादेश पर निर्भरता कम करना, म्यांमार के साथ संबंधों को मज़बूत करना और अपनी क्षेत्रीय कूटनीति में पूर्वोत्तर को स्थापित करना है.

शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर: भारत की क्षेत्रीय रणनीति का नया अध्याय

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अलग-अलग देशों के बीच भौगोलिक निकटता एक हद तक प्रशासनिक सहायता आवश्यक बनाती है ताकि साझा संसाधनों का सही ढंग से उपयोग हो सके, आपसी अवसरों का लाभ उठाया जा सके और सीमा पार चुनौतियों का समाधान किया जा सके. फिर भी, कूटनीति एक भौगोलिक आवश्यकता के बदले एक रणनीतिक विकल्प बनी हुई है. प्रतिकूल भू-राजनीतिक परिस्थितियों में नज़दीकी पड़ोसी से आगे विकल्प की तलाश करना अनिवार्य हो जाता है. पिछले दिनों भारत के द्वारा अपनी स्थलसीमा (लैंडलॉक्ड) से घिरे पूर्वोत्तर में ‘शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर’ को विकसित करने का फैसला ऐसे ही एक रणनीतिक फेरबदल का उदाहरण है. 30 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने 22,864 करोड़ रुपये की कुल लागत से मेघालय के मॉलिंगखुंग से असम के पंचग्राम तक हाइब्रिड एन्यूटी मोड (जिसके तहत सरकारी और प्राइवेट फंडिंग शामिल है) पर 166.80 किमी ग्रीनफील्ड हाई-स्पीड कॉरिडोर बनाने, उसका रख-रखाव करने और प्रबंधन करने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी. इस परियोजना के तहत 19 बड़े पुल, 153 छोटे पुल, 326 पुलिया, 22 अंडरपास, 26 ओवरपास और 34 वायडक्ट का निर्माण शामिल है. पूरे कॉरिडोर में से 144.80 किमी रास्ता मेघालय में होगा और 22 किमी असम में. 2030 तक इसके निर्माण का काम पूरा होने की उम्मीद है. 

पूर्वोत्तर के भीतर कनेक्टिविटी को बढ़ावा

अन्य कई उद्देश्यों के अलावा इस परियोजना से शिलॉन्ग और सिलचर के बीच की दूरी तय करने में लगने वाला समय मौजूदा 8.5 घंटे से कम होकर 5 घंटे होने की उम्मीद है. मेघालय के कोयला और सीमेंट उत्पादन करने वाले क्षेत्रों से होकर गुज़रने वाले इस कॉरिडोर से राज्य में औद्योगिक विकास को भी बढ़ावा मिलने की उम्मीद है. मेघालय में री भोई, ईस्ट खासी हिल्स, वेस्ट जैंतिया हिल्स और ईस्ट जैंतिया हिल्स के चुनौतीपूर्ण भू-भाग के साथ-साथ असम के कछार ज़िले से गुज़रने वाले इस कॉरिडोर का उद्देश्य गुवाहाटी, शिलॉन्ग और सिलचर के बीच कनेक्टिविटी बढ़ाना है. इससे राष्ट्रीय राजमार्ग 6 पर भीड़भाड़ कम होगी जो पीएम गति शक्ति राष्ट्रीय मास्टर प्लान के अनुरूप है जिसकी शुरुआत 2021 में अलग-अलग आर्थिक क्षेत्रों को मल्टीमॉडल कनेक्टिविटी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रदान करने के लिए की गई थी. इस तरह, गुवाहाटी, शिलॉन्ग और सिलचर हवाई अड्डों के साथ-साथ मौजूदा रेल नेटवर्क (नक्शा 1 देखें) से इसकी निकटता को देखते हुए ये कॉरिडोर पर्यटन को बढ़ावा देगा जो पूर्वोत्तर की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है. पूर्वोत्तर के भीतर कनेक्टिविटी में सुधार करने के अलावा इस कॉरिडोर में ये रणनीतिक क्षमता भी है कि इस लैंडलॉक्ड क्षेत्र को म्यांमार के माध्यम से बंगाल की खाड़ी से जोड़ दे. मौजूदा भू-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए ये संभावना कूटनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि ये परियोजना बांग्लादेश को दरकिनार करके पूर्वोत्तर को विदेशी व्यापार और कनेक्टिविटी के लिए समुद्री पहुंच प्रदान करने की अनुमति देती है.  

इस परियोजना से शिलॉन्ग और सिलचर के बीच की दूरी तय करने में लगने वाला समय मौजूदा 8.5 घंटे से कम होकर 5 घंटे होने की उम्मीद है. 

नक्शा 1: कलादान प्रोजेक्ट को जोड़ने वाला शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर 

The Shillong Silchar Corridor Rewiring India S Neighbourhood Diplomacy

स्रोत: इंडिपेंडेंट रिसर्चर जया ठाकुर के द्वारा तैयार नक्शा

बांग्लादेश के साथ भारत के बदलते समीकरण

बहुत लंबे समय से पूर्वोत्तर को बंगाल की खाड़ी से जोड़ने के लिए बांग्लादेश को अनिवार्य नहीं तो सबसे सुविधाजनक रास्ता माना जाता रहा है. इसका कारण उसकी भौगोलिक स्थिति और बंटवारे का इतिहास है. 1947 में बांग्लादेश के वर्तमान क्षेत्र को भारत के पूर्वी इलाके से पूर्वी पाकिस्तान के रूप में अलग किया गया था जिसकी वजह से पूर्वोत्तर भारत लैंडलॉक्ड रह गया. पूर्वोत्तर भारत और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित बांग्लादेश, भारत के साथ 4,096.7 किमी लंबी दुनिया की पांचवीं सबसे लंबी अंतर्राष्ट्रीय सीमा साझा करता है जिसमें से 1,879 किमी पूर्वोत्तर के राज्यों असम, त्रिपुरा, मेघालय और मिज़ोरम से सटा हुआ है. इस तरह बांग्लादेश इन राज्यों को समुद्र के साथ जोड़ने का सबसे छोटा भौगोलिक रूट प्रदान करता है. इसी के अनुसार भारत ने समुद्री वाणिज्य के लिए विभाजन से पहले के रास्ते को फिर से शुरू करने के लिए सक्रिय रूप से बांग्लादेश के समुद्री बंदरगाह चट्टोग्राम और मोंगला तक पहुंच की मांग की है. इस तरह के तालमेल वाले प्रयास भारत और बांग्लादेश में पूर्व अवामी लीग प्रशासन के बीच सौहार्दपूर्ण साझेदारी के तहत पिछले दशक में काफी हद तक सफल रहे थे लेकिन पिछले साल अगस्त में बांग्लादेश में सरकार बदलने के साथ पूर्वोत्तर से जुड़ी अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बांग्लादेश पर भारत की लगातार निर्भरता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं. 

पूर्वोत्तर भारत और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित बांग्लादेश, भारत के साथ 4,096.7 किमी लंबी दुनिया की पांचवीं सबसे लंबी अंतर्राष्ट्रीय सीमा साझा करता है जिसमें से 1,879 किमी पूर्वोत्तर के राज्यों असम, त्रिपुरा, मेघालय और मिज़ोरम से सटा हुआ है. इस तरह बांग्लादेश इन राज्यों को समुद्र के साथ जोड़ने का सबसे छोटा भौगोलिक रूट प्रदान करता है.

हाल के महीनों में कई घटनाक्रमों ने भारत-बांग्लादेश संबंधों को प्रभावित किया है, विशेष रूप से पूर्वोत्तर को भारत के बाकी हिस्सों से जोड़ने वाले सामरिक रूप से संवेदनशील सिलीगुड़ी कॉरिडोर के नज़दीक स्थित लालमोनिरहाट में एक एयरबेस बनाने के लिए कथित रूप से चीन के निवेश को बांग्लादेश द्वारा आमंत्रित करने के बाद. पूर्वोत्तर में उग्रवाद का इतिहास रहा है और अरुणाचल प्रदेश में चीन के साथ सीमा विवाद इस मामले को और जटिल बनाता है. स्वाभाविक रूप से भारत इस क्षेत्र में सुरक्षा स्थिति को लेकर सतर्क है. हालात उस समय गंभीर हो गए जब बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने मार्च के अंत में चीन की अपनी पहली राजकीय यात्रा के दौरान पूर्वोत्तर को लेकर विवादित टिप्पणी की. उन्होंने कहा, “पूर्वी भारत के सात राज्य, जिन्हें सेवन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है, लैंडलॉक्ड क्षेत्र हैं. समुद्र तक उनकी सीधी पहुंच नहीं है. इस पूरे क्षेत्र के लिए हम समुद्र के अकेले संरक्षक हैं. ये हमारे लिए विशाल अवसर प्रस्तुत करता है. ये चीन की अर्थव्यवस्था का विस्तार बन सकता है.” द्विपक्षीय बातचीत में सौदेबाज़ी के लिए किसी तीसरे देश का इस्तेमाल करना राजनीतिक रूप से संदेह पैदा करता है और यूनुस की टिप्पणी चीन को लेकर भारत की रणनीतिक संवेदनशीलता की अनदेखी करती है. ये बांग्लादेश के हित में पूर्वोत्तर की भौगोलिक मजबूरियों को भी उजागर करता है और नेपाल, भूटान एवं भारत के साथ व्यापार के रास्ते और संपर्क के लिए बांग्लादेश की इस क्षेत्र पर निर्भरता को नज़रअंदाज़ करता है. 

भारत की कूटनीतिक सावधानी 

इसके जवाब में भारत ने अपने ज़मीनी सीमा शुल्क केंद्रों, बंदरगाहों और हवाई अड्डों के ज़रिए किसी तीसरे देश को सामान का निर्यात करने की बांग्लादेश की ट्रांसशिपमेंट सुविधा को वापस ले लिया. भारत की इस कार्रवाई से दो प्रमुख कूटनीतिक उद्देश्य पूरे होते दिखाई दिए: बांग्लादेश की अंतरिम सरकार अपने देश के लिए एक महत्वपूर्ण भीतरी प्रदेश और रास्ते के रूप में पूर्वोत्तर के महत्व को महसूस करे क्योंकि उसकी दूसरी ट्रांसशिपमेंट सुविधाएं अभी भी समाप्त हैं; और अपने पूर्वी पड़ोसियों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दोहराना क्योंकि पूर्वोत्तर के ज़रिए ट्रांज़िट व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से नेपाल और भूटान भी प्रभावित होंगे. 

भारत के द्वारा शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर को विकसित करने का निर्णय इस क्षेत्र में उसके व्यापक कूटनीतिक फेरबदल के सामरिक विस्तार को दर्शाता है. एक तरफ तो ये पहल दिखाती है कि बांग्लादेश पर भारत अपनी निर्भरता कम करने का इरादा रखता है क्योंकि बांग्लादेश में हाल के दिनों में राजनीतिक उथल-पुथल ने उसके निवेश के माहौल की स्थिरता और भारत की रणनीतिक अनिवार्यताओं को लेकर नए प्रशासन की कथित असंवेदनशीलता के प्रति चिंता उत्पन्न की है. दूसरी तरफ ये परियोजना साथ में कलादान मल्टीमॉडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट (KMMTTP) के माध्यम से म्यांमार के साथ बेहतर भागीदारी के रास्ते भी खोलती है. इस तरह बंगाल की खाड़ी तक संपर्क का वैकल्पिक रास्ता मज़बूत हो जाएगा. ऐसा करने से यूनुस के द्वारा बांग्लादेश पर पूर्वोत्तर की निर्भरता के बारे में किए गए दावे को चुनौती मिलती है. साथ ही भारत की एक्ट ईस्ट रणनीति में एक महत्वपूर्ण साझेदार म्यांमार के साथ संबंधों को मज़बूत करने का भारत का प्रयास भी आगे बढ़ता है. 

कलादान कनेक्शन 

लंबे समय से भारत का उद्देश्य कनेक्टिविटी के अलग-अलग रास्ते तैयार करके अपने पूर्वोत्तर को मज़बूत करने का रहा है, विशेष रूप से म्यांमार, जिसके साथ वो अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर और मिज़ोरम से सटी 1,643 किमी लंबी सीमा साझा करता है, से जुड़ी दो प्रमुख परियोजनाओं के माध्यम से. भारत-म्यांमार-थाईलैंड (IMT) ट्राईलेटरल हाइवे और KMMTTP दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ पूर्वोत्तर के संपर्क में बड़ा बदलाव लाने वाले हैं. इनमें भी कलादान प्रोजेक्ट- जो म्यांमार के रखाइन प्रांत में स्थित सित्तवे बंदरगाह को कलादान नदी के माध्यम से पलेटवा और उसके आगे सड़क के ज़रिए मिज़ोरम के ज़ोरिनपुई तक जोड़ता है- भारत की एक्ट ईस्ट नीति के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. ये भारत के लैंडलॉक्ड पूर्वोत्तर को सीधे समुद्र से जोड़ने की सुविधा प्रदान करता है जिससे अधिक व्यापार, आवागमन और क्षेत्रीय एकीकरण की सुविधा मिलती है. मई 2023 में शुरू सित्तवे बंदरगाह ने अभी तक 150 से ज़्यादा जहाज़ों के आने की सुविधा दी है जो राहत सामग्री, सीमेंट, मशीनरी और उपकरण लेकर आए थे. भारत ने अप्रैल 2024 में औपचारिक रूप से बंदरगाह के संचालन का अधिकार हासिल किया. हालांकि म्यांमार के रखाइन प्रांत में बढ़ते संघर्ष की वजह से इस परियोजना का काम फिलहाल रुका हुआ है. रखाइन प्रांत में अराकान आर्मी सैन्य बलों से लगातार लड़ रही है. म्यांमार की अशांति अस्थिर क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे पर निवेश से जुड़ी कमज़ोरी के बारे में बताती है. हालांकि इसके बावजूद भारत कूटनीतिक और विकास भागीदारी से पीछे नहीं हटा है जो इस महत्वपूर्ण रूट को लेकर उसकी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है.  

वैसे तो कलादान प्रोजेक्ट का समुद्री हिस्सा चालू है लेकिन इसकी मल्टीमॉडल क्षमता को पूरी तरह से साकार करने के लिए बाकी 110 किमी के सड़क खंड को पूरा करना महत्वपूर्ण है. उबड़-खाबड़ इलाका होने, ज़मीन के मुआवज़े से जुड़े मुद्दों, अलग-अलग एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी और लगातार सुरक्षा ख़तरों, विशेष रूप से 2021 के तख्तापलट के बाद, की वजह से निर्माण परियोजनाओं को देरी का सामना करना पड़ता है. म्यांमार के स्थानीय ठेकेदारों के साथ निर्माण के काम की देखरेख इंडियन रेलवे कंस्ट्रक्शन इंटरनेशनल लिमिटेड (इरकॉन इंटरनेशनल) के द्वारा की जा रही है. लेकिन म्यांमार में उथल-पुथल भरी सुरक्षा स्थिति तीन साल के ठेके की समय-सीमा के बावजूद समय पर परियोजना पूरा होने को अनिश्चित बनाती है. 

भारत के द्वारा शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर को विकसित करने का निर्णय इस क्षेत्र में उसके व्यापक कूटनीतिक फेरबदल के सामरिक विस्तार को दर्शाता है. एक तरफ तो ये पहल दिखाती है कि बांग्लादेश पर भारत अपनी निर्भरता कम करने का इरादा रखता है.

व्यापक परिदृश्य पर विचार करें तो शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर को कलादान प्रोजेक्ट के साथ जोड़ना एक बड़ा परिवर्तनकारी कदम हो सकता है जो मिज़ोरम के रास्ते मेघालय और असम के लिए सित्तवे तक एक सुविधाजनक ज़मीनी रास्ता मुहैया कराएगा. एकीकृत कॉरिडोर समुद्र के ज़रिए कोलकाता से सित्तवे तक कार्गो ले जाने की सुविधा प्रदान करेगा. उसके बाद अंदर ही अंदर पलेटवा तक, फिर ज़मीन के रास्ते ज़ोरिनपुई तक और उसके आगे मिज़ोरम और सिलचर होते हुए सड़क या रेल के रास्ते से व्यापक पूर्वोत्तर तक ले जाने की सुविधा देगा (नक्शा 1 देखें). ये रणनीति अपनी क्षेत्रीय संपर्क की रूप-रेखा में रणनीतिक बाधाओं को शामिल करने की भारत की मंशा को रेखांकित करती है. इस तरह बदलती भू-राजनीतिक गतिशीलता के बीच लचीलेपन और परिवर्तनशीलता को सुनिश्चित करती है. 

इसके अलावा, इस तरह के बुनियादी ढांचे के सहयोग के ज़रिए म्यांमार के साथ संबंधों को मज़बूत करने से चीन के गहराते क्षेत्रीय प्रभाव का मुकाबला करने, विशेष रूप से चीन-म्यांमार आर्थिक कॉरिडोर (CMEC) जैसी पहल के माध्यम से, में भारत को मदद मिलेगी. इस तरह कलादान रूट का शुरू होना कनेक्टिविटी के साथ-साथ एक सामरिक आवश्यकता भी है जो पड़ोसियों और दुनिया भर के प्रतिस्पर्धियों को ये संकेत देगा कि अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करने और उन्हें आगे बढ़ाने के उद्देश्य से भारत निर्णायक रूप से कदम उठाने के लिए तैयार है. 

शिलॉन्ग-सिलचर और कलादान कॉरिडोर में निवेश करके भारत न सिर्फ बांग्लादेश पर पूर्वोत्तर की निर्भरता के बारे में यूनुस के दावे को खारिज कर रहा है बल्कि अपनी उभरती इंडो-पैसिफिक रणनीति में इस क्षेत्र को हाशिए पर रखने के बदले एक प्रवेश द्वार के रूप में फिर से स्थापित कर रहा है.

हालांकि बांग्लादेश और म्यांमार में उथल-पुथल इन वैकल्पिक रास्तों के निर्माण में बाधा उत्पन्न कर सकता है जिससे क्षेत्रीय एकीकरण के प्रयास जटिल हो सकते हैं. संघर्ष की आशंका वाले क्षेत्रों में कनेक्टिविटी की परियोजनाओं को अक्सर सुरक्षा के मामले में प्रतिकूल हालात का सामना करना पड़ता है जिससे विकास और वाणिज्य के उनके घोषित उद्देश्य पर असर पड़ता है. लेकिन ये प्रयास न केवल सुरक्षा के माहौल पर निर्भर होते हैं बल्कि स्थानीय समुदाय के विकास को प्राथमिकता देने पर भी. स्थानीय भागीदारों को सशक्त बनाने, समावेशी लाभ सुनिश्चित करने और इस तरह की परियोजनाओं में भरोसे को बढ़ावा देने से संघर्ष का ख़तरा कम हो सकता है और सामर्थ्य में बढ़ोतरी हो सकती है. इसलिए कलादान प्रोजेक्ट को सार्थक सामुदायिक एकीकरण और समृद्धि के उद्देश्य से एक मंच बनने के लिए सामरिक गणना से आगे बढ़ना होगा.अंत में, शिलॉन्ग-सिलचर कॉरिडोर और कलादान प्रोजेक्ट पर भारत का दोहरा ध्यान रणनीति में फेरबदल को दिखाता है जो न केवल उभरती भू-राजनीतिक चुनौतियों का समाधान करता है बल्कि भारत की एक्ट ईस्ट नीति और इंडो-पैसिफिक महत्वाकांक्षाओं में पूर्वोत्तर को एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में स्थापित भी करता है. 


सोहिनी बोस ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं. 

श्रीपर्णा बनर्जी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.

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